शनिवार, 10 जून 2017

रोजाना 4 किसान करते हैं आत्महत्या

क़र्ज़ के फंदे में किसान
होशंगाबाद जिले के बनखेड़ी ब्लाक के कुर्सीढ़ाना के किसान अमान सिंह ने अप्रैल माह में करीना इंडोसल्फान (एक जहरीली दवा) पीकर अपनी ईहलीला समाप्त कर ली। अमान सिंह पर बैंक और साहूकार मिलाकर कुल 1.50 लाख रूपये का कर्ज था। अमान के परिवारजन बताते हैं कि उसके यहां पैदावार बहुत कम हुई थी। कर्ज चुकाने की चिंता, अमान सिंह के लिये चिता बन गई। ऐसा करने वाले अमान सिंह अकेले नहीं थे, बल्कि बनखेड़ी के ही एक और किसान मिथिलेश  ने भी आत्महत्या कर ली। प्रदेश  में विगत एक माह में कर्ज के कारण आत्महत्या वाले किसानों की संख्या 8 हो गई जबकि 4 अन्य किसानों ने भी आत्महत्या का प्रयास किया। इन आत्महत्याओं के साथ एक बार फिर यह बहस उपजी है कि क्या कारण है कि धरती की छाती को चीरकर अन्न उगाने वाले किसान, हम सबके पालनहार को अब फांसी के फंदे या अपने ही खेतों में छिड़्रक़ने वाला कीटनाशक ज्यादा भाने लगा है। दरअसल अभी तक किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक का जिक्र आता रहा है, लेकिन वास्तविकता इससे बहुत परे है। मध्यप्रदेश  में विगत : वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में लगातार इजाफा हुआ है। प्रदेश  में विगत 8 वर्षों में 10000 से भी ज्यादा किसानों के आत्महत्या की है।
रोजाना 4 किसान करते हैं आत्महत्या
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की मानें तो प्रदेष में प्रतिदिन 4 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह मामला केवल इसी साल सामने आया है बल्कि वर्ष 2001 से यह विकराल स्थिति बनी है। उपरोक्त तालिका को देखें तो हम पाते हैं कि मध्यप्रदेश  और छत्तीसगढ़ दोनों पड़ोसी राज्यों में कमोबेष एक सी स्थिति है। यह स्थिति इसलिये भी तुलना का विषय हो सकती है क्योंकि दोनों राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियाँ लगभग एक सी हैं, खेती करने की पध्दतियाँ, फसलों के प्रकार भी लगभग एक से ही हैं। मध्यप्रदेश  ने वर्ष 2003-2004 में भी सूखे की मार झेली थी और तब किसानों की आत्म्हत्या का ग्राफ बढ़ा था और विगत् दो-तीन वर्षों में भी सूखे का प्रकोप बढ़ा ही है तो हम पाते हैं कि वर्ष 2005 के बाद प्रदेष में किसानों की आत्महत्याओं में बढ़ोत्तरी हुई है। अभी हमारे पास वर्ष 2008 के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, अतएव हम बहुत सीधे तौर पर इस ट्रैंड को पकड़ नहीं पायेंगे, लेकिन स्थिति तो चिंताजनक है। हम यह सोचकर खुश हो सकते हैं कि हमारे राज्य में महाराष्ट्र, आंधप्रदेष कर्नाटक की तरह भयावह स्थिति नहीं हैं लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि इन राज्यों की स्थितियां हमसे काफी भिन्न हैं। और यदि आज भी ध्यान नहीं दिया गया तो प्रदेश  की स्थिति और भी खतरनाक हो जायेगी।
राज्य
2001
2002
2003
2004
2004
2006
2007
महाराष्ट्र
3536
3695
3836
4147
3926
4453
4238
आंध्र प्रदेष
1509
1895
1800
2666
2490
2607
1797
कर्नाटक
2505
2340
2678
1963
1883
1720
2135
मध्यप्रदेष
1372
1340
1445
1638
1248
1375
1263
छत्तीसगढ़
1452
1238
1066
1395
1412
1483
1593
स्त्रोत - राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो
कौन है किसान
कनाड़ा में डी -ग्रुट स्कूल आफॅ बिजनेस, मेकमास्टर यूनिवर्सिटी में पीएचडी के छात्र युवराज गजपाल ख्गजराज डी -ग्रुट स्कूल आफॅ बिजनेस, मेकमास्टर यूनिवर्सिटी कनाड़ा में पीएचडी के छात्र हैं। वर्तमन में सीजीनेट के सथ जुडे हैं, की इस खोजबीन को और सामने लायें कि एनसीआरबी के अनुसार किसे किसान की श्रेणी में रखा गया है तो स्थिति ओर भी चिंताजनक रूप में सामने आती है। युवराज कहते हैं कि इसके बारे में मैंने मद्रास इंस्टीटयूट ऑफ डेवलपमेन्ट के प्रोफेसर नागराज से बात की जो कि कई सालों से किसान आत्महत्या के बारे में राष्ट्रीय अपराध ब्यूरों के आंकड़े के आधार पर विष्लेषण कर रहे हैं। प्रोफेसर नागराज बताते हैं कि पुलिस विभाग के अनुसार किसान की परिभाषा का मापदंड जनसंख्या के लिए परिभाषित किसान की परिभाषा से और भी कठिन है। पुलिस की परिभाषा के अनुसार किसान होने के लिए स्वयं की जमीन होना आवष्यक है और जो लोग दूसरे की खेती को किराये में लेकर (.प्र क़ी परम्परा के अनुसार बटिया/ अधिया लेने वाले) काम करते हैं उन्हें किसानों की श्रेणी में नहीं रखा गया है। यहां तक कि इसमें उन लोगों को भी शामिल नहीं किया गया है जो अपनी घर के खेतों को सम्हालते हैं लेकिन जिनके नाम में जमीन नहीं है। अगर किसी घर में पिताजी के नाम में सारी जमीन है लेकिन खेती की देखभाल उसका लड़का करता है तो पिताजी को तो किसान का दर्जा मिलेगा लेकिन बेटे को पुलिस विभाग किसान की श्रेणी में नहीं रखेगी। प्रोफेसर नागराज आगे बताते हैं कि पुलिस विभाग द्वारा जिस तरह से मापदंड अपनाया गया है उस हिसाब से वास्तविक किसान द्वारा आत्महत्या की संख्या राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की संख्या से और भी ज्यादा होगी।
इसी के साथ युवराज का अगला सवाल और परेशान  कर सकता है कि पुलिस विभाग से मिले यह आंकड़े कहीं गलत तो नहीं ! ज्ञात हो कि राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़े वही आंकड़े हैं जो उसे राज्य के अलग-अलग पुलिस अधीक्षक कार्यालयों से प्राप्त होते हैं। इससे अधिक प्रामाणिक जानकारी उनके पास कोई भी नहीं है। हम सभी जानते हैं कि राज्य में पुलिस व्यवस्था के क्या हाल हैं और कितने प्रकरणों को दर्ज किया जाता है। खासकर किसानों की आत्महत्या जैसे संवेदनशील मामलों को राज्य हमेशा  से ही नकारता रहा है। ऐसे में एनसीआरबी की रिपोर्ट भी बहुत प्रामाणिक जानकारी हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है, यह सोचना गलत होगा।
ये तो होना ही था
लंबे समय से किसानों की आत्महत्याओं पर लिख रहे जाने-माने पत्रकार पी. साईनाथ का कहना है कि जब मैंने इस विषय पर लिखना शुरू किया था तो लोग हंसते थे। कोई भी गंभीरता से नहीं लेता था। लेकिन यदि समये रहते प्रयास किये जाते तो हमें यह दिन नहीं देखना पड़ता कि कृषि प्रधान देश  में किसानों के लिये आत्महत्या मजबूरी बन जाये। कृषि मामलों के जानकार देविन्दर शर्मा कहते हैं कि यह तो होगा ही एक तरफ सरकार छठवां वेतनमान लागू कर रही है जिसमें एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी यानी भृत्य तक को 15000 रूपया मासिक मिलेगा, जबकि एनएसएसओ का आकलन कहता है कि एक किसान की पारिवारिक मासिक आय है महज 2115 रूपये। जिसमें पांच सदस्य के साथ दो पषु भी हैं। सवाल यह है कि किसान सरकार से वेतनमान नहीं मांग रहा है बल्कि  वह तो न्यूनतम सर्मथन मूल्य मांग रहा है। और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। उत्पादन लागत बढ़ रही है और किसान को सर्मथन मूल्य भी नहीं मिल रहा है।
हर किसान पर हैं 14 हजार 218 रूपये का कर्ज
किसानों की आत्महत्या के तात्कालिक 8 प्रकरणों का विष्लेषण हमें इस नतीजे पर पहुंचाता है कि सभी किसानों पर कर्ज का दबाव था। फसल का उचित दाम नहीं मिलना, घटता उत्पादन, बिजली नहीं मिलना परन्तु बिल का बढ़ते जाना, समय पर खाद, बीज नहीं मिलना और उत्पादन कम होना .प्र. के किसानों की आर्थिक स्थिति के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने रहे हैं। प्रदेश  के हर किसान पर औसतन 14 हजार 218 रूपये का कर्ज है। वहीं प्रदेष में कर्ज में डूबे किसान परिवारों की संख्या भी चौंकाने वाली है। यह संख्या 32,11,000 है। .प्र. के कर्जदार किसानों में 23 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास 2 से 4 हेक्टेयर भूमि है। साथ ही 4 हेक्टेयर भूमि वाले कृषकों पर 23,456 रूपये कर्ज चढ़ा हुआ है। कृषि मामलों के जानकारों का कहना है कि प्रदेश  के 50 प्रतिषत से अधिक किसानों पर संस्थागत कर्ज चढ़ा हुआ है। किसानों के कर्ज का यह प्रतिशत सरकारी आंकड़ों के अनुसार है, जबकि किसान नाते/रिष्तेदारों, व्यवसायिक साहूकारों, व्यापारियों और नौकरीपेशा  से भी कर्ज लेते हैं। जिसके चलते प्रदेष में 80 से 90 प्रतिषत किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं।
बिजली मार रही है झटके
छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र होने के साथ ही प्रदेष में बिजली खेती-किसानी के लिये प्रमुख समस्या बन गई है। प्रदेष में विद्युत संकट बरकरार है सरकार ने अभी हाल ही में हुये विधानसभा चुनाव के समय ही अतिरिक्त बिजली खरीदी थी, उसके बाद फिर वही स्थिति बन गई है। प्रदेष में किसान को बिजली का कनेक्षन लेना राज्य सरकार ने असंभव बना दिया है। उद्योगों की तरह ही किसानों को खंबे का पैसा, ट्रांसफार्मर और लाईन का पैसा चुकाना पड़ेगा, तब कहीं जाकर उसे बिजली का कनेक्षन मिलेगा। बिजली तो तब भी नहीं मिलेगी, लेकिन बिल लगातार मिलेगा। बिल नहीं भरा तो बिजली काट दी जायेगी, केस बनाकर न्यायालय में प्रस्तुत किया जायेगा यानी किसान के बेटे के राज में किसान को जेल भी हो सकती है। घोषित और अघोषित कुर्की भी चिंता का कारण है। बनखेड़ी में भी यही हुआ कि बिल जमा करने पर एक किसान की मोटरसाईकिल उठा ले गये। भारतीय किसान संघ के प्रांतीय साेंजक दर्शन सिंह चौधरी कहते हैं कि किसान की आत्महत्या का कारण किसान को फसल का सही दाम मिलना, बिजली ने मिलने से फसल चौपट होना, बैंकों के कर्ज वसूलने में गैरमानवीय व्यवहार आदि शामिल हैं।
योजनाएं
2007-2008
(करोड़ में)
2008-09
(करोड़ में)
राजीव गांधी गांव-गांव बिजलीकरण योजना
158.21
165.11
सघन बिजली विकास एवं पुर्ननिर्माण योजना।
283.11
374.13
ऐसा नहीं कि सरकार के पास राशि की कमी थी, बल्कि सरकार के पास इच्छाशक्ति की कमी थी। गांवों में लगातार बिजली पहुंचाने के लिए भारत सरकार ने दो अलग-अलग योजनाओं में राज्य सरकार को पैसा दिया गया। पहली योजना है राजीव गांधी गांव-गांव बिजलीकरण योजना जबकि दूसरी योजना है सघन बिजली विकास एवं पुर्ननिर्माण योजना। राजीव गांधी योजना के लिए राज्य सरकार को वर्ष 2007-2008 में 158.21 करोड़ वर्ष, 2008-09 में 165.11 करोड़ रूपये मिला। इसी प्रकार सघन बिजली विकास एवं पुननिर्माण योजना में भी वर्ष 2007-08 2008-09 में क्रमष: 283.11 374.13 करोड़ रूपया राज्य सरकार के खाते में आया। कुल मिलाकर दो वर्षों में 980.56 करोड़ रूपया राज्य सरकार को बिजली पहुंचाने के लिए उपलब्ध हुआ लेकिन इसके बाद भी ही राज्य सरकार ने किसानों को कोई राहत दी और ही भारत सरकार की इस राषि का उपयोग कर बिजली पहुंचाई। इतनी राषि का उपयोग कर किसानों को बिजली उपलब्ध कराई जा सकती थी, लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। प्रदेष के हजारों किसानों के विद्युत प्रकरण न्यायालय में दर्ज किये गये।
सर्मथन मूल्य नहीं है समर्थ
विधानसभा चुनावों के मध्यनजर मुख्यमंत्री षिवराज सिंह ने प्रदेष के किसानों से 50,000 रूपया कर्ज माफी का वायदा किया था, लेकिन प्रदेष सरकार ने उसे भुला दिया। अब किसानों पर कर्ज का बोझ है दूसरी ओर भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण (2007-08) की रिपोर्ट कहती है कि देष के कई राज्यों में सर्मथन मूल्य लागत से बहुत कम है, मध्यप्रदेष में भी कमोबेष यही हाल हैं। समर्थन मूल्य अपने आप में इतना समर्थ नहीं है कि वह किसानों को उनकी फसल का उचित दाम दिला सके। ऐसे में ही खेती घाटे का सौदा बनती जाती है, किसान कर्ज लेते हैं और चुका पाने की स्थिति में फांसी के फंदे को गले लगा रहे हैं। हालांकि सरकार यह बता रही हे कि हमने विगत दो सालों में सर्मथन मूल्य बढ़ाकर 750 से 1130 रूपये कर दिया है। लेकिन इस बात का विष्लेषण किसी ने नहीं किया कि वह समथ्रन मूल्य वाजिब है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सर्मथन मूल्य लागत से कम रहा है ! और वह लागत से कम भी रहा है लेकिन फिर भी सरकार ने इस वर्ष बोनस 100 रूपये से घटाकर 50 रूपया कर दिया।
ये कैसी आदर्श आचार संहिता
एक विडंबना और भी है कि विगत् तीन वर्षों से सूखे की मार झेल रहे प्रदेष में इस साल कमोबेष वही खस्ता हाल हैं। लेकिन लोकसभा चुनावों के मध्यनजर आदर्ष आचार संहिता लगी है और एसी स्थिति में प्रदेष में सूखा घोषित नहीं हो पा रहा है। समझ से परे यह भी है कि यह कैसा आदर्ष कि पालनहार कर्ज के दवाब से मर जाये और हम कारण ढूंढते रहें। जब तक सूखा घोषित नहीं होगा तो किसान को अपनी फसल के मुआवजे की तो चिंता नहीं होगी। लेकिन चुनाव के रंग में रंगी सरकार और विपक्ष दोनों को किसान की सुध नहीं रही है और किसान आत्महत्या कर रहे हैं। चुनाव आयोग को भी यह ध्यान देना चाहिये कि कौन से ऐसे मुद्दे हैं जो कि व्यापक जनहित के हैं और जिन्हें आचार संहिता के चक्र से बाहर निकालना चाहिये। नहीं तो प्रषासनिक कुचक्र में फंसा किसान यूं ही आत्महत्यायें करता रहेगा।
किसानी धीरे-धीरे घाटे का सौदा होती जा रही है। बिजली के बिगड़ते हाल, बीज का मिलना, कर्ज का दवाब, लागत का बढ़ना और सरकार की ओर से न्यूनतम सर्मथन मूल्य का मिलना आदि यक्ष प्रष्न बनकर उभरे हैं। सरकार एक और तो एग्रीबिजनेस मीट कर रही है लेकिन दूसरी ओर किसानी गर्त में जा रही है। किसान कर्ज के फंदे में फंसा कराह रहा है। समय रहते खेती और किसान दोनों पर ध्यान देने की महती आवष्यकता है, नहीं तो आने वाले समये में किसानों की आत्महत्याओं की घटनायें बढेंग़ी।


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