बुधवार, 21 सितंबर 2016

कामाख्या देवी की “दिव्य माहवारी”

कामाख्या देवी की “दिव्य माहवारी” तमाचा है उनके लिए, जो “रजस्वला” को मानते हैं अछूत

 

              Kamakhya Devi Temple secrets 



मासिक धर्म, एक स्त्री की पहचान है, यह उसे पूर्ण स्त्रीत्व प्रदान करता है। लेकिन फिर भी हमारे समाज में रजस्वला स्त्री को अपवित्र माना जाता है। महीने के जिन दिनों में वह मासिक चक्र के अंतर्गत आती है, उसे किसी भी पवित्र कार्य में शामिल नहीं होने दिया जाता, उसे किसी भी धार्मिक स्थल पर जाने की मनाही होती है।


यह मंदिर तांत्रिक सिद्धियां प्राप्त करने के लिए प्रसिद्ध है। यहां तारा, धूमवती, भैरवी, कमला, बगलामुखी आदि तंत्र देवियों की मूर्तियां स्थापित हैं।

इस मंदिर को सोलहवीं शताब्दी में नष्ट कर दिया गया था लेकिन बाद में कूच बिहार के राजा नर नारायण ने सत्रहवीं शताब्दी में इसका पुन: निर्माण करवाया था!

नीलांचल पर्वत के बीचो-बीच स्थित कामाख्या मंदिर गुवाहाटी से करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मंदिर प्रसिद्ध 108 शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि पिता द्वारा किए जा रहे यज्ञ की अग्नि में कूदकर सती के आत्मदाह करने के बाद जब महादेव उनके शव को लेकर तांडव कर रहे थे, तब भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत करने के लिए अपना सुदर्शन चक्र छोड़कर सती के शव के टुकड़े कर दिए थे। उस समय जहां सती की योनि और गर्भ आकर गिरे थे, आज उस स्थान पर कामाख्या मंदिर स्थित है।

इसके अलावा इस मंदिर को लेकर एक और कथा चर्चित है। कहा जाता है कि एक बार जब काम के देवता कामदेव ने अपना पुरुषत्व खो दिया था तब इस स्थान पर रखे सती के गर्भ और योनि की सहायता से ही उन्हें अपना पुरुषत्व हासिल हुआ था। एक और कथा यह कहती है कि इस स्थान पर ही शिव और पार्वती के बीच प्रेम की शुरुआत हुई थी। संस्कृत भाषा में प्रेम को काम कहा जाता है, जिससे कामाख्या नाम पड़ा।

इस मंदिर के पास मौजूद सीढ़ियां अधूरी हैं, इसके पीछे भी एक कथा मौजूद है। कहा जाता है एक नरका नाम का राक्षस देवी कामाख्या की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे विवाह करना चाहता था। परंतु देवी कामाख्या ने उसके सामने एक शर्त रख दी। कामाख्या देवी ने नरका से कहा कि अगर वह एक ही रात में नीलांचल पर्वत से मंदिर तक सीढ़ियां बना पाएगा तो ही वह उससे विवाह करेंगी। नरका ने देवी की बात मान ली और सीढ़ियां बनाने लगा। देवी को लगा कि नरका इस कार्य को पूरा कर लेगा इसलिए उन्होंने एक तरकीब निकाली।

उन्होंने एक कौवे को मुर्गा बनाकर उसे भोर से पहले ही बांग देने को कहा। नरका को लगा कि वह शर्त पूरी नहीं कर पाया है, परंतु जब उसे हकीकत का पता चला तो वह उस मुर्गे को मारने दौड़ा और उसकी बलि दे दी। जिस स्थान पर मुर्गे की बलि दी गई उसे कुकुराकता नाम से जाना जाता है। इस मंदिर की सीढ़ियां आज भी अधूरी हैं।


कामाख्या देवी को ‘बहते रक्त की देवी’ भी कहा जाता है, इसके पीछे मान्यता यह है कि यह देवी का एकमात्र ऐसा स्वरूप है जो नियमानुसार प्रतिवर्ष मासिक धर्म के चक्र में आता है। सुनकर आपको अटपटा लग सकता है लेकिन कामाख्या देवी के भक्तों का मानना है कि हर साल जून के महीने में कामाख्या देवी रजस्वला होती हैं और उनके बहते रक्त से पूरी ब्रह्मपुत्र नदी का रंग लाल हो जाता है।

इस दौरान तीन दिनों तक यह मंदिर बंद हो जाता है लेकिन मंदिर के आसपास ‘अम्बूवाची पर्व’ मनाया जाता है। इस दौरान देश-विदेश से सैलानियों के साथ तांत्रिक, अघोरी साधु और पुजारी इस मेले में शामिल होने आते हैं। शक्ति के उपासक, तांत्रिक और साधक नीलांचल पर्वत की विभिन्न गुफाओं में बैठकर साधना करसिद्धियां प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।

कामाख्या मंदिर को वाममार्ग साधना के लिए सर्वोच्च पीठ का दर्जा दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी आदि जितने भी महान तंत्र साधक रहे हैं वे सभी इस स्थान पर साधना करते थे, यहीं उन्होंने अपनी साधना पूर्ण की थी।

भक्तों और स्थानीय लोगों का मानना है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान कामाख्या देवी के गर्भगृह के दरवाजे अपने आप ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन करना निषेध माना जाता है। पौराणिक दस्तावेजों में भी कहा गया है कि इन तीन दिनों में कामाख्या देवी रजस्वला होती हैं और उनकी योनि से रक्त प्रवाहित होता है। तंत्र साधनाओं में रजस्वला स्त्री और उसके रक्त का विशेष महत्व होता है इसलिए यह पर्व या कामाख्या देवी के रजस्वला होने का यह समय तंत्र साधकों और अघोरियों के लिए सुनहरा काल होता है।

इस पर्व की शुरुआत से पूर्व गर्भगृह स्थित योनि के आकार में स्थित शिलाखंड, जिसे महामुद्रा कहा जाता है, को सफेद वस्त्र पहनाए जाते हैं, जो पूरी तरह रक्त से भीग जाते हैं। पर्व संपन्न होने के बाद पुजारियों द्वारा यह वस्त्र भक्तों में वितरित कर दिए जाते हैं।

बहुत से तांत्रिक, साधु, ज्योतिषी ऐसे भी होते हैं जो यहां से वस्त्र ले जाकर उसे छोटा-छोटा फाड़कर मनमाने दामों पर उन वस्त्रों को कमिया वस्त्र या कमिया सिंदूर का नाम देकर बेचते हैं।


देवी के रजस्वला होने की बात पूरी तरह आस्था से जुड़ी है। इस मानसिकता से इतर सोचने वाले बहुत से लोगों का कहना है कि   यह नदी बेजुबान जानवरों की बलि के दौरान उनके बहते हुएरक्त से लाल होती है। इस मंदिर में कभी मादा पशु की बलि नहीं दी जाती।
खैर, तथ्य चाहे जो भी हो परंतु माहवारी काल के दौरान कामाख्या देवी की आराधना कर कहीं ना कहीं हम स्त्रीत्व की आराधना करते हैं। हम स्त्री, जिसे ‘जननी’ कहा जाता है, उसका भी सम्मान करते हैं। लेकिन जब बात व्यवहारिकता की, एक सामान्य स्त्री की आती है तो हमारा व्यवहार पूरी तरह क्यों बदल जाता है?

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