रविवार, 16 जुलाई 2017

जाति और योनि के दो कटघरे


दुनिया में सबसे अधिक उदास हैं हिन्दुस्तानी लोग। वे उदास हैं क्योंकि वे ही सबसे ज्यादा गरीब और बीमार भी हैं। परन्तु, उतना ही बड़ा और एक कारण यह भी है कि उनकी प्रकृति में एक विचित्र झुकाव आ गया है, खास करके उनके इधर के इतिहासकाल में। वे बात तो निर्लिप्तता के दर्शन की करते हैं, जो तर्क में और विशेषत: अन्तर्दृष्टि में निर्मल है, पर व्यवहार में वे भद्दे से भद्दे ढंग से लिप्त रहते हैं। उन्हें प्राणों का इतना मोह है कि किसी बड़े प्रयत्न करने का जोखिम उठाने के बजाय वे दरिद्रता के निम्नतम स्तर पर जीना ही पसन्द करते हैं, और उनके पैसे और सत्ता के लालच का क्या कहना कि दुनिया के और कोई लोग उस लालच का इतना बड़ा प्रदर्शन नहीं करते।

आत्मा के इस पतन के लिए, मुझे यकीन है, जाति और औरत के दोनों कटघरे मुख्यत: जिम्मेदार हैं। इन कटघरों में इतनी शक्ति है कि साहसिकता और आनन्द की समूची क्षमता को ये खत्म कर देते हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि आधुनिक अर्थतंत्र के द्वारा गरीबी मिटाने के साथ-ही-साथ ये कटघरे अपने-आप खतम हो जायंेगे, बड़ी भारी भूल करते हैं। गरीबी और ये दो कटघरे एक-दूसरे के कीटाणुओं पर पनपते हैं। जब तक, साथ-ही-साथ, इन दो कटघरांे को खतम करने का सचेत और निरन्तर प्रयत्न नहीं किया जाता तब तक गरीबी मिटाने का प्रयत्न छल-कपट है। 

भारतीय गणतन्त्र के राष्ट्रपति ने पुण्य नगरी बनारस में सार्वजनिक रूप से दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोये। सार्वजनिक रूप से किसी के पैर धोना अश्लीलता है, इस अश्लील काम को ब्राह्मण जाति तक सीमित करना दंडनीय अपराध माना जाना चाहिए, इस विशेषाधिकार प्राप्त जाति में अधिकांशत: ऐसों को सम्मिलित करना जिनमें न योग्यता हो न ही चरित्र, विवेकबुद्धि का पूरा परित्याग है, जो कि जाति-प्रथा और पागलपन का अंवश्यंभावी अंग है।

राष्ट्रपति इस अश्लीलता का प्रदर्शन कर सके, यह मुझ जैसे लोगों पर अभियोग है जो कि सिर्फ नपुंसक गुस्से में ही उबल सकते हैं। इस अपराध में उन दो सह-अपराधियों के बारे में मैं ज्यादा नहीं कहूंगा, जो उत्तर प्रदेश में शक्तिशाली स्थानों पर हंै। उनमें से एक तो बच्चों की तरह मचल रहे हैं कि बनारस उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्यता दे और दूसरे शायद हार कर बैठ गए हैं और अब हिन्दूवाद की निम्नतम नीचता को उसके विमर्श और संस्कृति की उच्चतम चोटी समझ रहे हैं।

इधर कुछ बरसों में बनारस ने एक बुराई को जन्म दिया है, और जिसमें, जिसे वे 'कर्मणा ब्राह्मण` कहते हैं, उनके हित में जन्मना ब्राह्मण की भर्त्सना होती है। इस लत में पड़े लोगों की ब्राह्मणों के प्रति एक विचित्र संकीर्णता होती है। उन्हें वे या तो अपमानित करते हैं या फिर पूजते हैं। जो जन्म से ब्राह्मण होते हैं, उनके साथ ऐसे बनिये और कायस्थ बराबरी का स्वभाविक मानवी सम्बन्ध बना ही नहीं पाते।

मैं यह बता दूं कि इस घिनौने काम का पूरा किस्सा मुझे एक ब्राह्मण ने ही बतलाया। उसे उन दो सौ में सम्मिलित किया गया था। वही अकेला था जो अपने देश के राष्ट्रपति द्वारा पैर धुलवाने के नीच कर्म का अपराधी बनने के पहले ऐन मौके पर ग्लानि से भरकर अलग हो गया। उसकी जगह फौरन ही दूसरे आदमी को दे दी गयी।

संस्कृत के इस गरीब अध्यापक को मैं हमेशा श्रद्धा से याद रखूंगा। इस भयंकर राक्षसी नाटक में वही तो एकमात्र मनुष्य था। ऐसे ही नर और नारियां, जो हालांकि जन्म से ब्राह्मण हैं, दक्षिण के विकृत ब्राह्मण-विरोध से समूचे देश को डूबने से बचा रहे हैं।

बनारस और दूसरी जगहों के ऐसे ब्राह्मणों को मैं चेतावनी देना चाहता हूं, जो मानवी आत्मा और भारतीय गणतंत्र के इस पतन से फूले नहीं समाते।

बुरे कर्मों और उनमें मजे लूटने से पलट कर थप्पड़ लगती है।

इस आधार पर कि कोई ब्राह्मण है, किसी के पैर धोने का मतलब होता है जाति प्रथा, गरीबी और दु:ख दर्द को बनाये रखने की गारंटी करना। इससे नेपाल बाबा और गंगाजली की सौगन्ध दिला कर वोट लेना सब एक जंजीर है।
वह आत्मा, जिससे कि ऐसे बुरे कर्म उपजते हैं, कभी भी न तो देश के कल्याण की योजना बना सकती है न ही खुशी से जोखिम उठा सकती है वह हमेशा लाखों-करोड़ों को दबे और पिछड़े बनाये रखेगी। जितना कि वह उन्हें आध्यात्मिक समानता से वंचित रखती है, उतना ही वह उन्हें सामाजिक और आर्थिक समानता से वंचित रखेगी।
वह देश की खेती या कारखाने नहीं सुधार सकती, क्यांेकि वह कूड़े के ढ़ेर और गन्दे तालाबों की मामी-मौसी है, जहां कीड़े और मच्छर पैदा होते हैं, भले ही वह ऊंची जाति के बड़े लोगों के घरों के चारों तरफ 'डी.टी.टी.` का इस्तेमाल करे। खटमल, मच्छर, अकाल और सार्वजनिक रूप से ब्राह्मणों के पैर धोना एक दूसरे के पोषक हैं। वे मन में भी एक प्रकार के व्यभिचार का पोषण करते हैं, विचार-क्षेत्र में एक प्रकार का अन्तर्जनन होता है, क्योंकि अलग-अलग धंधों में लगे और विभिन्न स्तरों पर जन्मे लोगों के बीच खुल कर बातचीत करने की बात खतम हो जाती है।

उस देश में जिसका राष्ट्रपति ब्राह्मणों के पैर धोता है, एक भयंकर उदासी छा जाती है, क्योंकि वहां कोई नवीनता नहीं होती; पुजारिन और मोची, अध्यापक और धोबिन के बीच खुल कर बातचीत नहीं हो पाती है। कोई अपने राष्ट्रपति से मतभेद रख सकता है या उसके तरीकों को विचित्र समझ सकता है, पर वह उनका सम्मान करना चाहेगा, पर इस तरह के सम्मान का अधिकारी बनने के लिए राष्ट्रपति को सभ्य आचरण के मूलभूत नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।

नर और नारी के बीच सामाजिक सम्बन्धों के बारे में राष्ट्रपति के विचारों पर एक अप्रकाशित आलोचना लिखने का इससे पहले भी मुझे अवसर मिला था, किन्तु तब वे पूरी तौर पर मेरे आदर से वंचित नहीं हुए थे। भाई-भाई को मारनेवाले इस अकाट्य काम से वे अब मेरे आदर से वंचित हो गये हैं, क्योंकि जिसके हाथ सार्वजनिक रूप से ब्राह्मणों के पैर धो सकते हैं, उसके पैर शूद्र और हरिजन को ठोकर भी तो मार सकते हैं।

श्री राजेन्द्र प्रसाद भले ही आज इसकी चिंता न करें कि मेरे जैसे लोगों का उन्हें आदर प्राप्त है या नहीं, क्योंकि अगर समाजवाद और जनतन्त्र तक आज हिन्दुस्तान में इतना नपंुसक न होता जितना कि है, तो बनारस के युवजन अपने समूचे अस्तित्व में इस चोट से तड़प उठते और इतने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन करते कि ऐसी अश्लीलता करना असंभव हो जाता।

अब भी ऐसे तरीक हो सकते हैं कि जिनसे राष्ट्रपति और उत्तर प्रदेश के उनके सहअपराधियों को बताया जा सके कि उनका अपराध कितना बड़ा था। फ़िलवक्त तो मैं इतना ही दुहरा दूं कि वे मेरे और मुझ जैसे लाखों-करोड़ों के आदर से वंचित हो गये हैं।

अपने देश के राष्ट्रपति को सार्वजनिक रूप से इस तरह अपने-आपको गिरने की इजाजत देने के लिए मैं प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को दोषी नहीं ठहराऊंगा। उन पर तो मेरा आरोप और भी बड़ा है। वह आदमी, जो जातिप्रथा की समस्या पर अपनी छाप चालाकी से छिपा सकता है, वह और अधिक घातक है। यह बात तो लिखी हुई मौजूद है कि पंडित नेहरू ने 'ब्राह्मणों की सेवा-भावना` की तारीफ की है। डा. राजेन्द्रप्रसाद जो कुछ अपने काम से करना चाहते हैं पंडित नेहरू उसे कुछ न करके हासिल कर लेते हैं।

जातिप्रथा के विरुद्ध इधर-उधर की और हवाई बातों के अलावा प्रधानमंत्री ने जाति तोड़ने और सबके बीच भाईचारा लाने के लिए क्या किया इसकी जानकारी दिलचस्प होगी। एक बहुत ही मामूली कसौटी पर उसे परखा जा सकता है। जिस दिन प्रशासन और फौज में भरती के लिए, और बातों के साथ-साथ, शूद्र और द्विज के बीच विवाह को योग्यता और सहभोज के लिए इन्कार करने पर अयोग्यता मानी जायगी, उस दिन जाति पर सही मानी में हमला शुरू होगा। वह दिन अभी आना है। मैं यह साफ कर दूं कि शूद्र और द्विज के बीच विवाह को बनिये और ब्राह्मण इत्यादि के बीच विवाह नहीं समझ लेना चाहिए क्योंकि ऐसे विवाह काफी आसानी से हो जाते हैं और जातिप्रथा के अंग ही हैं।

नागरकि अधिकरों के ऐसे हनन पर पवित्र विरोध का झूठा हल्ला मचाया जा सकता है, जैसे कि पैदाइशी समूहों से आदमी को चुनने के इस गंदे रिवाज से नागरिक अधिकारों का हनन नहीं होता। सरकारी नौकरी के लिए अन्तर्विवाह को एक योग्यता बनाने का मजाक भी उड़ाया जा सकता है।

अपनी सुरक्षा और एकता के लिए प्रयत्न करने का और उस भयंकर उदासी को, जिसमें नवीनता रह ही नहीं गयी है, दूर करने का अधिकार प्रत्येक राज्य को है।

यहां आदमी से औरत के अलगाव की बात आ गयी। जाति और योनि के ये दो कटघरे परस्पर सम्बन्धित हैं और एक दूसरे को पालते-पोसते हैं। बातचीत और जीवन में से सारी ताजगी खतम हो जाती है और प्राणवान रससंचार खुल कर नहीं होता।

काफी हाउस में बैठ कर बातें करनेवालों में एक दिन मैं भी बैठा था जब किसी ने कहा कि काफी के प्यालों पर होनेवाली ऐसी बातचीत ने ही फ्रांस की क्रांन्ति को जन्म दिया था। मैं गुस्से में उबल पड़ा। हमारे बीच एक भी शूद्र नहीं था। हमारे बीच एक भी औरत न थी। हम सब ढीले-ढाले, चुके हुए और निस्तेज लोग थे, कल के खाये चारे की जुगाली करते हुए ढोर की तरह।

देश की सारी राजनीति में-कांग्रेसी, कम्युनिस्ट अथवा समाजवादी-चाहे जनबूझ कर अथवा परम्परा के द्वारा राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है, और वह यह कि शूद्र और औरत को, जो कि पूरी आबादी के तीन-चौथाई हैं, दबा कर और राजनीति से अलग रखो।

औरतों की समस्या नि:संदेह कठिन है। उसकी रसोई की गुलामी तो वीभत्स है, और चूल्हे का धुआं तो भयंकर है। खाना बनाने के लिए उसका समय बांध देना चाहिए और ऐसी चिमनी भी लगानी चाहिए कि जिसमें से धुआं बाहर निकल जाए। उसे अपर्याप्त भोजन और बेकारी के खिलाफ आंदोलन में जरूर हिस्सा लेना चाहिए। किन्तु उसकी समस्या इससे भी आगे है।भारतीय नारी की स्थिति पर श्रीमती शकुन्तला श्रीवास्तव ने इधर बहुत ही सुन्दर लेखमाला लिखी है और यह जान कर मुझे प्रसन्नता हुई कि वे प्राय: स्त्रियों का सारा दोष पुरुषों के मत्थे मढ़ने की प्रवृत्ति से उबर गयी हैं और अब यह मानने को तैयार हैं कि औरत और मर्द दोनों अलग-अलग मात्रा में दोषी हैं। लेकिन उन्हें और भी आगे जाना होगा।

वह दिन मुझे याद है जब एक महत्त्पूर्ण सम्मेलन में उन्हें मंच पर बुलाया जा रहा था और उन्होंने नीचे से उठने से इनकार कर दिया था, पर उनका इलाज मेरे पास था। मुझे सिर्फ धमकी देनी पड़ी कि मैं उनकी बांह पकड़ कर ले जाऊंगा और वे चुपचाप नीचे से उठ कर मंच पर आ गयीं। पुण्य क्या है और पाप क्या है, अब इस सवाल से बचा नहीं जा सकता। मैं मानता हूं कि आध्यात्मिकता निरपेक्ष है किन्तु नैतिकता सापेक्ष है, और हरेक युग और आदमी तक को अपनी-अपनी नैतिकता खोजनी चाहिए।

एक औरत जिसने अपनी सारी जिंदगी में सिर्फ एक ही बच्चे को जन्म दिया हो, चाहे वो अवैध ही क्यों न हो, और दूसरी ने आधे दर्जन या ज्यादा वैध बच्चे जने हों, तो इन दोनों में कौन ज्यादा शिष्ट और ज्यादा नैतिक है? एक औरत जिसने तीन बार तलाक दिया और चौथी बार वह फिर शादी करती है, और एक मर्द चौथी बार इसलिए शादी करता है कि एक के बाद एक उसकी पत्नियां मर गयी हैं , तो इन दोनों में कौन ज्यादा शिष्ट और ज्यादा नैतिक है? मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि तलाक़ और अवैध बच्चे इत्यादि किसी मानी में असफलता है और एक-पत्नी, एक-पति किन्तु पारस्परिक विश्वास शायद वह आदर्श है जो नर-नारी संबंधों में प्राप्त हो। किन्तु, जैसे कि अन्य मानवी क्षेत्रों में, इसमें भी प्राय: आदर्श से चूक जाते हैं, जब मर्द या औरत सम्पूर्णता का प्रयास करते हैं। तब? मेरे मन में कोई शक नहीं है कि सिऱ्फ एक अवैध बच्चा होना आधे दर्जन वैध-बच्चे होने से कई गुना अच्छा है। उसी तरह इसमें भी कोई शक नहीं कि तीन पत्नियों या पतियों की सभी की मृत्यु आकस्मिक हो, और उपेक्षा और गरीबी ज़रूर ही रही होगी, और इस तरह की उपेक्षा उन झगड़ों से कहीं ज्यादा बुरी है, जिनकी वजह से तीन बार या और ज्यादा तलाक़ हुए हों।

इन निर्णयों का अब छिटपुट महत्त्व नहीं है। इनका व्यापक प्रभाव हो गया है क्योंकि आज विवाह और उसके बाद से सम्बन्धित परिािितस्थ्यां, अगर किसी को पाप कहा जा सकता है, तो वे पापपूर्ण हैं। बिना दहेज के लड़की किसी मसरफ़ की नहीं होती, जैसे बिन बछड़े वाली गाय।

कई मां-बापों ने आंखों भर कर मुझे बताया है कि अगर निश्चित दहेज पूरा न दिया गया तो किस तरह उनकी बेटियों को सताया गया और कभी-कभी मार भी डाला गया। खेती में ऐसी स्थितियां होती हैं कि जिनमें खुद मेहनत करने के बजाय खेत पट्टे पर दे देने से ज्य़ादा लाभ होता है। ठीक इसी तरह एक कम पढ़ी-लिखी लड़की ज्यादा पढ़ी-लिखी से अच्छी मानी जाती है क्योंकि उस पर दहेज कम मिलेगा।

हिन्दुस्तान आज विकृत हो गया है; यौन पवित्रता की लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद, आमतौर पर विवाह और यौन के सम्बन्ध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं।

दहेज लेने और देने पर, नि:संदेह, सजा मिलनी चाहिए, किन्तु दिमाग में और उसके मूल्यों में परिवर्तन होना चाहिए। नाई या ब्राह्मण के द्वारा पहले जो शादियां तय की जाती थीं उसकी बनिस्बत फोटू देख कर या सकुचाती-शरमाती लड़की द्वारा चाय की प्याली लाने के दमघोंटू वातावरण में शादी तय करना हर हालत में बेहूदा है। यह ऐसा ही है जैसे किसी घोड़े को खरीदते समय घोड़ा ग्राहक के सामने तो लाया जाए, पर न उसके खुर छू सकते हैं और न ही उसके दांत गिन सकते हैं।

आधे रास्ते में कुछ आना-जाना नहीं। हिन्दुस्तान को अपना पुराना पौरुष पुन: प्राप्त करना होगा; यानी, दूसरे शब्दों में, यह कहना हुआ कि उसे आधुनिक बनना चाहिए।

लड़की की शादी करना मां-बाप की जिम्मेदारी नहीं; अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा दे देने पर उनकी जिम्मेदारी खतम हो जाती है। अगर कोई लड़की इधर-उधर घूमती है और किसी के साथ भाग जाती है और दुर्घटना-वश उसका अवैध बच्चा होता है, तो यह औरत और मर्द के बीच स्वाभावकि सम्बन्ध हासिल करने के सौदे का एक अंग है, और उसके चरित्र पर किसी तरह का कलंक नहीं। लेकिन समाज क्रूर है। और औरतें तो बेहद क्रूर बन सकती हैं। उन औरतों के बारे में, विशेषत: अगर वे अविवाहित हों और अलग-अलग आदमियों के साथ घूमती-फिरती हैं, तो विवाहित यिआं उनके बारे में जैसा व्यवहार करती हैं और कानाफूसी करती हैं उसे देख कर चिढ़ होती है। इस तरह के क्रूर मन के रहते मर्द का औरत से अलगाव कभी नहीं खतम होगा।
श्री विनोबा भावे को जन्म निरोध पर या कम-से-कम उसका बढ़ा-चढ़ा कर हवाला देने के अपवित्र विचारों से अपने सम्मान्य भूदान आन्दोलन को भ्रष्ट करने का लोभ हुआ है।

मैं मानता हूं कि हर एक जोड़े का, जिसने तीन बच्चे पैदा कर लिये हैं, अनुर्वरीकरण देना चाहिए और कि प्रत्येक मर्द और औरत को-विवाहित अथवा अविवाहित-जो गर्भधारण का जोखिम नहीं उठा सकते, उन्हें अनुर्वरीकरण की, या कम-से-कम गर्भनिरोध की सुविधा मिलनी चाहिए।

ब्रह्मचर्य प्राय: कैदखाना होता है। ऐसे बन्दी लोगों से कौन नहीं मिला, जिनका कौमार्य उन्हें जकड़े रहता है और जो किसी मुक्तिदाता की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं? बन्दी कौमार्य वाले श्री जे.सी. कुमारप्पा ने रूसी लड़कों और लड़कियों के अलग-अलग झुडों में घूमने की-शायद वे उनकी जानकारी के बिना सामूहिक रूप से एक दूसरे को आकर्षित या सामूहिक प्रणय कर रहे होंगे-तारीफ करके अपनी स्थिति का क्या सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया, और अपनी आत्मा के मुक्तदाता की चाह नहीं प्रकट की?

समय आ गया है कि जवान औरतें और मर्द ऐसी बचकानेपन के विरुद्ध विद्रोह करें। उन्हें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि यौन आचरण में केवल दो ही अक्षम्य अपराध है : बलात्कार और झूठ बोलना या वादों को तोड़ना। दूसरों को तकलीफ़ पहुंचाना या मारना एक और तीसरा भी जुर्म है, जिससे जहां तक हो सके बचना चाहिए।

जीवन कितना स्थूल हो गया है? समाज के नेताओं ने विवाह की निमंत्रण पत्रिका छापने में पचास हजार रुपये तक खर्च किये हैं। उनकी शादियों का वैभव आत्मा के मिलन में नहीं है, जिसे प्राप्त करने का नवदम्पति प्रयत्न करते, बल्कि २० लाख की कंठियों और ५० हजार से भी ज्य़ादा कीमती साड़ियों में है।

एक बार चाय की एक दावत में एक ऐसे करोड़पति से मेरी भेंट हो गयी, जिसने मुझसे यह कहने की हिमाकत भी की कि ऐसी साड़ियां कहीं नहीं होती, और मेरी इच्छा हुई कि उसे मिंक कोट की स्कूल में भेज दूं, मिंक नामक छोटे से पशु की खाल से बने ये कोट लाखों रुपयों में बिकते हैं। कई बरस पहले सिर्फ एक बार मैं इस आदमी से मिला था, वह मेरे पास आकर पूरे दो घंटों तक मेरी खुशामद करता रहा क्योंकि किसी शरारती आदमी ने उसे टेलीफोन कर दिया था कि उसके घिनौने कामों के कारण मेरे आदमी उसके कारखाने को उड़ा देंगे। वह इतना अभद्र था कि मुझसे यह कहने से भी नहीं चूका कि वह मेरे दल की कुछ मदद कर सकता है और, मैं इतना अभद्र न था कि उसकी काली करतूतों के बदले में कुछ ले कर चुप बैठ जाता, बाद में उसने कभी भी अपनी उदारता नहीं दिखलायी।

ऐसे ही क्षणों में आदमी कुछ देर के लिए बम और तेजाब की बोतलों के इस्तेमाल के चक्कर में आ जाता है।
धर्म, राजनीति, व्यापार और प्रचार सभी मिल कर उस कीचड़ को संजोकर रखने की साजिश कर रहे हैं जिसे संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है। यथाािितस्थ् की यह साजिश अपने-आप में इतनी अधिक शक्तिशाली है कि उससे बदनामी और मौत होगी। मुझे पूरा यकीन है कि मैंने जो कुछ लिखा है उसका और भी भयंकर बदला चुकाया जाएगा, चाहे यह लाज़मी तौर पर प्रत्यक्ष या तात्कालिक भले ही न हो।

जब जवान मर्द और औरतें अपनी ईमानदारी के लिए बदनामी झेलती हैं तो उन्हें याद रखना चाहिए कि पानी फिर से निर्बन्ध बह सके इसलिए कीचड़ साफ करने की उन्हें यह कीमत चुकानी पड़ती हैं। आज जाति और योनि के इन वीभत्स कटघरों को तोड़ने से बढ़ कर और कोई पुण्यकार्य नहीं है। वे सिर्फ इतना ही याद रखें कि चोट या तकलीफ न पहुंचाएं और अभद्र न हों, क्योंकि मर्द और औरत के बीच का रिश्ता बड़ा नाजुक होता है। हो सकता है, हमेशा इससे न बच पाएं। किन्तु प्रयत्न करना कभी नहीं बंद होना चाहिए। सर्वोपरि, इस भयंकर उदासी को दूर करें, और जोखिम उठा कर खुशी हासिल करें। 

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