मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल।
मगर, लोग साथ जुड़ते गए और कारवाँ बढ़ता गया।।
‘‘राजनीती चले न चले, सरकार बने न बने. लेकिन, सामाजिक परिवर्तन की गति किसी भी कीमत पर नहीं रुकनी चाहिए : मान्यवर कांशीराम साहब ’’
मूलनिवासी बहुजन महापुरुषों के सदियों से चली आ रही ‘‘व्यवस्था परिवर्तन’’ के इस सामाजिक आन्दोलन के बारे में मान्यवर कांशीराम साहब कहा करते थे कि ‘‘राजनीती चले न चले, सरकार बने न बने. लेकिन, सामाजिक परिवर्तन की गति किसी भी कीमत पर नहीं रुकनी चाहिए’’ आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व तथागत गौतम बुद्ध द्वारा असमानता, जातिवाद और भेदभाव से युक्त सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ शुरू किया गया सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन चक्रवर्ती सम्राट अशोक से लेकर, संत रविदास, संत कबीर, वीर मेघमाया से होते हुए छत्रपति शाहूजी महाराज, राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले, माता सावित्रीबाई फुले, भारतरत्न बाबासाहब डॉ आंबेडकर तक आ पहुँचा.इन सभी महापुरुषों और माताओं ने अपने-अपने समयकाल में सैकड़ों कठिनाइयों का सामना करते हुए अथक संघर्ष, त्याग और बलिदान देकर मूलनिवासी बहुजनों का आंदोलन खड़ा किया. इस आंदोलन को डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने मनुवादियों से अकेले संघर्ष कर सदियों से दबे-कुचले, पिछड़े समाज को लिखित संवैधानिक अधिकार दिलाने में कामयाब हुए. बाबासाहब का अपने अनुयायियों को अंतिम संदेश था की, ‘‘मैं बहुत मुश्किल से इस कारवाँ को इस स्थिति तक लाया हूँ, जहाँ यह आज दिखाई दे रहा है. इस कारवाँ को आगे बढ़ने ही देना है, चाहे कितनी ही बाधाएं, रुकावटें या परेशानियाँ इसके रास्ते में क्यों न आएं. यदि मेरे लोग इस कारवाँ को आगे नहीं ले जा सकें, तो उन्हें इसे यहीं इसी दशा में छोड़ देना चाहिए, पर किसी भी हालत में कारवाँ पीछे नहीं जानी चाहिए’’
डॉ.बाबासाहब के महा-परिनिर्वाण के बाद उनका ये कारवाँ कुछ रुक सा गया था. इस मिशन को कोई मार्गदर्शक न मिला, जो इसे आगे बढ़ा सके और मंजिल तक ले जा सके. लगभग 22-23 साल तक मूलनिवासी बहुजन समाज में स्वाभिमानी नेतृत्व उभर कर नहीं आया, अगर कोई उभर कर आया भी तो वह कांग्रेसियों की चौखट पर उनके तलवे चाटने चला गया. अब मूलनिवासी बहुजनों के हकों की बागडोर चमचे और भडवे लोगों के हाथों में चली गई. ये चमचे अपना तो पेट भरते रहे, लेकिन अछूतों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया. ऐसे में डॉ. बाबसाहब अम्बेडकर के मूवमेंट को नेतृत्व प्रदान करने के लिए मान्यवर कांशीराम साहब का जन्म हुआ. मा.कांशीराम साहब का जन्म पंजाब के रोपड़ जिले में ख्वासपुर गांव में 15 मार्च, 1934 में रामदासिया चमार जाति में हुआ था. उनका बचपन अपने गांव ख्वासपुर में ही बीता और वहीं उनकी प्राथमिक शिक्षा पूरी हुई. 1956 में उन्होंने रोपड़ आकर बीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण की. 1957 में उन्होंने ‘सर्वे ऑफ इंडिया’ की प्रतियोगात्मक परीक्षा पास की और प्रशिक्षण के लिए चले गए. लेकिन, प्रशिक्षण के दौरान उनसे सर्विस ब्रांड भरने को कहा गया तो उन्होंने नौकरी छोड़ दी. इसके बाद वह पूना के रक्षा विज्ञान एवं अनुसंधान विकास संस्थान की ‘एक्सप्लोसिव रिसर्च लेबोरेटरी’ में अनुसंधान सहायक पद पर कार्यरत हो गए. इसी दौरान मा. कांशीराम साहब के साथ ऐसी घटना घटित हुई कि मान्यवर साहब की दिशा ही बदल दी.
पूना के रक्षा अनुसंधान संस्थान में मा.दीनाभाना साहब चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. उनके द्वारा बुद्ध और अंबेडकर जयंती पर अवकाश को लेकर ब्राह्मण अधिकारी से विवाद हो गया. ब्राह्मण अधिकारी ने मा.दीनाभाना साहब को निलंबित कर दिया. इस घटना ने कांशीराम को झकझोर दिया. इसके बाद उसी संस्थान में मा.डीके खापर्डे साहब भी थे. कांशीराम साहब की मुलाकात मा. डीके खापर्डे साहब से हुई. इसके बाद कांशीराम साहब और डीके खापर्डे साहब किसी की कोई परवाह किए बगैर मा. दीनाभाना साहब की कानूनी मदद की और न्यायालय तक ले गए, जहाँ उनकी जीत हुई. उसके बाद मा. दीनाभाना साहब को वापस लिया गया और बुद्ध, डॉ.अम्बेडकर जयंती की छुट्टी भी बहाल हुई. दीनाभाना साहब और डीके खापर्डे साहब ने मान्यवर कांशीराम को डॉ.बाबसाहब अम्बेडकर की लिखी किताब ”एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’’ पढ़ने के लिए दिया जिसे पढ़कर मान्यवर कांशीराम साहब ज्यादा प्रभावित हुए. अब उनको समझ में आ गया था कि ‘जाति’ ही सामाजिक व्यवस्था की सारी बुराईयों की जड़ है. उसके बाद कांशीराम 1964 में अपनी नौकरी छोड़ पूरी तरह सामाजिक एवं राजनीतिक बदलाव के लिए समर्पित हो गए. उन्होंने अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्ति पाने के लिए आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय भी ले लिया. कांशीराम ने अपने घरवालों को एक खत भेजा जिसमें साफ लिखा था ‘‘जब तक बाबासाहेब का सपना पूरा नहीं हो जाता, चैन से नहीं बैठूंगा’’
कांशीराम साहब मूलनिवासी बहुजन समाज को संगठित करने के लिए जुट गए और 6 दिसम्बर, 1978 को मा.दीनाभाना, मा.डीके खापर्डे और मा.कांशीराम साहब ने अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के कर्मचारियों को संगठित करने के लिए ‘‘बामसेफ’’ की स्थापना की. बामसेफ के माध्यम से कांशीराम साहब ने कार्यकर्ताओं की फौज और आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए निकल पड़े. फिर उन्होंने 6 दिसम्बर, 1981 को ‘डीएसफोर’ का गठन किया. मूलनिवासी बहुजन समाज की चेतना का प्रचार-प्रसार करने के लिए कांशीराम साहब ने साइकिल यात्राओं, जन संसदों, जन सभाओं आदि का आयोजन व्यापक स्तर पर किया. इन कार्यक्रमों का सिलसिला दक्षिण में कन्याकुमारी, उत्तर में कारगिल, उत्तर पूर्व में कोहिमा, पश्चिम में पोरबंदर और पूर्व में उड़ीसा से शुरु होकर पूरे देश में चलता हुआ दिल्ली में सम्पन्न हुआ. 6 दिसम्बर, 1983 से 15 मार्च, 1984 तक चले इस सौ दिनों के जन जागरण अभियान में लगभग तीन लाख लोगों ने हिस्सा लिया. कांशीराम साहब ने बामसेफ और डीएसफोर के 14 अप्रैल, 1984 को ‘बहुजन समाज पार्टी’ का गठन किया और बामसेफ की कमान मा.डीके खापर्डे साहब को सौंपकर बाहर हो गये. कांशीराम साहब कहते थे कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए मूलनिवासी बहुजन समाज को छः हजार जातियों में विभाजित कर दिया. इसलिए मा.कांशीराम साहब ने इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को नष्ट करने के लिए छः हजार जातियों को संगठित करने के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया. ऐसे मूलनिवासी बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम साहब के 13वें स्मृति दिवस पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से कोटि-कोटि नमन्.
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