टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सभी 17 आरोपियों के बरी होने के फैसले को राजनीतिक दल और विश्लेषक अपने-अपने नजरिए से देख रहे हैं। तमिलनाडु की डीएमके को जैसे नई जिंदगी मिल गई है, जबकि कांग्रेस को भी इससे राहत मिली है, जिसे इसकी वजह से काफी फजीहत झेलनी पड़ी थी। राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि इससे बीजेपी-डीएमके सहयोग की शुरुआत हो सकती है। लेकिन इस शोर-शराबे में उन बातों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए, जिनका जिक्र सीबीआई की विशेष अदालत ने यह फैसला सुनाने के क्रम में किया। दरअसल जस्टिस ओपी सैनी के इस प्रेक्षण ने न केवल हमारी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर दिया है, बल्कि सीबीआई की विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिंह लग गया है। उन्होंने कहा कि अभियोजन पक्ष इस मामले में दो पक्षों के बीच धन के लेन-देन को साबित कर पाने में नाकाम रहा। शुरू में अभियोजन पक्ष बड़े उत्साह से सारे मामलों को रख रहा था, लेकिन फिर वह जरूरत से ज्यादा सतर्क और संभला हुआ सा लगने लगा। उसके रवैये से यह पता लगाना कठिन होता गया कि वह साबित क्या करना चाहता है। केस के आगे बढ़ने के साथ अभियोजन भटकता गया और अंत आते-आते न सिर्फ दिशाहीन हो गया बल्कि उसके इरादे भी संदिग्ध लगने लगे। जस्टिस सैनी ने यह भी कहा कि न तो कोई जांचकर्ता न ही कोई अभियोक्ता अदालत में पेश की गई चीजों या कही बातों की जवाबदेही लेने को तैयार था। इन टिप्पणियों से निष्कर्ष यही निकलता है कि पहले सीबीआई इस मामले की गंभीरता से जांच कर रही थी, लेकिन बाद में उसने जांच ढीली कर दी। इसकी दो ही वजहें हो सकती हैं। या तो सीबीआई के पास सिद्ध करने को कुछ था ही नहीं, या फिर उसने केंद्र सरकार के इशारे पर मामले को भटका दिया। क्या इससे यह नतीजा निकाला जाए कि केंद्र की एनडीए सरकार मामले को आगे बढ़ाना ही नहीं चाहती थी? दूसरा निष्कर्ष यह हो सकता है कि टू-जी स्पेक्ट्रम को लेकर बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने जो हो-हल्ला मचाया था, वह सब हवा-हवाई था। दोनों ही स्थितियों में यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। पहले किसी सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा बनाया जाए, उसे जनता में बदनाम किया जाए, उसकी बदनामी का भरपूर सियासी लाभ लिया जाए, और फिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए। यह खेल पहले भी खेला जा चुका है। विडंबना यह है कि इसमें सीबीआई जैसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल होता है, जबकि जनहित से जुड़े मामलों में ये संस्थाएं प्रायः कुछ भी नहीं करतीं। ऐसे में कहने को यही बचता है कि टू-जी मामले को बीच में न छोड़ा जाए। लोगों को पता चलना ही चाहिए कि हमारी राजनीति किस बिंदु तक पतित हो चुकी है।
आखिरकार 2-जी घोटाले के सभी 17 आरोपी उसी प्रकार बरी हो गये जिस प्रकार से शराब के नशे में अपनी कार से इंसानों को कुचलने वाला आरोपी सलमान खान, 2002 में बम ब्लास्ट करने वाला आतंकवादी असीमानन्द, प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल पुरोहित आदि सबूतों के अभाव में बरी होते चले गये। जबकि इतने सालों से चल रहे घोटाले के मुकदमे को सीबीआई की विशेष अदालत ने इसलिए बरी कर दिया कि अदालत के पास पर्याप्त सबूत नहीं थे। इस मामले के मुख्य आरोपी ए राजा और कनिमोझी थे। इस बात का तो संकेत उसी दिन मिल गया था कि देश के भ्रष्टाचारी बरी होने वाले हैं। जब ये लोग अदालत में पेश होने के लिए आए थे उसी वक्त इनके माथे पर कोई शिकन नहीं दिखाई दे रही थी। अब सवाल उठता है कि आखिर घोटाला किसने किया और जिस धन के अनिमियता की बात की गई थी, वह कहाँ गया? क्या पैसा हवा खा गई? अब सवाल उठना यह भी लाजमी है कि इतने सालो तक सीबीआई एक भी सबूत नहीं इकट्ठा कर पाई और साथ ही इतना समय भी बर्बाद किया। यह पहला ममला नहीं है इतना लंबा केस चलने के बाद आरोपी को बाइज्जत बरी कर दिया। इससे पहले हिट एंड रन मामले में सबूत के अभाव के चलते सलमान खान को बरी कर दिया गया। आरूषी के हत्यारे, असीमानन्द, कर्नल पुरोहित, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आदि को इसी तरह से रिहा कर दिया गया। इससे तो यही साबित होता है कि सीबीआई केन्द्र सरकार के इशारे पर जानबूझकर आरोपियों के खिलाफ कोई सबूत इकट्ठा नहीं कर पायी थी। पूर्वानुमान से लगता है कि जिस 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच सीबीआई कर रही थी, इस घोटाले में खुद सीबीआई भी शामिल है, यही कारण है कि सीबीआई आरोपियों के खिलाफ आज तक कोई सबूत नहीं इकट्ठा कर सका और सबूत के ही अभाव में अदालत ने उन्हें बरी भी कर दिया। यानी एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ बीजेपी दोनों ने मिलकर आरोपियों के ऊपर दिखावे के लिए केस चलाया और बाद में उन आरोपियों को बरी कर दिया गया।
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