भारत में गरीबी के आंकड़ों की हेराफेरी?
आधिकारिक तौर पर भारत में गरीबी दर 29.8 फीसदी है या कहें 2010 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के हिसाब से यहां 350 मिलियन लोग गरीब हैं, ये संख्या पिछले 37.2 फीसदी आंकड़ों यानी 400 मिलियन लोगों के मुकाबले कम है। यह घोषणा उस विश्लेषण पर आधारित है, जिसके लिए जुलाई 2009 और जून 2010 के बीच नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन (राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन) द्वारा करीब 100,000 परिवारों पर सर्वेक्षण के माध्यम से आंकड़े एकत्र किए गए थे। संगठन ने इन आंकड़ों की तुलना जुलाई 2004 और जून 2005 के बीच एकत्र आंकड़ों से की।
क्या ये आंकड़े वास्तविक हैं? कुछ संशयवादी इस पर संदेह जताते हैं। द ग्लोबल पोस्ट ने कहा कि भारत ने खुद के लिए इस पट्टी को नीचे कर दिया, यह देखते हुए कि प्रति व्यक्ति व्यय आंकड़े, जो गरीबों की संख्या की गणना के लिए इस्तेमाल किए गए, वो शहरी भारतीयों के लिए 32 रुपए और ग्रामीणों के लिए 26 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से तय की गई गरीबी रेखा से कम थे, गौरतलब है कि इन आंकड़ों को योजनाकारों ने सितम्बर में सुप्रीम कोर्ट के आगे रखा था।
यह विश्लेषण कुछ अहम बिंदुओं को अनदेखा करता है। 2011 के आंकड़े एक उपकरण के तौर पर यह निर्धारित करने के लिए प्रस्तावित किए गए थे कि गरीबी को दूर करने के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों के तहत फायदों के पात्र कौन लोग होगें। जब कई लोगों ने इस बात पर एतराज़ जताया कि ये संख्या काफी कम है, तब आर्थिक योजनाकारों ने आधिकारिक गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों को मिलने वाले फायदों पर रोक से खुद को पीछे कर दिया। वो आंकड़े जून 2011 के दाम वाले डाटा पर आधारित थे, योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन कहते हैं।
लेकिन गरीबी के जो आंकड़े सोमवार को जारी किए गए 2009-2010 की जल्दबाज़ी में खींची गई तस्वीरमात्र हैं, इस समय के कीमत संबंधी आंकड़ों का इस्तेमाल प्रति व्यक्ति व्यय कट-ऑफ के लिए किया गया। इसलिए ये उन से कम थे जो छह महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के आगे पेश किए गए थे। अगर आंकड़े ज्यादा उपयुक्त ढंग से एकत्र किए जाते और गरीबी आंकड़े 2011 की बजाय 2012 की शुरुआत में जारी कर दिए जाते, ये हर एक को कम भ्रम में डालने वाले होते और शायद इसके परिणामस्वरूप सदस्य शंका के दायरे में कम आते।
यह सच है कि हाल ही के वर्षों में भारत में जिस तरह गरीबी को मापने की प्रक्रिया से खिलवाड़ किया गया है, जो अर्थशास्त्री सुरेश डी.तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली एक कमेटी के सुझावों पर आधारित है। इससे पहले, गरीबी का आकलन मुख्यत: उपभोग हेतु एक निश्चित मात्रा में कैलोरी पर व्यय की जाने वाली राशि के अनुरूप किया जाता था। इस तरीके के कारण 2004-2005 में गरीबों की संख्या कुल जनसंख्या का 27.5 फीसदी हो गई।
तेंदुलकर कमेटी ने भोजन पर होने वाले वास्तविक खर्चे के साथ-साथ स्वास्थ्य, शिक्षा पर होने वाले खर्चे को भी देखने का प्रयास किया। इसी कारण इसी दौर में भारत में गरीबों का प्रतिशत कुल जनसंख्या का 37.2 फीसदी हो गया। ग्रामीण क्षेत्रों में एक दिन में 15 रुपए (0.30 डॉलर) से भी कम खर्च करने वालों और शहरी इलाकों में प्रति दिन 19 रुपए (0.38 डॉलर) से कम खर्च करने वालों को गरीब करार दिया गया। रिपोर्ट में ये सुझाव भी दिया गया कि जिस तरह 2009-2010 में आंकड़े एकत्र किए गए, उनका विश्लेषण करना चाहिए ताकि उसकी तुलना 2004-2005 के अपडेट किए गए गरीबी आंकड़ों से किया जा सके।
इन सुझावों पर अमल करते हुए, ग्रामीण इलाकों में एक दिन में 22.5 रूपए (0.45 डॉलर) से कम खर्च करने वालों और शहरों में 28 रुपए (0.56 डॉलर) प्रतिदिन से कम खर्च करने वालों को गरीब करार दिया गया। यह 2004-2005 के मुकाबले कट-ऑफ में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी थी। हालांकि, यह पूछना मुनासिब होगा कि क्या नई गरीबी रेखा पर्याप्त रूप से भारत में उच्च मुद्रास्फिति के लिए एक कारक है जिसका भारत हाल ही के वर्षों में अनुभव कर रहा है।
व्यापक तौर पर कहा जाए तो अगर आंकड़े-एकत्र करने वाले इस बात पर बने रहते कि उन्होंने 2004-2005 और 2009-2010 में आंकड़े कैसे जुटाए थे और इनका विश्लेषण कैसे किया था, तब जिस गिरावट की उन्होंने घोषणा की, वो वास्तव में सही हो सकती थी।
तेंदुलकर तरीका भारत को मोटे तौर पर उस रेखा पर लाता है कि बहुपक्षीय एजेसिंया बेहद गरीबी की कैसे गणना करती हैं। तेंदुलकर ने क्रय शक्ति समकक्ष के आधार पर गणना की कि कितने लोग 1.25 डॉलर प्रतिदिन में गुज़र-बसर करते हैं। ये 1.25 डॉलर प्रतिदिन क्रय शक्ति के आधार पर भारत में 2005 में 21.6 रुपए शहरी इलाकों में और 14.3 रुपए ग्रामीण इलाकों में तय किए गए, ऐसा विश्व बैंक कहता है।
भारत की जनसंख्या में जो ज्यादा गरीब हैं, वो कम हो रहे हैं-हालांकि उतनी तेज़ी से नहीं कि किसी को प्रभावित करे। अगर मोटे तौर पर 10 मिलियन लोग एक वर्ष में 1.25 डॉलर के समकक्ष से थोड़ा ऊपर या नीचे गुज़र-बसर करते हैं, तो उसे उतना बेहतर नहीं कहा जाएगा, यह आज की 1 फीसदी जनसंख्या भी नहीं है।
यह समझना भी उपयोगी होगा कि आधिकारिक गरीबी रेखा बुरी जिंदगी और अच्छी जिंदगी के बीच के फर्क को नहीं दिखाती, ये सीमा रेखा-बेहद डरावनी गरीबी और गरीबी के अगले स्तर के बीच है। जो बहुत बेकार है क्योंकि ये कदाचित मौजूद है, इसमें थोड़ा बहुत ही फर्क आया है।
तुलना के लिए, 2010 में यूनाइटेड स्टेट्स सेंसस ब्यूरो (संयुक्त राष्ट्र जनसांख्यिकीय ब्यूरो) ने जब आखिरी बार जनगणना की, पांच गरीबों के परिवार की गणना की गई कि क्या परिवार की कुल आय 26,439 डॉलर सालाना यानी 14.5 डॉलर प्रतिदिन या फिर 434 डॉलर प्रतिमाह है।
यह भी विभिन्न देशों के लिए असमान्य नहीं कि गरीबी के दो थोड़े बहुत अलग पैमाने तय किए जाएं। आधिकारिक गरीबी दर, क्या यह बढ़ रही है या फिर घट रही है और दूसरा प्रशासनिक उद्देश्य से, यह फैसला करने के लिए कि गरीबी से जुड़े कार्यक्रमों के लिए कौन पात्र हैं। ज़ाहिर है, सामान्य ज्ञान कहता है कि गरीबी मापने के दोनों तरीके एक दूसरे से बहुत अलग नहीं होने चाहिए।
अमेरिका का स्वास्थ्य और मानव सेवा विभाग प्रत्येक वर्ष प्रशासनिक उद्देश्यों से गरीबी मार्गदर्शिका निकालता है। 2010 में, पांच सदस्यों के एक गरीब परिवार का निर्धारण प्रति दिन मोटे तौर पर 14 डॉलर प्रति व्यक्ति के हिसाब से किया गया था, 2012 में यह 15 डॉलर प्रति व्यक्ति के हिसाब से तय किया गया