मंगलवार, 27 मार्च 2018

मीडिया पर बढ़ता सत्ता का दबाव कहीं दूसरे आपातकाल का संकेत तो नही

मीडिया पर बढ़ता सत्ता का दबाव कहीं दूसरे आपातकाल का संकेत तो नही
यूँ तो देश में मीडिया की आज़ादी को लेकर अक्सर बहस होती रहती है लेकिन विगत दिनों आई कुछ खबरों ने सच में इस बहस को संजीदा बना दिया है l अभी हाल ही में ndtv के प्रमोटरों के घर पर सीबीआई का छपा और बिहार के एक सर्वोच्च नेता द्वारा एक पत्रकार को खुलेआम थप्पड़ मारने की धमकी देना कुछ ऐसा ही वाकिया है l योगी जी के राज में यूपी में भी पत्रकारों की धड़ पकड़ बढ़ी है l माना जाता है कि हाल के दौर में सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वाले लोगों पर हमले तेज हुए हैंl इसके सबसे ज्यादा शिकार ईमानदार पत्रकार और सच्चे समाजसेवी रहे हैं l यह हमला उन्मत्त भीड़ द्वारा किया जाता हैl कई बार सरकार की भी इसमें शह होती हैl इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट यानी I.F.J के सर्वे के अनुसार वर्ष 2016 में पूरी दुनिया में 122 पत्रकार मीडियाकर्मी मारे गये जिनमें भारत में भी पांच पत्रकारों की हत्या हुई है l डराने धमकाने की जहाँ तक बात है तो शायद ही कोई ऐसा सच्चा पत्रकार होगा जिसे रोज रोज धमकी नहीं मिलती होगीl वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 3 पायदान पीछे होते हुए 136 नंबर पर गया हैl यानी भारत में प्रेस की आज़ादी पर बहुत बड़ा संकट दिखाई पड़ता है l यूँ तो सत्ता और मीडिया में हमेशा से 36 का आंकड़ा रहा है लेकिन कई बार शक्तिशाली सताएं भी मीडिया के दमन से परहेज़ नहीं करतीl दूसरी बात यह है कि कई बार मीडिया भी अपने मूल चरित्र से इतर कुछ लाभ के लिए सत्ता और बाज़ार के हाथों की कठपुतली बन जाती हैl इन सबके बाबजूद आज भी एक तबका ऐसा है जो स्वतंत्र अख़बार के बिना सरकार की मान्यता को खारिज़ करता है और मीडिया की आज़ादी के लिए कमिटेड है l तो सवाल उठता है कि क्या वर्तमान दौर में मीडिया की आज़ादी खतरे में है ? क्या मीडिया पर युक्तियुक्त प्रतिबंध का मतलब लोगों के मौलिक अधिकार का हनन है ? क्या यह आईडिया ऑफ़ इंडिया और लोकतंत्र की मान्यता के विपरीत है l सवाल यह भी उठता है कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया की बढती निरंकुशता पर प्रतिबन्ध गलत क्यों है? क्या यह आपातकाल 2 का संकेत है ? इस प्रकार मूल सवाल यही है कि वर्तमान दौर में मीडिया का चाल, चरित्र और आचरण क्या और क्यों है तथा उस पर सत्ता के नियंत्रण की कोशिश कितनी उचित है ? मिशन से प्रोफेशन की ओर मीडिया का गमन क्या बाजारवादी संकल्पना को इंगित करता है? इन्हीं सब सवालों के जबाब खोजता है यह आलेख।

देखा जाए तो वर्तमान दौर सूचना, संचार प्रद्योगिकी का युग है l सूचना क्रांति के विकास काल में आज प्रेस शब्द का अर्थ अति व्यापक हो गया हैl आज प्रेस का अर्थ समाचार के समस्त माध्यमों से लगाया जाता है जिसे मीडिया कहते हैं l इसमें प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया सभी शामिल हैंl मीडिया हमें मुद्दों से परिचित कराता है, ताज़ा खबरें बताता है, अनेक सामाजिक, राजनैतिक मुद्दों पर राय बनाने में हमारी मदद करता है और सूचना स्रोत के रूप में काम करते हुए कई प्रकार से हमारा मनोरंजन करता हैl मीडिया जहाँ संचार का साधन है वहीँ परिवर्तन का वाहक भी है l दरअसल भारतीय परिप्रेक्ष्य में संचार माध्यमों को ताकत स्वाधीनता आन्दोलन से मिलती है l चूँकि अंग्रेजी शासन के विरोध करने, राष्ट्रवाद जगाने और जागरूकता फैलाने में प्रेस की अभूतपूर्व भूमिका थी l अतः इसे लोकतंत्र का संरक्षक भी कहते हैं l नागरिक अधिकारों की तरफदारी और शासन की पहरेदारी का नैतिक दायित्व प्रेस पर था इसलिए एडमंड वर्क ने इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा l बताते चलें कि भारत में प्रेस की आज़ादी को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) () के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाता हैl यानी फ्रीडम ऑफ़ प्रेस एक मौलिक अधिकार के अंतर्गत आता हैl फिर भी सरकार इसपर प्रतिबंध क्यों चाहती है ?
कहने का आशय यह कि सत्ता चाहे राजशाही हो या लोकशाही वह अपने मूल चरित्र में अधिकारवादी ही होती है, जबकि मीडिया अपने मूल चरित्र में प्रश्नकर्ता होती हैl इसलिए सरकार नहीं चाहती कि कोई उसे कठघरे में खड़ा करे, अतः वह मीडिया को दबा कर रखना चाहती है l जब जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की मजबूत सरकार आती है तो वह महाशक्तिशाली बनने की चाहत में मीडिया पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश करती हैl इंदिरा गाँधी के शासनकाल में सन 1975 में लगाया गया आपातकाल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है l तो क्या वर्तमान दौर भी आपातकाल के साए में जी रहा है ?दरअसल डर का कोई दस्तावेज नहीं होता बल्कि इसका माहौल होता है l आपातकाल की सफलता भी मीडिया पर बैन और डर के माहौल के सृजन में ही था l जब कोई कहता है कि देश में इमरजेंसी नहीं है, इमरजेंसी का भ्रम फैलाया जा रहा है तो यही कहा जा सकता है कि सत्ता के आतंक और अंकुश का अंतिम पैमाना आपातकाल नहीं है l डराने के और भी सौ तरीके गए हैं, जो आपातकाल के वक्त नहीं थेl लोग सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ बोलने वाले को यदि गाली देते हैं, मीडिया हाउस पर यदि सीबीआई की दबिश की जाती है, उसके प्रसारण को बाधित किया जाता है तो यह सब क्या है? इस प्रकार की दबिश सिर्फ मीडिया पर ही नहीं बल्कि नागरिक आंदोलनों पर भी है l छात्र आंदोलन होता है तो यूनिवर्सिटी में इंटरनेट कनेक्शन काट दिया जाता है l पटेल और दलित आंदोलन होता है तो इंटरनेट बंद कर दिया जाता है l मंदसौर के किसानों का आंदोलन होता है तब भी इंटरनेट बंद कर दिया जाता हैl आखिर क्या तुक है इसका? सरकार यदि अपनी विफलता छुपाने के लिए मीडिया और इंटरनेट को बाधित करे तो क्या यह आपातकाल का लघु संस्करण नहीं है ? क्या यह फ्री प्रेस और लोकतंत्र की मान्यता पर कुठाराघात नहीं है? लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी बहुत ज़रूरी है l इसे आज़ादी की पहली शर्त माना जाता है l बोलने की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है l सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक मुद्दों पर लोगों की राय बनाने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी महत्वपूर्ण है l मेनका गांधी बनाम भारतीय संघ के मामले में न्यायमूर्ति भगवती ने बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के महत्व पर ज़ोर देते हुए व्यवस्था दी थी कि लोकतंत्र मुख्य रूप से स्वतंत्र बातचीत और बहस पर आधारित है l लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में सरकार की कार्रवाई के उपचार के लिए यही एक उचित व्यवस्था हैl अगर लोकतंत्र का मतलब जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है, तो यह स्पष्ट है कि हर नागरिक को सार्वजनिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार, चर्चा और बहस का अधिकार है जिससे उसे कोई वंचित नहीं कर सकता हैl इसलिए अनुच्छेद 19 (1) के तहत मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी में कोई भी नागरिक किसी भी माध्यम के द्वारा किसी भी मुद्दे पर अपनी राय और विचार दे सकता हैl प्रेस की आज़ादी भी इसी के अंतर्गत है l प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है l मराठी अखबार सकाल बनाम भारतीय संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि प्रेस की स्वतंत्रता की उत्पत्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ही हुई है l सुप्रीम कोर्ट ने कई अन्य मामलों में लोकतांत्रिक समाज में प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखने पर ज़ोर दिया है l कहने का तात्पर्य यह कि प्रेस की आज़ादी लोकतंत्र के लिए एक अनिवार्य शर्त हैl तो क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया का निरंकुश हो जाना उचित कहा जा सकता है ? बिलकुल नहीं, क्योंकि कोई भी आज़ादी असीमित नहीं हो सकतीl उस पर युक्तियुक्त निर्बंधन की भी संवैधानिक व्यवस्था है l अतः सत्ता पक्ष का आरोप यह है कि देश में जब से वर्तमान सरकार आई है एक खास तबका और मीडिया हाउस अपनी वैचरिक असहमति को पचा नहीं पा रहा है और प्रेस की आज़ादी की आड़ में सरकार की छवि धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा हैl तो क्या यह आरोप सही है? कुछ हद तक इसमें सच्चाई भी हो सकती हैl
यह बात सच है कि आपातकाल के समय से आज की मीडिया बहुत अलग हैl वैश्वीकरण के इस दौर में बाज़ारवादी व्यवस्था ने ऐसा तड़का लगाया है कि मीडिया जैसा एक जनोपयोगी मिशन भी एक बाजारोपयोगी प्रोफेसन बनने को बाध्य है l टीआरपी की चाहत में मीडिया अब उन मूल्यों को भी उतार कर फेंक देने को आतुर है जिसकी बांह पकड़कर समाज में उसने अपनी पहचान बनाई थीl मीडिया में आम जनता के दुःख दर्द तकलीफ की बात दिनों दिन कम होती जा रही है और फर्जी डिबेट्स बढता जा रहा हैl इन दिनों पीत पत्रकारिता का जोर बढ़ा है l मीडिया की असंवेदनशीलता को पत्रकार पी. साईंनाथ ने इस उदाहरण से समझाया था कि विदर्भ में किसानों की आत्महत्या को कवर करने के लिए मात्र 6 पत्रकार गये थे पर मुंबई में चलने वाले लक्मे फैशन वीक को कवर करने 600 पत्रकार l मीडिया की यह पतनशीलता क्या साबित करती है ? यही कि मीडिया जब भी जनसरोकार से दूर होती है और धन की चाहत में अपने नैतिक मूल्यों को भूलती है तो वह अधिकारवादी सत्ताओं का चारा बनने से भी परहेज नहीं करतीl आज भारत की मीडिया भी कमोवेश इसी परेशानी से जूझ रही हैl मीडिया का एक बहुसंख्यक तबका सत्ता की गोदी में खेल रहा है जबकि दूसरा वर्ग जनपक्षधरता की पत्रकारिता में सत्ता से लोहा ले रहा हैl ऐसे में जनमानस के नीर-छीर के विवेक का भ्रमित हो जाना स्वाभाविक हैl फिर भी आम जनता को यह समझना होगा कि सरकार की आलोचना या नीतियों पर सवाल उठाना देश को नीचा दिखाना नहीं होताl सत्ता से सवाल सिर्फ मीडिया बल्कि हरेक जनता का लोकतांत्रिक अधिकार हैl इसलिए मीडिया पर प्रतिबन्ध लोकतंत्र की मान्यता को खरिज करने जैसा होगाl
चर्चा का सार यही है कि मीडिया की आज़ादी लोकतंत्र की अनिवार्यता है और इसके साथ किसी तरह से समझौता नहीं किया जा सकता l मौलिक अधिकारों का सृजनकर्त्ता देश अमेरिका में 1791 में पहला संवैधानिक संशोधन भी प्रेस की आज़ादी को लेकर ही था l इसलिए आज़ाद मीडिया लोकतंत्र की आधारशिला हैl लेकिन आज के दौर को देखें तो आजकल पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के कारण एक ऐसे ओथेटेरेनियन सरकार का आगमन हुआ है जो सबसे पहले ईमानदार मीडिया को खत्म करती है, जन आंदोलनों का दमन करती है और विपक्ष को मृतप्राय बनाते हुए थोडा बचाकर भी रखती है ताकि लोकतंत्र का अहसास बना रहे l फिर वह बिकाऊ मीडिया के द्वारा राष्ट्र की अवधारणा से सरकार को जोड़कर एक ऐसा भ्रम पैदा करती है जिसमें सरकार की आलोचना का मतलब राष्ट्र की आलोचना समझ ली जाती हैl अतः इस प्रकार की प्रवृति से देश को बचाने के लिए ईमानदार और स्वतंत्र मीडिया की दरकार हैl वरना लोकतंत्र बचेगा, देश, ही मानवता सुरक्षित रह पायेगीl आपातकाल से भी 1977 में देश के प्रगतिशील लोगों ने लोहा लिया था और सफल हुए थे, आज भी वही ज़रूरत आन पड़ी है l इसलिए मडिया पर सत्ता की दविश के खिलाफ प्रगतिशील जनमानस का उभार ज़रूरी है l वर्ना यह सिफ आपातकाल का ही नहीं बल्कि फांसीवाद का भी स्केट होगा l कुल मिलाकर अमेरिकी राष्ट्रपति जेफरसन के शब्दों में यदि कहें तोअगर मुझे अखबारों के बगैर सरकार या सरकार के बगैर अखबार में से किसी एक विकल्प को चुनना होगा तो बेझिझक मैं दूसरा विकल्प चुनूंगा।

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