एक खबर के अनुसार भारत के मंदिरो
में जमा सोना अमेरिका के रिजर्व सोने के ढाई गुना अधिक है तथा भारत में
रिजर्व सोने के 400 गुना अधिक । इतनी अकूत खजाने के मालिक है भारतीय मंदिर
,यदि यह सोना जनकल्याण में लगाया जाये तो तकरीबन 10 साल तक किसी को टेक्स
देने की जरुरत नहीं रहेगी ,हॉस्पिटल्स, स्कूल आदि जनकल्याण योजनाये साल तक
बिना सरकरी मदद 10के चल सकती हैं । हर व्यक्ति साल 2तक खाना सकेगा इतना
सोना मंदिरो में दबा पड़ा है ।
देश में अब भी 60% बच्चे कुपोषित हैं जो
पौष्टिक आहार न मिलने के कारण गंभीर बीमारियो के चपेट में आ जाते हैं। देश
में हॉस्पिटल की इतनी कमी है की ग्रामीण क्षेत्रो में 20-25 किलो मीटर्स
पर एक सरकारी हास्पिटल होगा और आधे लोग बिना इलाज के ही दम तोड़ देते हैं ।
शिक्षा की दर इतनी कम की स्कूल न होने के कारण या स्कूल में सुविधा न होने
के कारण 50% से अधिक बच्चे स्कूल ही नहीं जा पाते , निरक्षरों की संख्या
60% से अधिक है । गरीबी में भारत का विश्व में चौथा स्थान है जंहा एक तिहाई
लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं , उन्हें पानी , बिजली जैसी
मूलभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं ।
परन्तु, पुजारी वर्ग ईश्वर के नाम पर
जनता का दोहन किये जा रहा है ,लोगो में अन्धविश्वास का इतना अधिक शिकंजा कस
दिया गया है की चाहे भक्त को कर्ज लेके पूजा पाठ , हवन यज्ञ ,दान या और
तीर्थ - कर्मकाण्ड करने हों वह करेगा जरूर।
खुद भूँखा रहेगा पर मूर्ति पर सोना
चढ़ाएगा , प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचंद जी ने दान की मानसिकता के जाल में
जकड़े होरी की कथा अपने उपन्यास ' गोदान' में बहुत अच्छे से की है । मूर्ति
पर चढ़ाया पैसा या सोना जनता की भलाई के काम नहीं आता बल्कि काम आता है
पुजारी के जिसका भरा पेट दिन रात और बड़ा होता रहता है ।
भारत में विदेशियो के आक्रमण का प्रमुख
कारण ये मंदिर ही रहें है जिनमे रखा सोना , हीरे आदि कीमती चीजे उन्हें
भारत पर आक्रमण के लिए ललायित करतीं। गज़नवी के भारत पर आक्रमण करने का
प्रमुख कारण मंदिरो में रखा सोना ही था,इसी लिए वह हर साल भारत पर आक्रमण
करता और मंदिरो आदि को लूटता ।सोमनाथ के मंदिर को जब उसने लूटा तब उसे इतना
हीरे जेवरात मिले थे की उसे उस ख़जाने को हजारो खच्चरों और घोड़ो पर लाद
के ले जाना पड़ा था । जबकि उस समय भी हिन्दू धर्म का एक बड़ा वर्ग जिसे
शुद्र अछूत कहा जाता है वह निर्धन होने के कारण अमानवीय जीवन यापन कर रहा
था । तब भी धन-सोना केवल मंदिरो में बैठे लोगो के अपने स्वार्थ के लिए ही
काम आ रहा था , गरीब जनता के लिए नहीं । विदेशी आते और मंदिरो में रखा सोना
लूट के ले जाते पर पुजारी वर्ग उसे जनता की भलाई में काम नहीं लाता था
बल्कि बैठा बैठा धन लुटवा देता था ।
विदेशियो के अलावा देसी राजा महाराजा या
सरदार अदि भी मन्दिरो में रखे सोने चांदी पर अपनी नजर गड़ाये रखते थे
,जिसे और जब मौका मिलता पुजारी के साथ मिल के या चोरी कर के मंदिरो का धन
गायब कर देता और अपने भोग विलास में खर्च करता । आज भी यही चल रहा है ,
सरकार को चाहिए की सभी सोने को अपने कब्जे में लेके जनकल्याण योजनाओ में
लगा दे
हम सबको यह पता है कि मैसूर नगर का नाम महिषासुर पर रखा गया
है। एक मित्र ने मेरा ध्यान तैयब मेहता की ‘काली’ श्रंखला की पेंटिंग्स
में से एक की ओर आकर्षित किया, जिसमें देवी को महिषासुर के आलिंगन में
दिखाया गया है। यह पेंटिंग बहुत बड़ी कीमत पर बिकी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर हालिया हल्ले ने भारतीय
पौराणिकता और उसकी व्याख्या से जुड़े एक महत्वपूर्ण मुद्दे को राष्ट्र के
समक्ष प्रस्तुत किया है। अपनी सरकार की कार्यवाही का बचाव करते हुए
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा कि जेएनयू,
राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों का अड्डा बन गया है। उन्होंने यह भी कहा कि
जेएनयू के दलित व ओबीसी विद्यार्थियों के कुछ समूह, ‘महिषासुर शहादत दिवस’
का आयोजन कर रहे हैं और आरोप लगाया कि इन विद्यार्थियों ने एक पर्चा जारी
किया था, जिसमें देवी दुर्गा के बारे में कई अपमानजनक बातें कही गईं थीं।
कई लोग देवी दुर्गा की महिषासुरमर्दिनी के रूप में पूजा करते हैं।
महिषासुर-जिसे आमतौर पर राक्षस बताया जाता है-के वध की कई अलग-अलग
व्याख्याएं की जाती रही हैं। इस मुद्दे के चर्चा में आने के कुछ वर्ष पहले,
देवी दुर्गा के संबंध में एक अन्य विवाद भी खड़ा हुआ था। संसद में एक
सदस्य ने इस बात पर आपत्ति प्रगट की कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त
विश्वविद्यालय की एक पुस्तक में कहा गया है कि देवी दुर्गा मदिरा का सेवन
करती थीं। उत्तर में तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी ने
‘‘चंडीपाठ’’ के एक श्लोक को उद्धृत किया, जिसमें यह बताया गया है कि किस
तरह ‘‘देवी ने युद्ध के बीच में एक बार, और फिर, और फिर मदिरा का सेवन किया
और किस प्रकार उनके नेत्र रक्तमय हो गए-उदित होते सूर्य की किरणों की
तरह’’।
‘‘फारवर्ड प्रेस’’ पत्रिका के अक्टूबर 2014 अंक में महिषासुर-दुर्गा कथा
की बहुजन व्याख्या के संबंध में कई लेख प्रकाशित किए गए। पुलिस ने इस अंक
की प्रतियां ज़ब्त कर ली थीं क्योंकि किसी व्यक्ति ने यह शिकायत की थी कि
पत्रिका में प्रकाषित लेख, ब्राह्मणों और ओबीसी के बीच शत्रुता उत्पन्न
करने वाले हैं। यह मामला अभी न्यायालय में विचाराधीन है। आज जिस स्वरूप में
दुर्गा पूजा मनायी जाती है, उसकी शुरूआत महज 260 साल पहले, 1757 में
प्लासी के युद्ध के बाद लार्ड क्लाइव के सम्मान में कलकत्ता के नवाब
कृष्णदेव ने की थी। इस प्रकार, यह त्योहार न सिर्फ नया है बल्कि इसके उत्स
में मुसलमानों का विरोध और साम्राज्यवाद-परस्ती भी छुपी हुई है। यद्यपि
कई समुदाय लंबे समय से महिषासुर की अभ्यर्थना करते आए हैं परंतु महिषासुर
शहादत दिवस का आयोजन कुछ ही वर्ष पहले शुरू हुआ। सन 2011 में विद्यार्थियों
के एक समूह ने जेएनयू में इसका आयोजन किया। बाद में, उदित राज-जो अब भाजपा
सांसद हैं-ने भी ऐसे ही एक कार्यक्रम में शिरकत की। हमें अब यह पता चल रहा
है कि देश के विभिन्न हिस्सों, विशेषकर बंगाल, में कई आदिवासी समुदाय,
सदियों से महिषासुर को पूजते आए हैं। पिछले वर्ष महिषासुर के सम्मान में
लगभग 300 कार्यक्रम देशभर में आयोजित हुए। ‘‘फारवर्ड प्रेस’’ व अन्य
पत्रिकाओं में प्रकाशित अपने लेखों में कई बहुजन अध्येताओं ने यह तर्क दिया
कि महिषासुर वध को त्योहार के रूप में मनाया जाना दो कारणों से अनुचित है:
पहला, यह मृत्यु का जश्न मनाना है और दूसरा, यह महिषासुर के चरित्र की
ब्राह्मणवादी व्याख्या को स्वीकार करना है। ब्राह्मणवादी व्याख्या के
अनुसार, महिषासुर एक असुर था जबकि अन्यों का कहना है कि वह आदिवासियों का
राजा था।
पौराणिक ग्रंथों की व्याख्या आसान नहीं है। इनमें वर्णित घटनाओं को
इतिहासविद सत्य की कसौटी पर नहीं कस सकते क्योंकि ये घटनाएं प्रागऐतिहासिक
काल में हुई थीं। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि देवी ने राक्षस का वध किया था
और इसलिए इस दिन को बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाया जाता है। इस
कथा के अनुसार, चूंकि दानव को हराना आसान नहीं था इसलिए ब्रह्मा, विष्णु व
महेश ने अपनी संपूर्ण शक्तियों का प्रयोग कर आलौकिक शक्तियों से लैस
दुर्गा का सृजन किया। इस कथा में यह भी बताया गया है कि दानवराज आधा मनुष्य
और आधा भैंसा था।
ईरानी ने जिस तथाकथित पर्चे को संसद में पढ़ा, उसके अनुसार, दुर्गा एक
वैश्या थी जिसे महिषासुर का वध करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उसने नौ
रातों तक महिषासुर के साथ प्रणयक्रीड़ा की और फिर, जब वह सो रहा था, तब उसे
मार डाला। हम सबको यह पता है कि मैसूर नगर का नाम महिषासुर पर रखा गया है।
एक मित्र ने मेरा ध्यान तैयब मेहता की ‘काली’ श्रंखला की पेंटिंग्स में से
एक की ओर आकर्षित किया, जिसमें देवी को महिषासुर के आलिंगन में दिखाया गया
है। यह पेंटिंग बहुत बड़ी कीमत पर बिकी।
देवी दुर्गा का वर्णन सबसे पहले मार्कण्डेय पुराण में मिलता है, जिसका
काल 250 से 500 ईस्वी बताया जाता है। यह सही है कि आमजन इस त्योहार को उसी
रूप में मनाते हैं, जैसा कि ईरानी ने बताया। परंतु यह, इस कथा का
ब्राह्मणवादी व वर्चस्ववादी संस्करण है। यह बात कम ही लोग जानते हैं कि कई
समुदाय, इसी दिन को महिषासुर दिवस के रूप में भी मनाते हैं। यह तथ्य
तथाकथित मुख्यधारा का भाग हाल में तब बना जब जेएनयू में यह दिवस मनाया गया
और ‘‘फारवर्ड प्रेस’’ पत्रिका ने इस विषय पर काफी कुछ लिखा। यहां मैं यह
जोड़ना चाहूंगा कि वर्चस्वशाली विमर्श हमेशा वर्चस्वशाली जातियों/वर्गों
द्वारा निर्मित व प्रायोजित होता है।
लोकमान्यता यही है कि यह अच्छाई और बुराई, ईश्वर और असुरों के बीच
संघर्ष था। इस त्योहार की यह व्याख्या आर्यों के भारत में आगमन को एक शुभ
घटना बताती है। एक अन्य व्याख्या जोतिराव फुले ने प्रस्तुत की थी। उन्होंने
ब्राह्मणवादी व्याख्या के ठीक उलट यह कहा कि आर्यभट्ट ब्राह्मणों ने भारत
पर आक्रमण कर और मूल निवासी आदिवासियों को छल-बल से पराजित किया। यह
व्याख्या उस सामाजिक परिवर्तन के साथ उभरी, जिसका आगाज़ पददलित वर्गों
द्वारा अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष शुरू करने से हुआ। इसी तरह, राम-रावण की
कथा की भी पुनर्व्याख्या की जा रही है। कई लोगों को यह आश्चर्यजनक लग सकता
है परंतु यह सच है कि कई समुदाय रावण को पूज्यनीय मानते हैं। वे यह मानते
हैं कि वह एक परमज्ञानी व महान व्यक्ति था।
जहां हिंदुत्व की राजनीति, भगवान राम पर केंद्रित है वहीं राम की
अंबेडकर व पेरियार दोनों ने कटु आलोचना की है। अंबेडकर, राम को लोकप्रिय
राजा बाली की पीछे से तीर मारकर हत्या करने को अनैतिक बताते हैं। बाली के
शासन में गैर-ब्राह्मणजन प्रसन्न और समृद्ध थे और राजा बाली को आज भी पूजा
जाता है। भगवान राम द्वारा शंबूक की केवल इसलिए हत्या की जाना क्योंकि वह
तपस्या कर रहा था जो शूद्रों के लिए निषेध थी, भी समाज पर अपना वर्चस्व
कायम रखने के ब्राह्मणवादी अभियान का हिस्सा है। राम द्वारा अपनी गर्भवती
पत्नी सीता को घर से निकालना किसी भी तरह से क्षम्य नहीं है। इस प्रकार,
राम-रावण की कहानी के जातिगत, नस्लीय व लैंगिक आयाम भी हैं।
यहां यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि अब यह माना जाता है कि आर्य न तो
यहां आए और ना ही उन्होंने भारत पर आक्रमण किया बल्कि आज के भारत के
निवासियों के पूर्वज, विभिन्न नस्लों की लंबी अवधि में घुलनेमिलने से
अस्तित्व में आए। देवी दुर्गा की कथा का भी एक लैंगिक पहलू है। मृणाल पांडे
ने ‘‘स्क्राल’’ में प्रकाशित अपने एक लेख में इसे पितृसत्तात्मकता को
महिलाओं द्वारा दी गई चुनौती के रूप में प्रस्तुत किया है। इस तरह, इस कथा
से नस्ल, जाति और लिंग के मुद्दे जुड़े हुए हैं। हमारे जैसे विविधताओं से
भरे समाज में अलग-अलग तरह की कथाओं का होना स्वाभाविक है और इनमें से किसी
को भी कुचलने या दबाने का प्रयास अनुचित होगा।
ईरानी-भाजपा-आरएसएस, सबाल्टर्न कथाओं के उभार को समाज पर ऊँची
जातियों/उच्च वर्ग का वर्चस्व स्थापित करने के अपने अभियान के लिए खतरा
मानते हैं। बहुवाद उन्हें पसंद नहीं है और यही कारण है कि ईरानी ने संसद
में दुर्गा-महिषासुर कथा की एक भिन्न व्याख्या को राष्ट्र-विरोधी और
अवांछनीय बताया। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (महिषासुर आंदोलन से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘महिषासुर: एक जननायक’ (हिन्दी)। घर बैठे मंगवाएं : http://www.amazon.in/dp/819325841X किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र उपलब्ध होगा )
कोलकाता।
दुर्गापूजा पंडालों से बहिष्कृत सोनागाछी के यौनकर्मियों ने समाज के
पूर्वाग्रहों के बंधनों को तोड़ते हुए पहली बार अपनी अलग पूजा का आयोजन
किया है।
यौनकर्मियों के अधिकारों के लिए काम करने वाली दरबार महिला समन्वय समिति की
भारती डे ने बताया, ‘‘यह बंगालियों का सबसे बड़ा त्यौहार है और जब बाकी
पूरा शहर इसका जश्न मना रहा है तो फिर हम क्यों पीछे रहें ? इसलिए हमने इस
बार अपना अलग पूजा पंडाल बनाने की सोची।’’ लेकिन इन यौनकर्मियों को उस
समय परेशानी का सामना करना पड़ा जब कोलकाता पुलिस ने फुटपाथ के एक हिस्से
का अतिक्रमण करने वाले उनके पंडाल को अनुमति नहीं दी। यौनकर्मियों ने इसे कलकत्ता उच्च न्यायालय में चुनौती दी और पूजा का आयोजन करने की अनुमति ले ली। डे ने कहा, ‘‘हमारा बजट 2 लाख रूपए का था।’’ इस
पूजा के लिए सोनागाछी के 7 हजार यौनकर्मियों ने प्रति व्यक्ति 20 रूपए का
योगदान दिया जबकि कुछ स्वयंसेवियों ने भी इसमें योगदान दिया। सोनागाछी
उत्तर कोलकाता में एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट इलाका है। कार्यकर्ता ने
कहा, ‘‘हम सभी धार्मिक परंपराओं का पालन कर रहे हैं। हमारे कर्मचारियों
में से एक ब्राह्मण पूजा करने के लिए तैयार हो गया है। हमने दो ढाकियों
(ड्रम वादकों) को भी नियुक्त किया है।’’ आज से शुरू होने वाले चार
दिवसीय समारोह के लिए दुर्गा की छह फीट ऊंची मूर्ति भी रखी गई है।सोनागाछी
में त्यौहार का माहौल बनने पर कालीघाट, टीटागढ़ और दोमजरके अन्य रेडलाइट
इलाकों के यौनकर्मी भी देवी के दर्शनों के लिए पंडाल में एकत्रित हो रहे
हैं।
डीएमएसएस के समाराजीत जाना
ने कहा, ‘‘यह उन सभी के लिए एक बड़ा नैतिक प्रोत्साहन है, जिन्हें कभी भी
पूजा पंडालों में आने नहीं दिया जाता था। पूजा में भाग लेने के लिए वे
दूसरे जिलों से भी यहां आ रहे हैं।’’ पूजा के दूसरे दिन अष्टमी पर सोनागाछी के निवासी दुर्गा को ‘अंजलि’ देंगे। ऐसा करने का अधिकार पहले कभी भी यौनकर्मियों को नहीं था। इलाके में सभी यौनकर्मियों के बीच ‘प्रसाद’ भी बांटा जाएगा। डीएमएसएस
की सांस्कृतिक इकाई ‘कोमलगंधा’ यौनकर्मियों के बच्चों में मौजूद नृत्य,
नाटक और संगीत के हुनर को दर्शाने के लिए उनकी सांस्कृति प्रस्तुतियों का
आयोजन करा रही है। यौनकर्मियों का कहना है कि पूजा ने उनके ग्राहकों को भी हैरान कर दिया है। 26
वर्षीय एक यौनकर्मी ने कहा, ‘‘पूजा के मौसम में छुट्टियां होने की वजह से
वेश्यालय में भीड़ इन दिनों बढ़ गई है। हमारे नियमित ग्राहकों में से एक
ग्राहक ने पंडाल भी देखा और वह यहां चल रहे कार्यक्रम को देखकर बहुत हैरान
था।’’ जाना
ने कहा कि हालांकि यौनकर्मियों को इस तरह के आयोजन करने के लिए अभी भी
सोनागाछी के आसपास के स्थानीय लोगों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। अगले
साल से कोलकाता और राज्य में अन्य जगहों पर बने रेड लाइट इलाकों के
यौनकर्मी भी अपने समुदाय के अलग पूजा-पंडालों की योजना बना रहे हैं।
दुर्गा कथा के शूद्र पाठ को लेकर मणि जी का यह आलेख
काफी उत्तेजक तथ्यों को हमारे सामने रखता है। यह आलेख फारवर्ड प्रेस के
नये अंक का आमुख आलेख है। हम वहीं से इसे कॉपी-पेस्ट कर रहे हैं। शीर्षक
में हमने थोड़ी छूट ले ली है : मॉडरेटर
शक्ति
के विविध रूपों, यथा योग्यता, बल, पराक्रम, सामर्थ्य व ऊर्जा की पूजा
सभ्यता के आदिकालों से होती रही है। न केवल भारत में बल्कि दुनिया के तमाम
इलाकों में। दुनिया की पूरी मिथॉलॉजी के प्रतीक देवी-देवताओं के
तानों-बानों से ही बुनी गयी है। आज भी शक्ति का महत्व निर्विवाद है।
अमेरिका की दादागीरी पूरी दुनिया में चल रही है, तो इसलिए कि उसके पास सबसे
अधिक सामरिक शक्ति और संपदा है। जिसके पास एटम बम नहीं हैं, उसकी बात कोई
नहीं सुनता, उसकी आवाज का कोई मूल्य नहीं है। गीता उसकी सुनी जाती है,
जिसके हाथ में सुदर्शन हो। उसी की धौंस का मतलब है और उसी की विनम्रता का
भी। कवि दिनकर ने लिखा है: ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।’ दंतहीन और विषहीन सांप सभ्यता का स्वांग भी नहीं कर
सकता। उसकी विनम्रता, उसका क्षमाभाव अर्थहीन हैं। बुद्ध ने कहा है – जो
कमजोर है, वह ठीक रास्ते पर नहीं चल सकता। उनकी अहिसंक सभ्यता में भी
फुफकारने की छूट मिली हुई थी। जातक में एक कथा में एक उत्पाती सांप के
बुद्धानुयायी हो जाने की चर्चा है। बुद्ध का अनुयायी हो जाने पर उसने लोगों
को काटना-डंसना छोड़ दिया। लोगों को जब यह पता चल गया कि इसने काटना-डंसना
छोड़ दिया है, तो उसे ईंट-पत्थरों से मारने लगे। इस पर भी उसने कुछ नहीं
किया। ऐसे लहू-लुहान घायल अनुयायी से बुद्ध जब फिर मिले तो द्रवित हो गये
और कहा ‘मैंने काटने के लिए मना किया था मित्र, फुफकारने के लिए नहीं।
तुम्हारी फुफकार से ही लोग भाग जाते।’ भारत में भी शक्ति की आराधना का पुराना इतिहास रहा है।
लेकिन यह इतिहास बहुत सरल नहीं है। अनेक जटिलताएं और उलझाव हैं। सिंधु
घाटी की सभ्यता के समय शक्ति का जो प्रतीक था, वही आर्यों के आने के बाद
नहीं रहा। पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में शक्ति
के केंद्र अथवा प्रतीक बदलते रहे। आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा,
उसके विविध रूप हमारे सामने आये। इसीलिए आज का हिंदू यदि शक्ति के प्रतीक
रूप में दुर्गा या किसी देवी को आदि और अंतिम मानकर चलता है, तब वह बचपना
करता है। सिंधु घाटी की जो अनार्य अथवा द्रविड़ सभ्यता थी, उसमें प्रकृति
और पुरुष शक्ति के समन्वित प्रतीक माने जाते थे। शांति का जमाना था।
मार्क्सवादियों की भाषा में आदिम साम्यवादी समाज के ठीक बाद का समय।
सभ्यता का इतना विकास तो हो ही गया था कि पकी ईंटों के घरों में लोग रहने
लगे थे और स्नानागार से लेकर बाजार तक बन गये थे। तांबई रंग और अपेक्षाकृत
छोटी नासिका वाले इन द्रविड़ों का नेता ही शिव रहा होगा। अल्हड़ अलमस्त
किस्म का नायक। इन द्रविड़ों की सभ्यता में शक्ति की पूजा का कोई माहौल
नहीं था। यों भी उन्नत सभ्यताओं में शक्ति पूजा की चीज नहीं होती। शक्ति पूजा का माहौल बना आर्यों के आगमन के बाद। सिंधु
सभ्यता के शांत-सभ्य गौ-पालक (ध्यान दीजिए शिव की सवारी बैल और बैल की
जननी गाय) द्रविड़ों को अपेक्षाकृत बर्बर अश्वारोही आर्यों ने तहस-नहस कर
दिया और पीछे धकेल दिया। द्रविड़ आसानी से पीछे नहीं आये होंगे। भारतीय
मिथकों मे जो देवासुर संग्राम है, वह इन द्रविड़ और आर्यों का ही संग्राम
है। आर्यों का नेता इंद्र था। शक्ति का प्रतीक भी इंद्र ही था। वैदिक
ऋषियों ने इस देवता, इंद्र की भरपूर स्तुति की है। तब आर्यों का सबसे बड़ा
देवता, सबसे बड़ा नायक इंद्र था। वह वैदिक आर्यों का हरक्युलस था। तब किसी
देवी की पूजा का कोई वर्णन नहीं मिलता। आर्यों का समाज पुरुष प्रधान था।
पुरुषों का वर्चस्व था। द्रविड़ जमाने में प्रकृति को जो स्थान मिला था, वह
लगभग समाप्त हो गया था। आर्य मातृभूमि का नहीं, पितृभूमि का नमन करने वाले
थे। आर्य प्रभुत्व वाले समाज में पुरुषों का महत्व लंबे अरसे तक बना रहा।
द्रविड़ों की ओर से इंद्र को लगातार चुनौती मिलती रही। गौ-पालक कृष्ण का इतिहास से यदि कुछ संबंध बनता है, तो
लोकोक्तियों के आधार पर उसके सांवलेपन से द्रविड़ नायक ही की तस्वीर बनती
है। इस कृष्ण ने भी इंद्र की पूजा का सार्वजनिक विरोध किया। उसकी जगह अपनी
सत्ता स्थापित की। शिव को भी आर्य समाज ने प्रमुख तीन देवताओं में शामिल कर
लिया। इंद्र की तो छुट्टी हो ही गयी। भारतीय जनसंघ की कट्टरता से भारतीय
जनता पार्टी की सीमित उदारता की ओर और अंतत: एनडीए का एक ढांचा, आर्यों का
समाज कुछ ऐसे ही बदला। फैलाव के लिए उदारता का वह स्वांग जरूरी होता है।
पहले जार्ज और फिर शरद यादव की तरह शिव को संयोजक बनाना जरूरी था, क्योंकि
इसके बिना निष्कंटक राज नहीं बनाया जा सकता था। आर्यों ने अपनी पुत्री
पार्वती से शिव का विवाह कर सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की। जब दोनों
पक्ष मजबूत हो तो सामंजस्य और समन्वय होता है। जब एक पक्ष कमजोर हो जाता
है, तो दूसरा पक्ष संहार करता है। आर्य और द्रविड़ दोनों मजबूत स्थिति में
थे। दोनों में सामंजस्य ही संभव था। शक्ति की पूजा का सवाल कहां था? शक्ति
की पूजा तो संहार के बाद होती है। जो जीत जाता है वह पूज्य बन जाता है, जो
हारता है वह पूजक। हालांकि पूजा का सीमित भाव सभ्य समाजों में भी होता
है, लेकिन वह नायकों की होती है, शक्तिमानों की नहीं। शक्तिमानों की पूजा
कमजोर, काहिल और पराजित समाज करता है। शिव की पूजा नायक की पूजा है। शक्ति
की पूजा वह नहीं है। मिथकों में जो रावण पूजा है, वह शक्ति की पूजा है।
ताकत की पूजा, महाबली की वंदना। लेकिन देवी के रूप में शक्ति की पूजा का क्या अर्थ है?
अर्थ गूढ़ भी है और सामान्य भी। पूरबी समाज में मातृसत्तात्मक समाज
व्यवस्था थी। पश्चिम के पितृ सत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ठीक उलट। पूरब
सांस्कृतिक रूप से बंग भूमि है, जिसका फैलाव असम तक है। यही भूमि शक्ति
देवी के रूप में उपासक है। शक्ति का एक अर्थ भग अथवा योनि भी है। योनि
प्रजनन शक्ति का केंद्र है। प्राचीन समाजों में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने
के लिए जो यज्ञ होते थे, उसमें स्त्रियों को नग्न करके घुमाया जाता था।
पूरब में स्त्री पारंपरिक रूप से शक्ति की प्रतीक मानी जाती रही है। इस
परंपरा का इस्तेमाल ब्राह्मणों ने अपने लिए सांस्कृतिक रूप से किया।
गैर-ब्राह्मणों को ब्राह्मण अथवा आर्य संस्कृति मे शामिल करने का सोचा-समझा
अभियान था। आर्य संस्कृति का इसे पूरब में विस्तार भी कह सकते हैं।
विस्तार के लिए यहां की मातृसत्तात्मक संस्कृति से समरस होना जरूरी था।
सांस्कृतिक रूप से यह भी समन्वय था। पितृसत्तात्मक संस्कृति से
मातृसत्तात्मक संस्कृति का समन्वय। आर्य संस्कृति को स्त्री का महत्त्व
स्वीकारना पड़ा, उसकी ताकत रेखांकित करनी पड़ी। देव की जगह देवी महत्वपूर्ण
हो गयी। शक्ति का यह पूर्व-रूप (पूरबी रूप) था जो आर्य संस्कृति के लिए
अपूर्व (पहले न हुआ) था। महिषासुर और दुर्गा के मिथक क्या है? लेकिन
महिषासुर और दुर्गा के मिथक हैं, वह क्या है? दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक
हमने अभिजात ब्राह्मण नजरिये से ही इस पूरी कथा को देखा है। मुझे स्मरण है
1971 में भारत-पाक युद्ध और बंग्लादेश के निर्माण के बाद तत्कालीन जनसंघ
नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अभिनव चंडी
दुर्गा कहा था। तब तक कम्युनिस्ट नेता डांगे सठियाये नहीं थे। उन्होंने
इसका तीखा विरोध करते हुए कहा था कि ‘अटल बिहारी नहीं जान रहे हैं कि वह
क्या कह रहे हैं और श्रीमती गांधी नहीं जान रही हैं कि वह क्या सुन रही
हैं। दोनों को यह जानना चाहिए कि चंडी दुर्गा दलित और पिछड़े तबकों की
संहारक थी।’ डांगे के वक्तव्य के बाद इंदिरा गांधी ने संसद में ही कहा था
‘मैं केवल इंदिरा हूं और यही रहना चाहती हूं।’ महिषासुर और दुर्गा की कथा का शूद्र पाठ (और शायद
शुद्ध भी) इस तरह है। महिष का मतलब भैंस होता है। महिषासुर यानी महिष का
असुर। असुर मतलब सुर से अलग। सुर का मतलब देवता। देवता मतलब ब्राह्मण या
सवर्ण। सुर कोई काम नहीं करते। असुर मतलब जो काम करते हों। आज के अर्थ में
कर्मी। महिषासुर का अर्थ होगा भैंस पालने वाले लोग अर्थात भैंसपालक। दूध का
धंधा करने वाला। ग्वाला। असुर से अहुर फिर अहीर भी बन सकता है। महिषासुर
यानी भैंसपालक बंग देश के वर्चस्व प्राप्त जन रहे होंगे। नस्ल होगी
द्रविड़। आर्य संस्कृति के विरोधी भी रहे होंगे। आर्यों को इन्हें पराजित
करना था। इन लोगों ने दुर्गा का इस्तेमाल किया। बंग देश में वेश्याएं
दुर्गा को अपने कुल का बतलाती हैं। दुर्गा की प्रतिमा बनाने में आज भी
वेश्या के घर से थोड़ी मिट्टी जरूर मंगायी जाती है। भैंसपालक के नायक
महिषासुर को मारने में दुर्गा को नौ रात लग गयी। जिन ब्राह्मणों ने उन्हें
भेजा था, वे सांस रोक कर नौ रात तक इंतजार करते रहे। यह कठिन साधना थी। बल
नहीं तो छल। छल का बल। नौवीं रात को दुर्गा को सफलता मिल गयी, उसने
महिषासुर का वध कर दिया। खबर मिलते ही आर्यों (ब्राह्मणों) में उत्साह की
लहर दौड़ गयी। महिषासुर के लोगों पर वह टूट पड़े और उनके मुंड (मस्तक)
काटकर उन्होंने एक नयी तरह की माला बनायी। यही माला उन्होंने दुर्गा के गले
में डाल दी। दुर्गा ने जो काम किया, वह तो इंद्र ने भी नहीं किया था।
पार्वती ने भी शिव को पटाया भर था, संहार नहीं किया था। दुर्गा ने तो अजूबा
किया था। वह सबसे महत्त्वपूर्ण थीं। सबसे अधिक धन्या शक्ति का साक्षात
अवतार!
(प्रेमकुमार मणि।
हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार, चिंतक व राजनीति कर्मी। जदयू के संस्थापक
सदस्यों में रहे। इन दिनों बिहार परिवर्तन मोर्चा के बैनर तले
मार्क्सवादियों, आंबेडकरवादियों और समाजवादियों को एक राजनीति मंच पर लाने
में जुटे हैं। उनसे manipk25@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
भारत उत्सवों का देश है। यहां के हर प्रांत के अपने पर्व और त्योहार है।
दुर्गा पूजा एक ऐसा पर्व है, जो संपूर्ण बंगालवासियों के मन-मस्तिष्क में
ऊर्जा और ताजगी भर देता है।
कोलकाता। भारत
उत्सवों का देश है। यहां के हर प्रांत के अपने पर्व और त्योहार है। दुर्गा
पूजा एक ऐसा पर्व है, जो संपूर्ण बंगालवासियों के मन-मस्तिष्क में ऊर्जा
और ताजगी भर देता है। अठारहवीं सदी में हमारा देश गुलामी की जंजीरों में
जकड़ा हुआ था, तब भी जबलपुर में दुर्गा पूजा का आयोजन होता था।
महालया
के दिन से ही चंडीपाठ का मंत्र घर-घर में सुनाई देता है। घर में टीवी होने
पर भी रेडियो पर चंडी पाठ सुनने की प्रथा को आज भी कोलकाता में तोड़ा नहीं
गया है। चंडी पाठ में महिषासुर मर्दिनी की कथा एक मधुर और लयबद्ध सुर में
संस्कृत और बंगाल में मंत्रोच्चार के साथ सुनाते हैं बीरेंद्र कृष्ण भद्र।
आज वो तो जीवित नही हैं, मगर उनकी आवाज अमर है।
नवरात्र चाहे
जितने भी पवित्र तरीके से क्यों न मनाए जाते हों, लेकिन इस अवसर पर देवी की
मूर्तियां बनाने में जिस खास तरह की मिट्टी का इस्तेमाल होता है, वह
मिट्टी सोनागाछी से आती है। सोनागाछी कोलकाता का रेडलाइट इलाका है।
दुर्गा
मां ने अपनी भक्त वेश्या को वरदान दिया था कि तुम्हारे हाथ से दी हुई गंगा
की चिकनी मिट्टी से ही प्रतिमा बनेगी। उन्होंने उस भक्त को सामाजिक
तिरस्कार से बचाने के लिए ऐसा किया। तभी से सोनागाछी की मिट्टी से देवी की
प्रतिमा बनाने की परम्परा शुरू हो गई।
महालया के दिन ही
दुर्गा मां की अधूरी गढ़ी प्रतिमा पर आंखें बनाई जाती हैं, जिसे चक्षु-दान
कहते हैं। इस दिन लोग अपने मृत संबंधियों को तर्पण अर्पित करते हैं और उसके
बाद ही शुरू हो जाता है देवी पक्ष। दुर्गा अपने पति शिव को कैलाश में ही
छोड़ गणेेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ दस दिनों के लिए अपने
पीहर आती है।
यहां लोग ग्रह-नक्षत्र देखकर यह पता लगाते हैं
कि दुर्गा मां किस पर सवार होकर आ रही हैं। अगर हाथी पर सवार होकर आती हैं
तो खेती, मनुष्य के जीवन में, पृथ्वी पर चारों ओर खुशहाली होती है, घोड़े
पर बैठकर आती है तो पृथ्वी पर सूखा पड़ता है और बारिश नहीं आती।
मां
अगर झूले पर बैठकर आती हैं तो चारों ओर बीमारियां फैलती हैं और यदि देवी
नौका पर बैठकर आती हैं तो माना जाता है कि बारिश अच्छी होगी, फसल अच्छी
होगी, नए साल का आगमन भी अच्छा होगा, पृथ्वी पर चारों ओर खुशहाली छा जाएगी।
इस बार के नवरात्र के बारे में बंगाल के लोगों का मानना है कि देवी घोड़े
पर बैठकर आ रही हैं।
छठे
दिन (षष्ठी) दुर्गा की प्रतिमा को पांडाल तक लाया जाता है। बंगाल का
कुमारटुली प्रसिद्ध है दुर्गा की सुंदर प्रतिमाएं गढ़ने के लिए, जहां
मिट्टी से ये मूर्तियां बनाई जाती हैं। कोलकाता में होने वाली दुर्गा
पूजाओं में लगभग 95 फीसदी प्रतिमाएं कुमारटुली से बनकर आती है।
इन
प्रतिमाओं को बनाने के लिए पहले लकड़ी के ढांचे पर जूट आदि बांध कर ढांचा
तैयार करते हैं और उसके बाद मिट्टी के साथ धान के छिलके मिलाकर मूर्ति
तैयार की जाती है। फिर प्रतिमा की साज-सज्जा की जाती है, जिसमें नाना
प्रकार के गहने और वस्त्र उपयोग में लाए जाते हैं।
केवल
दुर्गा की प्रतिमा को ही नहीं, बल्कि पांडालों को भी बहुत सुंदर तरह से
बनाया जाता हैं। कोलकाता में बांस और कपड़े से अमृतसर का स्वर्ण मंदिर,
पेरिस के एफिल टावर जैसा दुर्गा पांडाल बनाया जाता है। पंडालों की रोशनी से
सारा शहर दुल्हन जैसा लगता है।
षष्ठी की शाम को बोधन के साथ
दुर्गा के मुख से आवरण हटाया जाता है। फिर महाषष्ठी के दिन सुबह-सुबह
औरतें लाल बॉर्डर की साड़ी पहने पूजा करती हैं। महाअष्टमी के दिन का अपना
महत्व है। अष्टमी के दिन संधिपूजा होती है।
इसका
अपना एक निश्चित मुहूर्त होता है और उस मुहूर्त में बलि चढ़ाई जाती है।
पुराने जमाने में लोग बकरे की बलि चढ़ाते थे, मगर ये प्रथा अब न के बराबर
रह गई है। ज्यादातर जगहों पर किसी फल या कद्दू आदि की बलि चढ़ाई जाती है।
मंत्रोच्चार के साथ 108 जलते दीयों के बीच उस संधिक्षण की बलि के लिए लोग
निर्जल उपवास रखते हैं और उन कुछ क्षणों के लिए सारा जग जैसे शांत हो जाता
है। कहते हैं उस संधिक्षण में मां के प्राण आते हैं।
बंगाल
में धूनुचि नाच होता है। धूनुचि मिट्टी की बड़े सुराही नुमा प्रदीप होते
हैं, जिसमें नारियल के छिलकों को जलाया जाता है और धूनो नामक सुगंधित
पदार्थ डाल कर उन प्रदीपों को हाथ में लेकर सभी लोग अपनी प्रतिभा का
प्रदर्शन करते हैं। एक साथ 4-5 धूनुचि लेकर और उसमें से गिरती आग के बीच
नाचते हैं।
दशमी
को सुबह विवाहिताएं मां दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पांडाल आती हैं
और वहां होली की तरह सुहागिनें सिंदूर से खेलती हैं। इसे सिंदूर खेला कहा
जाता है। मंत्रोच्चार के साथ ही मां दुर्गा की प्रतिमा को विसर्जित कर दिया
जाता है।
प्रतिमाओं के विसर्जन के समय शाम को माहौल कुछ ऐसा
बन जाता है, जैसे कि लाडली बेटी दुर्गा मायके से ससुराल जा रही हो। दशहरे
के दिन छोटे अपने से बड़ों के पैर छू कर आशीर्वाद लेते हैं और मुंह मीठा
करते हैं। लोग एक-दूसरे से मिलने सबके घर जाते हैं और इस तरह संपूर्ण होता
है दुर्गा पूजा उत्सव। डॉ. विशाखा बिस्सा
कोलकत्ता के रेड लाइट एरिया सोनागाछी से आती है मां दुर्गा की प्रतिमा के लिए मिट्टी
दुर्गा
पूजा शुरू होने जा रही है, हर तरफ़ मां दुर्गा के नौ रूपों की महिमा का
गुणगान आपको सुनने को मिलेगा. भारत में दुर्गा मां की प्रतिमाओं का निर्माण
उत्तरी कोलकत्ता के कुमरटली इलाके में होता है. ये जगह मूर्ति बनाने वाले
कारीगरों के लिए पूरे भारत में मशहूर है. मां लक्ष्मी, मां सरस्वति और अन्य
पूजाओं में प्रयोग होने वाली मूर्तियों का निर्माण यहीं होता है.
यहां मूर्तियां बनाने के लिए मिट्टी गंगा के किनारों से आती है, गोबर,
गौमूत्र और थोड़ी सी मिट्टी निषिद्धो पाली से ली जाती है. और क्या आप जानते
हैं कि निषिद्धो पाली क्या है? सोनागाछी... जी हां... सोनागाछी, वही
सोनागाछी, जो एशिया के सबसे बड़े रेड लाइट इलाकों में से एक है. यहां लगभग
11000 वेश्याएं रहती हैं.
वैसे इसकी मान्यता से संबंधित इतिहास में बहुत सारी विविधताएं हैं,
जिसकी वजह से प्रमाण प्रमाणित नहीं बल्कि कुछ एक कथन बन कर रह गये हैं.
कुछेक पंडितों का कहना है कि "मां ने अपने इन भक्तों को सामाजिक
तिरस्कार से बचाने के लिए आंगन की मिट्टी से अपनी मूर्ति स्थापित करवाने की
परंपरा शुरू करवाई"
इसके अलावा एक मान्यता ये भी है कि जब एक महिला सोनागाछी के द्वार
पर खड़ी होती है तो सारी पवित्रता को वहीं छोड़कर इस दुनिया में प्रवेश
करती है, इसी कारण यहां की मिट्टी पवित्र मानी जाती है.
मान्यताएं बहुत हैं लेकिन वास्तविक प्रमाण बस इतने ही हैं कि वेश्याओं
के आंगन से जो मिट्टी लाई जाती है उससे ही मां दुर्गा की पवित्रता का
सरोबार होता है. अब इससे पता चलता है कि मां दुर्गा के दरबार में सब एक
समान ही हैं
ये तो आप जानते ही होंगे कि भारत में prostitution गैर-कानूनी है, लेकिन
इसके बावजूद भी कई ऐसे शहर हैं जहां ये व्यापार पनप रहा है. यहां हैं वो
अंधेरी गलियां जहां शायद इंसानियत भी अंदर आने से मना करती है. आगे पढ़िए.
1. सोनागाछी, कोलकाता
दुःख की बात है कि सोनागाछी को एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया घोषित
किया गया है. यहां करीब 11,000 यौनकर्मी काम करते हैं. ज़्यादा जानने के लिए
ऑस्कर विजेता डाक्यूमेंट्री 'Born Into Brothels' देखिये तो आपको इन
यौनकर्मियों के हालातों का अंदाजा हो जाएगा.
ये भारत का दूसरा सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया है. यहां कई यौनकर्मी रहते
हैं जिनकी हालत बद से बदतर है. यहां छोटी सी बीड़ी बनाने की इंडस्ट्री भी है
जिन्हें महिलायें चलाती हैं. 80 के दशक में हाजी मस्तान और दावूद इब्राहिम
जैसे गैंगस्टर यहां आया करते थे.
पुणे के बुधवारपेट को भारत का तीसरा सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया माना जाता
है. यहां करीब 5000 यौनकर्मी काम करते हैं. इस इलाके में किताबों और
इलेक्ट्रॉनिक सामान का भी कारोबार होता है.
ये भी काफी बड़ा रेड लाइट एरिया माना जाता है. यहां सड़क के किनारे कई
वैश्यालय हैं. नीचे कार और बाइक के पार्ट्स की दुकानें है और ऊपर कोठे.
अजीब सी बात है न!
आखिर क्यों भारत को बोलते थे सोने की चिड़िया ! बातें जो साबित करती हैं कि भारत हजारों सालों पहले विश्वगुरु था !
जब हम भारत के इतिहास की बात करते हैं तो बात कुछ अंग्रेजों के समय पर आकर रुक जाती है.
कुछ लोग थोड़ा ज्यादा जानने की कोशिश करते हैं तो उनको भारत के मुस्लिम शासन तक की ही जानकारी मिल पाती है.
भारत में मुस्लिम शासन और अंग्रेजी शासन ही भारत का इतिहास नहीं है.
असल में भारत के सच्चे इतिहास को हमारी पुस्तकों से हटा दिया गया है.
किताबों में जो लिखा गया है वह सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम लुटेरों और अंग्रेजी
लुटेरों तक सीमित है.
तो आज हम आपको भारत का इतिहास बताने वाले हैं, जो आपने पढ़ा नहीं होगा लेकिन इसको पढ़ना आपके लिए बेहद जरूरी है- भारत का इतिहास – भारत व्यापार में सबका बाप था
1840 तक का भारत जो था उसका विश्व व्यापार में हिस्सा 33% था. अंग्रेजों
से पहले जब मुस्लिम आये थे तो भी भारत मसालों का विश्व में सबसे बड़ा
निर्यातक था. दुनिया के कुल उत्पादन का 43% भारत में पैदा होता था और
दुनिया के कुल कमाई में भारत का हिस्सा 27% था. यह बात अंग्रेजों को काफी
बुरी लगी थी और भारत को बर्बाद करने के लिए कई तरह के टैक्स भारत पर लगाये
गये थे.
तो अंग्रेजों ने सबसे पहला कानून बनाया Central Excise Duty Act और
टैक्स तय किया गया 350 प्रतिशत मतलब 100 रूपये का उत्पादन होगा तो 350
रुपया Excise Duty देना होगा. फिर अंग्रेजों ने समान के बेचने पर Sales Tax
लगाया और वो तय किया गया 120 प्रतिशत मतलब 100 रुपया का माल बेचो, तो 120
रुपया CST दो. फिर एक और टैक्स आया Income Tax और वो था 97 प्रतिशत मतलब
100 रुपया कमाया तो 97 रुपया अंग्रेजों को दो.
इस तरह से अंग्रेजों से आगमन से पहले भारत को सोने की चिडियां बोलते थे.
यह भारत का वह इतिहास है, जो लोगों को इसलिए पता नहीं है क्योकि वह
किताबों में है ही नहीं. भारत का इतिहास – भारत पर मुस्लिम आक्रमण
बाप्पा रावल के आक्रमणों से मुसलमान इतने भयक्रांत हुए की अगले 300 सालो
तक वे भारत से दूर रहे. लेकिन भारत माता का सच्चा इतिहास हमको पढ़ाया ही
नहीं जाता है. मुस्लिम लुटेरों को कई हिन्दू योद्धाओं ने कई सालों तक
लगातार हराया था. महमूद गजनवी ने 1002 से 1017 तक भारत पर कई आक्रमण किये
पर हर बार उसे भारत के हिन्दू राजाओ से कड़ा उत्तर मिला था. महमूद गजनवी ने
सोमनाथ पर भी कई आक्रमण किये और इसको 17 वे युद्ध में सफलता मिली थी.
भारतीय राजाओ के निरंतर आक्रमण से वह वापिस गजनी लौट गया और अगले 100
सालो तक कोई भी मुस्लिम आक्रमणकारी भारत पर आक्रमण नहीं कर पाया था. भारत का इतिहास – भारत माता इसलिए थीं सोने की चिड़िया
भारत माता को सोने की चिड़िया इसलिए बोलते थे क्योकि भारत का हर घर तब
खुद का व्यापार करता था. हमारे यहाँ पर नौकरियां नहीं होती थीं और सभी
मालिक होते थे. जो भी लोग भारत में व्यापार करने आते थे, वह यहाँ सोना लेकर
आते थे. तो तब भारत में सोने का अपार भंडार हो गया था. सबसे हैरान करने
वाली तब यह थी कि यह सोना सरकार के पास नहीं बल्कि जनता के पास हुआ करता
था. भारत का इतिहास – हैरान करने वाली बातें
भारत की सभ्यता कुछ 8000 साल पुरानी है. इतनी पुरानी सभ्यता आजतक अपना
वजूद बचाए हुए है. इसमें जरूर कुछ बात है. सनातनी सभ्यता ने विश्व का
मार्गदर्शन किया है. हमारे शास्त्रों से ही विश्व ने चलना सीखा है. भारत
माता के वेद हजारों साल पुराने हैं और पूरे विश्व ने इन्हीं वेदों का
अनुसरण किया है. विज्ञान हो या फिर ब्रह्माण्ड, तकनीक हो या फिर धर्म, सभी
बातें आपको भारत माता के इतिहास में सबसे पहले मिल जायेंगी.
विज्ञान की बात करें तो जहाज जैसी चीजें रामायण और महाभारत में मिलती
हैं. परमाणु अस्त्र-शस्त्र भी आपको वेदों में मिलते हैं. लेकिन निराशाजनक
बात यह है कि किताबों में भारत माता को गरीब और अनपढ़ बताया गया है. भारत
माता का झूठा इतिहास किताबों में लिखा गया है. भारत का इतिहास – वामपंथियों का झूठा इतिहास
भारत को वामपंथियों ने सांप और नट-जादूगरों का देश बताया है. लेकिन असल
में भारत माता का सच्चा इतिहास चाणक्य, मनु और कौटिल्य पर आधारित है. यहाँ
सपेरों का इतिहास नहीं बल्कि मंगल, सूरज और चाँद तारों की हैरान करने वाली
रहस्यमयी बातें बताई गयी हैं. भारत माता ने जीरो का आविष्कार किया है.
सौर-ऊर्जा की बातें हजारों सालों पहले भारत में बताई गयी हैं.
लेकिन वामपंथी लोगों ने यह कभी नहीं बताया है कि वामपंथी सुभाष चन्द्र
बोस को तोजो का कुत्ता बुलाते थे और चीन की भारत जीत पर दिवाली मानते थे.
असल में अब आवश्यकता है कि भारत माता के सच्चे इतिहास को फिर से एक किया
जाये और हमारी आने वाली पीढ़ियों को पढ़ाया जाये ताकि भारत एक बार फिर से
विश्व का गुरु बन सके.
देश के सबसे बड़े रेड लाइट एरिया सोनागाछी की तस्वीरें आपको दहला देगी !
वेश्या ,रंडी, धंधेवाली हमारे सभ्य संस्कारी समाज पर काला धब्बा … यही कहते है ना हम सब हमेशा .
कभी सोचा है इनको ये सब करने पर मजबूर किसने किया, ऐसी क्या मजबूरियां
हुई कि एक नारी को अपने जिस्म का सौदा करना पड़ता है. ना चाहकर भी चंद
रुपयों के लिए 10-15 भेड़ियों से रोज़ अपने जिस्म को नुचवाना पड़ता है.
नरक से भी बदतर जिन्दगी, ना सुबह का पता चलता है ना शाम का. कहने को तो
इन्हें रात की रानी कहा जाता है पर ना जीते जी कोई इनकी खबर लेता है ना
मरने के बाद इनका कुछ पता चलता है. इनके बच्चे अगर किस्मत वाले हुए तो किसी
समाजसेवी संस्था के जरिये इस दलदल से बाहर निकल कर सामान्य जिंदगी बिताते
है और अगर बदकिस्मती से उसी अँधेरे में रह गए तो लड़के अधिकतर अपराधी या
दलाल बन जाते है और लड़कियां किसी कोठे की रौनक.
रेड लाइट एरिया जिन्हें हम शहर की गंदगी कहते है, क्या कभी सोचा है कि
हर छोटे बड़े शहर में कहीं खुले आम तो कहीं चोरी छुपे ऐसे रेड लाइट एरिया
क्यों होते है.
इसका जवाब अमरप्रेम फिल्म के एक गाने में बखूबी दिया है जिसके बोल है “हमको जो ताने देते है हम खोये है इन रंगरलियों में, हमने उनको भी छुप छुप कर आते देखा है उन गलियों में”
सामने से इन्हें भला बुरा कहने वाले भी कहीं ना कहीं इन वेश्याओं से आकर्षित हो ही जाते है.
क्या आप जानते है कि एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया कहीं और नहीं हमारे देश भारत में ही है. कोलकाता का सोनागाछी इलाका.
इस क्षेत्र के बारे तरह तरह की कहानियां प्रचलित है कुछ सच्ची कुछ झूठी.
आज तस्वीरों के माध्यम से आपको दिखाते है भारत के सबसे बड़े रेड लाइट
एरिया की सच्चाई… शायद नसीब की मारी इन लड़कियों की हालत देखकर अगली बार
इन्हें देखकर मुहं से गाली नहीं शायद सांत्वना के दो बोल निकल जाए.
कोलकाता के सोनागाछी क्षेत्र की एक अँधेरी और बदनाम गली. छोटे छोटे कमरों के सामने बैठ कर अपने ग्राहकों का इंतजार करती वेश्याएं .
चिड़ियाघर में पिंजरे में कैद जानवरों की हालत से भी बदतर हालत होती है
सोनागाछी में इन छोटे छोटे दडबे जैसे पिंजरों में कैद लड़कियों की. जिनकी
नुमाइश होती है सडक पर जिससे आते जाते ग्राहक उनकी अदाओं के जाल में फंस
जाए.
कुछ ऐसा नज़ारा होता है दिन में सोनागाछी के कोठों का. दिन में इन वेश्याओं को देखकर कहीं से भी नहीं लगता कि ये हमसे अलग है.
लगेगा भी कैसे किसी के चेहरे पर थोड़ी लिखा होता है कि वो वेश्या है
सोनागाछी की वेश्या भी होती तो आखिर इंसान ही है. इन्हें भी प्यार दुलार
रिश्ते नाते दोस्ती करने का मैन करता है. जहाँ थोडा स स्नेह मिलता है वहीँ
ये अपना सारा दुःख दर्द भूल जाती है, भले ही दो पल के लिए सही
कहने को तो ये वेश्याएं है पर इनके भी परिवार होते है. दिन रात अपने जिस्म का सौदा करके भी इन्हें कोई सुख सुविधा नहीं मिलती.
कहने को तो वेश्यावृत्ति का व्यापार बहुत बड़ा है पर अधिकतर पैसा
वेश्याओं को नहीं उनके मालिकों, दलालों की जेबों में जाता है. वेश्याओं को
तो बस मिलता है कुछ पैसा और ढेर सारा अपमान और परेशानियाँ
यौन रोग वेश्याओं में सबसे बड़ी समस्या होती है. सोनागाछी में ना साफ़
सफाई है ना ही कोई व्यवस्था. यहाँ आने वाले अधिकतर ग्राहक भी गरीब और शराबी
होते है . उनके साथ सेक्स करते समय सबसे बड़ा डर एड्स या किसी अन्य प्रकार
की बीमारी का होता है. ऐसे में समय समय पर कुछ समाज सेवी संस्थाएं इन
वेश्याओं को कंडोम वितरित करती रहती है और यौन संक्रमण से बचने के तरीके भी
बताती है
सोनागाछी की बहुत सी वेश्याएं पडौसी देश बांग्लादेश से आती है. अत्यधिक
गरीबी की वजह से परिवार पालने के लिए वो भारत इस उम्मीद से आती है कि
उन्हें यहाँ कोइ रोजगार मिल जायेगा. लेकिन दलालों और जिस्मफरोशी के
ठेकेदारों के चंगुल में फंसकर वो जीते जी नरक में धकेल दी जाती है
सडक पर बिकने वाले मुर्गे और बकरों की तरह सोनागाछी में इंसानों का
बाज़ार लगता है. अपने अपने कोठे या कमरे के बाहर खडी होकर ये बदनसीब औरतें
और लड़कियां अपने जिस्म नोचने वालों को रिझाती नज़र आती है.
देखा आपने जिन्हें हम गालियाँ देते रहते है वो बेचारी वेश्याएं किस नरक में रहती है.
वो भी आपकी हमारी तरह इंसान है उन्हें भी जीने का हक है. लेकिन इस धंधे
में वो बस एक जिंदा लाश बनकर रह जाती है. जहाँ दिन रात अंधेरी कोठरियों में
उनका जिस्म कुचला जाता है. आत्मा तो उनकी पहले ही मर चुकी होती है और उस आत्मा की हत्या करने वाले होते है हम और हमारा समाज…
सोनागाछी, जहां पैदा होते ही वेश्या बन जाती है लड़की
Updated Wed, 05 Feb 2014 11:33 AM IST
भले ही देह-व्यापार को लेकर कानून हों लेकिन देश के कई हिस्सों में ये आज भी लाखों लड़कियों का भाग्य है।
वेश्यालय आए कहां से? इस बारे में कई तरह के
विचार हैं, जिनमें से ज्यादातर लोगों का यही कहना है कि पहले के समय में इन
जगहों पर केवल नाच-गाना ही हुआ करता था। जिसे कला की दृष्टि से देखा जाता
था पर समय बीता और कला की जगह इस अभिशाप ने ली।
देश के कई हिस्सों में आज भी कई लड़कियां इस अभिशाप को भुगतने के लिए मजबूर हैं। उन्हीं इलाकों में से एक है कोलकाता का सोनागाछी।
सोनागाछी, मतलब सोने का पेड़।
सोनागाछी, एशिया का सबसे बड़ा रेड-लाइट एरिया
सोनागाछी स्लम भारत ही
नहीं, एशिया का सबसे बड़ा रेड-लाइट एरिया है। यहां कई गैंग हैं जो इस
देह-व्यापार के धंधे को संचालित करते हैं।
इस स्लम में 18 साल से
कम उम्र की करीब 12 हजार लड़कियां सेक्स व्यापार में शामिल हैं। फोटोग्राफर
सौविद दत्ता हाल ही में यहां गए और उन्होंने वहां की कुछ बेहद चुनिंदा
दृश्यों को अपने कैमरे में कैद किया है।
इन तस्वीरों को उन्होंने श्रेणीबद्घ किया है और The Price of a Child नाम दिया है।
फिल्म भी बन चुकी है
यूं तो वेश्यालयों और
वेश्याओं पर कई तरह की फिल्में बन चुकी हैं लेकिन आपको ये जानकर आश्चर्य
होगा कि कोलकाता के इस रेडलाइट एरिया को विषय बनाकर एक फिल्म भी बनी है।
Born Into Brothels नाम की इस फिल्म को ऑस्कर सम्मान भी मिल चुका है।
दिल भर जाएगा आपका
इसे बदनसीबी कहना गलत
होगा, क्योंकि ये उससे कहीं आगे है। जिस उम्र में हमारी मां हमें दुनिया की
रीति-रिवाज, लाज-शरम सिखाती हैं वहीं यहां कि बच्चियां खुद को बेचना सीखती
हैं।
12 से 17 साल की उम्र में ये लड़कियां मर्दों के साथ सोना
सीख जाती हैं। उन्हें खुश करना सीख जाती हैं, जिसके बदले उन्हें दो डॉलर
यानि 124 रुपए मिलते हैं। इन रूपयों के बदले यहां की औरतें तश्तरी का खाना
बनकर मर्दों की टेबल पर बिछ जाती हैं।
नहीं आ सकता कोई बाहरी
इस स्लम में किसी बाहरी व्यक्ति का आना मना है। यहां तक की पत्रकारों और फोटोग्राफरों को भी ये लोग भीतर नहीं आने देते।
दत्ता
के अनुसार, ये सब गरीबी, भ्रष्टाचार और अनैतिकता का परिणाम है। यहां की
ज्यादातर बच्चियां स्कूल छोड़कर आई हैं और अब देह बेचने का पाठ पढ़ रही
हैं। (daily mail)
रेड लाइट एरिया 'सोनागाछी' की यौनकर्मियों ने जुटाई हिम्मत...
सोमवार, 14 मार्च 2016 (16:50 IST)
कोलकाता। एशिया के सबसे बड़े रेड
लाइट एरिया सोनागाछी में रहने वाली यौनकर्मी अब एक आयरिश महिला से प्रेरणा
ले रही हैं जिसने अपने बेटे के लिए एक बेहतर भविष्य की खातिर इस दोजख की आग
से निकलने के लिए हिम्मत जुटाई थी।
राचेल मोरान उस
वक्त 15 साल की थीं जब नॉर्थ डबलिन शहर में उन्हें जबरदस्ती एक कोठे पर
छोड़ दिया गया था लेकिन सात वर्ष बाद अपने चार साल के बेटे को एक बेहतर कल
देने के लिए उन्होंने इस पेशे को छोड़ दिया। राचेल उस दौरान नशे की लत का
शिकार हो गईं थीं लेकिन अब वह एक पत्रकार, लेखक और मानव-तस्करी रोधी
कार्यकर्ता हैं।
हाल के समय में इस शहर का दौरा करने के दौरान उन्होंने मुंशीगंज और सोनागाछी की यौनकर्मियों से बातचीत की। 40
वर्षीया राचेल ने कहा कि इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मैं अमेरिका में
किसी अश्वेत महिला से बात कर रही हूं या कनाडा में वहां की मूल निवासिनी या
यूरोपीय देशों में किसी श्वेत महिला से, उन सभी की समान कहानी है कि वे इस
पेशे में इसलिए आईं क्योंकि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। यह
सार्वभौमिक है, यहां तक कि भारत में भी।
अपने आप वीमेन वर्ल्डवाइड गैर सरकारी संगठन
की संस्थापिका रूचिरा गुप्ता उनके साथ थीं और उन्होंने कहा कि इस पेशे को
छोड़ने के राचेल के साहस से यहां की महिलाओं को काफी प्रेरणा मिली है। वह
इस बारे में और जानने को उत्सुक थीं।
राचेल ने बताया कि इस पेशे को छोड़ने में
अपने बेटे के प्रति ममता ने उन्हें बहुत अधिक प्रेरित किया। रूचिरा ने
बताया कि इस नरक से बच निकलने वाली अधिकतर यौनकर्मी उनकी बात से सहमत हैं।
वे भी अपने बच्चों के लिए समान चिंता और प्यार रखती हैं।
राचेल ने अपनी आत्मकथा ‘पेड फॉर, माय जर्नी
थ्रू प्रोस्टीट्यूशन’ लिखी है। उनका कहना है कि वह जानती हैं कि यदि वह इस
पेशे को नहीं छोड़ती तो वह अपने बेटे को खो देतीं क्योंकि वह स्कूल जाने
वाले एक बच्चे के साथ अपनी दिनचर्या का सामंजस्य नहीं बिठा पातीं।
उन्होंने कहा कि मैं बहुत अधिक मात्रा में
कोकीन लिया करती थी। मेरे लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न था और कोई सहायता भी
नहीं थी मेरे पास, लेकिन मैंने इस पेशे से बाहर आने का निर्णय किया और
पत्रकारिता की पढ़ाई की और फिर नौकरी की। भारतीय कोठों में भी कई यौनकर्मी
नशे और शराब की लत का शिकार हैं। रूचिरा ने कहा कि यह इस पेशे के दर्द और
भावनात्मक पीड़ा से बचने का सबसे आसान तरीका है। (भाषा)
मूर्ख और भयावह थीं इंदिरा गांधीः जैकलिन कैनेडी पत्नी जॉन एफ कैनेडी
Published: Thursday, Sep 15,2011, 22:53 IST
वॉशिंगटन ।। एक नई पुस्तक में दावा किया गया है कि अमेरिका के
तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी और उनकी पत्नी जैकलिन को पंडित
जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा गांधी से मिलकर खास खुशी नहीं हुई
थी। इंदिरा तो जैकलिन को बिल्कुल नापसंद थीं। उन्होंने इंदिरा को
मूर्ख और भयावह तक कहा है।
नेहरू नवंबर, 1961 में जब अमेरिका गए थे तब कैनेडी ने उसे किसी
'राष्ट्राध्यक्ष की सबसे बुरी यात्रा' कहा था। बाद में बतौर
प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के अंतिम दिनों के संदर्भ में उन्होंने
टिप्पणी की थी यह ऐसा ही है 'जैसे कोई नगर उपदेशक वेश्यालय में पकड़ा
गया हो।'
कैनेडी को नेहरू की संगति नहीं सुहाती थी और उनकी पत्नी
प्रधानमंत्री की बेटी इंदिरा गांधी से नफरत करती थीं। हालांकि इस
प्रथम दंपती को भारत में तत्कालीन राजदूत जॉन कीनेथ गालब्रीयथ द्वारा
भेजे गए राजनयिक संदेशों में विशेष दिलचस्पी थी, क्योंकि वे उसे
साहित्य का बढि़या नमूना मानते थे।
हाल की नई पुस्तक 'जैकलिन कैनेडीः हिस्टॉरिक कनवरसेशन ऑन लाइफ विद
जॉन एफ कैनेडी' में अमेरिकी राष्ट्रपति के हवाले से कहा गया है कि वह
सत्ता में नेहरू के अंतिम दिनों के बारे में कहा करते थे कि यह ऐसा ही
है 'जैसे कोई नगर उपदेशक वेश्यालय में पकड़ा गया हो।' सन 1964 में
जैकलिन कैनेडी से लिए गए साक्षात्कार पर आधारित यह पुस्तक आमेजन,
बारनेस और नोबेल्स में बेस्ट सेलर है।
1961 में नेहरू की अमेरिका यात्रा पर इस पुस्तक में दावा किया गया
है कि तब यह फैसला किया गया कि भोजन कक्ष में पुरुष भोजन करेंगे और
जैकी, इंदिरा और अन्य महिलाएं बैठक वाले कक्ष में खाना खाएंगी। इस
यात्रा के दौरान नेहरू के साथ इंदिरा भी गई थीं।
पुस्तक के अनुसार जैकी ने कहा, 'वाकई, उसे (इंदिरा को) यह पसंद
नहीं आया। वह पुरुषों के साथ रहना चाहती थी। और वह वास्तव में
अवांछित, भयानक और महत्वकांक्षी महिला थी। वह हमेशा ऐसे लगती थी मानो
नीबू चूस रही हो।'
कैनेडी की पत्नी आगे कहती हैं, 'सत्ता के आखिरी दिनों में नेहरू की
छवि काफी बदल गई थी।' जैकी ने कहा कि वह दोपहर के खाने से पहले ड्रिंक
के लिए गए और नेहरू ने एक भी शब्द नहीं बोला। उनके मुताबिक कैनेडी
नेहरू के इस दौरे से निराश थे। वह कहती हैं, 'मेरा मानना है कि कैनेडी
और नेहरू की मुलाकातों का कोई नतीजा नहीं निकला। मुलाकात के वक्त कई
लोग छत की ओर देख रहे थे।
पशु
बलि, मृत इंसान की राख, मंत्र जाप. इन सब के बारे में आपने किताबों में
पढ़ा होगा या फिल्मों में देखा होगा. लेकिन ये सारी तांत्रिक क्रियाएं हैं
और भारत तांत्रिक गतिविधियों का गढ़ है. चाहे बात बनारस के अघोरियों की हो
या पश्चिम बंगाल के काले जादू की. कई लोग इस तंत्र-मंत्र को अंधविश्वास
समझते हैं. लेकिन ये बात कम ही लोग जानते होंगे कि तंत्र विद्या भारतीय
रीति-रिवाज़ का एक महत्वपूर्ण अंग है और वेदों में इस विद्या का विस्तार से
वर्णन भी है. इसीलिए भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जो आज भी अपनी तंत्र-मंत्र
गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध हैं. तो जानते हैं कि ये मंदिर कौन से हैं और
कहां हैं.
1. वैताल मंदिर, भुवनेश्वर, ओड़िसा
आंठ्वी सदी में बना ये मंदिर, भुवनेश्वर में है जहां तांत्रिक शक्तियां
अपने चरम पर रहती हैं. यहां बलशाली चामुण्डा, जो काली का रूप हैं, उनकी
मूर्ती है. इस मूर्ती के गले में नरमुंडों की माला है. तांत्रिकों का मानना
है कि इस मंदिर की मद्धम रौशनी के कारण, सदियों से संग्रहित शक्तियों को
समाहित करने के लिए इससे अच्छा स्थान नहीं है.
कोलकाता का कालीघाट तांत्रिकों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण तीर्थ है और
इसीलिए उनका यहां साल भर आना-जाना लगा रहता है. माना जाता है कि शिव भगवान
की पत्नी, सती के अंग जब कट कर गिर रहे थे, तब उनकी उंगली इस स्थान पर गिरी
थी और ऐसे अस्तित्व में आया कालीघाट मंदिर. यहां के रीति-रिवाज़ के अनुसार,
काली मां को प्रसन्न रखने के लिए बकरे की बलि दी जाती है. यहां सैकड़ों
तांत्रिक पूरे भारत से आ कर काली मां की पूजा करते हैं.
कई तांत्रिक ज्वालामुखी से बैजनाथ मंदिर जाते हैं जो प्रबल धौलाधार की
तलहटी पर है. इस मंदिर के अंदर शिव भगवान या वैद्यनाथ का प्रसिद्ध 'लिंग'
है. श्रद्धालु पूरे भारत से हर साल यहां वैद्यनाथ की पूजा करने आते हैं.
कहा जाता है कि यहां के पुजारियों का वंश तबसे चला आ रहा है जबसे ये मंदिर
बना है. बैजनाथ मंदिर का पानी अपनी पाचन शक्तियों के लिए प्रसिद्ध है और
काफ़ी समय तक कांगड़ा घाटी के शासक सिर्फ़ इस मंदिर का ही पानी पीते थे.
असम का कामाख्या मंदिर प्रबल तांत्रिक समुदाय और तांत्रिक गतिविधियों का
गढ़ माना जाता है. ये मंदिर असम के नीलांचल पर्वत पर है. पौराणिक कथाओं के
अनुसार जब शिव भगवान सती का शव लेकर जा रहे थे, तब उनकी 'योनी' इस स्थान पर
गिरी थी. और इसी स्थान पर कामाख्या मंदिर का निर्माण हुआ. इस मंदिर के
अंदर एक प्राकृतिक गुफ़ा है जहां पानी का झरना भी है. थोड़ा और अंदर जाने पर
एक रहस्यमयी कक्ष आएगा और यहां राखी हुई है रेशम की साड़ी और फूलों से
सुसज्जित, 'मात्र योनी'. ये मंदिर, भारत के सबसे प्रभावशाली शक्तिपीठों में
से एक है.
भगवान शिव को समर्पित, एकलिंग जी मंदिर, उदयपुर के पास है. यहां शिव की
एक अनोखी और बेहद खूबसूरत चौमुखी मूर्ती है जो काले संगमरमर से बनी है.
कहते हैं इस मंदिर का निर्माण 764 AD में हुआ था. यहां पूरे साल तांत्रिकों
का जमावड़ा लगा रहता है और शिवरात्रि का त्यौहार ज़ोरों-शोरों से मनाया जाता
है.
बालाजी मंदिर जिसे मेहंदीपुर बालाजी मंदिर भी कहा जाता है, भरतपुर के
पास दौसा जिले में है. तांत्रिक रीति-रिवाज़ों की नज़र से इस मंदिर को काफ़ी
पवित्र माना जाता है. यहां की जीवनशैली में ही है जादू-टोना और झाड़-फूंक
जैसी तांत्रिक गतिविधियां. कहते हैं कि जिन लोगों पर बुरे प्रेत या आत्माओं
का साया पड़ जाता है वो यहां झाड़-फूंक के लिए आते हैं. इस तांत्रिक क्रिया
को देखने के लिए आपको लोहे का जिगर चाहिए, क्योंकि इस प्रथा के समय लोगों
के चीखने और चिल्लाने की आवाज़ें मीलों तक सुनाई दे सकती हैं. कई बार
पीड़ितों को यहां अपने ऊपर से शैतानी साया उतरवाने के लिए कई दिनों तक रहना
भी पड़ता है. बालाजी मंदिर से जाते वक़्त आप अपने अंदर एक अजीब-से भय का आभास
करेंगे.
भारत के मध्य में स्थापित, खजुराहो के मंदिर प्रसिद्ध हैं अपनी कलात्मक
रचना और कामुक मूर्तियों के लिए. लेकिन कुछ ही लोग जानते हैं कि खजुराहो
तांत्रिक गतिविधियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्थान है. यहां की मूर्तियों
में इंसानी वासना और कामुकता को दिखलाया गया है, लेकिन इन कलाकृतियों का
अर्थ कुछ और ही है, जो इंसान को अध्यात्म की राह पर ले जाता है. मनुष्य जब
इस सांसारिक मोह-माया को त्याग देता है, तब उसे मोक्ष प्राप्त होता है.
खजुराहो के मंदिरों में हर साल कई लोग इन कलाकृतियों और मूर्तियों को देखने
आते हैं.
मध्य प्रदेश के उज्जैन में काल भैरों का मंदिर है जहां भैरों की
श्याममुखी मूर्ती है. तांत्रिक क्रियाओं के लिए ये मंदिर काफ़ी प्रसिद्ध है.
इंदौर से एक घंटे की ड्राइव के बाद आप इस प्राचीन मंदिर तक पहुंचते हैं.
तांत्रिक, सपेरे, अघोरी वगैराह, अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत में यहां
सिद्धि की खोज में आते हैं. वैसे तो यहां कई प्रकार के अनुष्ठान होते हैं,
लेकिन भैरों की पूजा के लिए देसी ठर्रे का भोग लगाना अनिवार्य है.
ये मंदिर तांत्रिकों के लिए काफ़ी महत्त्व रखता है. यहां देश भर से
श्रद्धालु और अविश्वासी आते हैं. इस मंदिर की रक्षा के लिए गोरखनाथ के
अनुयायी हर समय पहरा देते हैं. कहते हैं कि गोरखनाथ में चमत्कारी ताकत है
जिसकी वजह से भी तांत्रिक यहां आते हैं. ज्वालामुखी मंदिर के अंदर जाने पर
आप देखेंगे कि यहां साफ़ पानी के दो कुण्ड हैं. इस कुण्ड के आस-पास
नारंगी-पीले रंग की ज्वाला सदैव जलती रहती है और ऐसा लगता है कि पानी उबल
रहा है, लेकिन हैरत तब होगी जब आप इस पानी को छूकर देखेंगे क्योंकि ये
उबलता हुआ पानी एकदम ठंडा होगा.
महाकालेश्वर का मंदिर उज्जैन शहर का एक और प्रसिद्ध तांत्रिक केंद्र है.
कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर आप शिवलिंग तक पहुंच जाओगे. दिन भर यहां कई अनुष्ठान
और रस्में निभायी जाती हैं लेकिन तांत्रिकों के लिए जो सबसे ज़रूरी रस्म है
वो दिन के पहले पहर में होती है. इस क्रिया को बोलते हैं 'भस्म आरती' जो
दुनिया में और कहीं नहीं होती. कहते हैं कि एक दिन पहले जिस शव का दाह
संस्कार किया जाता है, उसी राख अगले दिन शिवलिंग को नहलाते हैं. अगर एक दिन
पहले किसी का दाह संस्कार नहीं हुआ है तो किसी भी हालत में आस-पास के
शमशान घाट से राख का इंतज़ाम किया जाता है. एक और मान्यता ये है कि जो इस
भस्म आरती को अपने जीवन में देख लेता है उसकी कभी अकाल मृत्यु नहीं होती.
Source: holidaytravel
हैं न ये रीति-रिवाज़ अजीब, लेकिन तांत्रिकों का मानना है कि मोक्ष
प्राप्त करने के लिए इन परम्पराओं का पालन करना बहुत ज़रूरी है. दुनिया में
कई चीज़ें हैं जो विज्ञान के भी परे हैं, कई लोग इनको अंधविश्वास मान कर
बेतुका बता देते हैं, लेकिन कई ऐसे भी लोग हैं जो अपना पूरा जीवन इस
तंत्र-मंत्र विद्या को प्राप्त करने में लगा देते हैं. अब सत्य क्या है, ये
तो ऊपरवाला ही जाने. बाकी आप देख लो, मानो या न मानो.