संसद की गंभीरता कितनी है
संसद का बजट सत्र शुरू होने वाला है. यह सत्र इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बजट बहुत सख्त होगा, जैसा कि अमेरिका चाहता है. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का मानना है कि हिंदुस्तान में हर तरह की सब्सिडी या आर्थिक सहायता बंद होनी चाहिए. दरअसल, अमेरिका भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था के रूप में देखना चाहता है, जिसका जीना या मरना अमेरिकी हितों से सीधे जुड़ा हुआ हो. बीच में यह ख़तरा पैदा हो गया था कि शायद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने पैरों पर खड़ी होकर उतनी ताक़तवर हो जाए कि वह चीन का मुक़ाबला करने लगे, लेकिन अमेरिकी अर्थशास्त्रियों को लगा कि अगर भारतीय अर्थव्यवस्था चीन की तरह मज़बूत होने के रास्ते पर चल पड़ी, तो वह कभी अमेरिका को उसी तरह चुनौती देगी जैसे आज चीन अमेरिकी अर्थव्यवस्था को चुनौती दे रहा है. इसलिए भारत सरकार के आर्थिक सुधारों के नाम पर उठाए गए आत्मघाती क़दमों को अमेरिकी आदेश के पालन के रूप में देखना चाहिए. इस बार कठोर बजट की आशा करनी चाहिए. अगर बजट कठोर न हुआ, तो मानना चाहिए कि कांग्रेस चुनाव की ओर जा रही है, लेकिन इस बार यह तय है कि कांग्रेस चाहकर भी लोगों को राहत देने वाला बजट नहीं ला सकती. इसके पीछे अर्थ शास्त्रियों का मानना यही है कि सरकार ने फैसले ही ऐसे कर लिए हैं, जो उसे आसान बजट की राह पर नहीं ले जाते हैं. इसलिए हमें यह जरूर मान लेना चाहिए कि आने वाला बजट महंगाई के नए कीर्तिमान स्थापित करने के लिए न केवल रास्ते खोल देगा, बल्कि भ्रष्टाचार को क़ानूनी संरक्षण मिले, इसका दरवाज़ा भी खोलेगा. सच तो यह है कि संसद के इसी बजट सत्र में संसद को अपनी बेशर्मी पर ताली बजाते देखने का सौभाग्य हमें मिलेगा. आश्चर्य की बात तो यह है कि जब अन्ना हजारे के अनशन को समाप्त करवाने के लिए संसद की बैठक हुई थी और उसमें जिस सर्वसम्मत प्रस्ताव को पास किया गया था, उसकी अवहेलना का ध्यान संसद को आज तक नहीं आया है. दरअसल, प्रधानमंत्री ने अन्ना हजारे को ख़त लिखकर जिन-जिन विषयों को लोकपाल बिल में शामिल करने का वादा किया था, अब वे विषय भी लोकपाल बिल में शामिल नहीं हैं. ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि राजनीतिक दलों को लोकपाल के दायरे से बाहर क्यों रखा गया है. तुर्रा यह कि कॉरपोरेट सेक्टर भी लोकपाल के दायरे से बाहर है. और तो और, लॉ इंफोर्समेंट एजेंसीज जैसे सीबीआई तो लोकपाल के दायरे में हैं ही नहीं. तब यह लोकपाल क्यों आ रहा है? यहां सवाल यह भी उठता है कि भारत की संसद प्रस्ताव पास करे और बाद में इससे मुकर जाए, तो देश की जनता ऐसी संसद को क्या समझे? 120 करोड़ की जनसंख्या वाले देश का प्रधानमंत्री अगर लिखित वादे करे और उन वादों पर अमल न करे, तो उसे प्रधानमंत्री की बेईमानी माना जाना चाहिए या नहीं? सरकार की साख आख़िर कैसे बनती है और कैसे बिगड़ती है, इसके बारे में अगर कोई एक उदाहरण सामने रखना हो, तो भारत के पिछले प्रधानमंत्रियों के उदाहरण काफ़ी हैं. संसद में कही गई बातों पर इंदिरा गांधी जितनी चिंतित रहती थीं और उन बातों कोअमल में लाने में जितनी रुचि लेती थीं, यह अब तक लोगों को याद है. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने स़िर्फ इसलिए इस्त़िफा दिया था, क्योंकि उनसे जब अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि अयोध्या में अगर वह पांच ईंटें रखने दें, तो वह सरकार से समर्थन वापस नहीं लेंगे. लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उनसे कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मैं पालन नहीं करा सका, तो मैं किस बात का प्रधानमंत्री. भारत के दूसरे प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने स़िर्फ इसलिए त्यागपत्र दे दिया था कि वह भारत के प्रधानमंत्री को रोज़ाना आदेश लेने वाला प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहते थे.
भारत की संसद प्रस्ताव पास करे और बाद में इससे मुकर जाए, तो देश की जनता ऐसी संसद को क्या समझे? 120 करोड़ की जनसंख्या वाले देश का प्रधानमंत्री अगर लिखित वादे करे और उन वादों पर अमल न करे, तो उसे प्रधानमंत्री की बेईमानी माना जाना चाहिए या नहीं? सरकार की साख आख़िर कैसे बनती है और कैसे बिगड़ती है, इसके बारे में अगर कोई एक उदाहरण सामने रखना हो, तो भारत के पिछले प्रधानमंत्रियों के उदाहरण काफ़ी हैं.
हालांकि जब संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हो रही थी, तो चंद्रशेखर जी के पास श्री राजीव गांधी का संदेश पहुंचा कि वह इस्त़िफा न दें, कांग्रेस उनका फिर से समर्थन करेगी. चंद्रशेखर ने इस संदेश वाले काग़ज़ के टुकड़े को फाड़कर फेंक दिया. अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद को एक पवित्र मंदिर माना और इसीलिए उन्होंने संसद का हमेशा वैसा ही सम्मान भी किया. लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि न संसद, न प्रधानमंत्री और न संसद में बैठे उसके सदस्य अपनी कही बातों पर क़ायम रहते हैं. शायद इसीलिए स्थिति को देखकर कहावत बनी है कि इस हमाम में सब नंगे होते हैं. इसी समय अन्ना हजारे अपनी देशव्यापी यात्रा शुरू कर रहे हैं. उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों में न केवल जनलोकपाल शामिल है, बल्कि भ्रष्टाचार भी शामिल है. अब उन्होंने व्यवस्था परिवर्तन को भी इसमें शामिल कर लिया है. अब सवाल ये भी उठता है कि अगर अन्ना हजारे की सभाओं में फिर से भीड़ जुटने लगी और उन्हें जनसमर्थन मिलने लगा, तो क्या संसद और जनता आमने-सामने खड़े होंगे? जिस बात को देखकर अफ़सोस होता है, वह सरकार, संसद और राजनीतिक दलों की, जनता की तकलीफ़ के प्रति असंवेदनशीलता है. सरकार, संसद और राजनीतिक दलों को अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ढांचे के यानी गवर्नेंस के बिगड़ते स्वरूप ने लोगों को कितना परेशान कर रखा है. महंगाई बढ़ाने के हर तरी़के पर सरकार, संसद और राजनीतिक दलों की लगभग एक राय है. रस्मी विरोध होता है और रस्मी विरोध ख़त्म भी हो जाता है. इसी तरह भ्रष्टाचार पर रोक का कोई सार्थक उपाय किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है, क्योंकि राजनीतिक दल कहीं न कहीं सरकार में हैं और वे सब लगभग एक चरित्र के दिखाई देने लगे हैं. बजट सत्र से कोई आशा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अब हर संसद का सत्र जनता की आशाओं को समाप्त कर रहा है. इतना ही नहीं, अगर संसद का नज़ारा देखना हो, तो आप एक बजे के बाद लोकसभा चैनल को देखिए. सांसदों की सदन में उपस्थिति, चाहे वह राज्यसभा हो या लोकसभा, आपको बता देगी कि गंभीरता कितनी है? जब पार्टियों के नेता ही सदन में न हों, तो उनके फॉलोवर सदन में क्यों होंगे? इसलिए ऐसी संसद से, इसके किसी सत्र से या बजट सत्र से कैसी उम्मीदें पालनी चाहिए, फैसला आपको करना है.
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