शनिवार, 23 दिसंबर 2017

भोपाल गैस त्रासदी की डरावनी रात और चीखती सुबह




भोपाल की गैस त्रासदी पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना है। तीन दिसंबर, 1984 को आधी रात के बाद सुबह यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से निकली जहरीली गैस (मिक या मिथाइल आइसो साइनाइट) ने हजारों लोगों की जान ले ली थी। मरने वालों की संख्या को लेकर मदभेद हो सकते हैं, लेकिन इन त्रासदी की गंभीरता को लेकर किसी को कोई शक, शुबहा नहीं होगा। इसलिए इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मरने वालों की संख्या हजारों में थी। प्रभावितों की संख्या लाखों में हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उस मनहूस सुबह को यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर-सी में हुए रिसाव से बने गैस के बादल को हवा के झोंके अपने साथ बहाकर ले जा रहे थे और लोग मौत की नींद सोते जा रहे थे। लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर एकाएक क्या हो रहा है? कुछ लोगों का कहना है कि गैस के कारण लोगों की आंखों और सांस लेने में परेशानी हो रही थी। जिन लोगों के फैंफड़ों में बहुत गैस पहुंच गई थी वे सुबह देखने के लिए जीवित नहीं रहे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हजार लोग मारे गए थे। हालांकि गैर सरकारी स्रोत मानते हैं कि ये संख्या करीब तीन गुना ज्यादा थी। इतना ही नहीं, कुछ लोगों का दावा है कि मरने वालों की संख्या 15 हजार से भी अधिक रही होगी। पर मौतों का ये सिलसिला उस रात शुरू हुआ था वह बरसों तक चलता रहा। यह तीन दशक बाद भी जारी है, जबकि हम त्रासदी के सबक से सीख लेने की कवायद में लगे हैं।
 जानकार सूत्रों का कहना है कि कार्बाइड फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का रिसाव हुआ था और इसका कारण यह था कि फैक्टरी के टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस से पानी मिल गया था। इस घटना के बाद रासायनिक प्रक्रिया हुई और इसके परिणामस्वरूप टैंक में दबाव बना। अंततः टैंक खुल गया और गैस वायुमंडल में फैल गई। इस गैस के सबसे आसान शिकार भी कारखाने के पास बनी झुग्गी-झोपड़ी बनाकर रहने वाले मूलनिवासी लोग ही थे। ये वे मूलनिवासी लोग थे जो कि रोजीरोटी की तलाश में दूर-दूर के गांवों से आकर यहां पर रह रहे थे। उन्होंने नींद में ही अपनी आखिरी सांस ली। गैस को लोगों को मारने के लिए मात्र तीन मिनट ही काफी थे। जब बड़ी संख्या में लोग गैस से प्रभावित होकर आंखों में और सांस में तकलीफ की शिकायत लेकर अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टरों को भी पता नहीं था कि इस आपदा का कैसे इलाज किया जाए? संख्या भी इतनी अधिक थी कि लोगों को भर्ती करने की जगह नहीं रही। बहुतों को दिख नहीं रहा था तो बड़ी संख्या में लोगों का सिर चकरा रहा था। सांस लेने में तकलीफ तो हरेक को हो रही थी। मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया है कि पहले दो दिनों में लगभग 50 हजार लोगों का इलाज किया गया। जैसी कि आशंका थी कि शुरू में डॉक्टरों को ही ठीक तरह से पता नहीं था कि क्या इलाज किया जाए। शहर में ऐसे डॉक्टर भी नहीं थे, जिन्हें मिक गैस से पीड़ित लोगों के इलाज का कोई अनुभव रहा हो। हालांकि गैस रिसाव के आठ घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैसों के असर से मुक्त मान लिया गया, लेकिन वर्ष 1984 में हुई इस हादसे से भोपाल आज तक उबर नहीं पाया है। इससे भी हैरानी की बात तो यह है कि सरकार मरने वाले परिजनों और गैस से पीड़ितों के इलाज के लिए मुआवजे की घोषणा की थी, मगर वह 33 साल बाद भी सिर्फ कोरा कागज ही साबित हुआ। कितने पीड़ित परिवारों ने तो मुआवजे लेने के लिए सरकार और अधिकारियों के चक्कर लगाते-लगाते ही इस दुनिया से विदा हो गए, जो बचे खुचे हैं वो आज तक मुआवजे की आस में जी रहे हैं, लेकिन सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रहे हैं।

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