मंगलवार, 27 मार्च 2018

राजकोट में जल संकट, एक घड़ा पानी के लिए घंटों तक लग रही हैं ऐसी कतारें

राजकोट में जल संकट, एक घड़ा पानी के लिए घंटों तक लग रही हैं ऐसी कतारे




दै.मू.ब्यूरो/सूरत
आज न केवल गुजरात का सुरत पानी के लिए तरस रहा है, बल्कि देश का कोना-कोना पानी के के भीषण संकट से जूझ रहा है तो वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न केवल भारत में पानी का व्यापार करने की छूट दी जा रही है, बल्कि जल स्रोत घटने के साथ-साथ उनका निजीकरण भी होता जा रहा है। आज देश में पानी की कितनी किल्लत है इसका सबूत राजकोट जिले के लोधिका तहसील का हरिपरा गांव का यह तस्वीर दे रहा है। जहां एक घडे़ पानी के लिए घंटों तक कई किलोमीटर तक की लाईन में खड़ा होना पड़ता है।
दैनिक मूलनिवासी नायक स्थानीय संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि राजकोट जिले के लोधिका तहसील का हरिपरा (तरवड़ा) गांव शहर से 15 किमी दूर है, लेकिन यहां पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। दूसरे गांवों में निजी टैंकरों से पानी सप्लाई के बाद इस गांव में पानी पहुंचता है। गर्मी की शुरुआत में ही पानी का फोर्स कम हो गया है। इस कारण 15 दिनों से हरिपरा गांव में पानी नहीं आ रहा है। दोपहर में पानी भरने की उम्मीद में महिलाएं गांव से बाहर जाती हैं। उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद निजी टैंकर से पानी लेने के लिए दोपहर में ढाई बजे कड़ी धूप में घंटों तक इस तरह लाइन में बैठकर इंतजार करती हैं। इसके बाद भी खाली हाथ लौटना पड़ता है। पानी मुहैया कराने के लिए न तो सरकार टैंकर पहुंचाती है और न ही इस काम के लिए सरकार के पास पैसे ही हैं। ग्रामीण पैसे इकट्ठा करके रोज 3000 रुपए में टैंकर से पानी मंगाते हैं।
आपको बताते चलें कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक को जीने के अधिकार की मान्यता दी गई है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाएं क्या हों इनके औचित्य को तय करने वाले न तो बिंदु तय किए गए और न ही उन्हें बिंदूवार परिभाषित किया गया। इसलिए जल की तरह भोजन, आवास और शिक्षा जैसे जीने के बुनियादी मुद्दे पूरी तरह संवैधानिक हक हासिल कर लेने से वंचित हैं, लिहाजा ऐसे दौर में भूख, कुपोषण और पानी मानवाधिकार संगठनों और समाज सेवी संस्थाओं की निगाह में हैं तब भी केन्द्र और प्रदेश की सरकारें संविधान के अनुच्छेद इक्कीस पर कोई बहस करने की बजाय कुण्डली मारे बैठी है। 2002 में जब अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्रित्व में एनडीए की सरकार केन्द्र में भी तब तथाकथित जल नीति के अंतर्गत इस सरकार ने पानी के बेलगाम दोहन करने के कारोबार की छूट निजी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देकर पानी से मानव समूहों के साझा हक से बेदखल कर देने का रास्ता खोल दिया। चौंकाने की बात तो यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में पानी का व्यापार करने की छूट योरोपीयन यूनियन के दबाव में दे दी गई। भारतीय जल को वैश्विक बाजार के हवाले कर देने का मतलब है, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। क्योंकि पानी अब केवल साधारण पेयजल न रहकर विश्व बाजार में नीला सोना बन चुका है। देश में जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है और जल स्रोत घटने के साथ उनका निजीकरण भी होता जा रहा है, ऐसे में पानी को लाभ के बाजार में तब्दील करके एक बड़ी गरीब व लाचार आबादी को जीवनदायी जल से वंचित किया जा रहा है। 

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