बुधवार, 21 सितंबर 2016

कना कब ज़रूरी हो गया

कना कब ज़रूरी हो गया

  • 1 घंटा पहले
भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
भारत में इस हफ्ते टेलिविज़न एक्ट्रेस गौहर खान को शॉर्ट ड्रेस पहनने की वजह से शूटिंग के सेट पर एक आदमी थप्पड़ मार देता है.
फिर मुंबई के एक लॉ कॉलेज में लड़कियों के पहनावे को लेकर बनाए गए सख्त किस्म के नियम कायदों पर लोगों की नाराज़गी की खबरें आती हैं.
सवाल उठता है कि क्या यह पहली बार हुआ है और क्या इस बार चीजें कुछ अलग तरह से हो रही हैं.
तूलिका गुप्ता भारत के फ़ैशन इतिहास पर काम कर चुकी हैं और इस लेख में उन्होंने भारत में बदलते वक्त के साथ-साथ फ़ैशन के तौर तरीकों में आए बदलाव की समीक्षा की है.

अंग्रेजों की विरासत

भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
काम को समझने की परिधि हर देश में अलग अलग होती है. बहुत से भारतीय ये समझते हैं कि औरत के पहनावे और उसकी लज्जा से जुड़े विचार अंग्रेजों से विरासत में मिले हैं.
अतीत में झांक कर देखने पर ये पता चलता है कि औरतों के तन पर बहुत कम लिबास होता था.
ईसा से तीन सदी पहले मौर्य और शुंग राजवंश के वक्त की प्रस्तर प्रतिमाएं ये बताती हैं कि तब स्त्री और पुरुष आयताकार कपड़े का एक टुकड़ा शरीर के निचले हिस्से में और एक ऊपरी हिस्से में पहना करते थे.
गुप्त राजवंश के दौरान की भी छवियां हैं जिनसे पता चलता है कि सातवीं और आठवीं सदी के दौरान स्त्रियां के कमर से ऊपर के कपड़े टंके हुए होते थे और उनका वक्षस्थल एक पट्टी से ढंका होता था. वे कमर से नीचे के कपड़े भी पहना करती थीं.

स्त्रियोचित लज्जा

भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
अलग अलग समुदाय और इलाकों में वक्त के साथ साथ स्त्रियोचित लज्जा की परिभाषा भी अलग अलग रही है.
ये हमेशा से चेहरे और शरीर को ढंकने से नहीं जुड़ा रहा है बल्कि कई मायनों में भारत की गर्म जलवायु इसकी बड़ी वजह रही है. लोगों ने बस वही किया जो उन्हें ठीक लगा.
लेकिन क्षेत्रीय विविधताएं वाकई बड़ी ही दिलचस्प थीं. दक्षिण भारत में, यहां तक कि औपनिवेशिक दौर में भी कुछ महिलाएं अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा नहीं ढंकती थीं.
और अतीत में जब कभी भी भारत और अन्य संस्कृतियों का कोई संपर्क हुआ है तो फ़ैशन और विचारों में बदलाव आया.

मुगलों का असर

भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
1860 के दशक में दो बांग्लादेशी महिलाएं.
वो चाहे ग्रीक, रोमन, अरबी या फिर चीनी सभ्यता से संपर्क रहा है, उसका असर पड़ा है.
15वीं सदी में हम देखते हैं कि मुसलमान और हिंदू औरतें अलग अलग तरह के कपड़े पहनती थीं और 16वीं और 17वीं सदी के दौर में जब पूरे भारत और पाकिस्तान पर मुगलों की सत्ता थी तो उनका भी साफ असर था.
मैंने पहनावे के तौर तरीके को लेकर कभी भी कोई लिखित नियम कायदा नहीं देखा कि किस तरह से क्या पहना जाए, हां ये जरूर था कि मुसलमान औरतें अमूमन खुद को ढंक लिया करती थीं और उनके लिबास कई हिस्सों में होते थे.
शायद इन्हीं कपड़ों से सलवार-कमीज़ की शुरुआत हुई होगी जिसे आज भारत में एक तरह से राष्ट्रीय पोशाक माना जाता है.

बंडी और कुरती

भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
विक्टोरिया युग में बंगाल में कुछ महिलाएं अपनी साड़ी के भीतर ब्लाउज़ नहीं पहना करती थीं, उनका वक्षस्थल बेलिबास ही हुआ करता था.
विक्टोरियाई समाज को ये पसंद नहीं था, शराफत को लेकर उसके पैमान अलग थे और आहिस्ता-आहिस्ता ब्लाउज़ का चलन शुरू हो गया.
वो ज्ञानदानंदिनी देबी थीं जिन्होंने ब्लाउज़, बंडी, कुरती और आज के दौर की साड़ी को फ़ैशन में लाया. वे मशहूर कवि रबींद्रनाथ टैगोर के भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर की पत्नी थीं.
कहा जाता है कि उन्हें नग्न वक्षस्थल के ऊपर साड़ी लपेटकर अंग्रेज़ों के लिए बनाए गए क्लबों में जाने से रोक दिया गया था.
सत्येंद्रनाथ के बारे में माना जाता है कि वे पश्चिमी तौर-तरीके अपनाने के लिए अपनी पत्नी को प्रोत्साहित करते रहते थे.

शालीन और पारंपरिक

भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
ब्लाउज़ और पेटीकोट जैसे शब्द भी विक्टोरियाई युग में ही भारतीय जुबान पर चढ़े थे.
साड़ी के भीतर कमीज़ पहनने का चलन भी उस दौर में जबर्दस्त फ़ैशन में था जबकि ब्रितानी संस्कृति में इन्हें बहुत पारंपरिक किस्म का लिबास माना जाता है.
भले ही ब्लाउज़ से बीच का खालीपन जाहिर हो जाता था लेकिन इसके बावजूद लंबे समय समय से इसे बेहद शालीन माना जाता रहा है और ये पारंपरिक भी कहा गया.
भारत में किसी महिला के लिए अपने शरीर को पूरी तरह से ढंकना बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने भीतर क्या पहन रखा है.
ब्रितानियों का असर वक्त के साथ साथ बढ़ता गया. हम अलग-अलग किस्म की डिजाइन की बाहों और गले वाले ब्लाउज़ देखते हैं.

पुरानी पीढ़ी

भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
ब्रिटेन के विपरीत भारत में पहनावे को लेकर कोई लिखित आचार-संहिता नहीं है कि क्या पहना जाना चाहिए. जो कुछ भी बेहतर लगा, वह लोगों के जरिए ही फैल गया.
इसलिए इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा तारीख में जो लोग औरतों के पहनावे के तौर-तरीके तय करना चाहते हैं, उन्हें बेशक ये लगता हो कि वे महिलाओं की हिफ़ाजत कर रहे हैं लेकिन वे पुरानी पीढ़ी के सियासी आकाओं के नक्शे-कदम पर ही चल रहे हैं.
भारत में आज कम से कम शहरों में ही सही लेकिन औरतें अपने पहनावे को लेकर अधिक आजाद हैं लेकिन इसके बावजूद हम देखते हैं कि ड्रेस-कोड बनाए जा रहे हैं और महिलाओं को उनके पहनावे के लिए निशाना बनाया जा रहा है.

बलात्कार

भारत में साड़ी पहनने की परंपरा, ड्रेस कोड, महिलाओं का पहनावा
कुछ लोग तो कपड़े पहनने के तौर तरीके को बलात्कार की घटनाओं से जोड़ रहे हैं.
ये लोग यह नहीं समझते हैं कि शालीनता की परिभाषाएं हमेशा से बदलती रही हैं और बलात्कार इसलिए नहीं होता कि महिलाएं क्या पहनती हैं बल्कि इसलिए होता है कि पुरुष क्या सोचते हैं.
हमारे कपड़े ही हमारी पहचान हैं. लेकिन जिसे हम पारंपरिक भारतीय शालीनता से जोड़कर देखते हैं, जरूरी नहीं कि वह पूरी तरह से भारतीय ही हो.

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