सरकार की प्राथमिकता से किसान गायब
किसानों का सवाल पिछले 60 साल में हर गुजरते दिन के साथ महत्वपूर्ण होता चला गया है, लेकिन किसी सरकार ने किसानों की समस्याओं को कभी अपनी प्राथमिकता में नहीं रखा। लोग ये मानते थे कि किसान कभी संगठित नहीं हो सकते हैं, किसान कभी अपनी मांगों को लेकर जोर नहीं दे सकते हैं, दबाव नहीं डाल सकते हैं। इसका कारण हर राजनीतिज्ञ और नौकरशाह को पता था कि किसान कभी संगठित नहीं हो सकते हैं। इसलिए सरकारों की अनदेखी नेदेश के किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। इसके बाद भी सरकारों का रवैया नहीं बदला, राजनीतिक दलों का रवैया नहीं बदला, नौकरशाहों का रवैया नहीं बदला और अब किसान निराशा के दौर में पहुंच गए हैं और बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं करनी शुरू कर दी।
आत्महत्याओं की जड़ में गांव के सूदखोर से कहीं ज्यादा बैंकों का सूद था, बैंकों का दबाव था, खेती का अलाभकारी होना था और खेती का मूल्य न मिलना था। किसान के पास खेती के अलावा आय का कोई दूसरा साधन नहीं होता है। सारे देश में एक सरल तरीका निकला कि समस्या से बचने के लिए आत्महत्या कर लो। ये आत्महत्याएं इतनी बढ़ गईं कि धीरे-धीरे किसानों के भीतर भी अपने साथी की मौत की संवेदना समाप्त होने लगी। ये दौर कई सालों से चला आ रहा है, लेकिन अब जाकर किसानों ने दोबारा अपने हक के लिए लड़ने का फैसला किया है। किसानों ने धीरे-धीरे ये निर्णय लेना शुरू कर दिया कि वो उतनी ही फसल उगाएंगे, जितनी फसल उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी है।
किसान अपनी जमीन को परती छोड़ देने का फैसला लेने लगा और इसकी शुरुआत महाराष्ट्र, खासकर औरंगाबाद और नासिक के किसानों ने की है। उन्होंने फसल का दाम नहीं मिलने के विरोध में सड़क पर टमाटर फेंक दिए, हजारों लीटर दूध फेंक दिया, फसलों का भाव नहीं मिलने के विरोध में सड़कें जाम की। महाराष्ट्र में किसानों के सवालों को लेकर सड़कों पर बड़े-बड़े जुलूस निकले, लेकिन न राज्य सरकार चेती और न ही केन्द्र सरकार। किसानों का ये दर्द मध्यप्रदेश पहुंच गया। एक तरफ किसान आंदोलन चल रहा था और दूसरी तरफ आत्महत्याएं हो रही हैं, अब किसानों के बीच इस बात की चर्चा चल रही है कि आखिर हम सरकार से मांगें, तो क्या मांगें। एक तो किसान संगठित नहीं हैं और नहीं किसानों की कोई राष्ट्रीय स्तर का संगठन ही है। जो कुछ संगठने भी हैं तो उस पर भी ब्राह्मणों का कब्जा है। लेकिन अब किसानों के संगठन की समस्या का हल हो गया है। अब मूलनिवासी बहुजन समाज के किसानों के लिए बामसेफ ने राष्ट्रीय किसान मोर्चा का गठन कर एक शक्ति का निर्माण किया है। अब किसानों के लिए मौका है कि राष्ट्रीय किसान मोर्चा में शामिल होकर अपने हक की लड़ाई को धार दे सकते हैं।
आज सरकार का यह रवैया है कि सरकार एक बार देश के किसानों का कर्ज माफ करे, जितना कर्ज सरकार बड़े पूंजीपतियों का बैंकों के जरिए माफ कर देती है, जिस पैसे को लेकर वो विदेश भाग जाते हैं, चाहे वो एनपीए के रूप में हो या सीधी कर्ज माफी हो या वन टाइम सेटलमेंट हो, लेकिन किसान का दो-तीन लाख रुपए का कर्जा माफ करने में सरकार को पसीने आ जाते हैं। अगर सरकार घोषणा भी कर देती है तो वहां भी कर्ज माफी अमल में नहीं आती है। तीन लाख के लिए एक किसान अपनी जान दे देता है। यहां तक की 45 हजार के लिए किसान खुदकुशी कर रहा है। यदि किसान ये मांग करना चाहते हैं कि देश में एक बार किसानों का संपूर्ण कर्जा माफ हो जाए, लेकिन कर्जा माफ होना उनकी समस्याओं का हल नहीं है। इसी के साथ देश के हर ब्लॉक में उस ब्लॉक में पैदा होने वाली प्रमुख फसल पर आधारित उद्योग धंधा लगे, किसान सरकार से उद्योग लगाने के लिए पैसे नहीं मांग रहे हैं। उनका कहना है कि सरकार ऐसी नीति बनाए कि कोई सरकारी अधिकारी, पुलिस उस ब्लॉक में पैदा होने वाली प्रमुख फसल पर आधारित उद्योग लगाने में अड़ंगा न डाल सके। किसान ये भी मांग करना चाहते हैं कि उस उद्योग को लगाने में प्राथमिकता के आधार पर बैंक से कर्ज मिले और जिसकी ब्याज दर सिर्फ दो प्रतिशत हो। इस ऋृण को लौटाने की अवधि दस साल हो। इसका परिणाम ये होगा कि किसान को फसल सिर्फ 10 किलोमीटर की यात्रा कर अपने ब्लॉक तक ले जाना होगा। वहां उपलब्ध औद्योगिक इकाई को फसल बेचनी होगी और वह खुशी-खुशी अपने घर चला जाएगा, फिर किसान या कृषि आधारित उद्योग लगाने वाले उस व्यक्ति को सामान बेचने बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा, क्योंकि तब छोटे या बड़े व्यापारी उस ब्लॉक में आकर सामान सीधे खरीद लेंगे।
इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार का एक पैसा नहीं जाता है, इसमें बैंक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर जोर दें। किसान अपना उद्योग स्वयं लगा ले, खेती के साथ-साथ उसकी फसल का पैसा उसे मिले और उसके बच्चों को उन उद्योग धंधों में नौकरी मिल जाए। किसान अपनी इन मांगों के समर्थन में सारे देश में सम्मेलन करने वाले हैं और सरकार से ये कहने वाले हैं कि आप अगर ऐसा नहीं करेंगे तो आपको देश में एक मजबूत किसान क्रांति का सामना करना पड़ेगा। किसानों ने अपने वोट से नरेन्द्र मोदी को भारी बहुमत से जिताया है। इस आशा से जिताया है कि उन्हें उनकी फसल का लागत से 50 प्रतिशत अधिक मूल्य मिलेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी घोषणा देश के हर हिस्से में जाकर की थी, शायद इसलिए कि वो किसानों का वोट चाहते थे। किसान अब उन्हें याद दिला रहे हैं कि आप उस वादे पर भी अमल कीजिए। आपने कर्ज माफी का वादा किया था, उस पर भी अमल कीजिए और तत्काल कृषि आधारित उद्योग धंधों को बढ़ाने का एक बड़ा फैसला लीजिए।
सरकार ये क्यों नहीं समझती कि तीन लाख, चार लाख, पांच लाख रुपए की वजह से एक किसान आत्महत्या करता है और दूसरी तरफ वो अरबों करोड़ रुपए विदेशों में बहुत सारे देशों को दान में दे रही है। जहां वो पैसा वहां के विकास में नहीं लगता, बल्कि वहां की भ्रष्ट व्यवस्था उस पैसे को खा जाती है। भारत सरकार जिन अफ्रीकी देशों को पैसा दे रही है, वहां पर भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है। वहां भारत से हजार गुना ज्यादा भ्रष्टाचार है और शायद इस पैसे को देने में भारतीय विदेश सेवा या भारतीय बैंकिंग सेवा के अधिकारियों का भी एक बड़ा हिस्सा होता है। सरकार को चाहिए कि वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी देश को दो साल तक सहायता न दे। विदेशों में अरबों करोड़ रुपए दान के रूप में भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ाए, बल्कि उस पैसे का इस्तेमाल भारत में किसानों के लिए उद्योग धंधे लगाने में करे।
दरअसल किसानों की समस्याओं का हल कर्ज माफी नहीं है, लेकिन कर्ज माफी तात्कालिक रूप से जान बचाने का एक साधन जरूर है। अफसोस की बात है कि सरकार ने इसे लेकर कभी सर्वदलीय बैठक नहीं बुलाई, किसी भी सरकार ने नहीं बुलाइ। सरकार ने नीति-निर्माताओं से कभी नहीं कहा कि वो किसान को केन्द्र में रखकर नीति बनाएं। सरकार ने बड़े उद्योगपतियों से कभी नहीं कहा कि वो अपने लाभ में से एक हिस्सा किसानों के कोष के लिए भी बनाएं. सरकार ने कभी किसान आयोग की बात नहीं की, जिसका संवैधानिक दर्जा हो और जो सरकार को किसानों की हालत के बारे में समय-समय पर जानकारी दे सके। लेकिन, अब वक्त आ गया है कि सरकार किसानों के लिए कुछ करे। किसान बड़ी आशा से इस समय केन्द्र सरकार की तरफ देख रहे हैं कि उनकी समस्याओं के हल के लिए केन्द्र सरकार कुछ लेकर आएगी, पर केन्द्र सरकार ने तो मखौल बना दिया है, उसने प्रचार करना शुरू कर दिया कि उसने मंत्रिमंडल में किसानों को सस्ती दर पर बैंकों से कर्ज दिलवाने का फैसला लिया है। ये सब तो आठ साल से चल रहा है, उसमें कौमा, फुलस्टॉप भी नहीं बदला है। तब केन्द्र सरकार का कौन मंत्री है, जो इतना बड़ा झूठ सारे देश में फैला रहा है। क्या उसे लगता है कि किसानों को इस बात का पता नहीं चलेगा कि आपने उनके लिए कुछ नहीं किया है? इसलिए अभी वक्त है कि किसानों के लिए कुछ सार्थक कीजिए जिससे किसानों की जिंदगी में खुशियां लौट सकें, उनकी आत्महत्याएं रुके, उनको उनकी फसल का दाम मिले। अगर आज ये नहीं होता है, तो कल केन्द्र सरकार और यूपी सहित कई राज्य के सरकारों भारी महंगा पड़ सकता है। क्योंकि अब मैदान में राष्ट्रीय किसान मोर्चा कूद पड़ा है।
किसानों का सवाल पिछले 60 साल में हर गुजरते दिन के साथ महत्वपूर्ण होता चला गया है, लेकिन किसी सरकार ने किसानों की समस्याओं को कभी अपनी प्राथमिकता में नहीं रखा। लोग ये मानते थे कि किसान कभी संगठित नहीं हो सकते हैं, किसान कभी अपनी मांगों को लेकर जोर नहीं दे सकते हैं, दबाव नहीं डाल सकते हैं। इसका कारण हर राजनीतिज्ञ और नौकरशाह को पता था कि किसान कभी संगठित नहीं हो सकते हैं। इसलिए सरकारों की अनदेखी नेदेश के किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। इसके बाद भी सरकारों का रवैया नहीं बदला, राजनीतिक दलों का रवैया नहीं बदला, नौकरशाहों का रवैया नहीं बदला और अब किसान निराशा के दौर में पहुंच गए हैं और बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं करनी शुरू कर दी।
आत्महत्याओं की जड़ में गांव के सूदखोर से कहीं ज्यादा बैंकों का सूद था, बैंकों का दबाव था, खेती का अलाभकारी होना था और खेती का मूल्य न मिलना था। किसान के पास खेती के अलावा आय का कोई दूसरा साधन नहीं होता है। सारे देश में एक सरल तरीका निकला कि समस्या से बचने के लिए आत्महत्या कर लो। ये आत्महत्याएं इतनी बढ़ गईं कि धीरे-धीरे किसानों के भीतर भी अपने साथी की मौत की संवेदना समाप्त होने लगी। ये दौर कई सालों से चला आ रहा है, लेकिन अब जाकर किसानों ने दोबारा अपने हक के लिए लड़ने का फैसला किया है। किसानों ने धीरे-धीरे ये निर्णय लेना शुरू कर दिया कि वो उतनी ही फसल उगाएंगे, जितनी फसल उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी है।
किसान अपनी जमीन को परती छोड़ देने का फैसला लेने लगा और इसकी शुरुआत महाराष्ट्र, खासकर औरंगाबाद और नासिक के किसानों ने की है। उन्होंने फसल का दाम नहीं मिलने के विरोध में सड़क पर टमाटर फेंक दिए, हजारों लीटर दूध फेंक दिया, फसलों का भाव नहीं मिलने के विरोध में सड़कें जाम की। महाराष्ट्र में किसानों के सवालों को लेकर सड़कों पर बड़े-बड़े जुलूस निकले, लेकिन न राज्य सरकार चेती और न ही केन्द्र सरकार। किसानों का ये दर्द मध्यप्रदेश पहुंच गया। एक तरफ किसान आंदोलन चल रहा था और दूसरी तरफ आत्महत्याएं हो रही हैं, अब किसानों के बीच इस बात की चर्चा चल रही है कि आखिर हम सरकार से मांगें, तो क्या मांगें। एक तो किसान संगठित नहीं हैं और नहीं किसानों की कोई राष्ट्रीय स्तर का संगठन ही है। जो कुछ संगठने भी हैं तो उस पर भी ब्राह्मणों का कब्जा है। लेकिन अब किसानों के संगठन की समस्या का हल हो गया है। अब मूलनिवासी बहुजन समाज के किसानों के लिए बामसेफ ने राष्ट्रीय किसान मोर्चा का गठन कर एक शक्ति का निर्माण किया है। अब किसानों के लिए मौका है कि राष्ट्रीय किसान मोर्चा में शामिल होकर अपने हक की लड़ाई को धार दे सकते हैं।
आज सरकार का यह रवैया है कि सरकार एक बार देश के किसानों का कर्ज माफ करे, जितना कर्ज सरकार बड़े पूंजीपतियों का बैंकों के जरिए माफ कर देती है, जिस पैसे को लेकर वो विदेश भाग जाते हैं, चाहे वो एनपीए के रूप में हो या सीधी कर्ज माफी हो या वन टाइम सेटलमेंट हो, लेकिन किसान का दो-तीन लाख रुपए का कर्जा माफ करने में सरकार को पसीने आ जाते हैं। अगर सरकार घोषणा भी कर देती है तो वहां भी कर्ज माफी अमल में नहीं आती है। तीन लाख के लिए एक किसान अपनी जान दे देता है। यहां तक की 45 हजार के लिए किसान खुदकुशी कर रहा है। यदि किसान ये मांग करना चाहते हैं कि देश में एक बार किसानों का संपूर्ण कर्जा माफ हो जाए, लेकिन कर्जा माफ होना उनकी समस्याओं का हल नहीं है। इसी के साथ देश के हर ब्लॉक में उस ब्लॉक में पैदा होने वाली प्रमुख फसल पर आधारित उद्योग धंधा लगे, किसान सरकार से उद्योग लगाने के लिए पैसे नहीं मांग रहे हैं। उनका कहना है कि सरकार ऐसी नीति बनाए कि कोई सरकारी अधिकारी, पुलिस उस ब्लॉक में पैदा होने वाली प्रमुख फसल पर आधारित उद्योग लगाने में अड़ंगा न डाल सके। किसान ये भी मांग करना चाहते हैं कि उस उद्योग को लगाने में प्राथमिकता के आधार पर बैंक से कर्ज मिले और जिसकी ब्याज दर सिर्फ दो प्रतिशत हो। इस ऋृण को लौटाने की अवधि दस साल हो। इसका परिणाम ये होगा कि किसान को फसल सिर्फ 10 किलोमीटर की यात्रा कर अपने ब्लॉक तक ले जाना होगा। वहां उपलब्ध औद्योगिक इकाई को फसल बेचनी होगी और वह खुशी-खुशी अपने घर चला जाएगा, फिर किसान या कृषि आधारित उद्योग लगाने वाले उस व्यक्ति को सामान बेचने बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा, क्योंकि तब छोटे या बड़े व्यापारी उस ब्लॉक में आकर सामान सीधे खरीद लेंगे।
इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार का एक पैसा नहीं जाता है, इसमें बैंक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर जोर दें। किसान अपना उद्योग स्वयं लगा ले, खेती के साथ-साथ उसकी फसल का पैसा उसे मिले और उसके बच्चों को उन उद्योग धंधों में नौकरी मिल जाए। किसान अपनी इन मांगों के समर्थन में सारे देश में सम्मेलन करने वाले हैं और सरकार से ये कहने वाले हैं कि आप अगर ऐसा नहीं करेंगे तो आपको देश में एक मजबूत किसान क्रांति का सामना करना पड़ेगा। किसानों ने अपने वोट से नरेन्द्र मोदी को भारी बहुमत से जिताया है। इस आशा से जिताया है कि उन्हें उनकी फसल का लागत से 50 प्रतिशत अधिक मूल्य मिलेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी घोषणा देश के हर हिस्से में जाकर की थी, शायद इसलिए कि वो किसानों का वोट चाहते थे। किसान अब उन्हें याद दिला रहे हैं कि आप उस वादे पर भी अमल कीजिए। आपने कर्ज माफी का वादा किया था, उस पर भी अमल कीजिए और तत्काल कृषि आधारित उद्योग धंधों को बढ़ाने का एक बड़ा फैसला लीजिए।
सरकार ये क्यों नहीं समझती कि तीन लाख, चार लाख, पांच लाख रुपए की वजह से एक किसान आत्महत्या करता है और दूसरी तरफ वो अरबों करोड़ रुपए विदेशों में बहुत सारे देशों को दान में दे रही है। जहां वो पैसा वहां के विकास में नहीं लगता, बल्कि वहां की भ्रष्ट व्यवस्था उस पैसे को खा जाती है। भारत सरकार जिन अफ्रीकी देशों को पैसा दे रही है, वहां पर भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है। वहां भारत से हजार गुना ज्यादा भ्रष्टाचार है और शायद इस पैसे को देने में भारतीय विदेश सेवा या भारतीय बैंकिंग सेवा के अधिकारियों का भी एक बड़ा हिस्सा होता है। सरकार को चाहिए कि वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी देश को दो साल तक सहायता न दे। विदेशों में अरबों करोड़ रुपए दान के रूप में भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ाए, बल्कि उस पैसे का इस्तेमाल भारत में किसानों के लिए उद्योग धंधे लगाने में करे।
दरअसल किसानों की समस्याओं का हल कर्ज माफी नहीं है, लेकिन कर्ज माफी तात्कालिक रूप से जान बचाने का एक साधन जरूर है। अफसोस की बात है कि सरकार ने इसे लेकर कभी सर्वदलीय बैठक नहीं बुलाई, किसी भी सरकार ने नहीं बुलाइ। सरकार ने नीति-निर्माताओं से कभी नहीं कहा कि वो किसान को केन्द्र में रखकर नीति बनाएं। सरकार ने बड़े उद्योगपतियों से कभी नहीं कहा कि वो अपने लाभ में से एक हिस्सा किसानों के कोष के लिए भी बनाएं. सरकार ने कभी किसान आयोग की बात नहीं की, जिसका संवैधानिक दर्जा हो और जो सरकार को किसानों की हालत के बारे में समय-समय पर जानकारी दे सके। लेकिन, अब वक्त आ गया है कि सरकार किसानों के लिए कुछ करे। किसान बड़ी आशा से इस समय केन्द्र सरकार की तरफ देख रहे हैं कि उनकी समस्याओं के हल के लिए केन्द्र सरकार कुछ लेकर आएगी, पर केन्द्र सरकार ने तो मखौल बना दिया है, उसने प्रचार करना शुरू कर दिया कि उसने मंत्रिमंडल में किसानों को सस्ती दर पर बैंकों से कर्ज दिलवाने का फैसला लिया है। ये सब तो आठ साल से चल रहा है, उसमें कौमा, फुलस्टॉप भी नहीं बदला है। तब केन्द्र सरकार का कौन मंत्री है, जो इतना बड़ा झूठ सारे देश में फैला रहा है। क्या उसे लगता है कि किसानों को इस बात का पता नहीं चलेगा कि आपने उनके लिए कुछ नहीं किया है? इसलिए अभी वक्त है कि किसानों के लिए कुछ सार्थक कीजिए जिससे किसानों की जिंदगी में खुशियां लौट सकें, उनकी आत्महत्याएं रुके, उनको उनकी फसल का दाम मिले। अगर आज ये नहीं होता है, तो कल केन्द्र सरकार और यूपी सहित कई राज्य के सरकारों भारी महंगा पड़ सकता है। क्योंकि अब मैदान में राष्ट्रीय किसान मोर्चा कूद पड़ा है।
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