न्याय व्यवस्था की खामियां
सरकार ने अब अपना यह इरादा घोषित कर दिया है कि हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य जजों की संख्या के एक तिहाई दूसरे राज्यों से रखे जाएंगे. इसके लिए एक भारी-भरकम कारण यह बताया जा रहा कि इस तरह राष्ट्र की भावनात्मक एकता में मदद मिलेगी, लेकिन ऐसी अन्य कोशिशों के संदर्भ में देखने पर पता चलेगा कि इसके पीछे असली इरादा है वरिष्टता के नियम को दरकिनार कर देना, ताकि अदालतों की खाली जगहों को जल्द भरा जा सके, नहीं तो जगहें भरने में कई साल लग सकते हैं.
सरसरी अदालतों का यह विचार इस बात का एक बहुत अच्छा उदाहरण है कि कैसे खतरनाक विचार चिकने-चुपड़े रूप में पेश किए जा रहे हैं. सरसरी अदालत वह न्यायालय है, जहां कानूनी कार्रवाई की बारीकियां, गवाही कानून वगैरह का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता. मुजरिम को वकील रखने की सुविधा से भी वंचित रखा जा सकता है और मुकदमा भी संक्षिप्त व तेजी से होता है. ऐसी अदालतें उन सरकारों में होती हैं, जहां मानवीय अधिकारों के प्रति कोई आदर भावना नहीं रहती और जहां अदालतें तानाशाह के आदेश पर काम करती हैं. ईरान में शाह और आयातुल्ला खुमैनी, दोनों के शासन में हजारों आदमी ऐसी ही अदालतों द्वारा मौत के घाट उतारे जा चुके हैं. अभी हाल में मोजाम्बीक में सात व्यक्ति राजद्रोह के अपराध में सरसरी कानूनी कार्रवाई के अन्तर्गत लाए गए और उन्हें वहीं कत्ल कर दिया गया, जबकि पास ही खड़ी भीड़ नारे लगा रही थी और उनकी मौत की मांग कर रही थी. भीड़ के ऐसे दृश्य तानाशाहों की एक प्रचलित चाल है.
सरसरी और शीघ्र अदालतों के इस विचार को साम्प्रदायिक, अपराधियों, चोर-बाजारियों, मुनाफाखोरों तथा ऐसे ही लोगों के मुकदमे जल्द निपटाने की आड़ में लोकप्रिय बनाने की कोशिश हो रही है. एक बार इस तरीके के आमतौर पर प्रचलित हो जाने और ऐसा करना जरूरी भी दिखाई लगने पर इसका इस्तेमाल विरोधियों को दबाने के लिए राजनीतिक तौर पर भी किया जाएगा. एस्मा (आवश्यक सेवा कानून) का तो इस दिशा में इस्तेमाल भी शुरू हो गया है. अपने देश की न्याय-व्यवस्था में कई कमियां हैं. ये खर्चीले हैं और इसकी कार्रवाई में विदेशी भाषा का इस्तेमाल होता है. अदालतें गावों से दूर शहरों और कस्बो में स्थित हैं, लेकिन इन कमियों को दूर करने की कोई कोशिश नहीं हो रही है. इसके विपरीत इस देश में न्याय-व्यवस्था की जो कुछ भी आजादी है, उसे खत्म करने की कोशिशें हो रही हैं. सत्तारूढ़ शक्तियों की तरफ से यह एक वहुत ही निर्णायक प्रयास है, क्योंकि यही आजादी आज पूरी तानाशाही के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बन रही है. सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द भारती, गोलकनाथ और मिनर्वामिल मामलों से पहले ऐसे कई निर्णय दिए हैं, जिनसे यह सुनिश्चित होता है कि लोकसभा भारतीय संविधान के मौलिक ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती. इस मौलिक ढांचे में संसदीय लोकतंत्र, मौलिक अधिकार तथा स्वतंत्र-न्याय प्रणाली आदि का समावेश है. यह निर्णय संविधान में सुधार करके उसकी लोकतांत्रिक विशेषताएं खत्म करने में बाधक बन रहा है. इसलिए भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इस विनिर्णय को खत्म करने के लिए एक याचिका दाखिल की है. इस बीच अदालतों तथा हाईकोर्टों में भी ऐसे जी-हुजूर लोगों को रखने की कोशिश हो रही है, जो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के इशारे पर फैसला व विनिर्णय देंगे. सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के सुझाव अवहेलना करके भी कार्यपालिका की जजों-संबधी नियुक्ति के अधिकार को मान्यता दी है. अभी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में मिलाकर 85 जगहें खाली है और लाखों केस विचार के लिए इकट्ठा हो गए हैं, लेकिन नियुक्ति में जान-बूझकर देरी की जा रही है, क्योंकि जी-हुजूर लोगों की तलाश की जा रही है. संभावित नियुक्तियों की पृष्ठभुमि के संबध में पुलिस खोजबीन कर रही है कि कहीं किसी में चारित्रिक स्वतंत्रता का कोई लेश तो नहीं है.
आपातकाल में विभिन्न हाईकोर्टों के 17 जजों को अन्य राज्यों में स्थानांतरित कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने जो फैसले दिए वे सरकार के लिए रुचिकर नहीं थे. इसी अस्त्र का इस्तेमाल अब स्वतंत्र विचार वाले जजों को परेशान करने के लिए किया जा रहा है.
सरकार ने अब अपना यह इरादा घोषित कर दिया है कि हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य जजों की संख्या के एक तिहाई दूसरे राज्यों से रखे जाएंगे. इसके लिए एक भारी-भरकम कारण यह बताया जा रहा कि इस तरह राष्ट्र की भावनात्मक एकता में मदद मिलेगी, लेकिन ऐसी अन्य कोशिशों के संदर्भ में देखने पर पता चलेगा कि इसके पीछे असली इरादा है वरिष्टता के नियम को दरकिनार कर देना, ताकि अदालतों की खाली जगहों को जल्द भरा जा सके, नहीं तो जगहें भरने में कई साल लग सकते हैं.
न्यायपालिका में सुधार के लिए न्यायमूर्ति श्री के. के मैथ्यू की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की गई है. इस आयोग ने एक प्रश्नावली वितरीत की है, जो एक प्रचार-पत्र अधिक प्रतीत होता है. आयोग ने सुझाव के तौर पर जो विचार दिए हैं, उनमें से एक है संवैधानिक मामलों के निबटारे के लिए सर्वोच्च न्यायालय को दो भागों में विभाजित कर एक संवैधानिक अदालत का निर्माण. यह सुझाव भी दिया गया है कि इस अदालत में राजनीतिज्ञ भी रहें, इस तर्क पर कि वे संवैधानिक प्रश्न ज्यादा अच्छा तरह समझते हैं. साफ है कि इरादा एक ऐसी अदालत रखने का है, जो सत्तासीन शक्तियों के इशारे पर रहे, न कि उसमें जजों का स्थान हो, वे चाहे जितनी अच्छी प्रकार क्यों न चुने गए हों
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