बुधवार, 21 सितंबर 2016

ऋग्वैदिक भारत और संस्कृत : मिथक एवम् यथार्थ

ऋग्वैदिक भारत और संस्कृत : मिथक एवम् यथार्थ

'ऋग्वैदिक इंडिया' में एसी दास ने लिखा है कि आर्यों का मूल निवास ‘सप्तसिंधु' या ‘पंजाब' में था. कुछ लोग जो आर्यों को बाहर से आया मानते हैं, वे भी बताते हैं ये लोग प्रथमत: सप्तसिंधु प्रदेश में बसे थे. एक संगत अनुमान यह है कि ऋग्वेद के अधिकांश भाग की रचना लगभग 1500-1200 ई. पू. के बीच पंजाब में हुई, अथवा कम-से-कम इसमें उल्लिखित घटनाएं इस काल की हैं. पर पुरातात्त्विक साक्ष्य इसके समर्थन में नहीं हैं. गैरिक मृद्भांड की संस्कृति (ओ.सी.पी.) ऋग्वेद के तिथिक्रम से मेल खाती है. इसका सबसे मोटा जमाव हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर अवस्थित जोधपुरा में देखा गया है. बावजूद इसके, इसे ऋग्वेदकालीन लोगों की कृति मानने में कई कठिनाईयां हैं. यह भी कि इस संस्कृति के आज तक ज्ञात लगभग एक सौ से अधिक स्थानों में से बहुत कम ही सप्तसैंधव क्षेत्र में हैं जो कि ऋग्वैदिक सभ्यता का केंद्र था. अधिकांशत: ये स्थल गंगा-यमुना दोआब में केंद्रित हैं. प्रत्येक नयी पुरातात्त्विक संस्कृति की खोज के साथ उसे ‘ऋग्वैदिक इंडिया` से जोड़ने की होड़ लग जाती है, पर कोई भी पुरावशेष ऐसा कर नहीं पाता है. कुछ ऐसा ही असमीकरण ‘ऋग्वैदिक इंडिया` से काले एवं लाल मृद्भांड की संस्कृति का भी है. ऋग्वेद के तिथिक्रम से मेल खानेवाली तीसरी संस्कृति ताम्र निधियों की है जिसमें से लगभग आधी गंगा-यमुना दोआब में केंद्रित हैं. सप्तसिंधु से इनका भी वास्ता नगण्य है. इनका वास्ता पूरब में बंगाल और उड़ीसा से है, दक्षिण में आंध्र प्रदेश से है तथा पश्चिम में गुजरात और हरियाणा से है जबकि ऋग्वैदिक लोग पूरब में बंगाल और उड़ीसा तक पहुंचे भी नहीं थे. कुल मिलाकर ऋग्वैदिक जनों की पुरातात्त्विक पहचान की समस्या को सुलझाना कठिन है. अब जबकि पुरातात्त्विक साक्ष्य के मूल्य पर महाभारत और रामायण में प्रतिबिंबित ‘महाकाव्य युग` (एपिक एज) की कपोलकल्पित धारणा त्यागी जा रही है, तब क्यों और किस आधार पर आज भी इस कालखंड को भारतीय इतिहास में ‘ऋग्वैदिक इंडिया` कहा जाता है जबकि ‘ताम्र-पाषाण युग` की अवधारणा सर्वाधिक निरापद है. 


ऐसी कल्पना कुछ लोगों की है कि ‘ऋग्वैदिक इंडिया' में वस्तु-विनियम मुख्य था, पर सोनेे-चांदी के सिक्के भी थे. सोने के सिक्के ‘निष्क` कहे जाते थे. सातवलेकर ने ‘निष्क` का अनुवाद, सोने के सिक्के किया है जो सही मालूम होता है. चांदी के सिक्के ‘रजत'हो सकते हैं. यदि यह कल्पना ठीक है तो सवाल है कि ऋग्वेद में वर्णित सोने और चांदी के ये सिक्के किस कालखंड के हैं? भारत में प्राप्त सिक्के तो ईसापूर्व छठी सदी से पहले के नहीं हैं. धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मिले हैं. आरंभ में सिक्के प्राय: चांदी के होते थे, हालांकि कुछ तांबे के भी मिले हैं. ये सिक्के आहत मुद्राएं कहलाते हैं. सोने के सिक्के भारत में सबसे पहले हिंदयूनानियों ने जारी किए. यदि ऊपर के वर्णन से सिक्के का इतिहास ग्रहण किया जाय तो साफ होगा कि ‘ऋग्वैदिक इंडिया' की कुछ चीजें बुद्ध और मौर्योत्तर काल में दिखाई पड़ती हैं फिर ‘ऋग्वैदिक इंडिया' इसके पहले कब और कहां था ? दावा तो यह भी है कि ‘ऋग्वैदिक इंडिया' में लौह-प्रौद्योगिकी का ज्ञान था. ऐसा कि ऋग्वैदिक जनों ने एक महिला के कटे हुए पैरों की जगह लोहे की जांघ लगा दी थी. जबकि इतिहास गवाह है कि लोहे का ज्ञान पाकिस्तान के गंधार क्षेत्र में 1000 ई. पू. के आसपास हुआ था. बताया यह भी जाता है कि ऋग्वेद में अकेले कुंए के तेरह पर्याय आये हैं. यह भी कि अश्मचक्र (10.1017) पत्थर के घेरेवाले पक्के कुंए थे. पर यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि घेरेदार कुंए सबसे पहले मौर्यकाल में गंगा घाटी में प्रकट हुए थे. तब क्या यह माना जाय कि ऋग्वेद में जिस ‘अश्मचक्र' की चर्चा है, वह मौर्यकालीन है? यदि नहीं तो आखिर वे कौन-से इंद्रवादी थे जिन्होंने बाद में कुंए को ‘मृग-हस्तिन' (हाथवाले पशु) की तरह जिज्ञासा से ‘इंद्रागार' (वर्षा के देवता इंद्र का घर) कहा था और जिनके देवता ‘इंद्रासन'कुंए में वास करते थे? यह भी कि यदि ऋग्वेद के सभी कूपवाची शब्द तरल हैं तो फिर ऐसे लचीले और बहुरूपिए शब्दों से इतिहास का निर्माण नहीं हो सकता है. कारण कि इतिहास ठोस तथ्यों और प्रमाणिक आंकड़ों के आधार पर लिखा जाता है.
ऋग्वेद की सर्वाधिक चर्चा पुराणों में है. ये सभी के सभी अति प्रााचीन होने का दावा करते हैं, परन्तु इनकी रचना या पुनर्रचना छठी से बारहवीं सदी के बीच हुई है. प्राचीन काल के ये सभी पुराण मिथकों, आख्यानों और प्रवचनों से भरे हैं. ऐतिहासिक ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र' है जिसमें वेदों का जिक्र है, पुराणों का भी है जबकि पुराण मौर्यकालीन नहीं हैं, बाद के हैं. ‘अर्थशास्त्र' में ‘चीनपट्ट' का उल्लेख, जिसका वर्णन प्राय: प्राचीन संस्कृत साहित्य में है, बाद की तिथि सूचित करता है, क्योंकि चीन स्पष्ट ही प्रारंभिक मौर्यों के क्षितिज के बाहर था और नागार्जुनीकोंडा के अभिलेखों के पहले किसी भी भारतीय अभिलेख में उसका उल्लेख नहीं पाया जाता है. अशोक के अभिलेख, सबसे पुराने अभिलेख जो पढ़े जा चुके हैं, में ब्राह्मणों की चर्चा है, स्वर्ग की चर्चा है; पर ऋग्वेद-वेद का कोई उल्लेख नहीं है. चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत बनकर आये मेगास्थनीज की ‘इंडिका' भी वेदों का कोई हवाला नहीं देती है. सर्वाधिक चौंकानेवाला तथ्य तो यह कहा जाना है कि बौद्ध धर्म का उदय वैदिक धर्म के खिलाफ हुआ था. यदि बौद्ध धर्म का उदय वैदिक धर्म के खिलाफ हुआ था तो इसे पश्चिमोत्तर भारत में होना चाहिए था जहां वैदिक संस्कृति का प्रभाव था और आगे भी कई सदियों तक रहा. वास्तविकता तो यह है कि बुद्ध की लड़ाई भारत में पहले से चले आ रहे विश्वासों और मान्यताओं के विरूद्ध थी. ऐसी ही लड़ाई ईरान में जरथु ने लड़ी थी जबकि वहां ‘ऋग्वैदिक इंडिया' की कपोल-कल्पित अवधारणा नहीं है. तब यह शंका निर्मूल नहीं है कि बौद्धधारा वेदपूर्व थी. निश्चय ही ‘तेविज्जसुत्त' (दीर्घनिकाय) का संवाद जिसमें वेदों का जिक्र है, क्षेपक है क्योंकि आरंभिक पालि बौद्धग्रंथों में इंद्र तथा ब्रह्मा को बुद्ध के उपदेशों को श्रद्धापूर्वक सुननेवालों के रूप में प्रस्तुत किया गया है. अभिलेख भी पीछे नहीं हैं. मद्रास में गुंटूर जिले से प्राप्त वीर पुरुषदत्त के नागार्जुनीकोंडा अभिलेखों में (ईसा की तीसरी सदी) बुद्ध को इंद्र द्वारा पूजित अंकित है.
इतिहास का यह तथ्य गलत है कि पुष्यमित्र के स्मरणीय अश्वमेघ यज्ञ से उस ब्राह्मण प्रतिक्रिया का आरंभ होता है जिसकी पूर्णाहुति पांच शताब्दियों के बाद समुद्रगुप्त और उसके उत्तराधिकारियों के काल में होती है. सच यह है कि पुष्यमित्र ब्राह्मण-धर्म का पुनरूद्धारक नहीं था अपितु वह बौद्ध धर्म की प्रतिक्रिया में वैदिक धर्म का संस्थापक था. इतिहास गवाह है कि मौर्य राजाओं ने ईरानी सामन्तों को अपनी सेवा में रखा था. इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि चंद्रगुप्त मौर्य के राज्य में एक ईरानी सामंत तुषस्प काठियावाड़ का शासक था. ऐसा ही ईरानी सामंत पुष्यमित्र शुंग था जो अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ का सेनापति था. डॉ. राजमल बोरा ने श्रीधर व्यंकटेश केतकर के हवाले से बताया है कि मगों का भारतीय इतिहास वेदकाल से पहले का है. पुष्यमित्र शुंग ईरानी मग ब्राह्मण था. हरप्रसाद शाी़ भी शुंगों को ईरानी मानने के पक्ष में थे. पता नहीं क्यों, बाद में उन्होंने यह फैसला वापस ले लिया था. इन्हीं मग ब्राह्मणों ने भारत में आकर सूर्य की एक विशेष पूजा चलायी थी. शुंग राजा इसलिए अपने नाम के साथ ‘मित्र' (सूर्य) लगाया करते थे. गुप्तकाल का ज्योतिषज्ञ वराहमिहिर भी मग ब्राह्मण था जो अपने नाम के आगे ‘मिहिर` (सूर्य) लगाया करता था. मौर्यों के खिलाफ शुंगों का विद्रोह बौद्धधारा के बदले वैदिक धर्म स्थापित करने का उपक्रम था. वैदिक धर्म के इन इंद्रवादियों को ईरान में जरथु ने खारिज कर दिया था जिसकी चर्चा ऋग्वेद के दसवें मंडल में है. बावजूद इसके यह माना जाता है कि ऋग्वेद का भारत में समय अवेस्था से पहले है. शायद जी.ह्मूसिंग का यह निष्कर्ष सही है कि दूसरी शती ई.पू. में भी ऋग्वैदिक स्तोत्रों का संकलन पूर्ण नहीं हुआ था. जाहिर सी बात है कि पश्चिम एशिया के ‘इन्दर` पुराने हैं, पर भारत के संदर्भ में वर्ण-संकोचित ‘इंद्र' नये हैं.
ईरान और भारतवर्ष को छोड़कर प्राचीनकाल में ‘आर्य' शब्द अनातोलिया की हित्ती भाषा में पाया जाता है. अनातोलिया के निकट बोगाजकोइ से, जो हित्ती राजाओं की राजधानी थी, कीलाक्षर इष्टिकाओं में सुरक्षित कुछ अभिलेख मिले हैं. हिंद-यूरोपीय भाषा में यह प्राचीनतम लिखित सामग्री है. इनका समय 1400 ई.पू. माना गया है. ऐसा माना जाता है कि आर्य संस्कृति की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता हिंद-यूरोपीय भाषा है।२१ बोगाजकोइ के इन अभिलेखों में तथाकथित ऋग्वैदिक देवताओं को हित्ती-मितन्नी राजाओं के संधि-साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया है. कभी यह नहीं बताया गया है कि ऋग्वेद में बोगाजकोई से आये देवताओं की उपस्थिति है जबकि संभावना इसी की है. बोगाजकोई में ‘अग्नि' साक्षी नहीं हैं. अग्नि तो अवेस्तावादियों के देवता थे जिनकी धाक चंद्रगुप्त मौर्य के राजदरबार में थी. बाद के मौर्य सम्राटों ने ईरानी केंचुल को उतार फेंकने की कोशिश की थी जिसका नतीजा बृहद्रथ-हत्याकांड के रूप में सामने आया. भारत में अग्नि शुंगों के काल में वेदों के माध्यम से स्थापित हुए. बोगाजकोइ के साक्षी-देवता इन्-द-र (इंद्र), उ-रु-वन (वरूण), मि-इत्-र (मित्र) और न-स-अत्-ति-इअ (नासत्यौ) हैं, जिसका कोष्ठक में दिये गये रूप वेदों का है. स्पष्ट है कि ऋग्वेद की भाषा में शब्दों के वर्ण-विलंबित रूपों का स्खलन हुआ है. वैदिक भाषा की प्रवृत्ति वर्ण-संकोच की ओर है. संस्कृत में यह वर्ण संकोच अपनी पराकाष्ठा पर है जिसमें पाणिनि ने अपना व्याकरण लिखा था. अवेस्ता ऐसे मामले में निश्चत रूप से वेदों के सापेक्ष पुराना ग्रंथ है. आवेस्तीक गाथाओं की भाषा ऋग्वेद की भाषा की अपेक्षा किसी भी दशा में कम आर्ष नहीं है अपितु कुछ दृष्टि से अधिक ही आर्ष है. यदि जरथु बुद्ध के समकालीन थे तो यह तय है कि वेदों की रचना बुद्ध के बाद हुई है. शायद इसीलिए ‘ऋग्वेद इंडिया' मौर्यकालीन चित्र प्रस्तुत करता है. इसीलिए यह भी कि बोगाजकोइ के ‘इन्-द-र` से भारत के ‘इंद्र` नये हैं.
‘ऋग्वैदिक इंडिया' में हजार खंभों के ऊपर हजार दरवाजे वाले घर हैं, सौ दीवारों वाले पत्थर के किले हैं, इंद्र की मूर्त्तियां हैं जबकि पुरावशेष इनमें से किसी को स्वीकार नहीं करता है. उत्खननों से पता चलता है कि बहुत-सारे बड़े-बड़े नगर मौर्यकाल के हैं. मेगास्थनीज ने कहा है कि पाटलिपुत्र स्थित मौर्य राजप्रसाद उतना ही भव्य था जितना ईरान की राजधानी में बना राजप्रसाद. पत्थर के स्तंभों और भूलमुंडों के टुकड़े आधुनिक पटना नगर के किनारे कुम्हरार में पाये गये हैं जो 80 स्तंभोंवाले विशाल भवन के अस्तित्व का संकेत देते हैं. इसके पहले इतने विशाल भवनों का कोई भी पुरातात्त्विक साक्ष्य भारत के किसी कोने से कहीं नहीं मिलता है. तब क्या ‘ऋग्वेद इंडिया' का मिथक मौर्यकाल से नहीं जुड़ता है? समय का तकाजा है कि अब वेदों के रचनाकाल के संदर्भ में मीमांसकों को उद्धृत करना बंद कर दिया जाय; जो बताते हैं कि सृष्टि की आयु के साथ वेदों की आयु भी दो अरब वर्ष के लगभग पुराना है. ऋग्वेद के तिथि-निर्धारण में खगोलविज्ञान का प्रयोग भी अविश्वसनीय है. याकोबी और तिलक के अनुयायी अब वैदिक साहित्य में वर्णित नक्षत्रों के आधार पर ज्योतिष और वैदिक रचनाकाल में मनगढ़ंत रिश्ते कायम करना बंद करें. आज जबकि आधुनिक विज्ञान ने पुरावशेषों के काल-निर्धारण के काफी अच्छे तरीके खोज निकाले हैं तब अंतहीन युगचक्रों (मन्वंतरों) की काल-मापक पौराणिक दृष्टि से भारतीय इतिहास को मुक्त हो जाना चाहिए. आज का अध्ययन पुरावशेषों में फ्लोरीन की मात्रा के मापन, काठ कोयले की हड्डी में रेडियो-धर्मिता की मात्रा, भूचुंबकीय अवलोकन और वृक्ष-तैथिकी पर आधारित है तब सत्ययुग या कृतयृग की किसी विलुप्त स्वर्णयुग की कल्पना निरर्थक है.
ऐसे तथाकथित गौरवपूर्ण तथा अतिरंजित ‘ऋग्वेद इंडिया' के मनगंढ़त किस्सों के साथ भारत की भाषा का एक प्रकार से जाली वैज्ञानिक इतिहास जुड़ा हुआ है. वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत की सीढ़ी से उतरकर पालि की जमीन पर पैर रखना सर्वथा भ्रामक है. सही इसका उल्टा है. पालि भारत की प्राचीनतम ऐतिहासिक भाषा है इसके साक्षी पुरावशेष हैं. भारत के पुराने अभिलेख पालि भाषा में हैं. पालि भारत की प्राचीनतम प्राकृत भाषाओं में से एक है और यह भी कि पालि भाषा वैदिक भाषा के अधिक निकट है और प्राकृत भाषाएं संस्कृत भाषा के. ई.पू. तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख पालि भाषा में हैं. ये सबसे पुराने अभिलेख हैं जो पढ़े जा चुके हैं. अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगती है जिसका व्यापक प्रयोग ईसा की चौथी-पांचवीं सदी में होता है. शक राजा रुद्रदामन ने सबसे पहले विशुद्ध संस्कृत भाषा में लंबा अभिलेख 150 ई. में जारी किया था. शकों को संस्कृत पर गर्व था. शायद इसीलिए रूद्रदामन बड़े अभिमान से कहता है कि संस्कृत भाषा पर उसका अधिकार है. नासिक की बौद्ध गुफाओं के अतिसंस्कृतमय लेख भी शक दाताओं के हैं जबकि सातवाहनों ने अपने अभिलेख प्राकृत भाषा में खुदवाये थे. यह देशी और विदेशी राजाओं की भाषाई प्रतिद्वंद्विता है.
संस्कृत के निर्माण में गंधार की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है. 520-518 ई. पू. के बहिस्तान शिलालेख इस बात का गवाह हैं कि ईरानियों का कब्जा गंधार पर था. जाहिर है कि ईरानी भाषा तब गंधार में प्रवेश कर चुकी थी जिसे भाषाविज्ञान में प्राचीन फारसी कहते हैं. यह भाषा वैदिक भाषा के करीब है. इसी भाषा में गंधार क्षेत्र की प्राकृतों का मिश्रण होने से संस्कृत भाषा का निर्माण हुआ था. यदि भारत के प्राचीन भूगोल पर विचार करें तो ऐसा दिखलाई देता है कि जितना हम उत्तर-पश्चिम की दिशा की ओर जाते हैं संस्कृत और प्राकृत का अंतर कम होता जाता है. उदाहरणार्थ, गंधारी, प्राकृत में संस्कृत में प्र,र्म,त्र जैसे बहुत-से संयुक्त-व्यंजन के रूप सुरक्षित हैं. इसी गंधार में पेशावर के आसपास का क्षेत्र निया प्रदेश है. निया प्राकृत में श, ष और स तीनों ऊष्म व्यंजन हैं, यह भी किसमें क्र, ग्र, त्र, द्र, प्र, ब्र, भ्र, अविकृत रूप में मिलते हैं. कहना न होगा कि इसी प्रविधि का इस्तेमाल संस्कृत के निर्माण में कसकर किया गया था. शायद इसीलिए ‘अष्टाधयायी`' का पणिनि पेशावर के निकट शलातुर का निवासी था. मध्य एशिया से आये विदेशी राजववंशों ने भारत में आकर संस्कृत भाषा पर इतना बल क्यों दिया, इसका रहस्य शायद खुल गया होगा. जिसे भाषाविज्ञान में संयुक्त व्यंजन कहा गया है, वह एक प्रकार से वर्ण-संकोच है. संस्कृत इसी वर्ण-संकोच की भाषा है. इस वर्ण-संकोच का सबसे बड़ा औजार ‘र` का बहुरूपिया रूप (व्र, वृ, र्व, र्, त्र, श्र, ऋ) था. ऐसी तकनीक वाली फैक्ट्री में एक बार देशी शब्दों के आ जाने से उनकी शक्ल संस्कृत वाली हो जाया करती थी. 14वीं-15वीं सदी ई.पू. के आसपास अश्वशा पर हित्ती भाषा में एक रचना मिलती है जिसमें बहुत से ऐसे शब्द हैं जो संस्कृत के निकट हैं. ये शब्द संख्यावाची हैं. ऐसे शब्द देशांतरण के बावजूद कम बदलते हैं. इस रचना में अइक (एक), तेर (त्रि), पंज (पञ्च), सत्त (सप्त) और (नव) शब्दों का प्रयोग अंकों के लिए किया गया है. संख्यावाची पांच के लिए आज भी पंजाबी और सिंधी में हित्ती भाषा का ‘पंज' प्रचलित है और सात के लिए ‘सत्त` का प्रचलन है. यह ‘सत्त` पालि और प्राकृत में भी हैं संस्कृत ‘सप्त' निश्चित रूप से संस्कृत के नये कानून के हिसाब से है. हिन्दी तेरह के समक्ष ‘त्रि` का भी वर्ण-संकोच स्पष्ट है. ऐसी प्रवृत्ति कश्मीरी में भी है. शायद इसीलिए कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो कश्मीरी का संबंध वैदिक संस्कृत से स्थापित करते हैं. ऐसे भी संस्कृत के पुराने लेखकों का संबंध कश्मीर से रहा है. मध्य एशिया, खास तौर से गंधार क्षेत्र से आयी संस्कृत भाषा के ये सब पद-चिन्ह हैं जिसका साक्ष्य अति प्राचीन का दावा करनेवाले संस्कृत के ग्रंथ सावधानी के बावजूद भी मिटा नहीं सके हैं. वह दिन दूर नहीं जिस दिन यह बताया जाएगा कि संस्कृत ‘आंग्ल' से अंग्रेजी का ‘इंग्लिश` बना है. संस्कृत के प्राय: तत्सम रूप वास्तव में देशी भाषाओं के तद्भव रूप हैं जिसे संस्कृत को मूलभाषा माने जाने की गलती से तद्भव मान लिया जाता है. जाहिर है कि नये कानून के औजारों से पुराने शब्दों को संस्कृत ने अपने कब्जे में लिया था. इसे लूट-खसोट, हड़प या परिमार्जन, जो भी कहें.
इतिहासकारों का यह फैसला गलत है कि समृद्ध और शक्तिशाली विदेशी संस्कृत के जरिए अपने को भारतीय कुलीन-वर्ग में स्थापित करने का उपक्रम करते थे. वास्तविकता तो यह है कि संस्कृत विदेशी बाटमारों (भाषा के संदर्भ में रास्ता चलते लूट-पाट) की भाषा थी. इसीलिए संस्कृत का कोई भौगोलिक रूप नहीं मिलता है. प्राकृतों के भौगोलिक रूप (महाराष्ट्री, शौरसेनी, गंधारी, मागधी) मिलते हैं. संस्कृत दूसरी भाषाओं से शब्दों की लूट-पाट की भाषा थी. इसीलिए संस्कृत का कोई अपना भाषाई-भूगोल नहीं था. संस्कृत में प्राकृतों के शब्द-भंडार का संस्कृतिकरण हुआ है. यदि यह पूछा जाय कि संस्कृत किस भू-भाग की भाषा है तो इसका जवाब गोल-मटोल मिलेगा. यह कि संस्कृत वैदिक युग में समस्त मध्यदेश में फैली हुई थी. संस्कृत भाषा की यह अदृष्ट धारा वैदिक युग में मध्यदेश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ठीक वैसी ही प्रवाहित होती थी जैसे पौराणिक कथाओं में अदृष्ट सरस्वती की पवित्र धारा बहती थी जिसके तट पर आर्यों का प्रमुख उपनिवेश था. सरस्वतीवादियों को अब इस अस्तित्त्वविहीन नदी का पानी नापना बंद कर देना चाहिए. यदि इतने विशाल भू-भाग में संस्कृत बोली जाती थी तब 1921 एवं 1971 की जनगणना में संस्कृतभाषी लोगों की जनसंख्या क्रमश: 555 एवं 1282 क्यों पायी गयी ? क्या संस्कृतभाषी लोग जंगलों तथा पहाड़ों में रहने वाले असुविधाभोगी आदिवासियों की तरह विलुप्त हो गये हैं ? संस्कृत का वर्चस्व को देखकर ऐसा तो कदापि नहीं लगता है. सच तो यह है कि मुट्ठीभर मध्य एशियाई विदेशियों ने मौर्योत्तर काल में निरंतर दबाव बनाते हुए गुप्तयुग में संस्कृत को राजभाषा बनवाया था जबकि प्राकृत में लिखित साहित्य को दरबारी क्षेत्र के बाहर संरक्षण प्राप्त था. गुप्तयुग में संस्कृत का साहित्य विश्ष्टि वर्ग, दरबार, कुलीन वंश तथा ऐसे ही अन्य क्षेत्रों से संबंधित व्यक्तियों से संबंधित था. नि:संदेह संस्कृत गुप्त राजाओं की शासकीय भाषा थी, पर आम जनता की भाषा प्राकृत थी जो उस काल के नाटकों में प्रयुक्त द्वैध भाषा के सामाजिक संदर्भ से स्पष्ट होता है. राजभाषा के मामले में मुगलकाल में यह इतिहास दुहराया जाता है जब ईरानी संस्कृति से प्रभावित दिल्ली के मुट्ठीभर अभिजनों ने फारसी को राजभाषा बनवाया था जबकि बाबर की मातृभाषा तुर्की थी. तुर्क सुलतानों का तुर्की तथा अफगानों की जबान पश्तो कभी भी यहां राजभाषा का दर्जा नहीं नहीं प्राप्त कर सकी.
भारतीय भाषाओं में ऐसे शब्द नहीं मिलते हैं जो ब्राह्मण और क्षत्रिय के सजात शब्द हों, पर विश् (वैश्य) से मिलते-जुलते शब्द बहुसंख्यक हिंद-यूरोपीय भाषाओं में मिलते हैं. जाहिर है कि भारत की वर्णमूलक संस्कृति ऐसे लोगों द्वारा लायी गयी है जिन्होंने संस्कृत के नियम-कानून बनाये हैं. वर्ण-संकोच की ऐसी भाषा जो आम जनता और सुविधाभोगी वर्ग के बीच फासला पैदा करके लूटने की सुविधा दे. ऐसी ही वर्ण-संकोचमूलक भाषा और वर्ण-विस्तारमूलक समाज के बलबूते गुप्तकाल को भारतीय इतिहास में अभिजात्य नजरिये से ‘स्वर्णयुग' कहा जाता है. एक ऐसा युग जिसमें ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान दिये जाते थे, मंदिर बनवाये जाते थे और महिलाएं सती हुआ करती थीं. सबसे चौंकानेवाली बात तो यह है कि इस काल में वर्ण-व्यवस्था पर आधारित ‘अमरकोश' लिखा जाता है. ऐसे समय में संस्कृत को राजभाषा बनाया जाना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है. पर संस्कृत पुरानी भाषा नहीं है. पैशाची पुरानी है. चीन तुर्किस्तान के खरोष्ठी शिलालेखों में इसका पुरातात्त्विक साक्ष्य मिलता है. भाषावैज्ञानिकों का फैसला है कि यह वैदिक संस्कृत के निकट की भाषा है.
निष्कर्ष यह कि वैदिक भाषा ईरान की प्राचीन फारसी, पश्चिमोत्तर की पैशाची और भारत की पालि के लगभग समकालीन थी. इसे ज्यादा से ज्यादा 600 ई.पू. के आसपास का माना जाना चाहिए. वैदिक भाषा का अगला पड़ाव संस्कृत है. यह संस्कृत ईरान की पहलवी, पश्चिमोत्तर की निया प्राकृत एवं भारत के मिश्रित बौद्ध संस्कृत के प्राकृतांश के लगभग समकालीन है. मिश्रित बौद्ध संस्कृत की भाषा पालि के बाद पहली सदी के आसपास की है जब पश्चिमोत्तर में संस्कृत का जन्म हो रहा था. एक ऐसी भाषा जिसके जनमने के बाद उसकी मां पैशाची मृतप्राय हो जाती है. पालि में संस्कृत का प्रवेश बाद में हुआ, इसलिए कि इसके पहले संस्कृत भाषा नहीं थी. इस भाषा का उदय ईसा की पहली सदी के आसपास होता है. इसीलिए फ्रैंके ने दिखाया है कि शिलालेखों की भाषा के रूप में संस्कृत प्रथम शताब्दी ई.पू. से प्रकट होती है. जाहिर है कि संस्कृत की प्राचीनता सिर्फ साहित्यिक या कहें मनगढ़ंत है, तभी तो अमेरिकी भाषावैज्ञानिक ब्लूमफील्ड को आश्यर्च होता है. बात एकदम साफ है कि वैदिक भाषा भी पालि और पैशाची प्राकृतों की तरह ईसा से पहले की एक प्राचीन प्राकृत है जबकि संस्कृत ईसा के आसपास की ‘साहित्यिक प्राकृतों' की तरह एक प्रकार से कृत्रिम भाषा है. आज की तारीख में पालि भारत की सबसे पुरानी ऐतिहासिक भाषा है. भाषा के जानकार अब वैदिक और लौकिक संस्कृत के बाद पालि का इतिहास लिखना बंद करें और ‘ऋग्वैदिक इंडिया' की कपोल-कल्पित अवधारणा के साथ वैदिक भाषा को जोड़कर उसे पालि के पहले सिद्ध करने से बाज आएँ.

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