रविवार, 24 दिसंबर 2017

हम संतों का राष्ट्रीय संगठन बनायेंगे और उसे ब्राह्मणों के संत संगठन से भिड़ा देंगे -मा. वामन मेश्राम

हम संतों का राष्ट्रीय संगठन बनायेंगे और उसे ब्राह्मणों के संत संगठन से भिड़ा देंगे -मा. वामन मेश्राम

संत रविदास का लम्बा काव्य है ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’, इसे विषय में चर्चा के लिए रखा। यह दोहा अवधी भाषा में है और इसमें भक्ति को भ्रम कहा गया है। मैंने अपने जीवन में पहली बार ‘भक्ति भरम है सो जान’ नामक काव्य पढ़ा। प्रोफेसर अहिरवार जो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर हैं। रविदास के साहित्य के ऊपर अलग-अलग प्रकार का जो रिचर्स साहित्य लिखा गया है, इन रिसर्च साहित्यों का सम्पादन किया गया है। जब इन रिसर्च साहित्यों का संपादन किया गया तो सम्पादन के बाद एक लम्बा काव्य बना, जिसका शिर्षक है ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’। शुद्ध हिन्दी में भ्रम कहते है, मगर अवधी में भरम कहते हैं। संत रविदास जी के समय में लोग भक्ति करते थे, तो भक्ति कई प्रकार से करते थे और जितने प्रकार से लोग भक्ति करते थे, वो सारे प्रकार रविदास जी ने उस काव्य में रिकॉर्ड करके रखा हैं। 
जब मैं पहली बार उसको पढ़ा तो मालूम पड़ा कि भक्ति कितने प्रकार के होते हैं, नहीं तो मुझे भी मालूम नहीं था कि कितने प्रकार के भक्ति होते हैं। अभी दादा महाराज ने नौ प्रकार का भक्ति बताया। मेरे ख्याल में संत रविदास जी ने सौ प्रकार से भी ज्यादा भक्ति की गिनतियाँ किया कि कैसे-कैसे लोग भक्ति करते थे? जैसे उस काव्य में एक जगह लिखा हुआ है कि एक पेड़ है और पेड़ में से लताएं निकली हुई हैं, उस लता से भक्ति करने वाले व्यक्ति ने अपने पैरों को बांधा और पेड़ से उल्टा लटक गया। जैसे सर नीचे और पैर ऊपर करके लटक गया। तो उससे पूछा कि क्या चल रहा है, तो उसने कहा कि भक्ति चल रहा है, तो ऐसे भक्ति करने के जो सारे प्रकार हैं, उन सारे प्रकारों को रिकॉर्ड किया गया। अगर आप पढ़ोगे तो पता चलता है कि कितने प्रकार से लोग उस समय भक्ति करते थें। कुछ लोग तो सीधा खड़ा होकर एक पैर को अपने दूसरे पैर के ठेहुने पर चढ़ाकर और दोनों हाथ जोड़कर भक्ति करते थे। बहुत सारे प्रकार से लोग भक्ति करते थे, ये पहले मुझे मालूम नहीं था। उस काव्य को पढ़ने के बाद मुझे पता चला। एक भक्ति तो ऐसा है कि जिसमें एक भक्त नदी के पानी में डूबकी मारकर बैठा हुआ है, ये भी एक प्रकार की भक्ति है। ये भी उस किताब में लिखा हुआ है। 
मगर संत रविदास जी ने उन सारे भक्ति के प्रकार को रिकॉर्ड किया। रविदास जी ने इन भक्ति के प्रकारों के नाम लेकर उस काव्य में लिखा है और रविदास जी ने उस काव्य में लिखा कि ये सारे भक्ति भरम हैं। यह वाक्य रविदास जी लोगों को कहते थे। जब वे प्रवचन करते थें और लोगों को जागरण करते थे, तब उसमें वे ये बात कहते थें कि ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’ अर्थात भक्ति भरम है, इसे तुम जान लो। इसका मतलब है कि भक्ति भरम है, अगर आप जान लोगे तो आप ऐसा काम कभी करोगे ही नहीं। ये उसका अर्थ है। यह जो टाईटल है, ये टाईटल जागरण और प्रबोधन करने के लिए है और रविदास जी ने उस काव्य में बहुत लम्बी लिस्ट बनाकर लिखी हुई है कि भक्ति करने के जो ये सारे तरीके लिखे हुए हैं, ये सारे के सारे तरीके भरम हैं। इसमें सच्चाई और वास्तविकता नहीं है। इसका मतलब है कि रविदास जी भक्ति के विरोध में थे। 
दूसरी बात कि रविदास जी चमार जाति के थे, तो कुछ चमार जाति के लोगों ने रविदास जी की मूर्ति बनाई और उनके नाम पर मन्दिर बनाया। मैंने दो चार जगह पूछा कि रविदास जी मन्दिर में जाते थे क्या? तो उन्होंने कह कि कभी इस तरह का सवाल ही नहीं पूछा गया था। ऐसा सवाल हमें किसी ने पूछा ही नहीं तो हमने इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं? रविदास जी अछूत थे और जिन मन्दिरों पर ब्राह्मणों का कब्जा था, तो ब्राह्मण अछूतों को मन्दिरों में आने ही नहीं देते थे। एक रहस्य यह है कि अगर मन्दिरों का ऐतिहासिक पार्श्वभूमि अगर देखा जाए कि मन्दिर कबसे बनाना शुरू हुआ? जब बृहद्रथ की हत्या ब्राह्मणों ने कि और बौद्ध भिक्षुओं का सामुहिक कत्लेआत किया गया तो वे जो बड़े-बड़े विहार और महाविहार थे, वे सारे विहार और महाविहार खाली हो गए। उस महाविहारों में ब्राह्मण घुस गए और उसमें घुसने के बाद, विहार को अगर विहार ही रखते तो लोगों को मालूम होता कि ये बुद्ध की विहार है, इसलिए ब्राह्मणों ने उन विहारों को मन्दिर नाम दिया। 
भारत के प्राचीन इतिहास में बृहद्रथ के हत्या के पहले मन्दिर शब्द उपलब्ध ही नहीं है। बृहद्रथ की हत्या करने के बाद में मन्दिर शब्द शुरू होता है और मन्दिर का निर्माण नहीं किया गया था, बल्कि उस समय जो विहार और महाविहार थे, उन्हीं का मन्दिर नामकरण करके, उस पर ब्राह्मणों ने कब्जा किया। जो बौद्धिस्ट थे, उनके खिलाफ में ब्राह्मणों ने घृणा अभियान चलाया। जैसा आज के तारीख में ब्राह्मण लोग मुसलमानों के विरोध में घृणा अभियान चला रहे हैं। यह खास बात मैं मुसलमानों को बता रहा हूँ, इसे मुसलमानों को ठीक से समझना होगा और इससे सबक ग्रहण करना होगा। बौद्धिस्ट लोगों के विरोध में ब्राह्मणों ने घृणा अभियान चलाया तो सारे बौद्धिस्ट लोग, लोगों के नजर में अछूत हो गए। घृणा अभियान का यह नतीजा निकला। आज किसी दाढ़ी वाला और टोपी वाला मुसलमान को अगर कोई गैर मुसलमान देखता है तो उसकी भृकुटी तन जाती है। ब्राह्मणों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ जो घृणा फैलाई गई है, उसके चेहरे पर उसका भाव प्रतिबिम्बित होता है। इससे अन्दाजा लगाया जाना चाहिए। इससे आपको बात समझना चाहिए कि बुद्धिस्ट लोगों के विरोध में घृणा अभियान चलाया गया था। जो ब्राह्मणों के समर्थक लोग थे, उनके मन में बौद्धिस्ट लोगों के प्रति घृणा भाव पैदा हुआ और जब घृणा भाव पैदा हुआ तो जो बौद्धिस्ट थे, उनके साथ अछूतों के जैसा व्यवहार किया गया और उनका सामुहिक रूप से बहिस्कार किया गया और आज भी ऐसा होता है। 
किसी जाति विशेष को या किसी व्यक्ति को सामुहिक रूप से हुक्का-पानी बन्द कर देते हैं। यह हुक्का-पानी खास शब्द है। देहात में दस बुजुर्ग एक साथ बैठते थे और एक लम्बी चिलम बनाई जाती थी और उसमें तम्बाकु भरा जाता था। एक बुढ़ा आदमी हुक्के का लम्बा कश मारता है और अपने बगल के नारायण भाई को देता है, फिर नारायण भाई राम प्रसाद को देता, राम प्रसाद आगे किसी और को देता है, ऐसा चक्कर हुक्के का घुमते रहता है। इस तरह सभी लोगों के बीच में हुक्का पानी को मिलना सम्मान का प्रतीक है। हुक्का बन्द करना अर्थात उसको समाज से बहिस्कृत करना है। पानी का मतलब है कि उसे 
सार्वजनिक कुओं से पानी मिलने ना देना। उसको शादी में नहीं बुलाना और उसके शादी में नहीं जाना और उसके साथ सार्वजनिक रूप से जो व्यवहार गांव में प्रत्येक के साथ होता है, उस व्यवहार को बन्द कर देना, बोलना बन्द कर देना, नमस्कार करना बन्द कर देना और उसके साथ सभी प्रकार के व्यवहार बन्द कर देना। आज किसी व्यक्ति के साथ जब गांव में ऐसा होता है, चाहे वह किसी भी जाति का आदमी होता है, तो उसके साथ ऐसा व्यवहार होता है। 
सामुहिक रूप से बुद्धिस्ट लोगों के साथ में ऐसा हुआ। अभी मुसलमानों के प्रति गैर मुसलमान लोगों के मन में घृणा बढ़ रही है कि नहीं? इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से इस बात को समझना जरूरी है और इससे मुसलमानों को सबक ग्रहण करना चाहिए। ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मण धर्म में अछूतों के साथ सम्पर्क और संवाद बन्द करने का आदेश है। यह ब्राह्मण धर्म ग्रंथ में लिखित आदेश है। ब्राह्मणों को लिखित आदेश देने का भी अधिकार है और ब्राह्मणों को मौखिक आदेश देने का भी अधिकार है। उन्होंने ऐसे आदेश दिए गए हुए हैं, फिर भी इस देश में हालात बदल गए। लोगों को प्रौढ़ मताधिकार मिल गया। लोगों को प्रोढ़ मताधिकार मिलने की वजह से उनके वोटों पर चुनकर आना या नहीं आना है, यह अवलम्बित हो गया। ब्राह्मणों ने अपना लक्ष्य कायम रखा, मगर अपना तरीका और दावपेंच बदला और जिनको स्पर्श करने से मना किय गया था। जिन अछूतों के प्रति ब्राह्मण घृणा रखते थे, आज ब्राह्मण उन अछूतों के घरों में जाना शुरू कर दिया, उन शूद्रों के घर जाना शुरू कर दिया, उन आदिवासियों के घरों में जाना शुरू कर दिया और उनको कहा कि तुम्हारा दुश्मन मुसलमान है और इस पर हजारों करोड़ रूपया खर्चा करना शुरू कर दिया। 
मुसलमानों के विरोध में लोगों को भड़काने के लिए ब्राह्मणों ने हजारों-करोड़ों रूपये खर्चा करना शुरू कर दिया, ताकि एससी ,एसटी और ओबीसी को मुसलमानों के विरोध में भड़काया जा सके। भड़के हुए एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों का दिमाग शान्त हो जाए, उनके दिमाग में मुसलमानों के प्रति जो जहर भरा हुआ है, वह जहर दिमाग से निकाला जाए, इसके  लिए सारे देश भर में मुसलमान कहीं पर भी कुछ भी करते हुए दिखाई नहीं देते हैं। जबकि सबसे ज्यादा काम मुसलमानों को करना चाहिए था। मुसलमानों में ढ़ाई प्रतिशत जकात आती है, उसमें से आधा प्रतिशत भी इस पर खर्चा करते तो कुछ काम होता। इसलिए मैं कहते रहता हूँ कि मुसलमानों में परिस्थितियों का विश्लेषण करके तथा काउन्टर स्ट्रेटेजी प्लान करके, उस पर अमल करने की जो लीडरशीप होनी चाहिए, मुसलमानों में उस लीडरशीप का अभाव है। 
ये जो घृणा अभियान है, यह इतिहासकाल में बौद्धिस्ट लोगों के प्रति चलाया गया था और आज के तारीख में मुसलमानों के विरोध में चलाया जा रहा है। बौद्धिस्ट लोगों को ब्राह्मणों द्वारा अछूत बना दिया गया और उनके बौद्ध विहार में बौद्ध भिक्षु रहा करते थे, उस पर कब्जा करके बौद्ध विहारों को मन्दिर बना दिया गया और उन बुद्धिस्ट लोगों को उन मन्दिरों में जाने पर पाबन्दी लगा दी गई। क्यों? क्योंकि वे बौद्धिस्ट लोग जानते हैं कि ये मन्दिर नहीं है, ये बौद्धों का बौद्ध विहार है। इसलिए ब्राह्मणों ने बौद्धिष्ट लोगों को जिन्हें अछूत बना दिया गया, उन्हें जाने के लिए ही पाबन्दी लगा दिया। मन्दिर में जाने की पाबन्दी लगाना इस बात का सबुत है कि वह मन्दिर नहीं था।
के.जमुनादास ने रिसर्च करके एक किताब लिखा है और उसमें उन्होंने प्रमाण दिया है कि दक्षिण भारत में जो तिरूपति बालाजी का मन्दिर है, पूरी का जगन्नाथ मन्दिर है और जितने भी बड़े-बड़े मान्यता प्राप्त मन्दिर है, ये सारे के सारे पहले बौद्ध विहार  हुआ करते थे। ये कोई काल्पनिक बात नहीं है। के.जमुनादास ने इसके सारे सबूत दिए हैं और वो किताब गलत लिखी हुई है, उस पर आज तक किसी ने प्रतिवाद नहीं किया कि वह किताब गलत है। मन्दिर जो शब्द आया है, यह काउन्टर रिवोलूशन (प्रतिक्रान्ति) करने के बाद आया है। इसलिए रविदास जी का उन मन्दिरों में जाने का कोई तथ्य और तर्क उपलब्ध नहीं है। रविदास जी का इतिहास वाराणसी का है। कबीर जी का इतिहास वाराणसी का है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त बौद्ध गया में किया, मगर बुद्ध ने वहाँ प्रचार नहीं किया। अपने धम्म और विचार का प्रचार करने का स्थान वाराणसी को चुना। वाराणसी के पास जो सारनाथ है, वो बनारस से सात किलोमिटर के अन्तर पर है। वहाँ जाकर बुद्ध ने धम्मचक्र परिवर्तन किया, जो ब्राह्मणों के विरोध में है। बुद्ध ने जो धम्मचक्र परिवर्तन किया, वो भयंकर रूप से ब्राह्मणों के विरोध में है। ब्राह्मणों के जितने तर्क है, उन सारे तर्क को बुद्ध ने धाराशाई किया और बुद्ध के किसी भी तर्क का ब्राह्मणों के पास जवाब नहीं था। इसलिए ब्राह्मणों ने हथियार चलाया। ब्राह्मणों के पास तर्क खत्म हो गए, इसलिए ब्राह्मणों ने भिक्षुओं को खत्म करने के लिए हथियार चलाए। क्योंकि ब्राह्मणों के लिए तर्क से रोकना सम्भव नहीं था। 
ब्राह्मणों ने ये प्रचार किया कि मन्दिरों को गिरा कर मस्जिद बनाई गई है। हम ऐसा नहीं मानते हैं। क्योंकि ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि ये राम मन्दिर है। मैंने इसके पहल भी कहा कि यदि थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि राम अयोध्या में पैदा हुए हैं। उसका कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलता है, किसी भी प्रकार का कोई सबूत नहीं मिलता है। बल्कि रामायण में लिखा हुआ है कि राम ने सरयू नदी में डूबकर अयोध्या में उनका मृत्यु हुआ। अगर आप आज भी अयोध्या में जाओगे तो वहाँ सरयू नदी है ही नहीं। अयोध्या में घाघरा नदी है। जब घाघरा नदी अयोध्या के पास आती है, तो आने के बाद वह सरयू नदी हो जाती है। अयोध्या तक आने पर वह घाघरा नदी ही है और अयोध्या के आगे फिर घाघरा नदी हो जाती है। केवल अयोध्या की जो कुछ किलोमीटर भूमि है, उसमें वो नदी सरयू हो जाती है। उत्तर प्रदेश का जो राजस्व विभाग है, उसमें मैंने जानकारी और छानबीन किया तो राजस्व विभाग के राजस्व लेखा में वह नदी घाघरा ही है। उत्तर प्रदेश के राजस्व विभाग के राजस्व लेखा में भी अयोध्या के अन्दर जो नदी है, उसमें उस नदी का रिकॉर्ड में नाम घाघरा ही है। ब्राह्मणों ने सोचा कि उनके रामायण में राम सरयू नदी में डूबकर मरे और अयोध्या में सरयू नदी है ही नहीं। लोगों ने जाँच-पड़ताल की तो लोगों को पता चलेगा कि सरयू नदी ही नहीं है। रामायण में सरयू है, मगर अयोध्या में सरयू नहीं है तो लोगों के मन में आशंका पैदा हो जाएगी कि कहीं ये रामायण झूठा तो नहीं है, कहीं ये रामायण कहानी तो नहीं है। ऐसा नहीं लगना चाहिए, इसलिए ब्राह्मणों ने प्रचार किया कि अयोध्या में जो नदी बहती है, वह सरयू नदी है। केवल प्रचार में अयोध्या में सरयू है, मगर 
दस्तावेज में सरयू नहीं है। 
यदि परम्परा के अनुसार अध्ययन करें तो पता चलेगा। आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद और ब्राह्मणों ने कहा कि वहाँ चौदह राम मन्दिर है। अयोध्या में आस-पास चौदर राम मन्दिर है। हर मन्दिर का महन्त कहता है कि जहाँ हमारा राम मन्दिर है, वहीं हमारे राम पैदा हुए। इसता मतलब यह हुआ कि वहाँ एक राम नहीं हैं, वहाँ चौदह राम पैदा हो गए हैं। मगर ये मान लिया जाए तो एक महत्वपूर्ण परम्परा के अनुसार सवाल खड़ा हो जाता है। हमारे देश की एक मौलिक परम्परा है। वह परम्रा क्या है? वह परम्परा यह है कि जब लड़की की शादी होती है, तो वह ससुराल जाती है और जब पहला संतान पैदा करने का समय आता है, तो वह अपने माँ के घर जाती है। यह परम्परा मुसलमानों में भी है, पिछड़े वर्ग में भी है, ब्राह्मणों में भी है और यह परम्परा हर जगह है कि लड़की शादी करने के बाद अपना पहला बच्चा पैदा करने के लिए अपने माँ के घर जाती है। 
अगर अयोध्या का राजा दशरथ है और कौशल्या राम की माँ है। कौशल्या कौशल देश की रहने वाली है। राम कौशल्या का प्रथम पुत्र है, तो कौशल्या अपना पहला संतान पैदा करने के लिए कौशल देश गई होगी। अयोध्या कौशल्या का ससुराल है, तो कौशल्या राम को जन्म देने के लिए अपने माँ के घर गई होगी और अगर माँ के घर गई होगी तो अयोध्या राम का जन्मभूमि नहीं है। अगर इस परम्परा को हम और ज्यादा जानने की कोशिश करें तो हमारे पास परम्परा का इतिहास है और इतिहास की परम्परा है। बुद्ध की माँ महामाया जब संतान पैदा करने का समय आया तो वह अपना पहला संतान पैदा करने के लिए अपने माँ के घर जा रहीं थी और समय पूरा हो गया, तो जंगल में ही बच्चा पैदा हो गया। ये इतिहास रिकॉर्ड में है, तो ये इतिहास इस बात को सिद्ध करता है कि जो मैं परम्परा कह रहा हूँ, वह केवल परम्परा नहीं है बल्कि वह इतिहास भी है। अगर वो इतिहास है, तो इसका मतलब यह है कि यह इस देश की मूलनिवासी लोगों की परम्परा और संस्कृति है, उसमें माँ अपना पहला बच्चा पैदा करने के लिए अपने माँ के घर जाती थी। अगर इस परम्परा को ब्राह्मण नहीं मानते हैं तो फिर सिद्ध हो जाएगा कि ब्राह्मण भारत का मूलनिवासी नहीं है। यह ज्यादा खतरनाक मामला है। ब्राह्मण अगर परम्परा को मानता है तो यह सिद्ध होगा कि अयोध्या राम का जन्मभूमि नहीं है। ब्राह्मणों के लिए यह संकट है। इस संकट का एक ही ईलाज है कि वे टिकट निकालकर अपने-अपने देश चले जाए। यह विवादरहित समस्या का समाधान है। 
जहाँ तक मेरी धारणा है कि अगर मुझे अधिकार दिया जाए तो वापस जाने के लिए मैं विजा सेंक्सन नहीं करूँगा। मैं पासपोर्ट की अनुमति नहीं दूँगा। मैं जाने के लिए उन्हें अनुमति नहीं दूँगा, वे यहीं रह सकते हैं। मगर संविधान के अन्दर जो कानून और व्यवस्था है, उसके दायरे में रहकर वे यहाँ रह सकते हैं। मैं इसलिए आपको बता रहा हूँ कि आपको पता चले कि जो लोग ये कह रहे हैं कि मन्दिर गिराकर बाबरी मस्जिद बनाई गई। अगर इसको सच माना जाए तो यह आधा सच है, तो आधा सच क्या है? विहार गिराकर मन्दिर बनाया गया, यह उसका आधा सच है। विहार गिराकर मन्दिर बनाई गई और मन्दिर गिराकर मस्जिद बनाई गई। अगर विहार गिराकर मन्दिर बनाई गई तो ब्राह्मणों को बाबरी मस्जिद का जो लड़ाई है, उसे छोड़ना होगा और बुद्धिस्ट लोगों और मुसलमानों को बैठकर समस्या का हल सोचना होगा। 
बुद्धिस्ट लोगों और मुसलमानों को बैठकर समस्या का हल करना होगा, तो बामसेफ बुद्धिस्टों का भी प्रतिनिधि है, तो विश्व हिन्दू परिषद को बामसेफ से वार्ता करनी होगी। विश्व हिन्दू परिषद बामसेफ से वार्ता करने वाली नहीं है। वो तो वामन मेश्राम के विरोध में गुजरात में साढ़े तीन हजार ब्राह्मणों ने कच्छ में मोर्चा निकाला था। वे वार्ता कहां से करेंगे। मन्दिरों में रविदास जी के जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है। मन्दिर की संस्कृति ब्राह्मणों की संस्कृति है। रविदास जी को मन्दिरों में जाने का सवाल ही नहीं है। बल्कि मन्दिर संस्कृति के रविदास जी विरोधी हैं। हमें दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए। रविदास जी मन्दिर में नहीं गए और न जाने वाले हैं। इसलिए मन्दिरों से सम्बंधित जो भक्ति का मामला है, उससे ये मामला विरोधी मामला है। हम लोगों को इसको समझना होगा। 
दूसरा कि रविदास जी को मानने वाले जो वर्तमान समय में लोग हैं, उन्होंने रविदास जी का ही मन्दिर बनाना शुरू कर दिया, वो भी गलत बात है। इस गलत बात से भी हम लोगों को सतर्क रहना चाहिए। जो अपने ही महापुरूषों के मौलिक चिन्तन और मौलिक विचार पर अमल करने का कार्य नहीं करते हैं, वास्तविक रूप से कहा जा सकता है कि वो भक्त लोग हैं और वे लोग अनुयायी नहीं है। भक्त और अनुयायी में क्या अन्तर है? भक्त अन्धे होते हैं और वे विवेक-बुद्धि और तर्क का प्रयोग नहीं करते हैं। भक्त लोग क्या करते हैं? भक्त लोग अगरबत्ती जलाते हैं। कोई भक्त एक अगरबत्ती जलाता है तो कोई भक्त दस बारह अगरबत्ती इकट्ठा लेकर जलाता है और उसे घुमाकर धुप निकालता है और बारहों अगरबत्ती एक जगह पर गाड़ देता है। ऐसा आप लोगों ने देखा होगा। फिर हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं, तो देखने वालों को ऐसा लगता है कि वह रविदास को कितना मानता है और ऐसा करने के बाद में उनके विरोध में काम करना शुरू कर देता है। जब काम करने का समय आता है, तो उनके विरोध में काम करता है और देखने वालों को लगता है कि वह कितना भक्त आदमी है। रविदास जी का लिखित साहित्य है, उनके दोहा और चौपाई हैं, उसमें लिखा है कि भक्ति भरम है और भरम क्या है? आप मनोवैज्ञानिक डॉक्टर के पास जाओ। डॉक्टर को पूछों कि डॉक्टर भरम क्या है? तो वह कहेगा कि भरम एक बिमारी है। 
मैं आपको मेरा खुद का तजुर्बा बताता हूँ। मैं औरंगाबाद में बाबासाहब अम्बेडकर मराठावाड़ा विद्यापीठ के गेट के पास रहता था। वहाँ पर सबेरे-सबेरे हम लोग चाय पीने के लिए जाते थे। वहाँ पर चाय की दुकान होती थी। बीड जिले में बामसेफ संगठन का एक प्रोफेसर था। उसका एक रिस्तेदार डीआईसी में इन्सपेक्टर था। डीआईसी का जो इन्स्पेक्टर था, उसका काम पैसा वसुली का था। वह गाँव-गाँव में घुम-घुमकर पैसा वसुली का काम करता था। वह एक गाँव में पैसा वसुली करने के लिए गया। वह जिसके पास पैसा वसुली के लिए गया, तो उसने पूछा की क्यों आए हो? तो उसने कहा कि मैं पैसा वसुली के लिए आया हूँ। उसके दीवार पर बन्दूक टंगी हुई थी, उसने बन्दूक उतारी और उस इन्सपेक्टर के ऊपर बन्दूक तान दिया और कहा कि अगर दुबारा मेरे घर में पैसा वसुली करने के लिए आओगे तो मैं तुम्हें गोली से उड़ा दूँगा। ऐसा कहते ही वह इन्सपेक्टर कुर्सी से उठकर भाग गया और वह भागकर सीधा बीड चला आया। दूसरे दिन सुबह से ही उसका दिमाग खराब हो गया। वह चाय पीता और चाय पीते-पीते ही कहता कि देखो वो आ गया, वो ओ गया, उसके हाथ में बन्दूक है, वह बन्दूक मेरे ऊपर तान दिया है और उसने बन्दूक की गोली चला दिया है और वह धड़ाम से खुद ही गिर जाता था। वह चाय पीते-पीते और खाना खाते-खाते ही ऐसा कहकर गिर जाता था। 
उसके रिस्तेदार प्रोफेसर ने मुझसे सम्पर्क किया और पूछा कि वहाँ पागलों वाला कोई डॉक्टर है क्या? तो मैंने कहा हाँ, यहाँ पास में ही पागलों का डाक्टर है। आप उसे लेकर आ जाओ, तो वह प्रोफेसर अपने रिस्तेदार को लेकर आ गया। औरंगाबाद में सुबह-सुबह चाय पीने के लिए उसको भी लेकर गए तो हम बैठे हुए थे। चाय का ऑर्डर हुआ और चाय आया। तो वह चाय पीते-पीते ही कहने लगा कि आ गया, वह आ गया, उसके हाथ में बन्दूक है, उसने मेरे ऊपर बन्दूक तान दिया है और गोली मार दिया है। वह ऐसा कहते ही चाय के साथ ही गिर गया और कपड़ा भी गन्दा कर लिया। फिर प्रोफेसर ने उसको उठाकर बैठाया और बैठाने के बाद में दो-चार मीनट पकड़कर  रखा और वह ठीक हो गया। यही उसकी बिमारी थी। उसे डाक्टर के पास लेकर गए, डाक्टर ने उसका सारा बैकग्राउण्ड (पार्श्वभूमि) पूछा तो डाक्टर को समझ में आया कि उसको भ्रम हो गया है। दिमाग में पक्का बैठ गया है कि वो आदमी उसको गोली से मारने वाला है, तो जैसे ही उसको वो बात याद आती तो वह गिर जाता था। वह चलते-चलते गिर जाता था, खाते-खाते गिर जाता था और पीते-पीते गिर जाता था। उस डाक्टर ने छः महीना समय लगाकर उसके दिमाग से वह भ्रम निकाल दिया। उसके मन से भ्रम निकालने के बाद वह एकदम ठीक हो गया। डाक्टर ने उसके दिमाग से भ्रम निकाल दिया। इसलिए वह ठीक हो गया। इसलिए यह जो भ्रम है, यह एक बिमारी है। इस तरह से करोड़ों लोगों को ब्राह्मणों ने भक्ति के नाम पर बिमार बनाया। रविदास जी भक्ति को भरम कहते थे। कबीर साहब का भी यही कहना था। 
आप महाराष्ट्र में संत गाड्गे महाराज का उदाहरण ले लो। संत गाड्गे महाराज पंढ़रपुर में जाते थे, मगर वे पंढ़रपुर के मन्दिर में नहीं जाते थे। संत गाड्गे महाराज पंढ़रपुर में हर साल जाते थे, मगर वे पंढ़रपुर के मन्दिर में नहीं जाते थे और कहते थे कि अगर तुमको भगवान ही चाहिए तो वह भगवान तो तुम्हारे अन्दर है और गरीबों की सेवा में भगवान है। इसलिए गरीबों की तुम सेवा करो। यह एक मौलिक विचारधारा है। गरीबों की सेवा करना अर्थात वह गरीबों की समस्याओं का समाधान करने का यह एक तरीका है। और जीवन भर गाड्गे महाराज ने इस बात का शख्ती से अमल किया और कोई भी गाड्गे महाराज को इस बात के लिए दोष नहीं देता था कि वे पंढ़रपुर के मन्दिर में क्यों नहीं जाते हैं? वे इतने ऊँचे दर्जे के व्यक्ति थे कि उनको कोई दोष नहीं दे सकता था। इसलिए मैं आप लोगों को एक मौलिक बात बता रहा हूँ कि हमारे समाज के सन्त महापुरूषों के साहित्यों के दोहों में तथा मराठी संन्तों के अभंगों में लिखित दस्तावेज है और अगर आप उन लिखित दस्तावेज का अध्ययन करोगे तो आपको ब्राह्मणों के धर्म ग्रंथों में भी जो लिखा हुआ है, उसका खण्डन आपको मिलेगा और करोड़ों लोग उसको अनुसरण करते थे। 
इसका मतलब है कि ब्राह्मणों के धर्म ग्रंथों के जो विरोधी थे, वे ब्राह्मणों के धर्म के भी विरोधी थे और जो ब्राह्मण धर्म के विरोधी थे, उनको आज कल ब्राह्मण हिन्दू कहते हैं। जबकि वो किसी भी मापदण्ड में वो हिन्दू नहीं है। महाराष्ट्र में जो वारकरी आन्दोलन है। जिसका प्रारम्भ संत नामदेव जी ने किया। संत नामदेव बैकवर्ड थे और संत नामदेव से ही प्रेरणा लेकर गुरू नानक ने उत्तर भारत में सिक्ख धर्म फैलाया। गुरूनानक जी की जो सच्चा सौदा की कहानी है, वो सच्चा सौदा संत नामदेव, संत रविदास और संत कबीर से ही सच्चा सौदा हुआ है। उससे ही प्रेरणा लेकर सिक्ख धर्म बना और गुरू ग्रंथ साहब में सारी बाणियां लिखी हुई दिखाई देगी। इसलिए हम लोगों को ये समझना बहुत जरूरी है। दूसरी एक महत्वपूर्ण बात है कि ब्राह्मण किसी भी 
भगवान को नहीं मानता है। ब्राह्मण कहीं पर भी कोई  भक्ति नहीं करता है। राम चरित्र मानस में लिखा हुआ है। तुलसी दास ने रामचरित्र मानस में लिखा है कि यदि भगवान और ब्राह्मण एक साथ मिले तो सबसे पहले भक्त को किसको दर्शन करना चाहिए? तुलसीदास ने कहा कि सबसे पहले भक्त को ब्राह्मण का दर्शन करना चाहिए। सबसे पहले ब्राह्मण का दर्शन क्यों करना चाहिए? तुलसीदास जी कहते हैं कि अगर भक्त को भगवान तक पहुँचना है, तो ब्राह्मण ही आपको पहुँचा सकता है। इसलिए आपको पहला दर्शन ब्राह्मण का करना चाहिए। मगर संस्कृत में ये लिखा हुआ है कि 
‘‘देवधीन जगत सर्वम, मंत्रधीन देवच,
ते मंत्रे ब्राह्मण धीन, ब्राह्मण मम् देवतम’’
अर्थात यह सारा जगत देवताओं के अधिन है और सारा देवता मंत्रों के अधिन है और अगर सारा मंत्र ब्राह्मणों के अधिन है, तो इसका मतलब है कि देवता ब्राह्मणों के अधिन है। इसका मतलब है कि ब्राह्मणों के अधिन देवता है। अगर ब्राह्मणों के अधिन देवता है, तो देवता से श्रेष्ठ ब्राह्मण हो गए हैं। इस लिखी हुई बात से ब्राह्मण यह कहना चाहते हैं कि ब्राह्मण देवताओं से भी श्रेष्ठ है। अगर ब्राह्मण लिखित रूप से कहता है कि ब्राह्मण देवताओं से श्रेष्ठ है तो इस लिखित दस्तावेज से प्रमाणित होता है कि ब्राह्मण नास्तिक है। यह बहुत मौलिक बात है। यह चर्चा के लिए विषय दे रहा हूँ कि ब्राह्मण नास्तिक है-एक विश्लेषण। शास्त्री जी आप सात दिन का पाठ करते हैं, तो अब आप आठ दिन का पाठ करो और एक दिन मेरा भी विषय पर पाठ करो कि ब्राह्मण नास्तिक है-एक विश्लेषण। उसमें लिखो कि ब्राह्मण नास्तिक है, सबूत के साथ विश्लेषण। ब्राह्मण दूसरे लोगों को कहते हैं कि ये नास्तिक है। मैं यहाँ प्रमाण के साथ सिद्ध कर दिया कि ब्राह्मण ही नास्तिक है, ब्राह्मण ईश्वर विरोधी है, ब्राह्मण भगवान विरोधी है और ब्राह्मण भगवान का इस्तेमाल अपना र्स्वाथ पूरन करने के लिए करता है। उससे ज्यादा कोई नास्तिक नहीं है और अगर ऐसा आप उदाहरण के साथ आम आदमी को बताओगे तो आम आदमी ब्राह्मण के विरोध में हो जाएगा। अगर ब्राह्मण के विरोध में आम आदमी हो गया, तो हमारा काम आसान हो जाएगा। हमें अपना काम आसान करना जरूरी है। 
जो लोग बामसेफ में आकर कहते हैं कि ब्राह्मणों को मार देंगे, फोड़ देंगे, तोड़ देंगे, खत्म कर देंगे। तो वो बामसेफ की मौलिक विचारधारा को नहीं समझते हैं। हमारा मारने का, खत्म करने का, तोड़ने का और फोड़ने का कोई कार्यक्रम नहीं हैं। मैंने ब्राह्मणों को मार देने का और खत्म कर देने का, ऐसा कभी नहीं कहा और कहने की जरूरत नहीं है। मैं इसका विरोधी हूँ। मैं ऐसा कहूँगा भी नहीं। बामसेफ में जो आता है, उनको ध्यान रखना चाहिए कि ये हमारी विचारधारा नहीं है क्योंकि जैसे ही इस विचारधारा को आप कहोगे वैसे ही आपका शान्ति का रास्ता बदलकर हिंसा का रास्ता हो जाएगा। हमारा हिंसा का रास्ता नहीं है। मगर गलत को रोकने के लिए शक्ति का उपयोग जरूर करेंगे। गलत को रोकने के लिए शक्ति का उपयोग करेंगे। 
हजरत मोहम्मद साहब ने भी हदीस में यही कहा है। इसलिए हमारा लक्ष्य और हमारा मकसद इंसाफ को कायम करना है। किसी व्यक्ति विशेष को शरीरिक रूप से हिंसा करके नुकसान पहुँचाना, हमारा मकसद नहीं है और संत समाज मेरी इस बात से सहमत होगा। शरीरिक रूप से हिंसा करने के समर्थन में हम नहीं है, नहीं तो ब्राह्मणों का रास्ता और हमारा रास्ता एक ही हो जाएगा। हमारा रास्ता और ब्राह्मणों का रास्त भिन्न है। अगर कोई हमारे विरोध में हिंसा का रास्ता अपनाता है, तो क्या करना चाहिए? ऐसा एक नया सवाल खड़ा होता है। मगर इस सवाल को कुछ हद तक काल्पनिक सवाल भी कह सकते हैं। ऐसा प्रश्न निर्माण होने दो, ऐसी परिस्थिति निर्माण होने दो, तो फिर हम देखते हैं। वैसे आप लाखों और करोड़ों लोगों को आप तैयार करोगे तो शायद ऐसा कोई विचार आपके विरोध में नहीं करेगा। 
हमारा रास्ता करोड़ों लोगों को जागृत करने का है और समता, स्वतंत्रता, बन्धुता और न्याय पर आधारित समाज और राष्ट्र का निर्माण करने का हमारा लक्ष्य है। सतर्क होकर हम ऐसा करना चाहेंगे। हिंसा का हमारा रास्ता नहीं है। हमारा अहिंसा का रास्ता है। मगर ये अहिंसा अन्धी अहिंसा नहीं है, यह अहिंसा ‘‘ॅपसस जव ज्ञपसस कपक जव ज्ञपसस’’ है। अगर हिंसा करना जरूरी होगा तो हम हिंसा करेंगे। मगर ऐसे हालात ही पैदा ना हो, इसकी भी 
कोशिश करेंगे। जैसे अगर कोई आदमी को डाक्टर ने कहा कि इसको मांस खिलाना जरूरी है तो उसको मांस खिलाना पड़ेगा। डाक्टर तो ऐसा कहता है। ‘‘ज्ींज पे ॅपसस जव ज्ञपसस ंदक कपक जव ज्ञपसस’’। हिंसा करने की इच्छा होना और हिंसा करने की जरूरत होना, दोनों अलग बात है। अगर डाक्टर ने कहा कि मरीज को मांस खिलाना पड़ेगा, तो उसे मांस खाने के लिए देना पड़ेगा। उसे मांस दे दो क्योंकि उसको बचना जरूरी है। उसको बचाया जाना भी जरूरी है। इसलिए मेडिकल साईंस इस बात को मानती है। इसलिए तर्क संगत बात करो। 
जैन लोग कहते हैं कि अहिंसा परमो धर्म। वे लोग मुँह पर पट्टी लगा देते हैं। मैंने एक बार पूछा कि यह पट्टी मुँह पर क्यों लगाते हैं। तो उसका जवाब मिला कि सांस लेने के दौरान जो ऑक्सिजन लेते हैं, उसमें भी जीव-जन्तु होते हैं और जब आदमी ऑक्सिजन लेता है तो सांस के साथ जीव-जन्तु का मृत्यु हो जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इसलिए जैनी लोग मुँह पर पट्टी बांध लेते हैं। जब आदमी दही खाता है, तो दही में तो जीव (वैक्टेरिया) ही होता है। अगर आप दही को माईक्रेस्कोप में देखोगे तो आप दही को फेंक दोगे। तो अहिंसा परमों धर्म है, यह सही नहीं है। क्योंकि उसको दही तो खाना ही पड़ेगा। उसमें भी जीव होता है तो वह आदमी तो जीवित ही नहीं रह पाएगा। यह गलत बात है। इसे व्यवहार में हमको समझना होगा। इसलिए हम लोगों को ये समझना है कि कुछ भी करते रहने का कोई भी मतलब नहीं है। 
हम लोगों ने जो संत सम्मेलन लिया, उसका एक मकसद है। हम लोग 2016, 2017 और 2018 तक तीन साल में संत लोगों का राष्ट्रीय संगठन खड़ा करेंगे। ब्राह्मणों ने भी इसी तरह से संतों का संगठन बनाकर रखा है और वे उसका उपयोग कर रहे हैं। उसमें बहुत सारे बैकवर्ड क्लास के संत सहभागी हैं। मुझे एक संत ने कहा था कि उसने विश्व हिन्दू परिषद में दस साल काम किया और उन्होंने मुझे सलाह दिया कि आप संतों का संगठन क्यों नहीं बना रहे हैं। उन्हें पता चला कि मैं बहुत सारा संगठन बना रहा हूँ तो उन्होंने मुझे कहा कि आप संतों का भी संगठन बना दीजिए। मैंने उनसे कहा कि मैं तो गृहस्तों का संगठन बनाते-बनाते परेशान हो गया हूँ, आप संतों का संगठन भी मुझे ही बनाने के लिए कह रहे हो। उन्होंने कहा कि आप कर सकते हैं, तो मैंने कहा कि ठीक है, मैं इसे करता हूँ। अभी हमारे बहुत सारे संतों के लिंक बने हैं, तो हम लोग संतों का संगठन तीन साल में राष्ट्रीय स्तर का बना देंगे। हम जो संत संगठन बनाऐंगे, उसे ब्राह्मणों के संत संगठन से भीड़ा देंगे। तुम्हारा तुम देखो भाई, यह हमारा काम नहीं है। हम गृहस्थ लोग हैं, यह आप लोगों का काम है। आप ब्राह्मणों के संत संगठन से भिड़ो। हर जगह हम ही लड़ें, तो यह सम्भव नहीं है। कुछ मोर्चा आपको भी सम्भालना होगा, और यह एक ऐसा मोर्चा है, जिसमें हम लड़ नहीं सकते हैं। ये एक हमारी मुश्किल है।
इसलिए महाराष्ट्र में हम लोगों ने दादा महाराज पनवेलकर को वारकरी और संत संगठन का प्रमुख बनाया है। तब से वहाँ ब्राह्मणों की बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गई है। महाराष्ट्र में संत तुकाराम महाराज और नामदेव महाराज का सारा दस्तावेजी सबूत वे लोगों को पढ़कर बता रहे हैं और लोगों को सुना रहे हैं। आम आदमी को इन्कार करना भी मुस्किल है। क्योंकि हम इसका 
दस्तावेजी सबूत बता रहे हैं और पढ़कर सुना रहे हैं। संत तुकाराम और संत नामदेव का अभंग का नाम और नम्बर पढ़कर बता रहे हैं। लोग उसको मानेंगे और स्वीकार करेंगे और लोग उसको 
स्वीकार भी कर रहे हैं। अभी मुझे पंजाब से निमंत्रण आया था। पंजाब के संत लोगों ने मुझे निमंत्रण दिया। मेरी समस्या है कि गृहस्त भी निमंत्रण दे रहे हैं और संत भी निमंत्रण दे रहे हैं। कहाँ-कहाँ जाऊँ, यह भी मेरी समस्या है। लोग संतों को दान देते हैं और संत लोग मुझे आकर दान देते हैं और संत जब मुझे दान देते हैं, तो लोग भी बहुत होसियार हैं कि संत वामन मेश्राम को दान दे रहे हैं, उसका वो फोटो निकालते हैं और उसे वाट्सआप पर डाल देते हैं और लिखते हैं कि संत वामन मेश्राम को दान देते हुए। क्योंकि हमने जो कार्य आरम्भ किया है, मध्यकालिन भारत में संतों ने वो काम किया था। वही काम अब हम कर रहे हैं। संतों का काम अभी हम कर रहे हैं, तो लोग देख रहे हैं। और शायद संतों में से कुछ लोगों को ऐसा लग रहा है कि उन्हें जो करना चाहिए था, वो काम वे नहीं कर रहे हैं और वो काम हम कर रहे हैं। तो संत आकर हमें समर्थन दे रहे हैं और हमें दान भी दे रहे हैं। इस तरह से ये परिवर्तन बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है। 

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