गांव को उचित सत्ता से वंचित क्यों रखा जाए?
यह आक्षेप अक्सर लगाया जाता है कि गांवों को स्व-शासन के अधिकार देने पर अन्याय, अत्याचार बढ़ेंगे और ग़लतियां भी होंगी. गांव का स्वरूप रूढ़िवादी एवं कट्टरपंथी होगा. इससे यथास्थिति भी क़ायम रहेगी, क्योंकि सुविधासंपन्न लोग ग्रामसभा के अधिकारों को हथिया लेंगे. संविधान सभा में भाषण देते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा था, संवैधानिक नैतिकता स्वाभाविक भावना नहीं है, इसलिए उसका संवर्धन करना होगा. भारतीय भूमि का सार-सर्वस्व लोकतंत्र के अनुरूप नहीं है और लोकतंत्र भारतीय ज़मीन की मिट्टी की केवल ऊपरी सतह है. ऐसे में, अवश्य ही लोकतंत्र की कल्पना का संवर्धन करना होगा और सामाजिक समता लानी होगी. लेकिन लोकतंत्र की मूल कल्पना और स्व-शासन का अनुभव भारतीय परंपरा के अनुरूप है, यह हमने ऊपर देखा ही है. डॉ. अंबेडकर को दरअसल, यह डर भी था कि गांव को सत्ता देने से यह सत्ता न केवल ऊपर की जातियों या अमीरों और गुंडों के हाथ में जाएगी, बल्कि दबे हुए लोग और भी दबाए जाएंगे.
इस आक्षेप में थोड़ा भी तथ्य नहीं है, यह कोई नहीं कहेगा, लेकिन सोचने का मुद्दा यह बनता है कि केंद्रीय सत्ता रहने से क्या अन्याय और अत्याचार मिट गए हैं? क्या ग़लतियां नहीं हुईं? गांव के पास सत्ता आने और ग़रीबों का बहुमत होने से गांव में अन्याय और अत्याचार के निराकरण के उपाय भी बढ़ेंगे. केवल यही नहीं, केंद्रीय शासन घट जाने के कारण राज्य के अन्यायों से गांव काफी हद तक मुक्त होंगे, यह भी संभावना है. प्रारंभ में वे ग़लतियां भी करेंगे, लेकिन ज़िम्मेदारी डालने से ही व्यक्ति का विकास होता है, क्योंकि इसी तरह वह ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना सीखता है और ग़लतियां करना बंद होता है. अनुभव से ही योग्यता और आवश्यक क्षमता प्राप्त की जा सकती है. फिर पिछड़ेपन का इलाज जनता को उसके सार्वभौम अधिकारों से वंचित रखना नहीं, बल्कि शीघ्रता से उसे शिक्षित एवं जागरूक करना है.
जनता पर अविश्वास करना इसका इलाज नहीं, सामाजिक शिक्षा देना ही इसका उपाय है. ज़िम्मेदारी सौंपे बिना ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना सीखना असंभव है. आज आंदोलन शुरू किया और कल ही सत्ता मिलने वाली हो, तो ऊपर का आक्षेप शायद सही हो सकता है. यह सोचना अवास्तविक होगा कि डेढ़-दो सौ साल पूर्व अंग्रेजों द्वारा गांवों के स्व-शासन की छीनी हुई सत्ता स्वराज्य में राज्य सरकार कल ही गांवों को प्रदान कर देगी. इसके लिए कई बरसों तक जन-जागरण और आंदोलन लगातार करने होंगे. इस द्विविध प्रक्रिया में से गांवों में नए विचार आएंगे, नई हलचल होगी और उसमें से ही नया गांव बनेगा. इस कारण गांव के निवासियों की निर्भयता बढ़ेगी, यथास्थिति बदलेगी और दबे हुए लोगों की वाणी मुखरित होगी. ऐसी स्थिति में अन्याय का पक्ष लेने वाले सवर्णों या अन्यों की संख्या भी बढ़ेगी. इसलिए आंदोलन की कोख में से पैदा हुए नए गांव या नए भारत में कमज़ोरों को दबाना उत्तरोत्तर कठिन होता जाएगा.
ग्रामसभा के नियमों में अन्याय, अत्याचार के निराकरण की बात रखी जा सकती है और रखी जानी भी चाहिए. ऐसे अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध अख़बार, प्लेटफॉर्म और न्यायपालिका के दरवाज़े तो खुले रहेंगे ही. अब केवल संबद्ध व्यक्ति ही नहीं, कोई भी व्यक्ति या समाज सेवक कोई भी प्रश्न के लिए उच्चतम न्यायालय के दरवाजे खटखटा सकता है. मालूम हो कि ग्राम स्वराज्य के अधिकार प्राप्ति के लिए जो आंदोलन चलेगा, उसमें दबे हुए लोगों का सक्रिय सहयोग मिले बिना यह आंदोलन सफल नहीं होगा और उनके सक्रिय सहयोग से ही उनके और समाज के अन्य हिस्सों में अधिकार और कर्तव्यों के बारे में नई जागृति आएगी. ऐसे में यह आक्षेप उत्तरोत्तर क्षीण होता जाएगा. इस संदर्भ में सरकार की ऊपर की इकाइयों को 10-20 साल के लिए अपील या रिवीजन के अधिकार देने या अन्य सुरक्षात्मक उपाय अपनाने के बारे में भी सोचा जा सकता है, जिससे कि गांवों का नेतृत्व करने वालों के लिए समाज के कमज़ोर तबकों को ऊपर उठाना अनिवार्य बनाया जा सके.
दूसरा आक्षेप यह कि ग्राम स्वराज्य के लिए ग्रामीण नागरिक लायक़ नहीं हैं. सवाल यह है कि ग्राम पंचायतों या नगर परिषदों को दी हुई थोड़ी सी सत्ता का उपयोग यदि वे ठीक से नहीं कर सकती हैं, तो स्व-शासन की पूरी सत्ता मिलने पर कौन-सा उजाला करने वाली हैं? यह कहा जाता है कि गांव के लोग अपना शासन आप करने की योग्यता की दृष्टि से नितांत पिछड़े हुए हैं, अनभिज्ञ हैं और आवश्यक जानकारी ही नहीं रखते हैं. ये सारे पुराने तर्क हैं. भारत को स्वराज्य क्यों नहीं दिया जाए, इसके लिए यही तर्क अंग्रेज देते थे और उस समय जो उत्तर भारतीयों ने अंग्रेजों को दिया, वही सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रश्न पर आज भी लागू है. सुराज्य स्वराज्य का पर्याय कदापि नहीं हो सकता, यह सर्वकालिक सत्य है और यही सच्चा उत्तर है. कुछ विषयों की जानकारी भले ही ग्रामीणों को कम हो, लेकिन कुछ विषयों में उनकी जानकारी नगरवासियों की तुलना में अधिक भी है. दरअसल, नैतिकता या विवेक की दृष्टि से वे किसी भी हालत में पिछड़े नहीं हैं. इसलिए इसी बिना पर उन्हें स्व-शासन के अधिकार से वंचित करना ग़लत, अलोकतांत्रिक एवं धृष्टतापूर्ण होगा.
तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पंजाब, आंध्र, कर्नाटक, कश्मीर आदि के मुख्यमंत्री राज्यों को केंद्र से अधिक सत्ता मिले, यह मांग आज जोर-शोर से कर रहे हैं. कांग्रेसी मुख्यमंत्री इस बारे में बोलते नहीं, क्योंकि वे बोल नहीं सकते हैं. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक ने गद्दी से उतरने के 25 दिनों पूर्व उक्त उद्गार प्रकट रूप से निकाले थे कि इंग्लैंड में किसी नगरपालिका के मेयर को जितनी सत्ता है, उतनी-सी भी सत्ता महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को नहीं है, क्योंकि सारी सत्ता दिल्ली में केंद्रित हो गई है. प्रदेशों को अधिक सत्ता मिले, यह बात ठीक है, लेकिन प्रदेशों के लिए सत्ता मांगने वाले मुख्यमंत्री उस सत्ता को गांव को देने के लिए तैयार नहीं हैं. वे इस विषय में चुप रहते हैं या फिर टालमटोल की भाषा का प्रयोग करते हैं. अत: न्याय मिलने तक आंदोलन जारी रखने के अलावा, कोई पर्याय जनता के पास नहीं है. क्या तथाकथित पिछड़ी हुई देहाती जनता पलट कर, आगे बढ़े हुए शहरी वर्गों से, जो अपना बड़प्पन दिखाने का प्रयत्न करते हैं, यह सवाल नहीं पूछ सकती कि क्या वे देश का शासन सफलता के साथ चला सकते हैं?
एक और आक्षेप बार-बार सामने आता है कि सत्ता के इस विकेंद्रीकरण से केंद्र सरकार कमज़ोर होगी! राष्ट्रीय एकता को इससे ख़तरा है, क्योंकि घटकवाद बढ़ेगा, जोड़ने वाले तत्वों की बजाय बिखेरने वाले यानी विघटनकारी तत्व मज़बूत होंगे, यह भी कहा जाता रहा है. यह आक्षेप करने के पूर्व यह मान लिया गया है कि राष्ट्र या केंद्र आज मज़बूत हैं. केंद्र आज मज़बूत दिखता ज़रूर है, लेकिन यह भ्रम है, क्योंकि मज़बूत बुनियाद पर वह खड़ा नहीं है. कमज़ोर बुनियाद पर ऊंची मंजिल या कलश मज़बूत कैसे बनेगा? अधिकाधिक कार्य हाथ में रखने से या केवल सत्ता से कोई थोड़े ही मज़बूती आती है? यदि लोगों को अपनी शासन व्यवस्था अपने आप करने और अपनी विशिष्टता बनाए रखने की अधिक से अधिक स्वतंत्रता और अवसर प्रदान किए जाते हैं, तो हम राष्ट्र के रूप में आज से कहीं अधिक ऐक्यबद्ध और शक्तिशाली होंगे. जो इकाई जिस काम को संपन्न करने के लिए क्षमता रखती है, उसे वह अधिकार होना चाहिए. यह तो क्षमता का प्रश्न है. केंद्र की सत्ता भी यह महसूस करेगी कि कुछ कार्य जैसे सुरक्षा, रेलवे, विदेश विभाग, मुद्रा, पोस्ट, आयात-निर्यात, राष्ट्रीय एकता आदि केंद्र सरकार ही कर सकती है, क्योंकि जो कार्य निम्न स्तर की इकाई नहीं कर सकती, उसे दक्षतापूर्वक पूरा करने के लिए केंद्र को पहला अवसर एवं अधिकार देना स्वयं निम्न स्तर की इकाइयों के हित में होगा. क्षमता संबंधी यह तत्व इस पद्धति में केंद्र की शक्ति बनाए रखने की गारंटी का काम करेगा. इन अधिकारों से युक्त केंद्र सरकार किसी भी दृष्टि से केवल इसीलिए कमज़ोर नहीं कही जा सकती कि उसके अधिकार के अंदर बहुत विषय नहीं हैं. निश्चय ही इस तरह की सरकार मज़बूत एवं शक्तिशाली होगी. दूसरी तऱफ ऊपरी स्तर पर भारी और फैला हुआ केंद्र, जो हर काम में अडंगा लगाता है, देखने में मज़बूत मालूम पड़े, वास्तव में होगा कमज़ोर एवं खोखला. राष्ट्रीय एकता या शक्ति इस बात पर निर्भर नहीं है कि केंद्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र के विषयों की सूची कितनी बड़ी है, बल्कि भावनात्मक ऐक्य जनता के समान अनुभव एवं आकांक्षा, सहिष्णुता एवं विशाल हृदयता आदि स्थायी तत्वों में निहित है या नहीं.
अक्सर यह भी आक्षेप किया जाता है कि आज गांव है ही नहीं, वह केवल विभिन्न हितों या जातियों का समूह है. अत: जब गांव ही रहा नहीं है, तब सत्ता ग्रामसभा को जाए, यह कथन लचर है. वास्तविकता यह है कि यद्यपि पुराने जमाने की गांवों की एकता काफी टूट गई है और गांवों में हितविरोध है, तो भी गांव की एकता आज भी थोड़ी-सी ही क्यों न हो, क़ायम है और कुछ ग्राम-भावना शेष है. आ़िखर लोग एक स्थान पर एकत्र रहते हैं, तो कुछ संबंध हो ही जाते हैं. प्रश्न यह है कि हमें इस एकता को पुष्ट करना, यानी बढ़ाना है या इसे टूटने देना है? हमारा उद्देश्य क्या है? क्या एकता संपन्न बलशाली गांव हमारा ध्येय है या नहीं? यदि है, तो फिर यह एकता क़ायम रखने और बढ़ाने वाले तत्वों को मज़बूत कर गांव को स्व-शासन की सत्ता देनी ही होगी. राष्ट्र में भी परस्पर तत्वविरोध, वर्गभेद, जातिभेद, प्रांतभेद आदि हैं, लेकिन यह कोई नहीं कहता कि राष्ट्र प्रभुता संपन्न न हो, तो फिर ऐसे में गांव को ही उचित सत्ता से क्यों वंचित रखा जाए?
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