मंगलवार, 13 सितंबर 2016

दलित आंदोलन के बाद संघ की शाखाओं में दलितों की संख्या काफी कम हो गई है

दलित आंदोलन के बाद संघ की शाखाओं में दलितों की संख्या काफी कम हो गई है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दो साल पहले दलित आबादी वाले क्षेत्रों में शाखाएं लगाने की शुरुआत की थी लेकिन अब दलित इनसे दूर होने लगे हैं

पिछले कुछ दिनों से गुजरात के साथ-साथ देश के कुछ और हिस्सों में दलित विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं. भाजपा को आगामी विधानसभा चुनावों में इसके नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं लेकिन बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती. इनके चलते पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में दलित कार्यकर्ताओं की संख्या तेजी से कम हुई है. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही संघ ने उत्तर और पश्चिमी भारत के दलित बहुल क्षेत्रों में शाखाएं शुरू की थीं और सक्रियता काफी बढ़ा दी थी.
हिंदूवादी संगठनों या उनसे जुड़े लोगों के हमलों के विरोध में सबसे उग्र आंदोलन गुजरात और महाराष्ट्र में हुआ है. दलित कार्यकर्ताओं द्वारा संघ की शाखाओं से दूरी बनाने की घटना इन राज्यों में साफ-साफ दिख रही है वहीं उत्तर प्रदेश और पंजाब, जहां अगले साल चुनाव होने हैं, इसके असर से अछूते नहीं हैं. बिहार और हरियाणा की शाखाओं में भी दलितों की अचानक बढ़ी अनुपस्थिति साफ देखी जा सकती है.
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही संघ ने उत्तर और पश्चिमी भारत के दलित बहुल क्षेत्रों में शाखाएं शुरू की थीं 
संघ पिछले कुछ समय से समाज में निचले तबके के लोगों के बीच अपना विस्तार करने के लिए आक्रामक अभियान चला रहा था लेकिन ताजा बदलाव से इस पहल को भारी झटका लगा है. ‘हमने दलित बहुल आबादी के पास नई शाखाएं लगानी शुरू की थीं क्योंकि सवर्ण आबादी वाले इलाकों में लगने वाली शाखाएं दलित समुदाय के लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रही थीं’ मेरठ प्रांत के संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी बताते हैं, ‘पिछले कुछ समय से इन शाखाओं में बड़ा उत्साह नजर आ रहा था और दलित समाज के लोगों की भागीदारी तेजी से बढ़ी थी. लेकिन अब कार्यकर्ताओं की लाख कोशिश के बाद भी ये शाखाएं मजाक से ज्यादा कुछ नहीं बचीं.’
देश के बाकी हिस्सों में भी असर दिख रहा है
संघ के लिए दिक्कत सिर्फ मेरठ प्रांत में नहीं है. उत्तर प्रदेश के पांच प्रांतो – ब्रज, अवध, काशी, कानपुर और गोरक्षा के संघ पदाधिकारियों का भी यही कहना है कि दलित शाखाओं में आने से मना कर रहे हैं. इनके साथ पश्चिमी महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और दक्षिण बिहार के संघ पदाधिकारी भी यह बात स्वीकार करते हैं.
संघ को तकरीबन एक महीने पहले ही इस बात का एहसास हुआ कि बड़ी संख्या में निचली जाति के कार्यकर्ता उससे छिटक गए हैं. 31 जुलाई को आगरा में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एक दलित रैली करने वाले थे लेकिन बाद में पार्टी को यह रद्द करनी पड़ी. दरअसल इस रैली के लिए संघ को कम से कम 40 हजार दलित जुटाने थे और दो दिन पहले ही उसे एहसास हुआ इतनी संख्या में लोग नहीं जुट पाएंगे. यह संघ के लिए शर्मिंदगी वाली बात थी क्योंकि आगरा ब्रज प्रांत में आता है और संघ दावा करता है कि यहां के दलितों के बीच उसका अच्छा खासा असर है.
संघ परिवार ने 1983 के आसपास दलितों को संगठन से जोड़ने के लिए सक्रिय अभियान शुरू किया था. उसी साल संघ ने बाबा साहेब अंबेडकर के जन्मदिन यानी 14 अप्रैल को अपने सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की थी
शाह की रैली रद्द होने से संघ को इतना भारी झटका लगा कि संगठन के प्रमुख मोहन भागवत 20 अगस्त के बाद पांच दिन तक आगरा में ही डेरा डाले रहे. फिर एक सप्ताह उन्होंने लखनऊ में बिताया. कहा जाता है कि दोनों स्थानों पर उनकी संघ कार्यकर्ताओं और आनुषंगिक संगठनों के नेताओं के साथ इस संकट पर चर्चा के लिए बैठकें हुई थीं. इस दौरान दलित जाति के लोगों को वापस संघ से जोड़ने के अभियान को पुनर्जीवित करने पर जोर दिया गया है.
संघ परिवार ने 1983 के आसपास दलितों को संगठन से जोड़ने के लिए सक्रिय अभियान शुरू किया था. उसी साल संघ ने बाबा साहेब अंबेडकर के जन्मदिन यानी 14 अप्रैल को अपने सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की थी. फिर धीरे-धीरे संघ ने अपनी हिंदुत्व की विचारधारा में फूले-अंबेडकरवादी विचारधारा को समाहित करने की कोशिश शुरू कर दी.
जाति उन्मूलन और संघ
सामाजिक समरसता मंच ने छुआछूत को खत्म करने और दलितों को मुख्यधारा के हिंदू समाज से जोड़ने के लिए अभियान शुरू किए थे. एक मजबूत हिंदू वोटबैंक के लिए यह एक अनिवार्य शर्त भी थी. हालांकि संघ अपने इस मकसद में काफी हद तक नाकामयाब रहा क्योंकि यह काम हमारे समाज की जाति-संरचना को तोड़े बिना नहीं हो सकता था. कुल मिलाकर आज की तारीख में उसकी समरसता वाली विचारधारा अंबेडकर के जाति-उन्मूलन लक्ष्य से काफी दूर खड़ी दिखाई देती है. और जहां तक दलितों का सवाल है तो उनका एक बड़ा तबका आज भी संघ को संदेह की नजर से देखता है और मानता है कि यह मूल रूप से ऊंची जाति वालों का संगठन है.
2014 के लोकसभा चुनाव के पहले संघ ने दलितों को नरेंद्र मोदी के पक्ष में करने के लिए जबर्दस्त अभियान चलाया था. और इसी मकसद से दलित आबादी वाले क्षेत्रों में शाखाएं शुरू की गई थीं. लेकिन आज की परिस्थितियों में उसकी दो साल की पूरी मेहनत पर पानी फिरता दिख रहा है

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