कितनी रहेगी (वेद-पुराणों में), कितनी बहेगी सरस्वती?
हरियाणा सरकार जिस सरस्वती नदी को पुनर्जीवित करने के काम में लगी है उसके हजारों साल पहले होने या न होने पर ही कई तरह के सवाल उठाए जाते रहे हैं
यह
आज से तीस साल पहले की बात है जब पुरातत्वविद डॉ वीएस वाकणकर ने दावा
किया था कि उन्होंने विलुप्त हो चुकी ‘सरस्वती’ नदी का रास्ता खोज लिया है.
पद्मश्री से सम्मानित इस पुरातत्वविद का कहना था कि उसने नदी के उद्गम
स्थल – आदि बद्री (हरियाणा) से लेकर कच्छ तक का वह प्रवाहक्षेत्र चिह्नित
कर लिया है जहां हजारों साल पहले सरस्वती बहा करती थी. उसी साल फिर एक
जत्था हरियाणा से शुरू हुए प्रवाह क्षेत्र की यात्रा करते-करते हुए गुजरात
के कच्छ तक पहुंचा था. इसमें राष्ट्रीय स्यवंसेवक संघ के कुछ प्रचारक भी
शामिल थे. तब किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि भविष्य में इन्हीं
प्रचारकों में से एक के कंधे पर ‘सरस्वती’ नदी को ‘प्रवाहमान’ करने की
मुख्य जिम्मेदारी आएगी.
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, जो तब संघ प्रचारक हुआ करते थे, इस जत्थे के सदस्य थे. और आज उनकी ही राजनीतिक अगुवाई में सरस्वती नदी को पुनर्जीवित करने की परियोजना जोरशोर से चल रही है.
सरस्वती नदी के अस्तित्व के सबसे अहम पौराणिक प्रमाण क्या हैं
वेदों को हिंदू सभ्यता-संस्कृति का आदि ग्रंथ माना जाता है. ज्यादातर इतिहासविदों के मुताबिक इनका रचना काल 1500 ईसापूर्व के आसपास का है. चार वेदों में शामिल ऋग्वेद में कई दफा सरस्वती नदी का जिक्र आया है. इसके मुताबिक सरस्वती के एक तरफ यमुना है और दूसरी तरफ सतलुज और इनके बीच वह पहाड़ों से निकलती है. सरस्वती को यहां ‘सिंधुभि पिन्वमाना’ यानि अपनी सहायक नदियों से खूब जल लेने वाली नदी कहा गया है. नदी के तेज बहाव बारे में ऋग्वेद कहता है – ‘अस्जत सानुगिरीणां’ - इस नदी का प्रवाह इतना तेज है कि वह पहाड़ों को भी कमल नाल की भांति तोड़ सकता है. ऋग्वेद के बाद जो और दस्तावेज संस्कृत में दर्ज हुए उनमें भी सरस्वती नदी का जिक्र मिलता है. महाभारत में कई स्थानों पर सरस्वती की चर्चा है. भीष्मपर्व में एक स्थान पर लिखा है, ‘नदीं पिबन्ति विपुलां गंगां सिंधुं सरस्वतीं.’ यहां भारत भूमि की तीन मुख्य नदियां – गंगा, सिंधु और सरस्वती मानी गई हैं जिनमें हमेशा पानी रहता है. महाभारत की युद्धभूमि कुरुक्षेत्र के बारे में वर्णन है कि यह तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण में स्थित था.
इन्हीं पौराणिक संकेतों और कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर आज के हरियाणा को सरस्वती नदी का शुरुआती प्रवाह क्षेत्र माना जाता है जहां से नदी राजस्थान को पार करते हुए गुजरात के कच्छ में समुद्र से मिल जाती थी.
ब्रिटिश शासन के अधीन 1820 में सिंधु घाटी सभ्यता के आसपास पुरातात्विक अध्ययन शुरू हुए थे. विलुप्त सरस्वती नदी की खोज और संभावित प्रवाह मार्ग की पहचान का काम भी तभी शुरू हुआ. उस समय के ज्यादातर पुरातत्वविदों के मुताबिक शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर हरियाणा में प्रवेश करने वाली घग्गर-हाकरा (राजस्थान और पाकिस्तान में इसे हाकरा कहा जाता है) नदी ही सरस्वती का अवशेष है. 1855 में फ्रांस के एक प्रतिष्ठित पुरातत्वविद लुईस विवियन डि-सेंट मार्टिन ने भी अपने शोध के बाद यह बात मानी थी कि घग्गर सरस्वती नदी तंत्र की मुख्य नदी थी. तत्कालीन यूरोप के शोधकर्ताओं के बीच लंबे समय तक यह बात प्रचलित रही है. आज भी भारत के कुछ पुरातत्वविद इस धारणा को सही मानते हैं.
घग्गर एक मॉनसूनी नदी है. 1893 में एक अंग्रेज पुरातत्वविद सीएफ ओलधम ने घग्गर के प्रवाह क्षेत्र का अध्ययन किया था. उन्होंने पाया कि यह मॉनसूनी नदी जरूर है लेकिन इसका प्रवाहक्षेत्र कहीं-कहीं तीन किलोमीटर तक चौड़ा है जबकि इसमें इतना पानी नहीं रहता. इन तथ्यों के आधार उन्होंने दावा किया था कि घग्गर कालांतर में विलुप्त हो चुकी सरस्वती के प्रवाह क्षेत्र में ही बहने लगी है. संस्कृत ग्रंथ बताते हैं कि सतलुज और यमुना सरस्वती की सहायक नदियां हुआ करती थीं. ओलधम के मुताबिक पृथ्वी की भूगर्भीय हलचलों और टेक्टोनिक प्लेटों में बदलाव के चलते यमुना, गंगा की तरफ और सतलुज सिंधु की तरफ मुड़ने लगीं, इससे सरस्वती में पानी कम होने लगा और धीरे-धीरे वह सूख गई.
‘द लॉस्ट रिवर : ऑन द ट्रेल ऑफ सरस्वती’ के लेखक और फ्रांसीसी मूल के प्रख्यात भारतीय पुरातत्वविद माइकल डेनिनो घग्गर को लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी मानने के पीछे तीन महत्वपूर्ण कारण बताते हैं. उनके मुताबिक यह नदी शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर सतलुज और यमुना के बीच बहती है और संस्कृत ग्रंथों में सरस्वती का यही प्रवाह क्षेत्र बताया गया है. महाभारत के मुताबिक सरस्वती नदी रेगिस्तान में जाकर विलुप्त हो जाती है और घग्गर भी थार के मरुस्थल में विलुप्त होती है. तीसरा कारण यह है कि हरियाणा में घग्गर की एक छोटी सहायक नदी को सरसुती कहा जाता है. यह सस्वती का अपभ्रंश नाम है जिससे जाहिर होता है कि घग्गर और सरस्वती नदी का कोई संबंध-संपर्क जरूर है.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने सबसे पहले सरस्वती नदी खोजने की दिशा में अहम पहल की थी
1990 के दशक में राजस्थान के भूगर्भशास्त्रियों को पश्चिमी राजस्थान में कई स्थानों पर भूजल के ऐसे स्रोत होने के प्रमाण मिले जिनका पानी नमकीन नहीं था. यह तकरीबन ऐसा पानी था जो ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों में होता है. फिर 1996 में राजस्थान भूजल विभाग (आरजीडब्लूडी) ने इस इलाके में भूजल धाराओं का तंत्र खोजने की एक परियोजना शुरू कर दी. इस क्षेत्र में कुछ मीटर की खुदाई पर ही सीपियों के अवशेष मिलते रहे हैं. यह इस बात का संकेत है कि कभी यहां जलधाराएं रही होंगी. इसी समय अमेरिका की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी नासा ने अपने उपग्रहों के जरिए डिजिटल तस्वीरें भारत सरकार को उपलब्ध करवाई थीं.
बाद में इसरो के उपग्रहों ने भी रिमोट सेंसिंग तकनीक के माध्यम से इस बात की पुष्टि की कि पश्चिमी राजस्थान और हरियाणा में पेलियो चैनल (सतह से विलुप्त हो चुकी नदी के जमीन के नीचे मौजूद जल अवशेष या स्रोत) स्थित हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरस्वती नदी की खोज को लेकर हमेशा से उत्साहित रहा है. हरियाणा में 1999 के दौरान सरस्वती शोध संस्थान नाम से एक गैरसरकारी संस्था का गठन हुआ था और इसके अध्यक्ष दर्शन लाल जैन, राज्य में संघ के प्रमुख रह चुके हैं. इस संस्थान के अस्तित्व में आने के बाद से गैर-सरकारी स्तर पर सरस्वती पुनर्जीवन अभियान में काफी सक्रियता आ गई. अटल बिहारी बाजपेयी जब दूसरी बार प्रधानमंत्री बने तो 2002 में उनके कार्यकाल के दौरान संस्कृति मंत्री जगमोहन ने पहली बार केंद्र सरकार के स्तर पर सरस्वती खोज अभियान को हरी झंडी दिखा दी. संस्कृति मंत्रालय ने इतिहास से लेकर विज्ञान तक की संबंधित ढेरों एजेंसियों के संयोजन से एक पैनल तैयार किया. संस्कृति मंत्री इस पैनल के प्रमुख थे और इसे 36 महीनों में सरस्वती खोज का काम पूरा करना था. पर दो साल बाद ही एनडीए सत्ता से बाहर हो गया और कांग्रेस सहित वामपंथी पार्टियां, जो इस परियोजना को पहले ही भगवा एजेंडा घोषित कर चुकी थीं, की यूपीए सरकार ने परियोजना रद्द कर दी.
सरस्वती नदी पर विवाद की मूल जड़ इस सवाल की खोज से जुड़ी है कि भारत में आर्य जाति या संस्कृति के लोग बाहर से आए या फिर आर्य स्थानीय जाति थी जिसका बाद में उत्तर भारत तक विस्तार हुआ.
अंग्रेज पुरातत्वविद मोर्टिमर व्हीलर को इस धारणा का जनक माना जाता है कि आर्यों ने सिंधु घाटी-हड़प्पा सभ्यता के लोगों पर हमला किया था और फिर उत्तर भारत तक विस्तार किया. मध्य-पूर्व एशिया से आए यही वे लोग थे जिन्होंने वेदों की रचना की. इसी के साथ यह धारणा भी प्रचलित है कि आर्यों ने हमला नहीं किया था कि बल्कि वे पहले अफगानिस्तान में बसे फिर वहां से उनका पलायन हुआ और वे गंगा के मैदानी इलाकों तक आ गए.
भारत की प्रतिष्ठित इतिहासकार रोमिला थापर के साथ-साथ और कुछ जानेमाने इतिहासकार भी इन धारणाओं को मानते हैं. रोमिला थापर के मुताबिक ऋग्वेद दो हिस्सों में रचा गया है. इसका पहला हिस्सा अफगानिस्तान लिखा गया और दूसरी सिंधु घाटी में बसे लोगों ने पूरा किया. इस आधार पर वे मानती हैं कि सरस्वती नदी अफगानिस्तान की हेलमंद नदी है. इसी के पक्ष में इतिहासकार रामशरण शर्मा अपनी किताब ‘एडवेंट ऑफ दि आर्यन्स इन इण्डिया’ में कहते हैं कि ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह अफगानिस्तान की हेलमंद है, जिसे पारसियों के आदिग्रंथ ‘अवेस्ता’ में हरखवती कहा गया है. इन बातों को सही मानें तो कहा जा सकता है कि आज की भारतीय सभ्यता का आधार यहां के मूल निवासियों की देन नहीं है.
हाल के दशकों में आर्य लोगों को स्थानीय मानने वाली एक विचारधारा ने भी इतिहास में तेजी से जगह बनाई है. ऐसा माना जाता है कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान और उत्तर पश्चिमी भारत में आर्यों की उपस्थिति के सबसे पुराने संकेत 1500 ईसा पूर्व के हैं. जबकि सिंधु घाटी या हड़प्पा सभ्यता 2500 से 3000 ईसा पूर्व की मानी जाती है. इसका मतलब है आर्यों के कथित आगमन के पहले से यहां इंसानी आबादी रह रही थी.
अब यदि यह साबित हो जाता है कि सरस्वती नदी का अस्तित्व था. और वह हरियाणा, राजस्थान और गुजरात से होते हुए कच्छ की खाड़ी में मिलती थी तो इस विचार को धरातल मिल जाएगा कि आज की भारतीय सभ्यता सिंधु-सरस्वती नदी के किनारे पनपी थी.
इतिहासकारों के एक तबके की राय है कि केंद्र और हरियाणा की वर्तमान भाजपा सरकार हिंदूवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए सरस्वती नदी के खोज अभियान को जरूरत से ज्यादा तवज्जो दे रही हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब द हिंदू में लिखे अपने आलेख में कहते हैं कि चूंकि सिंधु घाटी सभ्यता के दो प्रमुख स्थल – मोहनजोदड़ो और हड़प्पा पाकिस्तान में पड़ते हैं इसलिए भाजपा सरकार चाहती है कि सरस्वती का अस्तित्व साबित करके इसे सरस्वती घाटी सभ्यता नाम दिया जाए. यहां वे सरस्वती समर्थकों की उस दुविधा का भी जिक्र करते हैं कि सरस्वती की धारा को प्रयाग (जहां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम) तक ले जाना चाहिए या फिर इसके संभावित प्रवाह क्षेत्र की खुदाई करके कच्छ तक.
फिलहाल ‘सरस्वती’ कितनी और कहां तक बही है
हरियाणा में अक्टूबर, 2014 में मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी थी और चार महीने बाद ही सरस्वती हेरिटेज डेवलपमेंट बोर्ड (एसएचडीबी) का गठन हो गया. राज्य में सरस्वती को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी इसे ही सौंपी गई है. हरियाणा में सरस्वती का 153 किमी लंबा प्रवाहक्षेत्र माना जाता है. राज्य सरकार के भू-अभिलेखों के मुताबिक सरस्वती का अधिकांश प्रवाह क्षेत्र यमुना नगर, कैथल और कुरुक्षेत्र जिले में पड़ता है. एसएचडीबी ने फिलहाल आदि बद्री से लेकर यमुना नगर जिले के ऊंचा चांदना और जिले के अंतिम गांव झींवरेहड़ी तक खुदाई करके सरस्वती नदी का प्रवाह क्षेत्र तैयार किया है.
बीती जुलाई में दादूपुर नलवी नहर का पानी ऊंचा चांदना में छोड़ा गया था और आगे तकरीबन 20 किमी, जहां तक खुदाई हुई है, यह पानी पहुंचा था. इस तरह अगस्त के पहले हफ्ते में हरियाणा सरकार से सरस्वती को ‘पुनर्जीवित’ कर दिया था.
एसएचडीबी की योजना है कि आने वाले समय में वह आदि बद्री के साथ दो और स्थानों पर बांध का निर्माण करवाएगा जिससे सालभर सरस्वती में पानी बहता रहेगा. फिलहाल सरकार और बोर्ड के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि सरस्वती के प्रवाहक्षेत्र में हजारों की आबादी और कृषि जमीन पड़ती है. सरस्वती को हरियाणा वाले हिस्से में 150 किमी तक बहाने का मतलब है कि यह जमीन लोगों को खाली करनी पड़ेगी. जाहिर है कि सरस्वती को पुनर्जीवित करने के रास्ते में यह भी एक बड़ी चुनौती है. हालांकि इससे बड़ी चुनौती यह साबित करना भी होगा कि बरसाती पानी और यहां-वहां से पानी जुटाकर जो नदी तैयार की जाएगी उसे किस तरह ऋग्वेद वाली हिमालय से निकली विशालकाय सरस्वती नदी कहा जाए.
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, जो तब संघ प्रचारक हुआ करते थे, इस जत्थे के सदस्य थे. और आज उनकी ही राजनीतिक अगुवाई में सरस्वती नदी को पुनर्जीवित करने की परियोजना जोरशोर से चल रही है.
ऋग्वेद में कई बार सरस्वती नदी का जिक्र आया है. इस ग्रंथ के मुताबिक सरस्वती के एक तरफ यमुना है और दूसरी तरफ सतलुज और इनके बीच वह पहाड़ों से निकलती हैवैसे तो सरस्वती नदी की खोज का विचार इन सालों में लगातार चर्चा में आता रहा लेकिन पिछले साल मई से इस नदी ने जो सुर्खियां बटोरनी शुरू की हैं, वे अब भी थमी नहीं हैं और हाल फिलहाल ऐसी संभावना दिखती भी नहीं. 7 मई, 2015 को यमुनानगर जिले के मुगलांवाली गांव में सरस्वती के संभावित प्रवाह क्षेत्र में खुदाई का काम चल रहा था. तभी एक जगह छह फीट की गहराई पर मजदूरों को नमी वाली मिट्टी मिलनी शुरू हुई. फिर एक फीट और खोदने पर यहां पानी निकल आया. यह खबर हरियाणा से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक आग की तरह फैल गई. हरियाणा सरकार ने तुरंत दावा कर दिया कि यही विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी का पानी है. राज्य सरकार ने 21 अप्रैल को सरस्वती के प्रवाह क्षेत्र में खुदाई का काम शुरू करवाया था और इस घटना ने भाजपा सरकार की ‘सरस्वती पुनर्जीवन परियोजना’ को पंख लगा दिए. हालांकि इस पानी की जांच से अभी तक यह प्रमाणित नहीं हो पाया है कि यह विलुप्त हो चुकी सरस्वती का ही पानी है.
सरस्वती नदी के अस्तित्व के सबसे अहम पौराणिक प्रमाण क्या हैं
वेदों को हिंदू सभ्यता-संस्कृति का आदि ग्रंथ माना जाता है. ज्यादातर इतिहासविदों के मुताबिक इनका रचना काल 1500 ईसापूर्व के आसपास का है. चार वेदों में शामिल ऋग्वेद में कई दफा सरस्वती नदी का जिक्र आया है. इसके मुताबिक सरस्वती के एक तरफ यमुना है और दूसरी तरफ सतलुज और इनके बीच वह पहाड़ों से निकलती है. सरस्वती को यहां ‘सिंधुभि पिन्वमाना’ यानि अपनी सहायक नदियों से खूब जल लेने वाली नदी कहा गया है. नदी के तेज बहाव बारे में ऋग्वेद कहता है – ‘अस्जत सानुगिरीणां’ - इस नदी का प्रवाह इतना तेज है कि वह पहाड़ों को भी कमल नाल की भांति तोड़ सकता है. ऋग्वेद के बाद जो और दस्तावेज संस्कृत में दर्ज हुए उनमें भी सरस्वती नदी का जिक्र मिलता है. महाभारत में कई स्थानों पर सरस्वती की चर्चा है. भीष्मपर्व में एक स्थान पर लिखा है, ‘नदीं पिबन्ति विपुलां गंगां सिंधुं सरस्वतीं.’ यहां भारत भूमि की तीन मुख्य नदियां – गंगा, सिंधु और सरस्वती मानी गई हैं जिनमें हमेशा पानी रहता है. महाभारत की युद्धभूमि कुरुक्षेत्र के बारे में वर्णन है कि यह तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण में स्थित था.
इन्हीं पौराणिक संकेतों और कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर आज के हरियाणा को सरस्वती नदी का शुरुआती प्रवाह क्षेत्र माना जाता है जहां से नदी राजस्थान को पार करते हुए गुजरात के कच्छ में समुद्र से मिल जाती थी.
1855 में फ्रांस के एक प्रतिष्ठित पुरातत्वविद लुईस विवियन डि-सेंट मार्टिन ने भी अपने शोध के बाद यह बात मानी थी कि घग्गर सरस्वती नदी तंत्र की मुख्य नदी थी19वीं शताब्दी की शुरुआत में वैज्ञानिक पद्धति से सरस्वती नदी की खोज का काम शुरू हुआ था
ब्रिटिश शासन के अधीन 1820 में सिंधु घाटी सभ्यता के आसपास पुरातात्विक अध्ययन शुरू हुए थे. विलुप्त सरस्वती नदी की खोज और संभावित प्रवाह मार्ग की पहचान का काम भी तभी शुरू हुआ. उस समय के ज्यादातर पुरातत्वविदों के मुताबिक शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर हरियाणा में प्रवेश करने वाली घग्गर-हाकरा (राजस्थान और पाकिस्तान में इसे हाकरा कहा जाता है) नदी ही सरस्वती का अवशेष है. 1855 में फ्रांस के एक प्रतिष्ठित पुरातत्वविद लुईस विवियन डि-सेंट मार्टिन ने भी अपने शोध के बाद यह बात मानी थी कि घग्गर सरस्वती नदी तंत्र की मुख्य नदी थी. तत्कालीन यूरोप के शोधकर्ताओं के बीच लंबे समय तक यह बात प्रचलित रही है. आज भी भारत के कुछ पुरातत्वविद इस धारणा को सही मानते हैं.
घग्गर एक मॉनसूनी नदी है. 1893 में एक अंग्रेज पुरातत्वविद सीएफ ओलधम ने घग्गर के प्रवाह क्षेत्र का अध्ययन किया था. उन्होंने पाया कि यह मॉनसूनी नदी जरूर है लेकिन इसका प्रवाहक्षेत्र कहीं-कहीं तीन किलोमीटर तक चौड़ा है जबकि इसमें इतना पानी नहीं रहता. इन तथ्यों के आधार उन्होंने दावा किया था कि घग्गर कालांतर में विलुप्त हो चुकी सरस्वती के प्रवाह क्षेत्र में ही बहने लगी है. संस्कृत ग्रंथ बताते हैं कि सतलुज और यमुना सरस्वती की सहायक नदियां हुआ करती थीं. ओलधम के मुताबिक पृथ्वी की भूगर्भीय हलचलों और टेक्टोनिक प्लेटों में बदलाव के चलते यमुना, गंगा की तरफ और सतलुज सिंधु की तरफ मुड़ने लगीं, इससे सरस्वती में पानी कम होने लगा और धीरे-धीरे वह सूख गई.
‘द लॉस्ट रिवर : ऑन द ट्रेल ऑफ सरस्वती’ के लेखक और फ्रांसीसी मूल के प्रख्यात भारतीय पुरातत्वविद माइकल डेनिनो घग्गर को लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी मानने के पीछे तीन महत्वपूर्ण कारण बताते हैं. उनके मुताबिक यह नदी शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर सतलुज और यमुना के बीच बहती है और संस्कृत ग्रंथों में सरस्वती का यही प्रवाह क्षेत्र बताया गया है. महाभारत के मुताबिक सरस्वती नदी रेगिस्तान में जाकर विलुप्त हो जाती है और घग्गर भी थार के मरुस्थल में विलुप्त होती है. तीसरा कारण यह है कि हरियाणा में घग्गर की एक छोटी सहायक नदी को सरसुती कहा जाता है. यह सस्वती का अपभ्रंश नाम है जिससे जाहिर होता है कि घग्गर और सरस्वती नदी का कोई संबंध-संपर्क जरूर है.
हरियाणा में घग्गर की एक छोटी सहायक नदी को सरसुती कहा जाता है. यह सस्वती का अपभ्रंश नाम है जिससे जाहिर होता है कि घग्गर और सरस्वती नदी का कोई संबंध-संपर्क जरूर हैवहीं दूसरी तरफ घग्गर को सरस्वती न मानने के पीछे एक बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि यह बरसाती नदी है जबकि सरस्वती के बारे में माना जाता है कि उसका उद्गम हिमालय के ग्लेशियर थे. विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि वैदिक काल में भी घग्गर नदी थी लेकिन यह सरस्वती नदी तंत्र की सहायक नदी रही होगी.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने सबसे पहले सरस्वती नदी खोजने की दिशा में अहम पहल की थी
1990 के दशक में राजस्थान के भूगर्भशास्त्रियों को पश्चिमी राजस्थान में कई स्थानों पर भूजल के ऐसे स्रोत होने के प्रमाण मिले जिनका पानी नमकीन नहीं था. यह तकरीबन ऐसा पानी था जो ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों में होता है. फिर 1996 में राजस्थान भूजल विभाग (आरजीडब्लूडी) ने इस इलाके में भूजल धाराओं का तंत्र खोजने की एक परियोजना शुरू कर दी. इस क्षेत्र में कुछ मीटर की खुदाई पर ही सीपियों के अवशेष मिलते रहे हैं. यह इस बात का संकेत है कि कभी यहां जलधाराएं रही होंगी. इसी समय अमेरिका की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी नासा ने अपने उपग्रहों के जरिए डिजिटल तस्वीरें भारत सरकार को उपलब्ध करवाई थीं.
बाद में इसरो के उपग्रहों ने भी रिमोट सेंसिंग तकनीक के माध्यम से इस बात की पुष्टि की कि पश्चिमी राजस्थान और हरियाणा में पेलियो चैनल (सतह से विलुप्त हो चुकी नदी के जमीन के नीचे मौजूद जल अवशेष या स्रोत) स्थित हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरस्वती नदी की खोज को लेकर हमेशा से उत्साहित रहा है. हरियाणा में 1999 के दौरान सरस्वती शोध संस्थान नाम से एक गैरसरकारी संस्था का गठन हुआ था और इसके अध्यक्ष दर्शन लाल जैन, राज्य में संघ के प्रमुख रह चुके हैं. इस संस्थान के अस्तित्व में आने के बाद से गैर-सरकारी स्तर पर सरस्वती पुनर्जीवन अभियान में काफी सक्रियता आ गई. अटल बिहारी बाजपेयी जब दूसरी बार प्रधानमंत्री बने तो 2002 में उनके कार्यकाल के दौरान संस्कृति मंत्री जगमोहन ने पहली बार केंद्र सरकार के स्तर पर सरस्वती खोज अभियान को हरी झंडी दिखा दी. संस्कृति मंत्रालय ने इतिहास से लेकर विज्ञान तक की संबंधित ढेरों एजेंसियों के संयोजन से एक पैनल तैयार किया. संस्कृति मंत्री इस पैनल के प्रमुख थे और इसे 36 महीनों में सरस्वती खोज का काम पूरा करना था. पर दो साल बाद ही एनडीए सत्ता से बाहर हो गया और कांग्रेस सहित वामपंथी पार्टियां, जो इस परियोजना को पहले ही भगवा एजेंडा घोषित कर चुकी थीं, की यूपीए सरकार ने परियोजना रद्द कर दी.
अटल बिहारी बाजपेयी जब दूसरी बार प्रधानमंत्री बने तो 2002 में उनके कार्यकाल के दौरान संस्कृति मंत्री जगमोहन ने पहली बार केंद्र सरकार के स्तर पर सरस्वती खोज अभियान को हरी झंडी दिखा दीसरस्वती नदी पर विवाद क्या है?
सरस्वती नदी पर विवाद की मूल जड़ इस सवाल की खोज से जुड़ी है कि भारत में आर्य जाति या संस्कृति के लोग बाहर से आए या फिर आर्य स्थानीय जाति थी जिसका बाद में उत्तर भारत तक विस्तार हुआ.
अंग्रेज पुरातत्वविद मोर्टिमर व्हीलर को इस धारणा का जनक माना जाता है कि आर्यों ने सिंधु घाटी-हड़प्पा सभ्यता के लोगों पर हमला किया था और फिर उत्तर भारत तक विस्तार किया. मध्य-पूर्व एशिया से आए यही वे लोग थे जिन्होंने वेदों की रचना की. इसी के साथ यह धारणा भी प्रचलित है कि आर्यों ने हमला नहीं किया था कि बल्कि वे पहले अफगानिस्तान में बसे फिर वहां से उनका पलायन हुआ और वे गंगा के मैदानी इलाकों तक आ गए.
भारत की प्रतिष्ठित इतिहासकार रोमिला थापर के साथ-साथ और कुछ जानेमाने इतिहासकार भी इन धारणाओं को मानते हैं. रोमिला थापर के मुताबिक ऋग्वेद दो हिस्सों में रचा गया है. इसका पहला हिस्सा अफगानिस्तान लिखा गया और दूसरी सिंधु घाटी में बसे लोगों ने पूरा किया. इस आधार पर वे मानती हैं कि सरस्वती नदी अफगानिस्तान की हेलमंद नदी है. इसी के पक्ष में इतिहासकार रामशरण शर्मा अपनी किताब ‘एडवेंट ऑफ दि आर्यन्स इन इण्डिया’ में कहते हैं कि ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह अफगानिस्तान की हेलमंद है, जिसे पारसियों के आदिग्रंथ ‘अवेस्ता’ में हरखवती कहा गया है. इन बातों को सही मानें तो कहा जा सकता है कि आज की भारतीय सभ्यता का आधार यहां के मूल निवासियों की देन नहीं है.
हाल के दशकों में आर्य लोगों को स्थानीय मानने वाली एक विचारधारा ने भी इतिहास में तेजी से जगह बनाई है. ऐसा माना जाता है कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान और उत्तर पश्चिमी भारत में आर्यों की उपस्थिति के सबसे पुराने संकेत 1500 ईसा पूर्व के हैं. जबकि सिंधु घाटी या हड़प्पा सभ्यता 2500 से 3000 ईसा पूर्व की मानी जाती है. इसका मतलब है आर्यों के कथित आगमन के पहले से यहां इंसानी आबादी रह रही थी.
ऋग्वेद में ‘सप्तसिंधु (सात नदियां)’ का जिक्र कई बार आया है. भारत की गंगा की लेकर पाकिस्तान की सिंधु के बीच के भू-भाग में ये नदियां बहा करती थीं. इनमें सरस्वती सबसे बड़ी नदी थी लेकिन आज इस क्रम में सिर्फ वही अदृश्य हैऋग्वेद में ‘सप्तसिंधु (सात नदियां)’ का जिक्र कई बार आया है. भारत की गंगा की लेकर पाकिस्तान की सिंधु के बीच के भू-भाग में ये नदियां बहा करती थीं. इनमें सरस्वती सबसे बड़ी नदी थी लेकिन आज इस क्रम में सिर्फ वही अदृश्य है बाकी छह नदियां मौजूद हैं. माइकल डेनिनो एक साक्षात्कार में पुरा-अवशेषों का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘सरस्वती नदी कम से कम 2600 ईसापूर्व तक इस क्षेत्र की विशालतम प्रवाहक्षेत्र वाली नदी थी. और ऋग्वेद में इसकी विपुल जलराशि की महिमा गाई गई है.’ इतिहासकारों का बड़ा वर्ग मानता है कि ऋग्वेद की रचना आर्यों (जो विदेशी थे) ने की है. लेकिन यह मुमकिन नहीं है क्योंकि इतिहास आर्यों का कथित आगमन 1500 ईसा पूर्व का बताता है और तब तक सरस्वती नदी तकरीबन विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी थी. इसका मतलब हुआ कि ऋग्वेद और बाकी के वेद उसी जाति ने रचे जिसकी सरस्वती नदी के किनारे बसाहट थी. इस आधार पर यह तर्क भी खारिज हो जाता है कि आर्य बाहर से आए थे.
अब यदि यह साबित हो जाता है कि सरस्वती नदी का अस्तित्व था. और वह हरियाणा, राजस्थान और गुजरात से होते हुए कच्छ की खाड़ी में मिलती थी तो इस विचार को धरातल मिल जाएगा कि आज की भारतीय सभ्यता सिंधु-सरस्वती नदी के किनारे पनपी थी.
इतिहासकारों के एक तबके की राय है कि केंद्र और हरियाणा की वर्तमान भाजपा सरकार हिंदूवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए सरस्वती नदी के खोज अभियान को जरूरत से ज्यादा तवज्जो दे रही हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब द हिंदू में लिखे अपने आलेख में कहते हैं कि चूंकि सिंधु घाटी सभ्यता के दो प्रमुख स्थल – मोहनजोदड़ो और हड़प्पा पाकिस्तान में पड़ते हैं इसलिए भाजपा सरकार चाहती है कि सरस्वती का अस्तित्व साबित करके इसे सरस्वती घाटी सभ्यता नाम दिया जाए. यहां वे सरस्वती समर्थकों की उस दुविधा का भी जिक्र करते हैं कि सरस्वती की धारा को प्रयाग (जहां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम) तक ले जाना चाहिए या फिर इसके संभावित प्रवाह क्षेत्र की खुदाई करके कच्छ तक.
इतिहासकारों के एक तबके की राय है कि केंद्र और हरियाणा की वर्तमान भाजपा सरकार हिंदूवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए सरस्वती नदी के खोज के अभियान को जरूरत से ज्यादा तवज्जो दे रही हैंवहीं दूसरी तरफ पर्यावरणविदों का एक तबका भी हरियाणा सरकार की इस कवायद पर सवाल उठाता है. इसका कहना है नदियां भूगर्भीय हलचलों के कारण खुद अपना रास्ता बदलती हैं या सूख जाती हैं इसलिए कृत्रिम तरीके से उन्हें पुनर्जीवित करना असंभव है. इसके साथ ही इनका कहना है कि जब हम अपनी दूसरी नदियों का संरक्षण नहीं कर पा रहे हैं तो ऐसे में किसी विलुप्त हो चुकी नदी को पुनर्जीवित करने जैसे असंभव काम में समय और संसाधनों की बर्बादी क्यों की जाए.
फिलहाल ‘सरस्वती’ कितनी और कहां तक बही है
हरियाणा में अक्टूबर, 2014 में मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी थी और चार महीने बाद ही सरस्वती हेरिटेज डेवलपमेंट बोर्ड (एसएचडीबी) का गठन हो गया. राज्य में सरस्वती को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी इसे ही सौंपी गई है. हरियाणा में सरस्वती का 153 किमी लंबा प्रवाहक्षेत्र माना जाता है. राज्य सरकार के भू-अभिलेखों के मुताबिक सरस्वती का अधिकांश प्रवाह क्षेत्र यमुना नगर, कैथल और कुरुक्षेत्र जिले में पड़ता है. एसएचडीबी ने फिलहाल आदि बद्री से लेकर यमुना नगर जिले के ऊंचा चांदना और जिले के अंतिम गांव झींवरेहड़ी तक खुदाई करके सरस्वती नदी का प्रवाह क्षेत्र तैयार किया है.
बीती जुलाई में दादूपुर नलवी नहर का पानी ऊंचा चांदना में छोड़ा गया था और आगे तकरीबन 20 किमी, जहां तक खुदाई हुई है, यह पानी पहुंचा था. इस तरह अगस्त के पहले हफ्ते में हरियाणा सरकार से सरस्वती को ‘पुनर्जीवित’ कर दिया था.
एसएचडीबी की योजना है कि आने वाले समय में वह आदि बद्री के साथ दो और स्थानों पर बांध का निर्माण करवाएगा जिससे सालभर सरस्वती में पानी बहता रहेगा. फिलहाल सरकार और बोर्ड के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि सरस्वती के प्रवाहक्षेत्र में हजारों की आबादी और कृषि जमीन पड़ती है. सरस्वती को हरियाणा वाले हिस्से में 150 किमी तक बहाने का मतलब है कि यह जमीन लोगों को खाली करनी पड़ेगी. जाहिर है कि सरस्वती को पुनर्जीवित करने के रास्ते में यह भी एक बड़ी चुनौती है. हालांकि इससे बड़ी चुनौती यह साबित करना भी होगा कि बरसाती पानी और यहां-वहां से पानी जुटाकर जो नदी तैयार की जाएगी उसे किस तरह ऋग्वेद वाली हिमालय से निकली विशालकाय सरस्वती नदी कहा जाए.
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