मंगलवार, 13 सितंबर 2016

लेखक संत नहीं होते लेकिन उनसे सभ्‍य आचरण की अपेक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिये?


लेखक संत नहीं होते लेकिन उनसे सभ्‍य आचरण की अपेक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिये? गगन गिल पर अनिल जय विजय की कीचड़-उछाल और प्रभु जोशी और भालचंद्र जोशी द्वारा एक-दूसरे पर तरह-तरह के लांछन लेखन जगत के दो खासे त्रासद प्रसंग हैं लेखक संत नहीं होते लेकिन उनसे सभ्‍य आचरण की अपेक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिये? फोटो क्रेडिट: मनीषा यादव 11 सितंबर 2016 · 14:13 अशोक वाजपेयी शेयर ट्वीट ईमेल रेडिट शेयर ट्वीट ईमेल रेडिट माना कि लेखक भी औरों की तरह मटमैले होते हैं और उनसे किसी विशेष पवित्रता या मर्यादा की अपेक्षा करना ज्‍़यादती है क्‍योंकि वे भी मानवता के भले-बुरे दोनों ही पहलुओं का बराबरी से प्रतिनिधित्‍व करते हैं. वे संत नहीं होते. जब-तब मर्यादाएं तोड़कर ही वे अपने सच और सच्चाई तक पहुंच पाते हैं. लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि उनसे भद्राचार या सभ्‍य आचरण की अपेक्षा ही नहीं की जानी चाहिये. जब यह अपेक्षा हर सामान्य नागरिक से की जाती है, की जाना चाहिये कि वह दूसरों की गरिमा और सम्‍मान का ध्‍यान रखे तो लेखक इससे कैसे मुक्‍त हो सकते हैं! फिर वे जब-तब सभ्‍यता-समीक्षक होने का दावा भी तो करते हैं. और सभ्‍यता रचने-गढ़ने में साहित्‍य की भूमिका सदियों से चली आ रही है. हाल के दो ख़ासे त्रासद प्रसंग हैं गगन गिल पर अनिल जय विजय की कीचड़-उछाल और प्रभु जोशी और भालचंद्र जोशी द्वारा सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे पर तरह-तरह के लांछन. लेखक देवता और संत नहीं होते, मनुष्‍य होते हैं और उन्‍हें गुस्‍सा आता है, खीझ होती है, विफलता उन्‍हें त्रस्‍त करती है, निंदा में रस आता है, उन्‍हें ईर्ष्‍या भी जब-तब सताती है. पर यह सब तो सभी प्राणियों में होता है. लेखक सार्वजनिक उपस्थिति भी होते हैं. इधर यह उपस्थिति तथाकथित सार्वजनिक मीडिया के कारण बहुत कुछ आत्‍मरति में भी बदल रही है. पर ऐसे भी हैं जिन्‍हें आत्‍म में रत रहने से भी पर्याप्‍त संतोष नहीं मिलता. और उन्‍हें दूसरों पर कीचड़ उछाले बिना लगता है कृतकार्यता महसूस नहीं होती. यह सब तब हो रहा है जब हिंदी समाज में वैसे ही विभिन्‍न कारणों से लेखक की कोई खास सामाजिक हैसियत नहीं रही है और उसे सम्‍मान की दृष्टि से प्राय: नहीं देखा जाता. सत्ताएं वैसे भी उसे हमेशा से संदिग्‍ध मानती-समझती रही हैं. भाषा और परंपरा की भयानक दैनंदिन दुर्व्‍याख्‍याएं सच्‍चे-खरे साहित्‍य की राह और समझ कठिन बना रही हैं. पारदर्शिता के नाम पर जो कुछ निजी है उसे सार्वजनिक करना बहुत भौंड़ी अनैतिकता है. वैचारिक और सर्जनात्‍मक स्‍पर्धा-ईर्ष्‍या आदि हमेशा से रही हैं पर उनकी अभिव्‍यक्ति आमतौर पर साहित्यिक दायरे में ही होती रही है. आप जिसे सच मानते-जानते हैं उसे अपने साहित्‍य में व्‍यक्‍त-विन्‍यस्‍त कर सकते हैं. ऐसा करने के लिए कौशल-संयम के अलावा सर्जनात्‍मक क्षमता और साहस भी चाहिये. दूसरे को गाली देने, उसकी सार्वजनिक छवि बिगाड़ने आदि से दूसरा ध्‍वस्‍त नहीं हो जाता. ऐसे असंख्‍य उदाहरण हैं जिनसे साबित होता है कि आपसी छीछालेदर या कीचड़ उछाल किसी लेखक या कृति को कभी टिकाऊ ढंग से ध्‍वस्‍त-पराजित-दूषित नहीं कर सके हैं. परंपरा और आधुनिकता दोनों से ही इसके उदाहरण साफ़ सामने हैं. दोनों ही से ऐसे गर्हित असभ्‍य-अभद्र आचरण को क़तई उचित या क्षम्‍य नहीं ठहराया जा सकता. किसी लेखक को अपना ओछापन या टुच्‍चापन जगज़ाहिर करने से क्‍या हासिल होता है यह समझ में आना कठिन है. कला का सच्चाई के बिंब से नहीं बिंब की सच्चाई से ताल्लुक होता है हमारे वर्तमान से आतंकित समय में इसका बहुत अवकाश नहीं होता कि हम कुछ पहले को देख-गुन सकें. एक तरह का अनंत वर्तमान हम पर हावी हो गया लगता है और अतीत पीछे कहीं दुबक गया है. यह तब हो रहा है जब कई मसलों में हमें अतीत के कुछ बासे पड़ गये और ख़ारिज हो गये अनुष्ठानों और पूर्वग्रहों पर वापस ले जाने की एक राजनैतिक-धार्मिक मुहीम चल रही है. यह हमारे समय के मूल अन्तर्विरोधों में से एक है. दिल्ली का किरण नादर म्यूज़ियम और दिल्ली आर्ट गैलरी ऐसी दो संस्थाओं के रूप में उभरे हैं जो लगातार कला के क्षेत्र में हमारी स्मृति को उद्दीप्त करने का सुविचारित-सुनियोजित जतन कर रहे हैं. इस समय उनमें दो पुनरावलोकी प्रदर्शनियां चल रही हैं - चित्रकार जेराम पटेल और ग्रूप 1890 पर. दोनों के समारंभ पर कलाकारों और कलारसिकों की जो बड़ी भीड़ जुटी वह प्रमाण है कि हमें पिछले हुए-धरे को याद करना जरूरी लगता है और उसे लेकर युवाओं में स्वाभाविक जिज्ञासा है. समकालीन रचनाशीलता को ऐसे आयोजनों से कृतज्ञतापूर्वक यह याद करने का अवसर मिलता है कि जिस स्वतंत्रता और आधुनिकता का उपयोग आज वे कर पाते हैं उसे किन्होंने और कैसे संघर्ष और कठिनाई से अर्जित किया था. भारत में आधुनिकता की यात्रा कई बार बीहड़, भटकाव-भरी और अकसर दुर्गम रही है. जेराम पटेल के यहां तथाकथित सच्चाई की कोई सीधी अभिव्यक्ति नहीं है. वहां इस अवधारणा का सत्यापन भर है कि कला का सच्चाई के बिंब से नहीं बिंब की सच्चाई से ताल्लुक होता है. कला स्वयं सच्चाई है और उसे किसी अन्य सच्चाई से सत्यापित होने की दरकार नहीं. वह सच्चाई का प्रतिबिंबन नहीं, उसमें किया गया इज़ाफ़ा है. जेराम की विशाल और जटिल कलासंपदा देखकर लगता है कि कला के प्रति उनकी निष्ठा और अपनी शैली पर आत्मविश्वास दोनों अनूठे थे. उन्होंने तरह-तरह की सामग्री का कला के लिए प्रयोग किया और चित्रांकन के लिए अनेक विधियों का भी, जिनमें लकड़ी को थोड़ा जलाकर अपना मनचाहा बिंब बनाना शामिल था. ये दग्ध चित्र ही बाद में जेराम की अद्वितीयता की पहचान भी बन गये. हालांकि उन्होंने और कई रंगों का पूरे कौशल के साथ प्रयोग किया, उनका प्रिय रंग काला ही हुआ. काले रंग से कितने आकार खोजे-बनाये जा सकते हैं इसकी हैरत-अंगेज़ मिसाल जेराम के चित्र हैं. यह अकेला रंग, जिसकी उपस्थिति प्रायः हर जगह अदम्य होती है, अपार अनुभवों, भावों और रूपाकारों को चरितार्थ कर सकता है. काले रंग की संभावना को जेराम ने निश्शेष नहीं किया पर शायद यह सीखा-सिखाया कि अन्त में काला रंग ही बचता है. जली-बुझी और काली जेराम की कला में कुछ भी अपरिपक्व नहीं है. उसकी परिपक्वता और कौशलमयता विस्मयकारी है. अगर कला के बारे में सच की पदावली में सोचा जाये तो यह ज़ाहिर होता है कि हम विस्मय से भर जाते हैं यह देखकर कि कला कैसे-कहां अपना सच पाती है. यह प्रदर्शनी एक कलाकार-समुदाय की बेचैनी और बहुलता का विलंबित पर बहुत सुंदर सम्मान है आधुनिक भारतीय कला में ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रूप’ और ‘ग्रूप 1890’ दो लोकप्रिय किंवदंतियों की तरह हैं. दोनों की स्थापना और थोड़े दिन संचालन अपने समय के प्रतिभाशाली कलाकारों ने किया. दोनों ने कुल एक-एक प्रदर्शनी की. दोनों में दृष्टियों और शैलियों की बहुलता थी. दोनों अपनी समवर्ती कला से उपजी बेचैनी और असहमति से उपजे थे. दोनों ने भारतीय आधुनिकता को नये ढंग से परिभाषित और प्रश्नांकित करने की चेष्टा की. पहली का उदघाटन 1948 में बम्बई में कलाविद् मुल्कराज आनंद ने और दूसरी का दिल्ली में 19 में मैक्सिकन कवि-कलाविद् आक्‍तावियो पाज़ की उपस्थिति में जवाहरलाल नेहरू ने किया था. ग्रूप 1890 की एक पुनरावलोकी प्रदर्शनी दिल्ली आर्ट गैलरी में पिछले रविवार शुरू हुई है जो दिसंबर 2016 तक चलेगी. यह प्रदर्शनी अंततः इस कलाकार-समुदाय की बेचैनी, बहुलता और संघर्ष का एक विलंबित पर बहुत सुंदर और लोमहर्षक सम्मान है. इस समुदाय ने अपने घोषणापत्र में राजा रवि वर्मा के अपरिष्कृत प्रकृतिवाद और बंगाल स्कूल के ग्राम्य आदर्शवाद की आलोचना और आधुनिक कास्मोपालिटनिज़्म से अपने को अलग करते हुए ऐसी प्रवृत्ति का वाहक बताया जिसे इस प्रदर्शनी के शीर्षक में ‘जातीय आधुनिकता’ कहा गया है. उसमें यह इसरार किया गया कि ‘एक कलाकृति न तो प्रतिनिधि होती है न अमूर्त, न आकृतिमूलक न निराकार, वह अपने आप में अद्वितीय और पर्याप्त होती है, अपनी सच्चाई में सुस्पष्ट और स्वयं अपना जीवन रचती हुई.’ पाज़ ने पहली प्रदर्शनी के कैटलाग में इस कला को अनंत से घिरी कला बताया. दो बातें इस प्रदर्शनी को लेकर उठीं. एक तो यह कि प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रूप के मुक़ाबले इस कला में अमूर्तन की प्रमुखता थी. दूसरे, इस कला-आंदोलन के साथ विशेषकर हिंदी साहित्य का संबंध गहरा था. निर्मल वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल आदि अनेक लेखक इसके कई कलाकारों के निकट थे. निश्चय ही इस संवाद में जगदीश स्वामीनाथन और गुजराती कवि-चित्रकार गुलाम मोहम्मद शेख की बड़ी भूमिका थी. यह भी ग़ौरतलब है कि इस ग्रूप को अंग्रेज़ी प्रेस की तुलना में हिंदी और भाषायी प्रेस ने अधिक नोटिस में लिया. प्रदर्शनी के साथ एक सुलिखित-सुविचारित-सुशिल्‍पित पुस्तक निकली है जिसमें इस ग्रूप के बारे में बहुत सारी अश्रुतपूर्व सामग्री एकत्र है जिनमें कलाकृतियों और कलाकारों, पत्रिकाओं, चिट्ठियों आदि के चित्र प्रकाशित हैं. यह एक ऐतिहासिक प्रकाशन है, इस अर्थ में भी कि यह ग्रूप 1890 पर सबसे प्रामाणिक अभिलेखन है. श्रुति पार्थसारथी इस प्रकाशन से एक बहुत महत्वपूर्ण कला-आलोचक के रूप में उभरती हैं जिन्होंने परिश्रम और कुशाग्रता से लिखा और बहुत सुंदर विश्लेषण किया है. जैसे पहले के समूह ने वैसे ही इस समूह ने अपने विभिन्न कलाकारों के माध्यम से अनेक राहें खोजीं, अपनायीं और एक बार फिर यह साबित किया कि हमारी कला का, जैसे कि हमारी संस्कृति और परंपरा का, स्वभाव अनिवार्यतः बहुलता का है. आप अपनी राय हमें इस लिंक या mailus@satyagrah.com के जरिये भेज सकते हैं

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