सिर चढ़कर बोलता अंधविश्वास का पाखण्ड
छोटी-छोटी बातों पर महिलाओं को टोनहिन, डायन, नजर की खराब कहना, कई इलाकों में एक चलन बन गया है। गाय दूध नहीं देती, बकरी मर गई, किसी के बेटे की तबीयत खराब हो गई तो बेवजह किसी को डायन कह दिया जाता है। महिलाओं को पहले डायन घोषित कर उन्हें समाज से अलग-थलग किया जाता है, फिर पाश्विक बर्ताव, रेप, बाल काट देना, मुंडन कर देना और कपड़े उतार कर गांव से बाहर कर देने जैसी अमानवीय हरकतों का सिलसिला शुरू हो जाता है। जहां अंधविश्वास का पाखंड सिर चढ़कर बोल रहा हो वहां ना लागू हो पाने वाले कानून का राज हो जाता है। राजस्थान के आदिवासी जिले, बांसवाड़ा, चित्तौडगढ़, उदयपुर, भीलवाड़ा, डूंगरपुर, सिरेही और जालोर गणतंत्र की सत्तरवीं सालगिरह पर भी इस अभिशाप से मुक्त नहीं है। डायन, मौताणा और रुदाली सरीखी विकृतियों की कू्ररता ने जल, जंगल ओर जमीन के स्वर्ग मानने वाले आदिवासियों की जिन्दगी की चूलें हिला दी है। सरकार की बेरूखी और ठिकानेदारों के पाखंड के दो पाटों बीच पिसते हुए आदिवासी, अंधविश्वास के दबंगों की ऐसी प्रताडना सह रहे हैं उनकी कल्पना भी सिहरा देने वाली है। हाल ही में झारखंड की राजधानी रांची से 45 किलोमीटर दूर एक गांव में 5 महिलाओं को कथित तौर पर डायन बताकर मार डाला गया। हत्या का कारण एक परिवार में एक बच्चे का बीमार होना था। इलाज कराने की जगह बीमारी का जिम्मेदार इन महिलाओं को बताया गया और एक-एक कर पांच महिलाओं की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। ये दर्द भरी कहानी सिर्फ झारखंड की महिलाओं की ही नहीं है, बल्कि ओडिशा छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों की सैंकड़ों महिलाओं को कभी न कभी कथित तौर पर डायन करार दिए जाने का दंश झेलना पड़ रहा है। अंधविश्वास के चलते महिलाओं को डायन बताकर मार डालने का चलन झारखंड में नया नहीं है। किसी के घर में कोई भी घटना घट गई तो जिम्मेदार या तो घर की किसी महिला या पड़ोस की महिला को मान लिया जाता है। हर बीमारी में इलाज के पहले झाड़ फूंक, तंत्र-मंत्र का इस्तेमाल किया जाता है। तंत्र-मंत्र से बीमारी ठीक नहीं हुई तो माना जाता है कि डायन का प्रकोप ज्यादा है। फिर ग्रामीण एक साथ मिलकर तथाकथित डायन पर हमला कर देते हैं। उसका नसीब अच्छा रहा तो जान बच गई वरना सांसें टूट जाती हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के आंकड़ों के मुताबिक कबीलाई हिंसक प्रथाओं और दबंगों की प्रताडनों को भुगतने के मामले में राजस्थान देश में अव्वल नंबर पर है और इस निर्ममता की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं हो रही हैं। आदिवासी इलाकों में कानून का राज ओझल रहा है तो दबंगों के तेवर जन प्रतिनिधियों को भी चुप्पी की चादर ओढ़ने को विवश कर दिया है। आदिवासियों को पाखंड की निर्ममता से मुक्ति दिलाना इस शताब्दी का सर्वोच्च सामाजिक सुधार होना चाहिए था, लेकिन सियासी रिश्तों का कवच पहने रजवाड़ों का बाल भी बांका नहीं कर पाते। राजनेता यह कह कर निर्मम घटनाओं से छुटकारा पा लेते हैं कि आदिवासियों में काला जादू का अंधश्विस काफी गहरा है। ऐसा है भी तो राजस्थान हाईकोर्ट के जोधपुर खंडपीठ के न्यायाधीश गोपालकृष्ण व्यास के उन निर्देशों का क्या हुआ, जिसमें उन्होंनें राज्य सरकार को फटकार लगाई थी कि, महिलाओं को कोई डायन कैसे बता सकता है? लेकिन राज्य सरकार तो आज भी इस सवाल पर चुप्पी साधे बैठी है। डायन प्रताडना के मामले रुक क्यों नहीं रहे? फिर राज्य सरकार के उस खटराग का क्या मतलब हुआ जिसमें दुहाई दी जा रही है कि नारी का सशक्तिकरण ही समाज का सशक्तिकरण है? राजस्थान के विशिष्ट सामंती ढांचे की बदौलत सामाजिक टकराव आदिवासियों और जनजातियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के रूप में दिखाई पड़ रहा है। जमीनी पड़ताल इस बात को पुख्ता करती है कि आदिवासियों की संपत्ति हड़पने के लिए उन्हें डायन करार देना, अप्राकृतिक मौतों पर मोताणें की कुरीति के जरिए धन वसूली करना और अपने परिजनों की मौत पर सरीखी प्रथा की आड़ में आदिवासी औरतों को रोने के लिए विवश करना तो सीधे-सीधे सामाजिक ढांचे को जकड़बंदी में रखना है। इसका सीधा संबंध वर्चस्ववादी ब्राह्मणवादी संस्कृति को बढ़ावा देना है।
नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकॉर्ड्स के मुताबिक साल 2000 से 2012 के बीच झारखंड में 363 महिलाओं की हत्या डायन बताकर की गई। देशभर में ये आंकड़ा 2097 हत्या का था। एनसीआरबी के आंकड़े के मुताबिक साल 2008-13 तक झारखंड में 220, ओडिशा में 177, आंध्र प्रदेश में 143, हरियाणा में 117, मध्यप्रदेश में 94, छत्तीसगढ़ में 61 और राजस्थान में 4 महिलाओं की हत्या की गई। झारखंड में ये समस्या विकराल रूप में है। ओडिशा, आंध्र प्रदेश भी इस तरह की हत्याओं के मामले में ज्यादा पीछे नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार ने इसे रोकने के लिए कानून नहीं बनाए। मगर सरकार ने अपने तरफ कभी कोशिश ही नहीं की बल्कि अंधविश्वास को बढ़ावा देने में ही व्यस्त है। जिसके कारण आज भी तंत्र-मंत्र, जादू-टोना पर अंधविश्वास का राज कायम है। ये खतरनाक सोच समाज को खोखला कर रही है। सिरोही और जालोर के आदिवासी इलाकों में पराए लोगों की मौत पर रोने को अभिशप्त रुदालियों का क्रन्दन तो झुरझुरी पैदा करता है, जिनके आंसू कभी नहीं सूखते। आपको जानकर हैरानी होगी कि अपनों के लिए तो सभी आंसू बहाते हैं लेकिन ये वो महिलाएं हैं जो गैरों की मौत पर छाती-माता कूटती हुई विलाप करती हैं। रूदालियों के नाम से अभिशप्त पेशेवर रोने वालियां को गांव ढाणियों के दबंगों की मौत पर रोने के लिए जाना पड़ता है। दहाड़े मारकर रोने वालियों का विलाप बारह दिन तक चलता है और इसकी एवज में उन्हें प्याज और बचे-खुचे रोटियों के टुकड़े ही खाने को मिलता है। यह भी एक चौंकाने वाली बात है कि करीब दो सौ साल से चली आ रही, इस प्रथा के बारे में कहा जाता है कि यह रजवाड़ों और ठिकानेदारों की देन है। रजवाड़ों में रोना-बिलखना ’कायरता माना जाता था, इसलिए जब भी उनके परिवार में किसी की मौत होती तो मातम करने के लिए बाहरी महिलाओं को बुलाया जाता था, जो या तो आदिवासी होती थी या अछूत परिवारों से। अगर हम ठिकानेदारों के परिजनों की मौत पर रोने के लिए जाने से इंकार कर दें तो उन्हें भारी खामियाजा उठाना पड़ता है। यही नहीं जब आदिवासी महिलाएं मातम मनाती है तो शोक मनाने के लिए अनुसूचित जाति समुदाय के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को मुंडन करवाना पड़ता है।
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