भारतीय संविधान पर खतरा ही खतरा
न्यू इण्डिया में गायब भारत दैट इज इण्डिया
दै.मू..ब्यूरो/नागपुर
मोदी जी अक्सर अपने स्वप्न का ”न्यू इंडिया” बनाने की ढोल पीट रहे हैं। इसका निर्माण 2019 तक तो नही ही हो सकता है, जाहिर बात है वह अपने मौजूदा शासन काल से आगे की सोच रहे हैं। लेकिन इसका अवसर उन्हें मिलेगा या नहीं मगर यह पूरे दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि अगला चुनाव भी ईवीएम से हुआ तो निश्चित तौर पर सŸा भाजपा को ही मिलेगी। पर क्या यह भी हो सकता है कि वह नया चुनाव कराये बिना ही सत्ता में बने रहे? क्योंकि जब तक ईवीएम है तब तक उनके शब्दकोष में असम्भव-अकल्पनीय कुछ भी नहीं है।
राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि उन्हें ऐसे बहुत सारे काम पूरे करने हैं जिनके लिए आरएसएस द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया गया। इन कामों में भारत को ‘घोषित’ करने की जमीन तैयार करना भी है, जिसमें मौजूदा संविधान बाधक है। मौजूदा संविधान में कहीं भी जबकि ‘न्यू इंडिया’ का जिक्र नहीं है। अलबत्ता, संविधान सभा की 26 नवम्बर 1949 को पारित और कार्यान्वित संविधान की प्रस्तावना में ही स्पष्ट लिखा है कि ‘इंडिया दैट इज भारत’ सर्वप्रभुता संपन्न, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपनी ‘मातृ संस्था’ कहती है उसे यह संविधान कभी रास नहीं आया। जब आरएसएस को ही संविधान कभी रास नहीं आया तो क्या भाजपा को संविधान रास आयेगा? इसके अलावा आरएसएस का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कभी भी कोई योगदान नहीं रहा। बल्कि इसके विपरित उसने संविधान निर्माण के समय उसके मूल स्वरुप का विरोध भी किया था। यही नहीं उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्र भारत का मौजूदा संविधान बनने पर उसकी प्रतियां भी जला दी थी। आरएसएस को संविधान की प्रस्तावना में शामिल सेक्यूलर (धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष) पदबंध नहीं सुहाता है। उसके अनुसार धर्मनिरपेक्ष शब्द मात्र से भारत के धर्मविहीन होने की बू आती है। जबकि यह जनसंख्या के आधार पर मूलनिवासियों देश है। आरएसएस के राजनीतिक अंग कही जाने वाली भाजपा का हमेशा से कहना रहा है कि आजादी के बाद से सत्ता में रहे अन्य सभी दलों और खास कर कांग्रेस ने वोट की राजनीति कर अल्पसंख्यक मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है और हिन्दू हितों की घोर उपेक्षा की है। जिसका ज्वलंत उदाहरण अयोध्या में विवादित परिसर में राम मंदिर के निर्माण में विद्यमान अवरोध है।
विश्व के एकमेव राष्ट्र रहे पड़ोसी नेपाल में जबर्दस्त जन-आंदोलन के बाद राजशाही की समाप्ति के उपरान्त अपनाये नए संविधान में इस देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किये जाने के प्रति मोदी सरकार की खिन्नता छुपाये छुप नहीं सकी और उसने इसके प्रतिकार के रूप में कुछ वर्ष पहले नेपाल की कई माह तक अघोषित आर्थिक नाकाबंदी कर दी। भाजपा किसी भी देश को इस्लामी घोषित किये जाने से चिढ़ती है और साफ कहती है कि उसे ‘‘मजहबी राष्ट्र’’ मंजूर नहीं है। फिर भी आरएसएस के भाजपा समेत सभी आनुषांगिक संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के पक्षधर हैं।
मोदी जी का न्यू इंडिया आरएसएस के सपनों के हिन्दू राष्ट्र का ही सर्वनाम है, जिसकी परतें खुलने में समय लगेगा। क्योंकि मौजूदा संविधान में भले ही अब तक एक सौ से भी अधिक संशोधन किये जा चुके हैं, लेकिन उसके मूल चरित्र को पलटना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है। न्यू इंडिया के लिए नया संविधान बनाने की मोदी जी की मंशा भी स्पष्ट झलक रही है। गणतंत्र की पूर्व संध्या पर ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के उनके खुलेआम दिए एक वक्तव्य से जाहिर हो चुका है। इस वक्तव्य की व्याख्या नेशनल दुनिया के 5 फरवरी 2018 के अंक में वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल के प्रकाशित आलेख में की जा चुकी है। मोदी जी की मंशा यह है कि लोकसभा और देश की सभी विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ करा लिए जाएँ ताकि विभिन्न राज्यों में अलग-अलग चुनाव न कराना पड़े और एक ही झटके में केन्द्र सहित देश के विभिन्न राज्यों में अपनी सŸसस कायम कर सके। आलेख के अनुसार चुनाव कराने पर राजकीय खर्च प्रति मतदाता 2009 और 2014 के आम चुनाव में क्रमशः 12 रूपये और 17 रूपये पड़ा था।
इस तथ्य को पुरजोर तरीके से रेखांकित किया जाना चाहिए कि भारत, संघराज्य है जिसके सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव केंद्र की विधायिका के निम्न सदन, लोकसभा के चुनाव के साथ ही कराने की अनिवार्यता का कोई सा भी संवैधानिक प्रावधान नहीं है। संविधान रचनाकारों ने ‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ के सिद्धांत को अपनाया है। उनके पास स्वतंत्र भारत की पहली लोकसभा के साथ ही सभी विधानसभाओं के भी चुनाव संपन्न कराने की व्यवस्था का प्रावधान रखने का विकल्प था, पर उन्होंने भारत में संवैधानिक लोकतंत्रं की आवश्यकताओं के मद्देनजर बहुत सोच-समझकर केंद्र के केंद्रीयतावाद की प्रवृति पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना।
इस बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का हालिया कथन कि आरएसएस चंद मिनट में अपनी फौज खड़ी कर लेगा राजकाज में खुरपेंच है। वह मोदी की तरह कच्चे बयान नहीं देते है। उन्होंने बहुत सोच-समझकर ही यह बयान दिया है। वह भलि-भांति जानते हैं कि आरएसएस के दीर्घकालीन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसके पास मोदी राज संभवतः अंतिम मौका है। वह इस बात से भी अवगत हैं कि समय, मोदी जी के हाथ से रेत की तरह फिसला जा रहा है और जिस लंपट पूंजीवाद के धनबल पर मोदी राज कायम हुआ है वह भी हवा के एक झोंके भर से उसी तरह खत्म भी हो सकता है जिस तरह ताश के पत्तों के बनाये महल जरा-सी फूँक से बिखर जाते हैं।
भागवत जी के बयान से उनका कुछ दर्प साफ झलकता हैं कि आरएसएस के पास भारत सरकार की आधिकारिक सेना के समानांतर एक हथियारबंद सेना मौजूद है। उनके कहने का मतलब साफ है कि भारतीय सेना से ज्यादा अनुशासन संघ की सेना में है। भारत सरकार की सेना जंग की तैयारी करने में छह महीने लेगी, जबकि आरएसएस के स्वयंसेवकों को ऐसा करने में महज तीन दिन लगेंगे। बेशक आरएसएस ने भागवत जी के बयान को मीडिया में तोड़-मरोड़कर पेश किया गया बताकर लोगों का ध्यान आरएसएस की गुप्त रणनीति से हटाने की कोशिश की है। पर कुछ सवाल तो खड़े हो ही गए हैं कि भारत की फौज से बड़ी कोई निजी फौज देश में कैसे हो सकती?, क्या आरएसएस को भारतीय सेना पर भरोसा नहीं है? क्या कोई गृहयुद्ध की तैयारी चल रही है? मोदी सरकार इस पर चुप क्यों है? क्या मोदी सरकार सिर्फ मुखौटा है और आरएसएस राजसत्ता की बागडोर खुद संभाल रहा है?
आरएसएस सैद्धांतिक रूप से भारत के संविधान को नहीं मानता है, भागवत जी के बयान से लगता है कि आरएसएस की सेना के इस्तेमाल में संविधान आड़े आ रहा है। इसलिए मोदी सरकार पर संविधान पलटने का दबाब है। यह रेखांकित करना जरूरी है कि जिन्हे आरएसएस के बारे में समुचित प्रामाणिक जानकारी नहीं है वही इसकी स्थापना के 93 वर्ष बाद भागवत जी के खुली घोषणा से चौंक सकते है। 2025 में आरएसएस की स्थापना की शताब्दि जयन्ती है और वह चाहता है कि तब तक भारत, विधिवत हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिये जाएं।
गौरतलब है कि जब नाजी हिटलर के घोर दमनकारी और फासीवादी राजकाज की दुनिया भर में प्रतिरोध शुरू हुआ था तब आरएसएस के द्धितीय सरसंघ संचालक, सदाशिवराव माधवराव गोलवलकर, ने अंग्रेजी में ‘वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि भारत के हिंदुओं को हिटलर से सबक सीखनी चाहिए। आरएसएस ने अपने गुरु गोलवलकर की इस पुस्तक से कभी पल्ला नही झाड़ा है। पर उसने इस पुस्तक का ज्यादा प्रकाशन और प्रचार करने से पीछे हटना, बल्कि छुपा देना ही रणनीतिक कारणों से श्रेयष्कर समझा। दिल्ली के एक्टिविस्ट शम्शुल इस्लाम ने उक्त पुस्तक की मूल प्रति ढूंढ कर उसके किये हुए पन्नों को ज्यों का त्यों का समावेश कर ‘गुरु जी’ की बातों की पोल खोलने के लिए एक नई पुस्तक लिख डाली जो अमेजॉन से कोई भी खरीद सकता है। गुरु जी की पुस्तक पहली बार 1939 में छपी थी। कुछ लोग इसे आरएसएस का बाइबिल कहते हैं। इस पुस्तक से और आरएसएस वर्ष की गतिविधियों पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि उसके लिए ‘हिन्दू’ का मतलब ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और ‘राष्ट्र’ का मतलब मनुवादी फासीवाद है।
एक बात साफ है कि आरएसएस कोई सांस्कृतिक संगठन नहीं है। उसके उदेश्य राजनीतिक हैं। समाज सेवा और एकात्म मानववाद के उसके घोषित लक्ष्य महज जुमले हैं। आरएसएस खुद भी अपने राजनीतिक उदेश्य काफी हद तक सबके सामने रख दिया है। यह उदेश्य है भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना। पर ‘हिन्दू’ और ‘राष्ट्र’ का वह मतलब नही है जो आम लोग समझते है। आरएसएस की स्थापना 1925 में डॉक्टर के.बी. हेडगेवार ने की थी। पर उसे वैचारिक एवं संगठनिक आधार गुरु गोलवरकर ने प्रदान किया। आरएसएस की स्थापना महाराष्ट्र में ब्राह्मणवाद के खिलाफ सशक्त आंदोलनों की प्रतिक्रिया में सवर्ण जातियों द्वारा हिन्दू के नाम पर अपना प्रभुत्व बहाल करने के लिए की गई थी। ये आंदोलन 1870 दशक में ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में ‘पिछड़ी’ जातियों ने और 1920 के दशक में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की अगुवाई में अनुसूचित जाति, अनु.जनजातियों ने छेड़ी थह। ये महज संयोग नही है कि आरएसएस के अब तक के सभी प्रमुख ब्राह्मण रहे है। बाद में 1994 में एक गैर-ब्राह्मण लेकिन सवर्ण ही (क्षत्रीय) राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया आरएसएस के चौथे प्रमुख बने जो उत्तर प्रदेश के थे।
आरएसएस के वैचारिक आधारों पर और बात करने से पहले उसके सांगठनिक तंत्र को समझ लेना अच्छा रहेगा। आरएसएस के अखिल भारतीय सह बौद्धिक प्रमुख कौशल किशोर की ‘प्रेरणा’ से 1992 में ‘लक्ष्य एक कार्य अनेक’ नाम की एक पुस्तक छपी। इसके अनुसार आरएसएस के नियंत्रण में अखिल भारतीय स्तर के 25 और प्रांतीय स्तर के 35 संगठन हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विद्या भारती प्रमुख हैं। इसी पुस्तक के अनुसार तब देश भर के 25 हजार स्थानों पर आरएसएस की नियमित शाखाएं लगती थीं। पुस्तक 1992 की है इसलिए जाहिर सी बात है उसके बाद के इन करीब 28 सालों में उनकी संख्या में कई गुना बढ़ोत्तरी हो चुकी है। बहरहाल उक्त पुस्तक के अनुसार इन शाखाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका ‘राष्ट्र का हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यकरण’ की कार्यनीति को आगे बढ़ाना है। जैसा कि पुस्तक शीर्षक से ही स्पष्ट है आरएसएस के जितने भी संगठन, समितियां और मंच हो सबका एक अंतिम लक्ष्य है और वह ‘हिन्दू-राष्ट्र’ है। लेकिन हिन्दू राष्ट्र में क्या-क्या होगा और क्या-क्या नहीं होगा, यह तय कैसे होगा, कब तय होगा, कौन तय करेगा? ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं, जिनके उत्तर एक झटके में नहीं दिए जा सकते हैं। नया संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए मौजूदा संविधान की समीक्षा कर उसे बदलने के लिए आवश्यक विधिक उपायों की संस्तुति करने के वास्ते एक कमेटी बनाने की चर्चा की जा रही है। आरएसएस के पूर्व प्रचारक एवं सिद्धांतकार और भाजपा के पदाधिकारी रहे के एन गोविंदाचार्य इस काम में लगे हैं। उन्होंने यह स्वीकार भी किया है। उनका कहना है कि मौजूदा संविधान में ‘भारतीयता’ नहीं है उसकी जगह नया संविधान बने। कुल मिलाकर बात यहीं पर आकर रूकती है कि संघ और भाजपा मिलकर न्यू इण्डिया बनाकर ‘इण्डिया दैट इज भारत’ को खत्म करना चाहते हैं अर्थात मौजूदा भारतीय संविधान को खत्म कर पुनः मनुस्मृति लागू करना चाहते हैं।
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