आज जिन्हें हम मानते हैं उन्हें ब्राह्मण कहना क्यों सही नहीं है
आज स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले यदि गीता के दो अध्यायों को ही पढ़ लें तो स्वयं को ऐसा कहने से पहले सौ बार सोचेंगे
ब्राह्मण शब्द पहले ज्ञान साधना, शील, सदाचार, त्याग और आध्यात्मिक जीवन-वृत्ति के आधार पर अपना जीवन जीने वाले लोगों के लिए एक सम्मानित संबोधन सरीखा था. बाद के समय में ब्राह्मणत्व ज्ञान और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का पेशा बन गया और इसे अपनाने वालों को ब्राह्मण माना जाने लगा. लेकिन पेशा बनने के बाद भी इससे कई उच्च आदर्श और अनुशासन जुड़े हुए थे जिन्हें कर्तव्य मानकर निभाया जाता था.पेशे के रूप में भी यह इतना आसान नहीं था. उदाहरण के लिए, इस पेशे में उतरने के लिए यदि कोई ऋग्वेद का विद्यार्थी है, तो उसे दस हज़ार से अधिक मन्त्रों, उसके पद-पाठ, क्रम-पाठ, ऐतरेय ब्राह्मण, छह वेदांगों (जैसे आश्वलायन का कल्प-सूत्र, पाणिनी का व्याकरण जिसमें लगभग 4000 सूत्र हैं, निरुक्त जो 12 अध्यायों में है, छन्द, शिक्षा एवं ज्योतिष) को कंठस्थ करना पड़ता था.
परवर्ती पुरोहितों और अन्य लोगों द्वारा तमाम मिलावटबाजियों के बावजूद संस्कृत शास्त्रों में आज भी लिखा मिलता है कि ‘जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते.’छह वेदांगों में से पहले तीन तो बहुत ही लंबे और दुर्बोध ग्रन्थ हैं. बिना अर्थ समझे इतने लंबे साहित्य को याद रखना आसान नहीं था. और उन्हें बिना शुल्क लिए ही वेदों का अध्यापन करना पड़ता था (वेद पढ़ाने पर शुल्क लेना पाप समझा जाता था, और आज भी कई स्थानों पर ऐसा ही है). हालांकि शिक्षा के अंत में वे स्वेच्छा से दिए जाने पर कुछ ग्रहण कर सकते थे.
इन पेशेवर ‘ब्राह्मणों’ के सामने दरिद्रता का जीवन, सादा जीवन और उच्च विचारों के आदर्श थे. ये लोग सदियों से चले आये हुए एक समृद्ध और विशाल साहित्य के संरक्षक थे. इनसे यह भी आशा की जाती थी कि वे रोज-रोज लिखे जा रहे साहित्य की भी रक्षा करें और उसे सम्यक ढंग से औरों में बांटें और संपूर्ण साहित्य का प्रचार करें. हालांकि सभी पेशेवर ब्राह्मण इतने बड़े आदर्श तक नहीं पहुंच पाते थे, फिर भी इनकी संख्या बहुत बड़ी थी और इन्हीं की वजह से पूरे समाज को संस्कृत भाषा में उपलब्ध प्रचुर साहित्य और ज्ञान उपलब्ध हो पाया.
संयम, संतोष, ज्ञान और करुणा की जीवन-साधना के द्वारा कोई भी मानव-मानवी व्यापक अर्थों वाला गुणवाचक ब्राह्मण बन सकता था. परवर्ती पुरोहितों और अन्य लोगों द्वारा तमाम मिलावटबाजियों के बावजूद संस्कृत शास्त्रों में आज भी लिखा मिलता है कि ‘जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते.’ यानी जन्म से हर कोई अज्ञानी होता है, और अपने कर्म और जीवन-साधना के द्वारा ऊंचे आदर्शों को हासिल कर ही कोई ‘ब्राह्मण’ कहला सकता है. लेकिन इस तरह के ‘ब्राह्मणत्व’ को बाद में पहले तो महज पौरोहित्य का ‘पेशा’ बना दिया गया. फिर इसे ‘वर्ण’ का समानार्थी बना दिया गया. यह एक बड़ी भारी भूल और विकृति थी. इसके बाद सबसे अधिक पतन तब हुआ, जब इस कथित ‘वर्ण’ को जन्म के आधार पर जाति बना दिए जाने का आत्मघाती कदम उठाया गया.
गीता में अनेक स्थानों पर खोल-खोल कर समझाया गया है कि ‘मन की निर्मलता, आत्मसंयम, तप यानी कठिन परिस्थितियों को स्वीकारते हुए जीना, आचरण और विचार की शुद्धता, धैर्य या सहनशीलता, सरलता, निष्कपटता या ईमानदारी, ज्ञान-विज्ञान और जीवन-धर्म में श्रद्धा ये सब ‘ब्राह्मण’ होने की शर्तें या पहचान हैं’ (गीता, 18/42).
जिस मनुस्मृति को आज जन्म के आधार पर वर्ण और जाति व्यवस्था के लिए सबसे अधिक कोसा जाता है, सबसे पहली चोट उसी में इन पर की गई हैवर्ण के अपने विश्लेषण में भी गीता ने यह नहीं कहा है कि ‘जाति-कर्म विभागशः’, बल्कि इसने कहा- ‘गुणकर्म विभागशः’ (गुणों के आधार पर मनुष्यों का चार प्रकार से विभाजन). ‘ब्राह्मण’ के विश्लेषण में कहीं भी जन्म को कोई आधार बनाया गया. धम्मपद के रूप में संकलित बुद्धवाणी में भी कहा गया- ‘बड़े-बड़े बालों से या वंश से या ऊंचे कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता. जिसमें सत्य और धर्म है, वही ब्राह्मण है’ (धम्मपद, 393).
गीता जिस संस्कृत ग्रंथ महाभारत का हिस्सा है, उसमें दसियों स्थान पर वर्ण और जाति की प्रचलित व्यवस्था पर इतनी कठोर टिप्पणियां की गयी हैं कि इसे देखकर लगता है कि उस काल में जाति-व्यवस्था के विरोध में कोई बड़ी क्रांति या आलोचना अवश्य हुई होगी. इस ग्रंथ के शांतिपर्व के दो अध्याय (188 और 189) तो पूरी तरह से इसी जाति-व्यवस्था की आलोचना को ही समर्पित हैं. इन अध्यायों में एक से एक मानवीय और वैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत कर प्रचलित जाति-व्यवस्था की और विशेषकर जन्मना ब्राह्मणों के अहंबोध की घनघोर खिल्ली उड़ाई गयी है. आज स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले यदि इस ग्रंथ के इन दो अध्यायों को पढ़ें, तो इसकी परिभाषा के आधार पर वे शायद ही स्वयं को ब्राह्मण कह पाएंगे.
आज के जाति-बाभनों को आईना दिखाने के लिए किसी अति-प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में लिखा यह श्लोक ही काफी है - ‘अंत्यजो विप्रजातिश्च एक एव सहोदराः. एकयोनिप्रसूतश्च एकशाखेन जायते..’ यानी ब्राह्मण और अछूत सगे भाई हैं. महाभारत के ही वनपर्व के अध्याय-216 के श्लोक-14-15 में निष्कर्ष रूप में कहा गया है- ‘तं ब्राह्मणमहं मन्ये वृत्तेन हि भवेद् द्विजः’ यानी केवल सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य ब्राह्मण कहला सकता है.
इसके अलावा जिस मनुस्मृति को आज जन्म के आधार पर वर्ण और जाति व्यवस्था के लिए सबसे अधिक कोसा जाता है, सबसे पहली चोट उसी में इन पर की गई है (श्लोक-12/109, 12/114, 9/335, 10/65, 2/103, 2/155-58, 2/168, 2/148, 2/28). आज जिस मनुस्मृति को गाली दी जाती है गांधी और अंबेडकर के अनुसार वह मनु के अलावा मुख्य रूप से किसी भृगु के विचारों से भरी पोथी हे, जिसमें बाद में भी कई लोगों ने जोड़-तोड़ की
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