सिर्फ लिखना नहीं, अपने अंदाज में लिखना महत्वपूर्ण है
हिंदी में ऐसा लिखने वालों की संख्या अब घटते-घटते न के बराबर रह गई है. वहीं अंग्रेज़ी में इनकी तादाद बढ़ती जा रही है
कैसे लिखें? यह प्रश्न हमेशा ही लेखकों को परेशान करता रहा है. लिखना एक बात कह देना भर नहीं है, एक पूरी मन:स्थिति और भाव स्थिति को व्यक्त करना भी है. उस अभिव्यक्ति में रचनाकार का व्यक्तित्व उभरना चाहिए या वह उससे निरपेक्ष होगी? कुछ लेखक यह आदर्श साधना चाहते हैं कि उनकी रचना पर उनकी छाप न हो. लेकिन लेखक किसी विचार का प्रवक्ता भर नहीं, शैलीकार भी है. वह भाषा का दस्तकार, कारीगर, वास्तुकार या कलाकार भी है. कुल मिलाकर उसका अंदाज उसकी रचना पर बात करते वक्त दोयम दर्जे की विचारणीय वस्तु नहीं.प्रायः हमें लगता है कि शैली या अंदाज सिर्फ कवियों, कथाकारों अथवा जिन्हें हम कलाकार कहते हैं, उनका मसला है. यह बात सही नहीं. साहित्य में ही आलोचक सिर्फ दूसरों की शैली के वैविध्य की विवेचना नहीं करते, वे अपने-आप में शैलीकार होते हैं. हिंदी की ही बात करें तो रामचंद्र शुक्ल हों या हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम विलास शर्मा हों या नामवर सिंह, इन सबका गद्य उनकी विश्लेषण की क्षमता और प्रतिभा के लिए तो पढ़ा ही जाता है, खुद उनके गद्य को पढ़ने का आनंद कुछ और ही है.
यही बात पत्रकारों के लिए भी सही है. हिंदी में पत्रकारिता अज्ञेय ने भी की, लेकिन वे कवि पहले माने जाते हैं. इसलिए उन्हें या मनोहर श्याम जोशी अथवा रघुवीर सहाय को छोड़ भी दें, तो खालिस पत्रकार प्रभाष जोशी या राजेंद्र माथुर को पढ़ना गद्य के विशिष्ट अनुभव से गुजरना भी है.
हिंदी में ऐसे पत्रकारों की संख्या अब घटते-घटते न के बराबर रह गई है. वहीं अंग्रेज़ी में इनकी तादाद बढ़ती जा रही है. पी साईंनाथ के गद्य में भारतीय मध्य वर्ग या संपन्न वर्ग की हृदयहीन उदासीनता के लिए फटकार और भर्त्सना और उसकी आत्मा की बुझती लौ को उकसाने की जुगत बसी हुई है. वैसे ही संकर्षण ठाकुर के गद्य को आप उसके चुटीलेपन या तिखाई या व्यंग्य के लिए पढ़ना चाहते हैं. उसी तरह आप एजाज़ अशरफ, मुज़म्मिल जमील को सिर्फ उनकी रिपोर्टिंग की तथ्यात्मकता के लिए नहीं पढ़ते. जो अपेक्षाकृत नए पत्रकार हैं, चाहे अमन सेठी हों या सुप्रिया शर्मा या शोएब दानियाल, वे भी अपना ख़ास अंदाज, अपनी ख़ास रंगत लिए हुए हैं.
ये नाम एक बहुत बड़ी जमात का बहुत छोटा हिस्सा हैं. किसी तरह या कामचलाऊ तरीके से रिपोर्ट कर देना या विश्लेषण कर देना पत्रकार का धर्म नहीं. लेकिन हिंदी में भाषा का यह कामचलाऊपन बढ़ता जाता है. हिंदी अखबारों के संपादकीय पृष्ठों पर भी अब सतही भाषा के नमूने ही देखने को मिलते हैं.
कार्ल मार्क्स ने सेंसरशिप पर अपने प्रसिद्ध लेख में इसका विरोध करते हुए लिखा था कि वह हमें सिर्फ यह नहीं कहता कि हमें क्या नहीं लिखना, वह यह भी बताता है कि हमें कोई बात कैसे कहनी है या कैसे नहीं कहनीपत्रकारिता के अलावा यही बात समाज विज्ञान या विज्ञान या अर्थशास्त्र के बारे में भी कही जा सकती है. दूर न जाएं, रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का उदाहरण हमारे सामने है. वे बार-बार अपने व्याख्यानों में आंकड़ों की भाषा की जगह ज़िंदगी की ज़िंदा तस्वीरों के जरिए हिन्दुस्तान के अमीरों को शर्मिंदा कर रहे थे. उन्होंने अपने व्यक्तित्व को अर्थशास्त्र की अमूर्तता में विलीन नहीं किया.
डार्विन या आइंस्टाइन या फ्रायड का गद्य एक कलात्मक अनुभव है. लेकिन यह धारणा भारत के स्कूलों के जरिए प्रचारित की जाती रही है कि विज्ञान भाषा का मामला नहीं है. किसी तरह समीकरणों और सूत्रों की माध्यम से ही कुदरत का रहस्य जाना और बताया जा सकता है, और यह सब कुछ अमूर्त है.
लेकिन भारत के अधिकतर वैज्ञानिकों में अपने समाज के प्रति गहरी उदासीनता है. विज्ञान और जनतंत्र के रिश्ते के बारे में उनकी राय बस यहां तक महदूद है कि उनकी प्रयोगशाला को सरकारी इमदाद कितनी मिलती है! विश्वविद्यालयों में वे सबसे अधिक परिसर के जीवन से कटे हुए और सत्ता के करीब या उनके अनुचर होते हैं.
कार्ल मार्क्स ने सेंसरशिप पर अपने प्रसिद्ध लेख में इसका विरोध करते हुए लिखा था कि वह हमें सिर्फ यह नहीं कहता कि हमें क्या नहीं लिखना, वह यह भी बताता है कि हमें कोई बात कैसे कहनी है या कैसे नहीं कहनी. यानी, वह हमसे हमारा अंदाज भी छीन लेना चाहता है.
असल लड़ाई फिर इस अंदाज की हिफाजत की हो जाती है. अंदाज को लेकर लापरवाही जनतंत्र के मूल तत्व के प्रति उदासीनता है. जनतंत्र अगर दूसरे किसी भी निजाम या व्यवस्था से बेहतर है तो इसलिए कि वह हरेक को अपने अंदाज में जीने की आजादी देता है.
जब भाषा को घृणा, ह्त्या के प्रचार और उसके औचित्य साधन का अभ्यास हो जाए, तो उसी भाषा में हम हिंसा का विरोध कैसे करें? आखिर भाषा की नैतिकता क्या है और कैसे तय होगी?जुबान और अंदाज की यह चर्चा सिर्फ इसलिए आवश्यक नहीं कि हम एकरसता से बचना और रूटीन की तानाशाही से स्वभावतः विद्रोह करना चाहते हैं. हमारा अंदाज हमारी मनुष्यता को भी परिभाषित करता है.
लेकिन जहां ज़िंदगी का बचा रहना ही सबसे बड़ा सवाल है, वहां शैली की बात करना क्या विलासिता है? न्यूनतम जीवन का संघर्ष क्या भाषा को भी न्यूनतम स्तर पर उतार देता है?
दूसरी तरफ, यह सवाल भी है कि जब कत्लेआम हो रहा हो तो भाषा कैसे उसका वर्णन करे और उसका सामना कैसे करे? क्या जुबान भी स्यापे में रह सकती है और क्या उसकी कोई मुद्दत है? थिओडोर अडोर्नो ने ऑश्वित्ज़ के बाद कविता को असंभव बताया था. क्या हर कत्लेआम के बाद भाषा अपनी अंतिम सीमा पर पहुंच जाती है?
ऑश्वित्ज़ फिर भी एक घटना के तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन जब भाषा को घृणा, हत्या के प्रचार और उसके औचित्य साधन का अभ्यास हो जाए, तो उसी भाषा में हम हिंसा का विरोध कैसे करें? आखिर भाषा की नैतिकता क्या है और कैसे तय होगी? हिंसा क्या सिर्फ घटना है, या स्वभाव और उसके प्रति भाषा अपना रुख कैसे तय करे? विरोध करते-करते क्या भाषा में खराश आ जाती है, क्या वह कर्कश हो जाती है? भाषा में संतुलन कैसे हासिल किया जाए?
भाषा के व्यवहार से जुड़े ये सवाल कोई एक बार के नहीं. हर पीढ़ी को अपने ढंग से इनसे जूझना पड़ता है और भाषा का अपना नज़रिया तय करना पड़ता है. भाषा के लोकप्रिय व्यवहार से संघर्ष उसका एक हिस्सा है
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