जनता से टकराने की कोशिश मत कीजिए
संसद सर्वोच्च है, संसद पवित्र है, संसद लोकतंत्र का मंदिर है और हिंदुस्तान में संसद आज आम आदमी के सुख, सुरक्षा और लोकतंत्र की गारंटी है. इसी संसद ने 1950 में एक संविधान बनाया था. 1950 के बाद संसद का यह धर्म था कि वह संविधान की मूल भावना की रक्षा करे. सवाल यह है कि क्या संसद ने 1950 में बने संविधान की आत्मा, संविधान की भावना की रक्षा की? इस सवाल का जवाब देश की जनता को तलाशना है और आज संसद में जो लोग हैं, उन्हें इस सवाल का जवाब देना है. एक विडंबना यह भी है कि संसद में ऐसे लोग ज़्यादा हैं, जो अपनी जवानी के दिनों में जनता के हित, हक़ और सुख के लिए लड़ते रहे हैं. ये नेता मुखर भी हैं, लेकिन इन नेताओं की आज की भाषा और तीस साल पहले की भाषा की तुलना करें तो पाएंगे कि कंप्लीट ट्रांसफॉर्मेशन यानी पूरा रूपांतरण हो गया है, जिसे हम व्यक्ति का चरित्र बदलना कहते हैं, चरित्र बदल गया है. एक ज़माना था, जब मुलायम सिंह यादव, शरद यादव एवं शिवानंद तिवारी जैसे लोग आंदोलनों का हिस्सा हुआ करते थे और वे नारा लगाते थे, सच कहना अगर बग़ावत है तो समझो हम भी बागी हैं. यह और बात है कि उस समय यह नारा श्रीमती इंदिरा गांधी को ध्यान में रखकर लगाया जाता था. थोड़े दिनों तक उन्होंने इस नारे को या ऐसे ही नारों को राजीव गांधी को ध्यान में रखकर लगाया था. उनके इस नारे का साथ देश की जनता ने दिया और आज न केवल ये तीन नेता, बल्कि अरुण जेटली एवं सुषमा स्वराज जैसे लोग देश के बड़े नेताओं की श्रेणी में आ गए हैं. अब ये सब संसद में हैं. आशा यह करनी चाहिए कि ये संसद में होंगे और संसद में ज़्यादातर भाषण, ज़्यादातर क़दम जनता के हितों के लिए उठाए जाएंगे, पर पिछले 15-20 सालों से हम देख रहे हैं कि संसद में बहुत कुछ ऐसा होता है, जो जनता के हित के खिला़फ होता है. इसी दौरान संसद में लिब्रलाइजेशन पॉलिसी आई, बाज़ार शब्द घुसा, बाज़ार नियंत्रित नीतियां बनने लगीं. आज मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं है कि यह पूरी संसद मार्केट रूल से गाइड हो रही है. सन् 1950 के संविधान, जिसमें समाजवादी अवधारणा, पंथनिरपेक्षता एवं लोक कल्याणकारी गणराज्य की बात की गई थी, समानता एवं भाईचारा जैसे आदर्श रखे गए थे, उन सारी चीजों को आज अगर तलाशें तो संसद के किसी कोने में न तो उसकी गूंज सुनाई देती है, न छाप दिखाई देती है. दिखाई क्या देता है? दिखाई देता है कि जनता अगर कहीं आवाज़ उठाती है तो उस आवाज़ के ख़िला़फ संसद में आवाज़ उठती है. जनता के हित में यह बाज़ार नहीं है, अब यह संसद में सुनाई नहीं पड़ता. महंगाई को लेकर सालों बीत जाते हैं, रस्मी तौर पर बहस होती है, लेकिन संसद चिंतित नज़र नहीं आती. भ्रष्टाचार को लेकर बहस होती है, लेकिन संसद परेशान नहीं होती, क्योंकि महंगाई और भ्रष्टाचार अब आज के सांसदों की चिंता रही नहीं, क्योंकि ये उन्हें परेशान नहीं करती, ये उससे परे चले गए हैं. जनता की आवाज़ अब संसद को हिलाती नहीं. क्योंकि जो लोग जनता की आवाज़ लेकर संसद के सामने प्रदर्शन करते थे, संसद को हिलाने का दावा करते थे, आज वही लोग संसद में बैठकर जनता को आंखें दिखाने का काम कर रहे हैं.
अफसोस इस बात का है कि वे लोग, जो कभी जनता के आंदोलनों के अगुवा माने जाते थे, आज सत्ता की भाषा बोल रहे हैं. सत्तारूढ़ दल के लोग इतनी ग़ैर ज़िम्मेदारी की बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन्हें बचाने में पता नहीं क्यों, संसद में हर कोई आगे आ रहा है. आज जो सेना की हालत है, वह दो सालों में नहीं हुई है. सेना की यह हालत नरसिम्हा राव के समय से शुरू हुई, जब सेना में खुले बाज़ार का प्रवेश हुआ, जब सेना में खुलेआम बाज़ार से सामान ख़रीदने की कोशिश हुई और नतीजे के तौर पर घनघोर रिश्वत दी गई. हर साल साठ हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च हुए सेना के हथियारों पर, तो फिर आज वायु सेना, जल सेना और थल सेना की यह हालत कैसे हो गई? यह सवाल इन सांसदों में चिंता नहीं पैदा करता.
ये लोग जब आंदोलन करते थे तो देश के लोगों को लगता था कि ये हमारी भाषा बोल रहे हैं और आज जब ये संसद में बोलते हैं तो जनता को लगता है कि ये तो कोई और लोग हैं. ये वे लोग नहीं हैं, जो हमारा नेतृत्व किया करते थे, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी के ऊपर देश को ठप्प करने का काम करते थे, आंदोलनों की अगुवाई करते थे. ऐसा कैसे हो गया कि जनांदोलनों को शरद यादव, मुलायम सिंह यादव एवं शिवानंद तिवारी जैसे लोग पसंद न करें. ऐसा कैसे हो गया कि देश की चिंता अब इन्हें नहीं रही. ऐसा कैसे हो गया कि जो सच्चाई की बात करे, उसे ये लोग देशद्रोही कहने लगें, बेईमान कहने लगें. दो घटनाएं प्रमुखता से याद आती हैं. अन्ना के आंदोलन में सारे देश के लोगों की भावना जुड़ गई थी, लेकिन सांसदों को लगा या कहें कि संसद को लगा कि यह जनता की भावना नहीं है. यह तो कुछ सिरफिरे लोगों की भावना है. देश में फैले भ्रष्टाचार रूपी कैंसर को जनता अगर ठीक करने का आग्रह संसद से करे तो संसद को लगता है कि जनता का दिमाग़ ख़राब हो गया है. अगर जनता जन लोकपाल बिल के नाम पर अन्ना का समर्थन करे तो संसद को लगता है कि इससे देश में कामकाज रुक जाएगा. अन्ना ने कभी नहीं कहा कि जो जन लोकपाल वह प्रस्तुत कर रहे हैं, वही लागू हो. उन्होंने यह ज़रूर कहा कि उनके जन लोकपाल को सारे देश में बहस के लिए संसद अपनी तऱफ से प्रसारित करे और संसद अपना बिल भी जनता के बीच बहस के लिए प्रसारित करे, लेकिन संसद ने दोनों में से कोई काम नहीं किया.
दूसरी घटना सेना अध्यक्ष जनरल वी के सिंह को लेकर है. जिस तरह संसद में ग़ैर ज़िम्मेदाराना कृत्य सांसदों का दिखाई पड़ा, उससे हम, जो संसद के बाहर हैं, हमें शर्म आई कि हम ऐसे लोगों को अपना नेता मानते हैं, जिन्हें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं है. सांसदों ने कहा, सेना अध्यक्ष का दिमाग़ ख़राब हो गया है, सेना अध्यक्ष राजनीति में आना चाहता है, सेना अध्यक्ष देश को बदनाम कर रहा है. यह कौन लोग कह रहे थे, जो ख़ुद संदेह और आरोप के दायरे में घिरे हुए हैं. सेना अध्यक्ष ने मुद्दा उठाया, सांसदों को यह भी चिंता नहीं हुई कि पता करें कि यह चिट्ठियों की कड़ी है या फिर अकेली चिट्ठी है. लेकिन कैमरा सामने आते ही सांसदों को ऐसा लगता है कि कुछ न कुछ बोलना चाहिए, ताकि वे टीवी पर दिखाई दें, लेकिन वे नहीं जानते कि जितनी ग़ैर ज़िम्मेदारी की बातें उन्होंने की हैं, उससे देश की जनता में उनके प्रति प्यार नहीं बढ़ रहा है. उन्हें इस बात का एहसास शायद तब होगा, जब पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका होगा. अब हमारे ये वीर सांसद वही बातें सुनना चाहते हैं, जो इनकी चापलूसी की हो, जो इनकी तारी़फ की हो और जो कहे कि वाह, आपने तो मोहनदास करमचंद गांधी से भी बड़ी बात कह दी, डॉ. लोहिया से भी बड़ी बात कह दी, वे लोग किस खेत की मूली थे. आप ही हैं, जो हैं. शायद इसलिए ये सांसद अपनी उस ज़मीन से कट गए हैं, जिसने इन्हें संसद में भेजा है. क्या देश का नौजवान, जो बेकारी से कराह रहा है, वह इन सांसदों की या इस संसद की इज़्ज़त करेगा? इन सांसदों को तो यह भी पता नहीं है कि जब बाज़ार आधारित अर्थ नीति बनी थी तो उस समय देश के साठ जिले नक्सलवाद के प्रभाव में थे. आज जबकि ये सांसद बढ़-चढ़कर देश और देश के लोगों के गुस्से का मज़ाक उड़ा रहे हैं, देश के लगभग 260 जिले ऐसे हैं, जो नक्सलवाद के प्रभाव में हैं.
इसका मतलब कि जैसे-जैसे बाज़ार का प्रभुत्व देश की नीतियों पर बढ़ा, वैसे-वैसे देश के लोगों के हाथ में हथियार भी बढ़े. इसलिए बढ़े, क्योंकि भूख, बेकारी, पिछड़ेपन, अवसर न होने की निराशा लोगों के हाथ में हथियार पकड़ने के लिए तर्क दे गई. इसकी चिंता इन सांसदों को नहीं है. हमें इन सांसदों का एक भी भाषण याद नहीं है, जो इस चिंता को देश के सामने रखता हो. हो सकता है, ये सांसद ईमानदार हों, इन्होंने अपने रुख़ के लिए अंतरराष्ट्रीय हथियारों के दलालों से कोई पैसा न लिया हो. शायद नहीं लिए होंगे, क्योंकि यह विश्वास करना कठिन है कि शरद यादव, मुलायम सिंह यादव या शिवानंद तिवारी जैसे लोग पैसे ले सकते हैं. लेकिन हथियारों के दलाल तो चारों तऱफ यही फैला रहे हैं कि जितने भी संभावित मुखर सांसद हो सकते थे, वे सब अब हमारे पक्ष में बयान देंगे और मौजूदा सेना अध्यक्ष को, जिसके ऊपर एक धब्बा नहीं है, उसे संपूर्ण तौर पर कालिख में पुता हुआ दिखाएंगे और जाने या अनजाने, इन सांसदों ने हथियार के दलालों की बातों को सच साबित किया. शायद अपने वक्तव्य की गंभीरता का एहसास संसद के इन महान सांसदों को नहीं है. इन सांसदों को हम बता दें कि अगर जनरल वी के सिंह के ऊपर एक भी आरोप होता तो सरकार उन्हें अब तक सूली पर चढ़ा चुकी होती यानी उसका बहाना लेकर उन्हें निकाल चुकी होती. इन सांसदों को यह नहीं लगता कि आरोपों से घिरे हुए आप ख़ुद हैं और आप दूसरे के ऊपर उंगली उठा रहे हैं, जो ईमानदार है. आप सोचते हैं कि देश की जनता आपकी आरती उतारेगी, आपकी पूजा करेगी. शायद ऐसा अब नहीं होगा. अब जो नौजवान निर्णायक स्थिति में आ रहा है, वह दावों और भ्रम की भाषा से अलग हक़ीक़त देख रहा है कि वह जहां रह रहा है, वहां के क्या हालात हैं. आप जो बोलते हैं और वह जिस ढंग की ज़िंदगी जी रहा है, उसमें कोई तारतम्य है भी या नहीं. एक वरिष्ठ नेता ने संसद में बयान दिया, लगता है जनरल सिंह चुनाव लड़ने वाले हैं. इसमें ग़लत क्या है? जनरल सिंह सेना अध्यक्ष रहते हुए चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन अगर वह सेना अध्यक्ष न रहें, लोगों के बीच जाएं, लोग उनसे कहें कि आप चुनाव लड़ें और वह चुनाव लड़ने के लिए हां कर दें तो इसमें ग़लत क्या है? क्या इस संसद में वही जा सकते हैं, जिन पर आईपीसी की धाराएं लगी हों. अगर सांसदों को यह नहीं पता है तो हम दोबारा यह छापें कि कितने सांसदों के ऊपर आईपीसी की कितनी धाराओं के अंतर्गत कितने मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें वे बरी भी हो सकते हैं, लेकिन उन्हें सज़ा भी हो सकती है. ऐसे उदाहरण कम नहीं हैं, जिनमें सजाएं हुई हैं. बहुतों के साथी उसी आरोप में जेल गए हुए हैं, जो आरोप उनके ऊपर अभी लगे हैं. एक कहावत है हिंदुस्तान में, सूप तो सूप चलनी भी बोले.
अफसोस इस बात का है कि वे लोग, जो कभी जनता के आंदोलनों के अगुवा माने जाते थे, आज सत्ता की भाषा बोल रहे हैं. सत्तारूढ़ दल के लोग इतनी ग़ैर ज़िम्मेदारी की बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन्हें बचाने में पता नहीं क्यों, संसद में हर कोई आगे आ रहा है. आज जो सेना की हालत है, वह दो सालों में नहीं हुई है. सेना की यह हालत नरसिम्हा राव के समय से शुरू हुई, जब सेना में खुले बाज़ार का प्रवेश हुआ, जब सेना में खुलेआम बाज़ार से सामान ख़रीदने की कोशिश हुई और नतीजे के तौर पर घनघोर रिश्वत दी गई. हर साल साठ हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च हुए सेना के हथियारों पर, तो फिर आज वायु सेना, जल सेना और थल सेना की यह हालत कैसे हो गई? यह सवाल इन सांसदों में चिंता नहीं पैदा करता. आपके ही साथी, आपके ही समर्थक, कोई न कोई विदेशों को सूचना सप्लाई करते हैं. यह जो सूचना सामने आई है, क्या दुश्मन के पास नहीं होगी? दुश्मन के पास इससे भी भयानक सूचनाएं होंगी, क्योंकि विदेश मंत्रालय में चोरी हो जाती है. आपको चिंता नहीं होती कि कैसे विदेश मंत्रालय में चोरी हो गई. प्रधानमंत्री कार्यालय से वित्त मंत्री का खत लीक हो जाता है. आपको चिंता नहीं होती कि प्रधानमंत्री कार्यालय से कैसे खत लीक हो रहे हैं. कोई महकमा हमारा सुरक्षित नहीं है. जब एक खत सामने आता है, ईमानदारी भरा खत कि हमारे देश की हालत ख़राब है, ठीक कीजिए और वह उस स्थिति में आता है, जब राजनेता उस बात को नहीं सुन रहे हैं, तो आपको लगता है कि देश का बड़ा अहित हो गया. मैं आप महान सांसदों से और संसद के तमाम सांसदों से निवेदन करना चाहता हूं कि स्वयं को ईश्वर मत समझिए, स्वयं को जनता की इच्छाओं के ऊपर मत समझिए, स्वयं को तानाशाह मत समझिए. वे दिन याद कीजिए, जब आप सड़कों पर नारे लगाते थे और पुलिस आपको पीटती थी. आज आप जनता को गोली मरवाने की नीति का समर्थन करने जा रहे हैं. आप अगर इस देश के लोगों की इच्छाओं के खिला़फ काम करेंगे तो इस देश की जनता आज तो संसद को ठीक करने की मांग कर रही है, कल हो सकता है कि वह इस संसद को भंग करने की मांग करे. यह संसद जनता की आकांक्षाओं के लिए कभी बहस नहीं करती. आप इर्रेलिवेंट हो गए हैं. आपको तो यह भी पता नहीं है कि कौन सा क़ानून बनने जा रहा है, कौन सा क़ानून बनेगा. आपमें तो इतनी भी शर्म नहीं बची कि 29 तारीख़ को संसद इसलिए स्थगित हो गई कि 10 प्रतिशत लोग भी वहां नहीं पहुंचे. राज्यसभा स्थगित हो गई, लोकसभा में भी लोग नहीं. जिस चीज के लिए जनता आपको वहां भेजती है, जिसके लिए टैक्सपेयर का इतना पैसा आपके ऊपर ख़र्च होता है और आप संसद में बैठने में भी शर्म महसूस करते हैं और बाहर निकल कर जनता को आंखें दिखाते हैं. इस देश की सेना और जनता, दोनों ने हाथ मिला लिया है और उसकी नज़र आपके एक-एक क़दम के ऊपर है. मेरा अनुरोध है, संभलिए, संभलने का व़क्त ख़त्म हो रहा है. ठीक उसी तरह, जैसे मुट्ठी में बालू को बांधने का एक निश्चित तरीक़ा होता है और आप वह तरीक़ा भूल चुके हैं. जनता ख़तरनाक है, जनता के गुस्से से डरिए सांसद महोदय! इस पूरी संसद को हिंदुस्तान की जनता से, नौजवानों से, ग़रीबों और वंचितों से डरना चाहिए. अगर जरा भी शर्म होगी तो हो सकता है, अभी डेढ़ साल बाक़ी है, आप यह बताएं कि नहीं, हम कुछ कर रहे हैं. हमें निकालने की, हमें भंग करने की मांग मत करो. शायद जनता मान जाए. लेकिन अगर आपके यही तेवर रहे तो मैं आपसे वायदा करता हूं कि यह जनता इस संसद को भंग करने की मांग उठाएगी और आप जब चुनाव लड़ेंगे तो आपको दिन में तारे दिखाई दे जाएंगे
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