संघ के मास्टर प्लान का हिस्सा है पशुओं का मुद्दा
30 मई को अखबारों ने खबर छापी कि बीजेपी चीफ अमित शाह नागपुर आरएसएस मुख्यालय भागे गए और 29 तारीख को सारे दिन मोहन भागवत के साथ इन-कमरा मीटिंग में व्यस्त रहे। पत्रकारों के बीच चर्चाएं थीं कि पशु-वध पर प्रतिबन्ध को लेकर, खासकर दक्षिण के प्रान्तों में, व्यापक विरोध को देख अमित शाह के पसीने छूट गए और पार्टी के भविष्य को लेकर वो खासा चिंतित हैं। केरल और पश्चिम बंगाल ने तो बगावत की बिगुल बजा दी है और इससे एक किस्म का संवैधानिक संकट भी पैदा हो सकता है। वे अपने कानून बनाएं या अदालत का दरवाज़ा खटखटाएं, यह बैन गले की हड्डी तो बन ही गया। कुछ अटकलें हैं कि मोहन भागवत से बात करके इसे वापस लेने की बात की जाएगी; घोषणा भले ही मोदी के यूरोप-यात्रा से लौटने पर हो।
सत्ता के शीर्ष पर संघ
एक विचार है कि भाजपा अपनी राजनीतिक विजय-यात्रा के लिए आरएसएस पर पूरी तरह निर्भर है, इसलिए गुलामों की भांति संघ के हर फरमान को लागू करना उसकी नियति है। दूसरा विचार है कि मोदी स्वयं संघी हैं और वो भारत को एक आर्थिक सुपरपावर बनाने के लिए भले ही डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटीज़, स्टार्ट अप इंडिया या मेक इन इण्डिया की बात करें,
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os विचारधारा के मामले में वे अपने पितामह की शिक्षा से हट नहीं सकते; वे चाहते हैं कि संघ की कृपादृष्टि उन पर बनी रहे। यह एक राजनीतिक समझौता है। उदारवादी विश्लेषकों का मानना है कि आरएसएस का गाय-ऐजेन्डा मूल न होते हुए भी व्यापक भटकाव पैदा करेगा क्योंकि उसकी भूमिका सरकारी कार्यों में एक गैर-संवैधानिक सत्ता-केंद्र की है। इन विश्लेषकों की नज़र से मुख्य बात गायब है कि आरएसएस/भागवत और भाजपा/मोदी एक थाली के चट्टे-बट्टे हैं और उनके बीच पशु-वध व अन्य मुद्दों पर 'परफेक्ट युनिटी' है क्योंकि वे एक समग्र मास्टर प्लान पर काम कर रहे हैं, जो उनकी सत्ता के वैचारिक-सामाजिक-सांगठनिक सुदृढ़ीकरण के लिए आवश्यक है। यह भाजपा को ऐंटी-इन्कम्बेन्सी व अन्य चुनावी उतार-चढ़ाव से बचा सकता है। गाय-भैंस-बैल की राजनीति मोदी जी यूं नहीं कर रहे -वे संघ के वरिष्ठ प्रचारक रहे हैं और नीति-निमार्ण में संघ के एक नेता हैं। न ही हम आरएसएस को गैर-राजनीतिक संगठन मानें। संघ और भाजपा एक संयुक्त परिवार है, जिसमें गो-रक्षकों, विहिप, बजरंग दल, रामदेव सरीखे फर्जी सन्यासी और भाजपा पार्टी सबकी अपनी-अपनी भूमिका है। यह देखना बाकी है कि मोदी को आरएसएस पशु-वध के मुद्दे पर क्या सलाह देता है।
सरकार का ताड़नहार
आज जब मोदी के 3 साल पूरे होने पर देश में उनके वायदों को लेकर व्यापक निराशा है और 2019 आते-आते उनकी घोषणाओं की कलई और भी उतरने वाली है, और मंदिर का मामला पिट चुका है, गो-राजनीति के अलावा कोई ऐसा मुद्दा उनके सामने नहीं है, जिससे उनकी सत्ता को स्थायित्व मिल सके और उनके शासन की नींव गहरी हो सके। दूसरे, देश को इस बहस में उलझाकर हमारी अर्थव्यवस्था
को नोटबन्दी, आईटी क्षेत्र में 5 लाख कर्मचारियों की छंटनी, अमेरिका में एच-1 बी वीसा पर रोक, चीन और पाकिस्तान के साथ विदेश नीति के मामले पर भारी विफलता की वजह से लगे झटकों से ध्यान हटाना चाहते हैं। वैसे भी संघ पशु-वध जैसे सॉफ्ट मुद्दों की तलाश में रहता है, जिनके जरिये वो हिन्दुओं के बड़े हिस्से की धार्मिक भावनाओं को झंकृत कर ध्रुवीकरण कर सके। तीन तलाक का मुद्दा या फिर बॉर्डर पर तनाव और राष्ट्रवाद भी ऐसे ही सवाल हैं। बहरहाल इस बार हिन्दुओं का बड़ा (दलित, दक्षिण भारतीय, गोवा व उत्तर-पूर्व के लोग तथा किसान) प्रतिबन्ध के विरुद्ध हैं। सहारनपुर के बाद इस बैन का असर क्या दलितों के जले पर नमक छिड़कने जैसा नहीं ?
गो-हत्या की भांति पशु हत्या भी राज्य-दमन के साथ सड़कों पर संघी गुण्डागर्दी को हवा दे रहा। हाल में ही आईआईटी मद्रास के एक छात्र को बीफ फेस्टिवल में भाग लेने के लिए भक्त-गुण्डों ने इस बुरी तरह मारा कि उसकी आंख चली गई- एक सॉफ्ट टारगेट! पर क्या बीफ खाने वाले विदेशी राजनयिकों पर भारत के लिए वीज़ा बैन लागू होगा? क्या जो भारत के विदेश विभाग में कार्यरत हैं वे विदेश में सभी ऐसे जलसों का बॉयकाट करेंगे जहां मेज पर बीफ परोसा जाता है? क्या वे बीफ व्यापार करने वाले सभी व्यापारियों से अपने संबंध तोड़ देंगे? नहीं! वे केवल गरीबों और सीधे-सादे लोगों को साफ्ट-टार्गेट बनाकर आतंक का वातावरण तैयार करेंगे ताकि हिन्दू राष्ट्र का झंडा लहराता रहे और उनको चुनौती देने वाले समुदायों की आर्थिक रीढ़ तोड़ी जा सके।
गाय - दिव्य-पशु से राजनीतिक पशु की ओर
पश्चिमी सभ्यता को देखें तो कई पशुओं के बारे में बाईबल की कहानियां मिलती हैं। पर इन्हें कभी दिव्य पशुओं का दर्जा नहीं मिला। आखिर भारत में गो-पूजन हिन्दू धर्म का अनोखा हिस्सा कैसे बना? भारत में कृषि पर निर्भर ग्रामीण समुदायों में गाय-बैल का महत्व जमाने से रहा है। पर किसानों की गाय-बैल के बारे में दृष्टि मिली-जुली रही। एक तरफ वह उनके जीविकोपार्जन
के प्रमुख साधन रहे, इस वजह से उन्हें हानि पहुंचाना बुरा था। त्योहारों पर उनको पूजा भी जाता। फिर भी किसान बैल को हल सहित भरी-दोपहरी या मूसलाधार बारिश में जोतता और छड़ी से मारकर हांकता जाता। गाय के बछड़े मर जाते तो उनकी खाल को भूसे के पुतले पर चढ़ाकर गाय को सुंघाता और दूध दुह लेता। मवेशियों के मरने के बाद उन्हें बेच लेता, ताकि कम-से-कम उनकी खाल का दाम मिले। हाल में ही जिस राज्य में पोंगल त्योहार पर गाय-बैल सजाए जाते हैं और हल्दी-कुमकुम लगाकर उनकी आरती होती है, वहीं जलिकट्टू होता है, जिसमें पशु के प्रति क्रूरतम व्यवहार होता है। फिर किसान अपने अनुपयोगी, वृद्ध पशुओं को नम आंखों के साथ बूचड़खानों को बेच देते हैं; उन्हें बेचे बिना वे अगली फसल तक नए मवेशी खरीद नहीं सकते। यानि कृषि अर्थव्यवस्था
का अभिन्न अंग है गाय-बैल अर्थव्यवस्था।
क्या भाजपा पशु-वध पर प्रतिबन्ध लगाकर कृषि-अर्थव्यवस्था
की रीढ़ तोड़ना चाहती है ? क्या भाजपा कह सकती है कि सरकार इन पशुओं को खरीद लेगी और उनके स्वाभाविक मौत के बाद उन्हें दफनाने का काम कराएगी ? क्या वह बूचड़खानों के बन्द होने और पशु-वध बैन की वजह से किसानों को लगे घाटे के एवज में उन्हें 3 साल तक 10-20 हज़ार प्रतिमाह मुआवजा या वैकल्पिक रोजगार देगी?
गाय के रास्ते 'रामराज्य'
इतिहास बताता है कि केवल दलित, आदिवासी, मुसलमान और इसाई नहीं, बल्कि हिन्दू सवर्ण भी बीफ खाते थे। यह देश की आज़ादी के बाद हिन्दू कट्टरपंथ का ऐजेन्डा बना ताकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का पाप उन पर से हट सके। इसी समय गाय धार्मिक पशु से राजनीतिक पशु बन गई। संविधान सभा में हिन्दू कट्टरपंथी गाय को एक धर्मिक प्रतीक इसलिए बना रहे थे कि बाद में उसे राजनीतिक प्रतीक में बदला जा सके, जिसने एक हद तक का संवैधानिक द्वन्द्व भी पैदा किया। हिन्दू कट्टरपंथ के रूढ़िवादी गढ़ मध्यप्रदेश में सबसे पहले गोरक्षा कानून बना। बस, उसके बाद से तो गाय साम्प्रदायिक राजनीति का अभिन्न अंग बन गयी। यह अलग-अलग प्रान्तों में भिन्न-भिन्न रूप लेता रहा-उना में दलितों के विरुद्ध, उत्तर प्रदेश में मुसलमान-विरोधी, झारखण्ड और मध्यप्रदेश में आदिवायियों के खिलाफ हथियार; कई प्रान्तों में इसाइयों के विरुद्ध यह प्रचार होता है कि वे हिन्दुओं की गोमाता का भक्षण करते हैं।उभरते हुए या छिपे हुए फासीवाद के दौर में हिन्दुत्व की सांस्कृतिक-राजनीति का एक सशक्त प्रतीक बन रही है गाय। जब गोरक्षा के नाम से इन्सानों की हत्या हो तो क्रूरता को भी धार्मिक श्रेष्ठता का जामा पहनाया जाता है-ठीक वैसे ही जैसे हिटलर ने नस्लवादी हिंसा को पहनाया था। कई बार पॉपुलिज़म आर्थिक आधार की जगह धार्मिक-सांस्कृतिक आधार भी खोज लेता है और आम जनता को प्रतीकों में फंसाकर उनके असली मुद्दों से हटा देता है; और वह निश्चित ही सत्तावादी होता है। आज इस राजनीति के तहत गरीब नौजवानों को गो-रक्षक और इंसानों का हत्यारा बनाया जा रहा है, जिन किसानों का पुलिस गोली चलाकर भूमि अधिग्रहण कर रही है, वे अपने बगल के दलितों को तलवारों से काटने निकले हैं। फासीवाद का चारा है अंधराष्ट्रवाद और उसकी राजनीति है संकीर्णतावाद
की। इसे समझना जरूरी है कि उसकी बारी भी जल्द आएगी। देखना है कि संघी राजनीति में क्या गाय राम की जगह ले पाएगी ?
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