एक नई आर्थिक नीति की देश में जरूरत है।
दरअसल, सांप्रदायिकता से भी एक और ख़तरनाक चीज है, वह है नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था, जिसे 1991 में नरसिम्हाराव जी के प्रधानमंत्रित्व काल में मनमोहन सिंह ने लागू किया था. मजे की बात यह है कि इस अर्थ व्यवस्था को भारतीय जनता पार्टी भी मानती है और तीसरे सवार अरविंद केजरीवाल भी मानते हैं. बिना संविधान को बदले संविधान को बदलने की कोशिश करने वाली कांग्रेस का समर्थन भारतीय जनता पार्टी यह कहकर करती है कि कांग्रेस ने उदारवादी बाज़ार व्यवस्था को ठीक से लागू नहीं किया, वह इसे ठीक से लागू करेगी.
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते दिखाई दे रहे हैं और ऐसे लोग, जिन्हें किसी भी क़ीमत पर लोकसभा में जाना है या जो समझते हैं कि उन्हें नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में जगह मिल जाएगी, वे लोग मोदी के साथ चले गए हैं. राम विलास पासवान एवं जगदंबिका पाल दो अलग-अलग पार्टियों के सांसद हैं. राम विलास पासवान अपनी पार्टी के अध्यक्ष भी हैं और लालू यादव ने उन्हें 2009 के चुनाव में हार जाने पर राज्यसभा में भेजा था. जगदंबिका पाल कांग्रेस पार्टी के सांसद हैं और उन्हें गुस्सा है कि उन्हें मंत्री क्यों नहीं बनाया गया या उत्तर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष क्यों नहीं बनाया गया. दोनों ही भारतीय जनता पार्टी में चले गए. यह अलग बात है कि दोनों देश के अधिकांश लोगों की तरह विचारों को तिलांजलि देकर नरेंद्र मोदी के साथ गए हैं. राम विलास पासवान के बयान सांप्रदायिकता के साथ कहीं मिलते नहीं दिखाई देते. जगदंबिका पाल ने सारी ज़िंदगी सांप्रदायिकता का विरोध किया, लेकिन अब इस चुनाव में उन्हें नरेंद्र मोदी में सांप्रदायिकता नज़र नहीं आती. और हो सकता है कि ये दोनों जल्दी ही यह बयान दें कि नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक नहीं हैं.राम विलास पासवान ने तो बड़ी सफाई से सांप्रदायिकता और 2002 का गुजरात दंगा, दोनों को मिला दिया और उन्होंने कहा कि चूंकि अदालत ने नरेंद्र मोदी को सजा नहीं दी है, इसलिए मोदी सांप्रदायिक नहीं हैं. सांप्रदायिक विचारधारा होती है और उस विचारधारा को मानने वाले सांप्रदायिक होते हैं. जो धर्मनिरपेक्ष होते हैं या सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ होते हैं, वह भी विचारधारा ही होती है. पर अब हमारे देश में विचारधारा का कोई मतलब ही नहीं है.दरअसल, सांप्रदायिकता से भी एक और ख़तरनाक चीज है, वह है नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था, जिसे 1991 में नरसिम्हाराव जी के प्रधानमंत्रित्व काल में मनमोहन सिंह ने लागू किया था. मजे की बात यह है कि इस अर्थ व्यवस्था को भारतीय जनता पार्टी भी मानती है और तीसरे सवार अरविंद केजरीवाल भी मानते हैं. बिना संविधान को बदले संविधान को बदलने की कोशिश करने वाली कांग्रेस का समर्थन भारतीय जनता पार्टी यह कहकर करती है कि कांग्रेस ने उदारवादी बाज़ार व्यवस्था को ठीक से लागू नहीं किया, वह इसे ठीक से लागू करेगी. अरविंद केजरीवाल भी कहते हैं कि सरकार का काम उद्योग या व्यापार चलाना नहीं है, सरकार का काम शासन करना है. उन्होंने यह भी कहा कि नौकरियां सरकार के पास नहीं हैं, नौकरियां तो उद्योगपति दे सकते हैं. हमारे देश में लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान में की गई है और सरकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे लोगों को भूख, प्यास,बेरोज़गारी, महंगाई एवं भ्रष्टाचार से निजात दिलाएंगी, क्योंकि यह लोगों की सरकार है, यह पूंजीपतियों का मैनेजमेंट स्टेबलिसमेंट नहीं है. हिंदुस्तान के लोगों की चुनी हुई सरकार है. और जिस देश में 70 प्रतिशत लोग महंगाई, बेरोज़गारी एवं भ्रष्टाचार से परेशान हैं, जहां विकास नहीं है, जहां विकास जा नहीं रहा है. सरकार से अपेक्षा की गई है कि वह इन सारी समस्याओं का हल निकालेगी और इसकी ज़िम्मेदारी निभाएगी. लेकिन, अब सरकारें ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही हैं और भारत की जनता को बाज़ार के भरोसे छोड़कर निश्ंिचत हो गई हैं. कालाहांडी में मौत से जूझ रहे बच्चे इस देश में चिंता का विषय बनते थे, अब कोई कालाहांडी जैसी जगहों की बात नहीं करता. ग़रीब, आदिवासी, दलित एवं कमजोर वर्ग के लोग, जिनमें अल्पसंख्यक भी शामिल हैं, के बारे में अब सरकारें चिंता नहीं करतीं, क्योंकि नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था इन्हें अपने दायरे में मानती ही नहीं है.नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था सौ प्रतिशत लोगों की ज़िंदगी में कैसे विकास की रोशनी आए, इसके बारे में योजना नहीं बनाती, बल्कि किस तरह से 7 से 10 प्रतिशत लोगों की ज़िंदगी आराम से चले और बाकी सारे लोग उन 7 से 10 प्रतिशत लोगों की ज़िंदगी को आराम से चलाने का पुर्जा बन जाएं, इसके लिए काम करती है. आने वाला चुनाव बहुत समझदारी के साथ इस देश की जनता कैसे लड़े, यह एक करोड़ रुपये का सवाल है. इसे अंगे्रजी में मिलियन डॉलर का सवाल कहते हैं.
आगे आने वाले चुनाव के बाद यह देश दो तरह के रास्तों पर चलने के बारे में सोचेगा. पहला रास्ता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरा़ेजगारी, शोषण और विकास से अलगाव की पीड़ा झेलते हुए किसी तरह जीना और जब न जी सको, तो आत्महत्या करके मर जाओ. जैसे आज किसान कर रहे हैं. इस बाज़ार व्यवस्था ने भारतीय कृषि की कमर तोड़ दी है और किसानों को मरने के लिए बेसहारा छोड़ दिया है. अब किसानों की आत्महत्या समाचारपत्रों और टेलीविजन में जगह नहीं पाती. किसानों के लड़के ही सेना में हैं और किसानों के लड़के ही नौकरशाही में हैं, लेकिन वे लड़के इस बाज़ार व्यवस्था की वजह से अपने ही परिवार की दुर्दशा का कारण बन रहे हैं और किसानों के लिए, खेती के लिए कुछ नहीं सोच रहे हैं. किसानों की जमीन छीनी जा रही है, अधिग्रहीत की जा रही है और सस्ते दामों में बिल्डर्स को बेची जा रही है. किसान का उत्पाद लागत के हिसाब से घाटे का सौदा हो गया है. इसके बावजूद देश के 60 से 70 प्रतिशत लोगों के पास खेती के अलावा कोई चारा नहीं है. सरकार खेती को उत्पादक बनाने के बारे में नहीं सोच रही है, इसलिए यह डर पैदा हो गया है कि किसान कहीं पर इतना न निराश हो जाए कि वह भी असंवैधानिक रास्ते अपनाने के बारे में सोचने लगे. और जब तक नहीं सोचेगा, तब तक 2014 के बाद इसी सिस्टम में, जो उसकी दुर्दशा का कारण है, शायद वह जीने के लिए विवश रहेगा.
और दूसरा रास्ता है कि अभी से इसके ख़िलाफ़ लड़ने की कोशिश की जाए. जो लोग नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां चाहते हैं, वे समझें कि यह आर्थिक नीति उनके हित में नहीं है, क्योंकि इस आर्थिक नीति ने महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी बढ़ाई है और यह आर्थिक नीति इन चीजों को आगे बढ़ाएगी ही, क्योंकि इसमें महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी बढ़ाने के तत्व अंतर्निहित हैं. इसका मतलब है कि जो लोग बदली हुई आर्थिक नीतियों की बात करते हैं, उनका समर्थन करने की बात देश के लोग सोचें. खासकर वे लोग, जो आर्थिक नीतियों को समझते हैं, उन्हें इसके बारे में लोगों को समझाना चाहिए. हमारे देश में जानबूझ कर लोगों को वैचारिक जानकारी से अलग रखा गया है और उन्हें यह कहा गया है कि उनके लिए वैचारिक जानकारी कोई ज़रूरी चीज नहीं है. उन्हें समस्याओं के जाल में उलझा कर, समस्या कैसे हल हो सकती है, उससे अलग कर दिया गया है. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि बहुत सफाई के साथ, वैचारिक तौर पर किस तरह से देश बदल सकता है, इसके बारे में देश के सामान्य लोगों को शामिल किया जाए.मुझे मालूम है कि यह काम करने वाले लोग भी अब नहीं बचे हैं, लेकिन अगर लोग यह काम नहीं करेंगे, तो उन्हें उस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए कि जब वे सड़क पर जा रहे हों, तो निराश एवं ग़रीब लोग आएं और दिनदहाड़े उनका सामान छीन लें. यह स्थिति आने में देर सबेर जैसी भाषा का इस्तेमाल अब प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि अब यह स्थिति सामने दिखाई दे रही है. वंचित या विकास के दायरे से बाहर के लोग एक वर्ग को, उसकी वेशभूषा को, रहन-सहन को इस भ्रष्ट व्यवस्था के सिंबल के तौर पर मानने लगे हैं और यह ख़तरा अब दरवाजे पर आ गया है. इसलिए समझदार लोगों को चाहिए कि अर्थव्यवस्था के बदलने की बात और जो बदली हुई अर्थव्यवस्था की बात करते हैं, उनका स्वागत करने की कोशिश हर हालत में समर्थन के योग्य है. यह करना ज़रूरी है. अगर आप और हम साथ देते हैं, तो हम देश के हित में काम करेंगे.नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी या अरविंद केजरीवाल अच्छे व्यक्ति हो सकते हैं, देश में जीतने का माद्दा रखते हैं, क्योंकि उनके पास पैसा है, भाषा है, तकनीक है और छलावा है. लेकिन, ये सारे लोग देश के लोगों की समस्याएं हल करने में इसलिए कामयाब नहीं हो सकते, क्योंकि 23 साल, 1991 से लेकर आज तक, यह साबित कर गए हैं कि यह अर्थ नीति, जिसे हम नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था कहते हैं, देश को न एक रख सकती है, न देश की समस्याएं हल कर सकती है, न देश से महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी ख़त्म कर सकती है. इन्हें ख़त्म करने के लिए इस आर्थिक नीति का बदलना और बदली हुई आर्थिक नीति लोगों के सामने लाना एक उपाय है, जिसे करने में लोगों को शामिल होना चाहिए.
आगे आने वाले चुनाव के बाद यह देश दो तरह के रास्तों पर चलने के बारे में सोचेगा. पहला रास्ता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरा़ेजगारी, शोषण और विकास से अलगाव की पीड़ा झेलते हुए किसी तरह जीना और जब न जी सको, तो आत्महत्या करके मर जाओ. जैसे आज किसान कर रहे हैं. इस बाज़ार व्यवस्था ने भारतीय कृषि की कमर तोड़ दी है और किसानों को मरने के लिए बेसहारा छोड़ दिया है. अब किसानों की आत्महत्या समाचारपत्रों और टेलीविजन में जगह नहीं पाती. किसानों के लड़के ही सेना में हैं और किसानों के लड़के ही नौकरशाही में हैं, लेकिन वे लड़के इस बाज़ार व्यवस्था की वजह से अपने ही परिवार की दुर्दशा का कारण बन रहे हैं और किसानों के लिए, खेती के लिए कुछ नहीं सोच रहे हैं. किसानों की जमीन छीनी जा रही है, अधिग्रहीत की जा रही है और सस्ते दामों में बिल्डर्स को बेची जा रही है. किसान का उत्पाद लागत के हिसाब से घाटे का सौदा हो गया है. इसके बावजूद देश के 60 से 70 प्रतिशत लोगों के पास खेती के अलावा कोई चारा नहीं है. सरकार खेती को उत्पादक बनाने के बारे में नहीं सोच रही है, इसलिए यह डर पैदा हो गया है कि किसान कहीं पर इतना न निराश हो जाए कि वह भी असंवैधानिक रास्ते अपनाने के बारे में सोचने लगे. और जब तक नहीं सोचेगा, तब तक 2014 के बाद इसी सिस्टम में, जो उसकी दुर्दशा का कारण है, शायद वह जीने के लिए विवश रहेगा.
और दूसरा रास्ता है कि अभी से इसके ख़िलाफ़ लड़ने की कोशिश की जाए. जो लोग नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां चाहते हैं, वे समझें कि यह आर्थिक नीति उनके हित में नहीं है, क्योंकि इस आर्थिक नीति ने महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी बढ़ाई है और यह आर्थिक नीति इन चीजों को आगे बढ़ाएगी ही, क्योंकि इसमें महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी बढ़ाने के तत्व अंतर्निहित हैं. इसका मतलब है कि जो लोग बदली हुई आर्थिक नीतियों की बात करते हैं, उनका समर्थन करने की बात देश के लोग सोचें. खासकर वे लोग, जो आर्थिक नीतियों को समझते हैं, उन्हें इसके बारे में लोगों को समझाना चाहिए. हमारे देश में जानबूझ कर लोगों को वैचारिक जानकारी से अलग रखा गया है और उन्हें यह कहा गया है कि उनके लिए वैचारिक जानकारी कोई ज़रूरी चीज नहीं है. उन्हें समस्याओं के जाल में उलझा कर, समस्या कैसे हल हो सकती है, उससे अलग कर दिया गया है. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि बहुत सफाई के साथ, वैचारिक तौर पर किस तरह से देश बदल सकता है, इसके बारे में देश के सामान्य लोगों को शामिल किया जाए.मुझे मालूम है कि यह काम करने वाले लोग भी अब नहीं बचे हैं, लेकिन अगर लोग यह काम नहीं करेंगे, तो उन्हें उस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए कि जब वे सड़क पर जा रहे हों, तो निराश एवं ग़रीब लोग आएं और दिनदहाड़े उनका सामान छीन लें. यह स्थिति आने में देर सबेर जैसी भाषा का इस्तेमाल अब प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि अब यह स्थिति सामने दिखाई दे रही है. वंचित या विकास के दायरे से बाहर के लोग एक वर्ग को, उसकी वेशभूषा को, रहन-सहन को इस भ्रष्ट व्यवस्था के सिंबल के तौर पर मानने लगे हैं और यह ख़तरा अब दरवाजे पर आ गया है. इसलिए समझदार लोगों को चाहिए कि अर्थव्यवस्था के बदलने की बात और जो बदली हुई अर्थव्यवस्था की बात करते हैं, उनका स्वागत करने की कोशिश हर हालत में समर्थन के योग्य है. यह करना ज़रूरी है. अगर आप और हम साथ देते हैं, तो हम देश के हित में काम करेंगे.नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी या अरविंद केजरीवाल अच्छे व्यक्ति हो सकते हैं, देश में जीतने का माद्दा रखते हैं, क्योंकि उनके पास पैसा है, भाषा है, तकनीक है और छलावा है. लेकिन, ये सारे लोग देश के लोगों की समस्याएं हल करने में इसलिए कामयाब नहीं हो सकते, क्योंकि 23 साल, 1991 से लेकर आज तक, यह साबित कर गए हैं कि यह अर्थ नीति, जिसे हम नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था कहते हैं, देश को न एक रख सकती है, न देश की समस्याएं हल कर सकती है, न देश से महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी ख़त्म कर सकती है. इन्हें ख़त्म करने के लिए इस आर्थिक नीति का बदलना और बदली हुई आर्थिक नीति लोगों के सामने लाना एक उपाय है, जिसे करने में लोगों को शामिल होना चाहिए.
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