कृषि वैज्ञानिक ने कहां कि, 1995 से
अब तक 3.18 लाख से किसान आत्महत्या कर चुके है। पिछले दो दशकों से हर साल यह आकड़ा बढ़ता जा रहा है। नीतिया बनाने वालों के लिए यह सिर्फ एक आकड़ा है। मौत का यह आकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। वही मध्य प्रदेश की नीतिया किसान विरोधी बताई जा रही है। लगातार प्रकृति की मार से किसान और कर्जदार हुआ है। लेकिन सरकार उन्हें सिर्फ आश्वाशन दे रही है। परेशान किसान आज आत्महत्या करने को मजबूर है। पर सरकार मानने को तैयार नही है। एक्सीडेंट डेथ एंड सुसाइड इन इंडिया की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार देश के केवल 7 राज्यों
से 85 प्रतिशत
किसानों ने आत्महत्या की है। यह सात राज्य कर्णाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, छत्तीशगढ़, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना है। वही भोपाल के गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने पिछले दिनों विधानसभा में जवाब दिया था कि एक फरवरी 2016 से नवंबर 2016 के बीच 1685 किसानों ने आत्महत्या की है। इसमें भोपाल के डिंडोरी जिले से सबसे ज्यादा 68 किसानों
ने आत्महत्या की है।
आजादी के बाद देश में लोकसभा के सोलह तथा विधानसभा के अनगिनत चुनाव संपन्न हुए हैं।गौरतलब है कि प्रायः हरेक चुनाव में और संभवतः हरेक राजनीतिक पार्टी के घोषणापत्र में कृषि-विकास व देश के किसानों के कल्याण के नाम पर बड़े-बड़े वादे किये जाते रहे हैं।यहां तक कि चुनावी सभाओं में राजनीतिक पार्टियां किसानों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध बताने से भी गुरेज नहीं करतीं।लेकिन, सच्चाई यह है कि तमाम वायदों और घोषणाओं के बीच आजादी के सात दशक बाद भी देश के अधिकांश किसान बदहाल व उपेक्षित हैं।हालात यह है कि अपने खून-पसीने से देशवासियों का पेट भरने वाले अन्नदाता आज स्वयं दाने-दाने को मोहताज नजर आ रहे हैं।सबसे बदतर हालत छोटे व मझोले किसानों की है, जो मुसीबत में आर्थिक व मानसिक सहायता प्राप्त न कर पाने की स्थिति में खुदकुशी कर अपने अनमोल जीवन को त्यागने को विवश हैं।हालांकि, कागजों पर किसानों के लिए तमाम नीतियां बनायी गयी हैं, लेकिन कागजी खानापूर्ति से इतर व्यवहार के धरातल पर आज तक ऐसी कोई ठोस नीति नहीं बनीं, जो किसानों को उनका वाजिब हक दिला सके अथवा उन्हें मौत के मुंह में जाने से रोक सके!
गत दिनों, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया कि भारतीय किसानों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति घटने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही हैं।'एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया-2015' शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014 के मुकाबले 2015 में किसानों में आत्महत्या करने की दर में 42 फीसदी का इजाफा हुआ है।रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि देश में सात राज्य ऐसे हैं, जहां किसानों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति सर्वाधिक है।वर्ष 2015 की बात करें, तो क्रमशः कर्नाटक में 1559, तेलंगाना में 1400, मध्यप्रदेश में 1290,छत्तीसगढ़ में 954, आंध्रप्रदेश में 916, और तमिलनाडु में 606 में किसानों ने अपनी ईहलीला समाप्त कर ली।हालांकि, ये महज सरकारी आंकड़ें हैं, वास्तविक संख्या के इससे अधिक होने की पूरी संभावना है।गौरतलब है कि फसल के उचित दाम न मिल पाने , खेती से जुड़ी दिक्कतों तथा कर्जभार, किसानों द्वारा किये गये आत्महत्या के प्रमुख कारणों के रुप में सामने आए हैं।ऑकड़ों पर विश्वास करें, तो करीबन 39 फीसदी किसानों ने दीवालिया होने, कर्ज के बोझ तले दबे होने या कृषि संबंधी अन्य मसलों की वजह से आत्महत्या करने का फैसला किया, जबकि 20 फीसदी कृषि श्रमिकों के आत्महत्या करने का वजह भी यही रही। सबसे दुखद बात यह रही कि किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति पर आयी एनसीआरबी की उक्त रिपोर्ट पर न तो सत्तारूढ़ सरकार और न ही किसी राजनीतिक दल ने ही चिंता व्यक्त करना उचित समझा।यहां तक कि किसी राजनेता या स्वयं कृषि मंत्री ने किसानों के प्रति संवेदना के दो स्वर प्रकट करने तक की जहमत नहीं उठाई।हां, इतना तो स्पष्ट है कि पांच राज्यों में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में राजनीतिक पार्टियां किसानों का समर्थन लेने के लिए उनका राजनीतिक इस्तेमाल जरुर करेंगी।दरअसल,विपक्षी दलों की हमेशा ख्वाहिश होती है कि जब तक सत्ता से बाहर हैं ,किसानों का समर्थन ले लिया जाय, लेकिन समस्या यह है कि गद्दी मिलने के बाद खेती व किसानों के मुद्दे ठंडे बस्ते में डाल दिये जाते हैं।संवेदनहीन नेताओं को इससे क्या लेना कि खराब पैदावार और कर्ज की विशालता तथा समय पर किस्त नहीं भर पाने की हालत में प्रतिदिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं।यह सही है कि भारतीय कृषि तथा किसानों की दयनीय हालत के लिए प्राकृतिक तत्व एक बड़े कारक के रुप में उत्तरदायी रही हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि देश की मौजूदा स्वार्थपरक राजनीति ने भी किसानों को महज वोट बैंक तक ही सीमित रखा। दुर्भाग्य यह भी है कि खेती व किसानों के मुद्दे राजनीतिक दलों व संबंधित नेताओं के लिए महज चुनाव जीतने के लिए एक हथकंडा मात्र बन कर रह गये हैं।सवाल यह भी है कि किसानों में बढ़ती आत्महत्या की दर राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बन पाता है ? भारतीय कृषि की दयनीय स्थिति के लिए जहां तक पर्यावरणीय कारक जिम्मेदार रहे हैं, उससे कहीं अधिक देश की जड़ हो चुकी निष्क्रिय व शोषणकारी व्यवस्थाओं ने किसानों की उम्मीदों पर पानी फेरा है।संसद का शीतकालीन सत्र बिना किसी ठोस चर्चा के व्यर्थ हो गया।दूसरी तरफ, सत्र बाधित कर कुछ सांसद अपने को किसान-हितैषी बताने में पीछे नहीं रहे।ऐसे में जनप्रतिनिधियों के कथनी और करनी में अंतर को स्पष्टतः महसूस किया जा सकता है।सच तो यह है कि संसद सत्र के दौरान पक्ष-विपक्ष की वैचारिक लड़ाई में किसानों के मुद्दे हमेशा हाशिये में दिखाई दिये हैं। देश में अधिकांश किसानों की हालत खस्ताहाल है।उदासीनता का आलम यह है कि बीते साल अगस्त माह में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के 25000 किसानों को राष्ट्रपति से आत्महत्या करने की इच्छा जाहिर करनी पड़ गयी थी।स्पष्ट है कि किसान मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं।बात सिर्फ उन्नाव के किसानों की नहीं है, देश भर के किसान दुखी हैं ,उनकी यह वेदना समय-समय पर सामने आती भी रहती हैं।कोई व्यवस्था से लड़ रहा है, तो कोई उम्मीद धुंधली पड़ती देख आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं।सवाल यह है कि किसानों की आत्महत्या के बाद ही खबरें सुर्खियां क्यों बनती हैं? तमाम तरह की योजनाओं और कार्यक्रमों की घोषणा के बावजूद भारतीय समाज में किसानों की स्थिति सुधरने की बजाय दिनोंदिन बिगड़ती ही जा रही है।आदिकाल से ही देश में किसानों की छवि ग्रामदेवता के रुप में रही है।लेकिन ,द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक के प्रति सरकार के अत्यधिक झुकाव तथा बदलते समय के साथ किसानों की स्थिति में आवश्यक सुधार ना हो पाने के कारण अधिकांश किसान आज उपेक्षा के शिकार हैं।उपेक्षा का यही भाव उनमें जीवन के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है, और इस तरह वे आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर देते हैं। महंगे होते कृषि आगतों, कठिन होती प्राकृतिक दशाओं तथा सरकारी उपेक्षा की वजह से वे अपने व्यवसाय के साथ न्याय कर पाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहे हैं।किसानों के अपने परंपरागत पेशे से टूटते मोह के कारण कृषि दिन-ब-दिन बदहाली की गर्त में समाती जा रही है।दरअसल, खेती में लागत अधिक और मुनाफा कम होने की वजह से किसानों का धैर्य भी जवाब देता दिख रहा है।जमीनी हकीकत है कि केवल कृषि कार्य कर एक औसत किसान के लिए अपनी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति कर पाना भी मुश्किल होता जा रहा है।ऐसे में, बच्चों की अच्छी शिक्षा और असाध्य रोगों के लिए खर्च का उचित बंदोबस्त कर पाना किसी चुनौती से कम नहीं। देश में तीव्र औद्योगिक विकास के बावजूद,एक बड़ी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है।खेती व किसानों की समस्याओं को नजरअंदाज कर देश के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।अतः किसानों को बदहाली की गर्त से निकालने के लिए सरकार को यथासंभव प्रयास करने चाहिए।कहीं ऐसा न हो कि हमारे किसानों का धैर्य जवाब दे दे।ग्रामीण अंचलों की यह जमीनी सच्चाई है कि खेती में लागत और मुनाफे के बढ़ते नकारात्मक अंतर को देख किसान अपनी पुश्तैनी धंधे छोड़कर औद्योगिक क्षेत्र की ओर पलायित हो रहे हैं।ऐसे में, वर्ष में मात्र एक दिन किसान दिवस के आयोजन का नाटक व विभिन्न सभा-सम्मेलनों तथा चुनावी घोषणापत्रों में किसानों के लिए कागजी घोषणाएं करने मात्र से किसानों का भला होने से रहा।जरुरी यह है कि किसानों के हित में ना सिर्फ दर्जनों नीतियां बनें, बल्कि उन नीतियों व वादों का उचित कार्यान्वयन भी हों।
फिलहाल, देश के लाखों किसानों की निगाहें 1 फरवरी को सरकार द्वारा लाए जाने वाले बजट पर टिकी हैं।संसद के पटल पर रखे जाने वाले आगामी आम बजट से किसानों(विशेषकर छोटे और मझोले) को ढेर सारी आशाएं हैं।हालांकि,किसानों की यह आशा बजट के हर सत्र के साथ होती है, यह बात दीगर है कि सरकारें उन उम्मीदों पर आज तक खरा नहीं उतर सकी हैं।पिछले बजट की बात करें, तो किसानों के हित में ढेर सारी घोषणाएँ की गयी थीं।बकायदा सरकार ने पिछले बजट को गांव व किसानों पर केंद्रित भी बताया था।वित्तीय वर्ष 2016-2017 के तहत, कृषि और किसान कल्याण के लिए 35,984 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था।इसके अतिरिक्त, नाबार्ड में लगभग 20, 000 करोड़ रुपए की प्रारंभिक निधि से सिंचाई निधि बनाने की योजना को भी शामिल किया गया था।फसल नुकसान से जूझते किसानों के हित में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए 2016-17 में 5500 करोड़ रुपए की धनराशि दी गई थी।इसके साथ ही, वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने के लिए सरकार अपने प्रयासों को नए सिरे से तैयार करने का वादा भी किया था। देखना दिलचस्प होगा कि इस बजट में सरकार कृषि विकास व किसानों की उन्नति के लिए क्या कदम उठाती हैं।
गत दिनों, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया कि भारतीय किसानों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति घटने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही हैं।'एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया-2015' शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014 के मुकाबले 2015 में किसानों में आत्महत्या करने की दर में 42 फीसदी का इजाफा हुआ है।रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि देश में सात राज्य ऐसे हैं, जहां किसानों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति सर्वाधिक है।वर्ष 2015 की बात करें, तो क्रमशः कर्नाटक में 1559, तेलंगाना में 1400, मध्यप्रदेश में 1290,छत्तीसगढ़ में 954, आंध्रप्रदेश में 916, और तमिलनाडु में 606 में किसानों ने अपनी ईहलीला समाप्त कर ली।हालांकि, ये महज सरकारी आंकड़ें हैं, वास्तविक संख्या के इससे अधिक होने की पूरी संभावना है।गौरतलब है कि फसल के उचित दाम न मिल पाने , खेती से जुड़ी दिक्कतों तथा कर्जभार, किसानों द्वारा किये गये आत्महत्या के प्रमुख कारणों के रुप में सामने आए हैं।ऑकड़ों पर विश्वास करें, तो करीबन 39 फीसदी किसानों ने दीवालिया होने, कर्ज के बोझ तले दबे होने या कृषि संबंधी अन्य मसलों की वजह से आत्महत्या करने का फैसला किया, जबकि 20 फीसदी कृषि श्रमिकों के आत्महत्या करने का वजह भी यही रही। सबसे दुखद बात यह रही कि किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति पर आयी एनसीआरबी की उक्त रिपोर्ट पर न तो सत्तारूढ़ सरकार और न ही किसी राजनीतिक दल ने ही चिंता व्यक्त करना उचित समझा।यहां तक कि किसी राजनेता या स्वयं कृषि मंत्री ने किसानों के प्रति संवेदना के दो स्वर प्रकट करने तक की जहमत नहीं उठाई।हां, इतना तो स्पष्ट है कि पांच राज्यों में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में राजनीतिक पार्टियां किसानों का समर्थन लेने के लिए उनका राजनीतिक इस्तेमाल जरुर करेंगी।दरअसल,विपक्षी दलों की हमेशा ख्वाहिश होती है कि जब तक सत्ता से बाहर हैं ,किसानों का समर्थन ले लिया जाय, लेकिन समस्या यह है कि गद्दी मिलने के बाद खेती व किसानों के मुद्दे ठंडे बस्ते में डाल दिये जाते हैं।संवेदनहीन नेताओं को इससे क्या लेना कि खराब पैदावार और कर्ज की विशालता तथा समय पर किस्त नहीं भर पाने की हालत में प्रतिदिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं।यह सही है कि भारतीय कृषि तथा किसानों की दयनीय हालत के लिए प्राकृतिक तत्व एक बड़े कारक के रुप में उत्तरदायी रही हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि देश की मौजूदा स्वार्थपरक राजनीति ने भी किसानों को महज वोट बैंक तक ही सीमित रखा। दुर्भाग्य यह भी है कि खेती व किसानों के मुद्दे राजनीतिक दलों व संबंधित नेताओं के लिए महज चुनाव जीतने के लिए एक हथकंडा मात्र बन कर रह गये हैं।सवाल यह भी है कि किसानों में बढ़ती आत्महत्या की दर राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बन पाता है ? भारतीय कृषि की दयनीय स्थिति के लिए जहां तक पर्यावरणीय कारक जिम्मेदार रहे हैं, उससे कहीं अधिक देश की जड़ हो चुकी निष्क्रिय व शोषणकारी व्यवस्थाओं ने किसानों की उम्मीदों पर पानी फेरा है।संसद का शीतकालीन सत्र बिना किसी ठोस चर्चा के व्यर्थ हो गया।दूसरी तरफ, सत्र बाधित कर कुछ सांसद अपने को किसान-हितैषी बताने में पीछे नहीं रहे।ऐसे में जनप्रतिनिधियों के कथनी और करनी में अंतर को स्पष्टतः महसूस किया जा सकता है।सच तो यह है कि संसद सत्र के दौरान पक्ष-विपक्ष की वैचारिक लड़ाई में किसानों के मुद्दे हमेशा हाशिये में दिखाई दिये हैं। देश में अधिकांश किसानों की हालत खस्ताहाल है।उदासीनता का आलम यह है कि बीते साल अगस्त माह में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के 25000 किसानों को राष्ट्रपति से आत्महत्या करने की इच्छा जाहिर करनी पड़ गयी थी।स्पष्ट है कि किसान मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं।बात सिर्फ उन्नाव के किसानों की नहीं है, देश भर के किसान दुखी हैं ,उनकी यह वेदना समय-समय पर सामने आती भी रहती हैं।कोई व्यवस्था से लड़ रहा है, तो कोई उम्मीद धुंधली पड़ती देख आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं।सवाल यह है कि किसानों की आत्महत्या के बाद ही खबरें सुर्खियां क्यों बनती हैं? तमाम तरह की योजनाओं और कार्यक्रमों की घोषणा के बावजूद भारतीय समाज में किसानों की स्थिति सुधरने की बजाय दिनोंदिन बिगड़ती ही जा रही है।आदिकाल से ही देश में किसानों की छवि ग्रामदेवता के रुप में रही है।लेकिन ,द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक के प्रति सरकार के अत्यधिक झुकाव तथा बदलते समय के साथ किसानों की स्थिति में आवश्यक सुधार ना हो पाने के कारण अधिकांश किसान आज उपेक्षा के शिकार हैं।उपेक्षा का यही भाव उनमें जीवन के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है, और इस तरह वे आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर देते हैं। महंगे होते कृषि आगतों, कठिन होती प्राकृतिक दशाओं तथा सरकारी उपेक्षा की वजह से वे अपने व्यवसाय के साथ न्याय कर पाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहे हैं।किसानों के अपने परंपरागत पेशे से टूटते मोह के कारण कृषि दिन-ब-दिन बदहाली की गर्त में समाती जा रही है।दरअसल, खेती में लागत अधिक और मुनाफा कम होने की वजह से किसानों का धैर्य भी जवाब देता दिख रहा है।जमीनी हकीकत है कि केवल कृषि कार्य कर एक औसत किसान के लिए अपनी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति कर पाना भी मुश्किल होता जा रहा है।ऐसे में, बच्चों की अच्छी शिक्षा और असाध्य रोगों के लिए खर्च का उचित बंदोबस्त कर पाना किसी चुनौती से कम नहीं। देश में तीव्र औद्योगिक विकास के बावजूद,एक बड़ी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है।खेती व किसानों की समस्याओं को नजरअंदाज कर देश के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।अतः किसानों को बदहाली की गर्त से निकालने के लिए सरकार को यथासंभव प्रयास करने चाहिए।कहीं ऐसा न हो कि हमारे किसानों का धैर्य जवाब दे दे।ग्रामीण अंचलों की यह जमीनी सच्चाई है कि खेती में लागत और मुनाफे के बढ़ते नकारात्मक अंतर को देख किसान अपनी पुश्तैनी धंधे छोड़कर औद्योगिक क्षेत्र की ओर पलायित हो रहे हैं।ऐसे में, वर्ष में मात्र एक दिन किसान दिवस के आयोजन का नाटक व विभिन्न सभा-सम्मेलनों तथा चुनावी घोषणापत्रों में किसानों के लिए कागजी घोषणाएं करने मात्र से किसानों का भला होने से रहा।जरुरी यह है कि किसानों के हित में ना सिर्फ दर्जनों नीतियां बनें, बल्कि उन नीतियों व वादों का उचित कार्यान्वयन भी हों।
फिलहाल, देश के लाखों किसानों की निगाहें 1 फरवरी को सरकार द्वारा लाए जाने वाले बजट पर टिकी हैं।संसद के पटल पर रखे जाने वाले आगामी आम बजट से किसानों(विशेषकर छोटे और मझोले) को ढेर सारी आशाएं हैं।हालांकि,किसानों की यह आशा बजट के हर सत्र के साथ होती है, यह बात दीगर है कि सरकारें उन उम्मीदों पर आज तक खरा नहीं उतर सकी हैं।पिछले बजट की बात करें, तो किसानों के हित में ढेर सारी घोषणाएँ की गयी थीं।बकायदा सरकार ने पिछले बजट को गांव व किसानों पर केंद्रित भी बताया था।वित्तीय वर्ष 2016-2017 के तहत, कृषि और किसान कल्याण के लिए 35,984 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था।इसके अतिरिक्त, नाबार्ड में लगभग 20, 000 करोड़ रुपए की प्रारंभिक निधि से सिंचाई निधि बनाने की योजना को भी शामिल किया गया था।फसल नुकसान से जूझते किसानों के हित में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए 2016-17 में 5500 करोड़ रुपए की धनराशि दी गई थी।इसके साथ ही, वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने के लिए सरकार अपने प्रयासों को नए सिरे से तैयार करने का वादा भी किया था। देखना दिलचस्प होगा कि इस बजट में सरकार कृषि विकास व किसानों की उन्नति के लिए क्या कदम उठाती हैं।
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