1
महात्मा जी ने मेरे जाति पांति तोड़क मंडल के लिए तैयार किये गये भाषण पर अपने पत्रा 'हरिजन' में टिप्पणी करके मेरा जो सम्मान किया है, उसके लिए मैं उनका अनुगृहीत हूं। महात्मा जी के द्वारा की गयी मेरे भाषण की आलोचना के पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मेरे जाति भेद पर प्रकट किये गये विचारों से बिल्कुल असहमत हैं। मैं स्वभावतः अपने विरोधियों से वाद विवाद नहीं करता, जब तक उसमें कोई विशेष लाभ न हो या मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर न होना पड़े। अगर मेरा विरोधी कोई नीच या अप्रसिद्ध व्यक्ति होता, तो मैं उसकी परवाह न करता। चूंकि मेरे विपक्षी स्वयं एक महात्मा हैं, अतः उनकी बात का उत्तर देने का प्रयत्न करना मैं आवश्यक समझता हूं। महात्मा जी ने मुझे जो सम्मान दिया, उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूं। किन्तु मैं यह मानता हूं कि महात्मा जी ने मुझ पर प्रसिद्धि का लालची होने का जो आक्षेप किया है, उसे देख कर मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ। उनके कथन से यह स्पष्ट है कि जो भाषण पढ़ा नहीं गया, उसे छपाने से मेरा अभिप्राय यह है कि लोग मुझे भूल न जायं। महात्मा जी अपनी मनोभावना के अनुसार मुझे जो कुछ भी कहना चाहते हों, किन्तु उस भाषण को छपाने का मेरा अभिप्राय केवल हिन्दुओं को उनकी विचारधारा और स्थिति का सही ज्ञान कराना था, ताकि उनमें चेतना पैदा हो तथा मेरे विचारों के सम्बंध में किसी को कोई गलतफहमी न हो। मैं अपनी प्रसिद्धि का इच्छुक कभी नहीं रहा, और मैं यह कह सकता हूं कि इस भाषण के छपने से मुझे जितनी ख्याति मिलना सम्भव है, उससे कहीं अधिक ख्याति मुझे मिली हुई है। किन्तु यदि मान लिया जाय कि मैंने अपना भाषण अपनी ख्याति के लिए ही छपवाया था, तो इसके लिए मुझे कौन क्या कह सकता है? संसार में अगणित लेखकों ने अगणित पुस्तकंें लिखीं और छपवायीं, तो क्या उनके लिए यह कहा जा सकता है कि सबने केवल अपनी ख्याति के लिए पुस्तकें छपायीं, या स्वयं महात्मा जी ने जो पुस्तकें छपायीं, उनके छपाने में उनका उद्देश्य ख्याति प्राप्त करना मात्रा था? दूसरों के प्रति इस प्रकार की ढेलेबाजी निःसंदेह वे ही लोग कर सकते हैं जो खुद शीशे के पटल में रहते हैं, जैसे कि महात्मा जी।
2
मैंने अपने भाषण में स्वार्थ को अलग रखकर जो प्रश्न उठाया है, महात्मा जी उस सम्बंध में क्या कहना चाहते हैं। मेरा भाषण जो भी पढ़ेगा सबसे प्रथम वह यह अनुभव करेगा कि महात्मा जी ने जो विवाद उठाये हैं, वे स्वयं मेरे भाषण से प्रकट नहीं होते और मैंने जो प्रश्न उठाये हैं महात्मा जी ने उन्हें छुआ तक नहीं है। महात्मा जी ने मरी उक्तियों को हिन्दू धर्म पर आघात कहा है। किन्तु मैंने अपने भाषण में जिन मुख्य बातों को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, वे इस प्रकार हैं:
इन बातों को ध्यान में रखने से पाठक समझ सकेंगे कि महात्मा जी के उठाये गये सब प्रश्न आप्रसंगिक हैं और इससे यह स्पष्ट है कि मेरे भाषण की जो मुख्य उक्तियां हैं, उनको उन्होंने छुआ तक नहीं।
- जाति भेद हिन्दुओं के विनाश का उत्तरदायी है।
- हिन्दू समाज का पुनर्गठन चार वणोर्ं के आधार पर करना सम्भव नहीं है। क्योंकि यह ठीक एक छिद्र युक्त बर्तन या दूसरे के कंधे पर चढ़ कर बंदूक चलाने वाले उस मनुष्य के समान है जो अपने ही अवगुणों से अपने को संभालने में असमर्थ है। वर्ण व्यवस्था में यह प्रवृत्ति पायी जाती है कि इसे यदि यों ही छोड़ दिया जाय और वर्ण उल्लंघन करने वाले के विरुद्ध कानूनी व्यवस्था न हो, तो वर्ण विभाजन बदलकर जाति विभाजन का रूप धारण कर लेगा।
- हिन्दू समाज का पुनर्गठन चार वर्णों के आधार पर करना अहितकर है। वर्ण व्यवस्था में हर व्यक्ति को विद्या का अधिकार न होने से उसकी अधोगति होती है, दूसरे हर व्यक्ति को अस्त्रा शस्त्रा धारण करने का अधिकार न देने से वह वीरत्वहीन बन जाता है।
- हिन्दू समाज को स्वतंत्राता, समानता और भ्रातृत्व के आधार पर बनी धार्मिक भावना के सहारे फिर से संगठित करना चाहिए।
- इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वर्ण व्यवस्था और जातिभेद के कारण जो धार्मिक सीमित बंधन हैं, उन्हे समाप्त कर देने चाहिए।
- वर्ण और जाति भेद का बंधन समाप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि शास्त्राों को भगवत् वाक्य मानना छोड़ दिया जाय।
इन बातों को ध्यान में रखने से पाठक समझ सकेंगे कि महात्मा जी के उठाये गये सब प्रश्न आप्रसंगिक हैं और इससे यह स्पष्ट है कि मेरे भाषण की जो मुख्य उक्तियां हैं, उनको उन्होंने छुआ तक नहीं।
3
महात्मा जी ने मेरे भाषण पर जो आपत्तियां उठायी हैं, अब मैं उन पर विचार करता हूं। महात्मा जी की पहली आपत्ति यह है कि मैंने जो श्लोक चुने हैं, वे अप्रामाणिक हैं। मैं यह मान सकता हूं कि मेरा इस विषय पर पूर्ण अधिकार नहीं है। फिर भी मैं यह कहना चाहूंगा कि जो श्लोक मैंने उद्धृत किये हैं, वे सब स्वर्गीय तिलक, जो हिन्दी शास्त्राों और संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान् कहे जाते हैं, के लेखों से चुने गये हैं। इसलिए उन्हें अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। उनकी दूसरी आपत्ति यह है कि शास्त्राों के श्लोकों का वही अर्थ सही मानना चाहिए जो संत महात्मा करते हैं और जो अर्थ विद्वान लोग करते हैं उसे सही नहीं समझना चाहिए, क्योंकि साधु संत उन श्लोकों का जो भाव समझते हैं, विद्वान लोग उसे नहीं समझते। शास्त्रा जाति भेद और छुआछूत का समर्थन नहीं करते हैं।
महात्मा जी द्वारा उठायी गयी दूसरी आपत्ति के विषय में मुझे उनसे पूछना है कि संत महात्माओं के निकाले गये भाव से भिन्न अर्थ निकालने से किसी विद्वान को किस लाभ का प्रयोजन है? दूसरे सर्व साधारण जनता मूल और प्रक्षिप्त श्लोकों में कोई भेद नहीं समझती क्योंकि वह अशिक्षित है या संस्कृत से अनभिज्ञ है, वह यह भी नहीं जानती कि ÷पाठ' क्या चीज है, और शास्त्राों में लिखा क्या गया है। वह तो वही मानती है जो उसे ब्राह्मण गुरु पुरोहितों द्वारा बताया गया है। उसे यही बताया गया है कि शास्त्राों में जाति भेद और छुआछूत को मानने की आज्ञा है।
अब साधु संतों की बात लीजिए। साधु महात्माओं की जितनी भी शिक्षाएं हैं, यह मानना पड़ेगा कि वे सब विद्वानों की शिक्षाओं के समक्ष अर्थहीन साबित हुई हैं। उनके अर्थहीन सिद्ध होने के दो कारण हैं : पहला कारण यह है कि वे सब जाति भेद में आस्था रखते थे, किसी ने भी जाति भेद पर कोई आघात नहीं किया। वे अधिकतर जीवनपर्यंत अपनी ही जाति में रहे और अपनी ही जाति के नाम से मरे। महात्मा ज्ञानदेव को ही लीजिए। उन्हें अपनी ब्राह्मण जाति के नाम से इतना मोह था कि एक बार जब परहन के ब्राह्मणों द्वारा उन्हें बिरादरी से निकाल दिया गया, तो उन्होंने अपने को ÷ब्राह्मण' कहलवाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया। ÷महात्मा' फिल्म में एकनाथ को भी, जिसे नायक चुना गया है, अछूतों के साथ भोजन करने और छूने का साहस करते हुए दिखाया गया है। किन्तु उसने यह सब इसलिए नहीं किया कि वह जाति भेद के विरुद्ध था। अपितु इसलिए करता था कि उसे यह विश्वास था कि अछूत के स्पर्श से उत्पन्न दोष गंगा के पवित्रा जल में स्नान करने से धुल कर पवित्राता में आसानी से परिणित हो जायेगा। जहां तक मेरे अध्ययन का सम्बंध है, किसी साधु ने कभी भी जाति भेद और छुआछूत के विरोध में लड़ाई नहीं की। उन्हें मनुष्य मनुष्य के आपसी झगड़े से कोई सम्बंध नहीं था। वे सदा मनुष्य और ईश्वर के सम्बंध के विषय का चिन्तन करते थे। उन्होंने कभी इस बात का प्रचार नहीं किया कि सब मनुष्य एक समान हैं। सबको समान सामाजिक अधिकार मिलने चाहिए। वे तो मनुष्यों की ईश्वर की दृष्टि में बराबर होने का प्रचार करते थे। साधु संतों का यह प्रचार किसी को ऐसा कठिन न मालूम होता था, जिसे मानने में भय उत्पन्न होता हो। इसीलिए यह एक भिन्न और अनर्थकारी कथन साबित हुआ। इसका सामाजिक जाति भेद और छुआछूत से कोई सम्बंध नहीं।
साधु संतों के उपदेश व्यर्थ साबित होने का दूसरा कारण यह रहा कि (ग्रंथों में) यह उपदेश दिया गया है कि साधारण व्यक्ति को जाति पांति तोड़ने का कोई काम नहीं करना चाहिए, साधु संत भले ही जाति भेद को तोड़ें। किसी साधु ने जाति तोड़ने का ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिसका अनुसरण आम जनता करती। इसी कारण जनता का जाति भेद और छुआछूत पर पूरा विश्वास रहा और साधु समुदाय एक पवित्रा और सम्मान योग्य आत्मा बन कर रह गया। अतः यह सिद्ध है कि साधु लोगों के पुण्यमय जीवन का आम जनता के उपर ब्राह्मणों के शास्त्राों की आज्ञाओं के विरुद्ध कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस कारण इस तर्क से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि साधु ऐसे थे, साधु वैसे थे, अथवा एक महात्मा ऐसा है जो शास्त्राों का अर्थ, कुछ थोड़े से विद्वानों अथवा बहुत सी आज्ञाओं की अपेक्षा, भिन्न करता है। वास्तविकता, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता, यह है कि सर्व साधारण का शास्त्राों के सम्बंध में जो मत है, वह भिन्न है।
शास्त्राों में दिये गये प्रमाणों या आदेशों को, जो सर्व साधारण के आचरण का आधार हैं, जब तक समाप्त नहीं किया जाता, तब तक इस वास्तविकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। यह ऐसा सवाल है जिस पर महात्मा जी ने सोचा ही नहीं। लेकिन महात्मा जी लोगों का शास्त्राों की शिक्षा पर अमल करने के लिए सफल साधन के रूप में जो भी योजना प्रस्तुत करें, उन्हें यह मानना पड़ेगा कि उनके अपने लिए एक महान् पुरुष का पवित्रा जीवन भले ही उत्कर्षकारी हो, लेकिन भारत, जहां साधारण मनुष्य साधु संतों के प्रति पूजा की भावना तो रखता हो पर अनुसरण की नहीं, वहां इसे दृष्टि में रखते हुए किसी लाभ की आशा नहीं रखनी चाहिए।
महात्मा जी द्वारा उठायी गयी दूसरी आपत्ति के विषय में मुझे उनसे पूछना है कि संत महात्माओं के निकाले गये भाव से भिन्न अर्थ निकालने से किसी विद्वान को किस लाभ का प्रयोजन है? दूसरे सर्व साधारण जनता मूल और प्रक्षिप्त श्लोकों में कोई भेद नहीं समझती क्योंकि वह अशिक्षित है या संस्कृत से अनभिज्ञ है, वह यह भी नहीं जानती कि ÷पाठ' क्या चीज है, और शास्त्राों में लिखा क्या गया है। वह तो वही मानती है जो उसे ब्राह्मण गुरु पुरोहितों द्वारा बताया गया है। उसे यही बताया गया है कि शास्त्राों में जाति भेद और छुआछूत को मानने की आज्ञा है।
अब साधु संतों की बात लीजिए। साधु महात्माओं की जितनी भी शिक्षाएं हैं, यह मानना पड़ेगा कि वे सब विद्वानों की शिक्षाओं के समक्ष अर्थहीन साबित हुई हैं। उनके अर्थहीन सिद्ध होने के दो कारण हैं : पहला कारण यह है कि वे सब जाति भेद में आस्था रखते थे, किसी ने भी जाति भेद पर कोई आघात नहीं किया। वे अधिकतर जीवनपर्यंत अपनी ही जाति में रहे और अपनी ही जाति के नाम से मरे। महात्मा ज्ञानदेव को ही लीजिए। उन्हें अपनी ब्राह्मण जाति के नाम से इतना मोह था कि एक बार जब परहन के ब्राह्मणों द्वारा उन्हें बिरादरी से निकाल दिया गया, तो उन्होंने अपने को ÷ब्राह्मण' कहलवाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया। ÷महात्मा' फिल्म में एकनाथ को भी, जिसे नायक चुना गया है, अछूतों के साथ भोजन करने और छूने का साहस करते हुए दिखाया गया है। किन्तु उसने यह सब इसलिए नहीं किया कि वह जाति भेद के विरुद्ध था। अपितु इसलिए करता था कि उसे यह विश्वास था कि अछूत के स्पर्श से उत्पन्न दोष गंगा के पवित्रा जल में स्नान करने से धुल कर पवित्राता में आसानी से परिणित हो जायेगा। जहां तक मेरे अध्ययन का सम्बंध है, किसी साधु ने कभी भी जाति भेद और छुआछूत के विरोध में लड़ाई नहीं की। उन्हें मनुष्य मनुष्य के आपसी झगड़े से कोई सम्बंध नहीं था। वे सदा मनुष्य और ईश्वर के सम्बंध के विषय का चिन्तन करते थे। उन्होंने कभी इस बात का प्रचार नहीं किया कि सब मनुष्य एक समान हैं। सबको समान सामाजिक अधिकार मिलने चाहिए। वे तो मनुष्यों की ईश्वर की दृष्टि में बराबर होने का प्रचार करते थे। साधु संतों का यह प्रचार किसी को ऐसा कठिन न मालूम होता था, जिसे मानने में भय उत्पन्न होता हो। इसीलिए यह एक भिन्न और अनर्थकारी कथन साबित हुआ। इसका सामाजिक जाति भेद और छुआछूत से कोई सम्बंध नहीं।
साधु संतों के उपदेश व्यर्थ साबित होने का दूसरा कारण यह रहा कि (ग्रंथों में) यह उपदेश दिया गया है कि साधारण व्यक्ति को जाति पांति तोड़ने का कोई काम नहीं करना चाहिए, साधु संत भले ही जाति भेद को तोड़ें। किसी साधु ने जाति तोड़ने का ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिसका अनुसरण आम जनता करती। इसी कारण जनता का जाति भेद और छुआछूत पर पूरा विश्वास रहा और साधु समुदाय एक पवित्रा और सम्मान योग्य आत्मा बन कर रह गया। अतः यह सिद्ध है कि साधु लोगों के पुण्यमय जीवन का आम जनता के उपर ब्राह्मणों के शास्त्राों की आज्ञाओं के विरुद्ध कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस कारण इस तर्क से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि साधु ऐसे थे, साधु वैसे थे, अथवा एक महात्मा ऐसा है जो शास्त्राों का अर्थ, कुछ थोड़े से विद्वानों अथवा बहुत सी आज्ञाओं की अपेक्षा, भिन्न करता है। वास्तविकता, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता, यह है कि सर्व साधारण का शास्त्राों के सम्बंध में जो मत है, वह भिन्न है।
शास्त्राों में दिये गये प्रमाणों या आदेशों को, जो सर्व साधारण के आचरण का आधार हैं, जब तक समाप्त नहीं किया जाता, तब तक इस वास्तविकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। यह ऐसा सवाल है जिस पर महात्मा जी ने सोचा ही नहीं। लेकिन महात्मा जी लोगों का शास्त्राों की शिक्षा पर अमल करने के लिए सफल साधन के रूप में जो भी योजना प्रस्तुत करें, उन्हें यह मानना पड़ेगा कि उनके अपने लिए एक महान् पुरुष का पवित्रा जीवन भले ही उत्कर्षकारी हो, लेकिन भारत, जहां साधारण मनुष्य साधु संतों के प्रति पूजा की भावना तो रखता हो पर अनुसरण की नहीं, वहां इसे दृष्टि में रखते हुए किसी लाभ की आशा नहीं रखनी चाहिए।
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महात्मा जी की तीसरी आपत्ति यह है कि मैंने जिस धर्म को इतना सद्गुणहीन कहा है वह वैसा कैसे हो सकता है जिसे संत चैतन्य, ज्ञानदेव, तुकाराम, तिरुवल्लुवर, रामकृष्ण परमहंस आदि मानते थे। किसी धर्म के प्रति कोई धारणा उस धर्म के सबसे बुरे उदाहरणों के नहीं अपितु सबसे अच्छे आदशोर्ं के आधार पर बनानी चाहिए। मैं इस कथन के प्रत्येक शब्द से सहमत हूं। लेकिन मैं यह बिल्कुल नहीं समझ पा रहा हूं आखिर महात्मा जी इससे सिद्ध क्या करना चाहते हैं। यह तो पर्याप्त सत्य है कि किसी धर्म को परखने के लिए उसके सबसे निकृष्ट नमूने नहीं, अपितु सबसे उत्तम आदर्श लेने चाहिए। लेकिन क्या इसी में बात निश्चित हो जाती है? मैं कहता हूं, नहीं प्रश्न अब भी यह रह जाता है कि उत्तम की संख्या इतनी कम और निकृष्टतम की संख्या इतनी ज्यादा क्यों है? मेरे विचार से इसके दो ही उत्तर हो सकते हैं
मैं इन उपर्युक्त दो नियमों में से पहले को तो स्वीकार नहीं कर सकता और विश्वास करता हूं कि महात्मा जी भी इससे भिन्न मानने के लिए जिद नहीं करेंगे। महात्मा जी जब तक इसका कोई तीसरा हल न बतायें कि निकृष्टतम इतने अधिक और उत्तम इतने थोड़े क्यों हैं, तब तक मैं तो दूसरा ही तर्क इसका समाधान समझता हूं और यदि दूसरा तर्क समाधानयुक्त है, तो निश्चय ही महात्मा जी के इस तर्क से कि किसी धर्म की परख उसके अच्छे अनुयायियों से करनी चाहिए, हम केवल इस परिणाम पर ही पहुंचते हैं कि हम उन सैकड़ों के भाग्य पर दुख प्रकट करें कि जो गलती पर हैं। वे इसलिए गलती पर हैं, क्योंकि उनसे गलत आदशोर्ं की पूजा करायी गयी है।
- निकृष्टतम नैतिक दृष्टि से स्वयं की मौलिक बुराई के कारण अर्थहीन है, और इसी कारण धर्म का जो आदर्श रूप है, उसके निकट नहीं पहुंच सकते।
- हिन्दू धर्म के जो आदर्श हैं, वे पूर्णतः शुद्ध आदर्श नहीं हैं। उन्होंने अनेक मनुष्यों के जीवन में अनैतिकता की प्रवृत्ति पैदा कर दी है और उत्तम इस अपवित्रा नैतिक प्रवृत्ति के होते हुए भी उसे ठीक दशा में बदल कर उत्तम ही बने रहे हैं।
मैं इन उपर्युक्त दो नियमों में से पहले को तो स्वीकार नहीं कर सकता और विश्वास करता हूं कि महात्मा जी भी इससे भिन्न मानने के लिए जिद नहीं करेंगे। महात्मा जी जब तक इसका कोई तीसरा हल न बतायें कि निकृष्टतम इतने अधिक और उत्तम इतने थोड़े क्यों हैं, तब तक मैं तो दूसरा ही तर्क इसका समाधान समझता हूं और यदि दूसरा तर्क समाधानयुक्त है, तो निश्चय ही महात्मा जी के इस तर्क से कि किसी धर्म की परख उसके अच्छे अनुयायियों से करनी चाहिए, हम केवल इस परिणाम पर ही पहुंचते हैं कि हम उन सैकड़ों के भाग्य पर दुख प्रकट करें कि जो गलती पर हैं। वे इसलिए गलती पर हैं, क्योंकि उनसे गलत आदशोर्ं की पूजा करायी गयी है।
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महात्मा जी का यहां एक तर्क है कि बहुत से लोग साधु संतों के उदाहरणों की ही यदि नकल करें, तो हिन्दू धर्म सबके लिए सुलभ हो जायगा। यह बात एक कारण से संदेहयुक्त है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि महात्मा जी ने चैतन्य आदि महान् व्यक्तियों का उदाहरण प्रस्तुत करके अपने विशाल एवं सरल रूप में यह बताने का यत्न किया है कि यदि हिन्दू के तीन उच्च वणोर्ं को, उनसे नीचे वर्ण के हिन्दुओं के साथ सदाचारपूर्ण व्यवहार करने के लिए पे्ररित किया जा सके, तो हिन्दू समाज की रचना में कोई मूल परिवर्तन किये बिना ही उसे सुखी एवं संतुष्ट बनाया जा सकता है। मैं इस विचारधारा का सदा विरोधी रहा हूं। जो सवर्ण हिन्दू अपने जीवन में उच्च सामाजिक आदर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं, वे मेरे लिए आदर के पात्रा हो सकते हैं, क्योंकि यदि ऐसे लोग भारत में न हों तो यह देश जितना इस समय रहने योग्य है उससे भी कहीं अधिक सुखहीन और बहुत ही निकृष्ट भूमि हो जाय। लेकिन इतने पर भी जो लोग यह भरोसा करते हैं कि उच्च वर्ण के हिन्दू अपने व्यक्तिगत चरित्रा में सुधार कर अच्छे बन जायेंगे, मेरी समझ में यह मृगतृष्णा के समान है और सुधारक व्यर्थ ही अपनी शक्ति का ह्रास करते हैं। क्योंकि यह सम्भव नहीं है कि व्यक्तिगत चरित्रा अस्त्रा शस्त्रा बनाने वाले मनुष्य को एक ऐसा नेक व्यक्ति बना सकता है कि वह जो गैस तैयार करे वह विषैली न हो, या जो बम बनाये वह ऐसे हों जो कि फटे नहीं और यदि यह सम्भव नहीं, तो यह कैसे आशा की जा सकती है कि व्यक्तिगत चरित्रा जाति भेद भाव से प्रभावित किसी व्यक्ति को ऐसा नेक मनुष्य बना देगा जो अपने संगी साथियों को बराबरी का, भाई और मित्रा का दर्जा दे देगा? यह आवश्यक है कि जो व्यक्ति अपने विश्वास के अनुसार आचरण करता है वह अपने संगी साथियों में अपने से छोटा या अपने से बड़ा, जैसी अवस्था हो, समझ कर व्यवहार करेगा। उससे अपने जातीय भाई बंधुओं के साथ समता या बराबरी के व्यवहार की आशा नहीं की जा सकती। यह सच है कि हिन्दू उन लोगों के साथ विदेशियों जैसा व्यवहार करते हैं जो उनकी जाति के नहीं हैं। वे उनके साथ उन विदेशियों जैसा व्यवहार करते हैं जिनसे किसी प्रकार का धोखा या चालाकी करने पर उन्हें शर्म नहीं आती अथवा उनके साथ अपने लोगों से भिन्न व्यवहार करने पर उन्हें कोई दंड नहीं दिया जाता। दूसरे शब्दों में यह समझना चाहिए कि कोई हिन्दू एक दूसरे से बुरा हिन्दू तो हो सकता है किन्तु कोई उससे अच्छा हिन्दू नहीं हो सकता। यह किसी के स्वयं के चरित्रा में दोष होने के कारण नहीं अपितु कुछ चीजों में दोष का आधार उसका उसके साथियों के साथ व्यवहार का सम्बंध है। यदि किसी अच्छे से अच्छे आदमी का भी उसके साथियों के साथ मूलतः गलत सम्बंध है, तो वह स्वयं नैतिक मनुष्य नहीं हो सकता। एक स्वामी अपने दास के लिए अपेक्षाकृत अधिक बुरा या अधिक अच्छा हो सकता है, परंतु कोई स्वामी अच्छा नहीं हो सकता। कोई स्वामी अच्छा मनुष्य नहीं बन सकता और कोई अच्छा मनुष्य स्वामी नहीं बन सकता। नीच और उ+ंच जाति के सम्बंध में भी ठीक यही बात लागू होती है। दूसरी जाति की अपेक्षा एक उंची जाति का व्यक्ति एक नीची जाति के व्यक्ति के लिए अधिक अच्छा या अधिक बुरा हो सकता है, परंतु एक मनुष्य जो उ+ंची जाति का है और अपने को उंची जाति का समझता है, वह अच्छा मनुष्य कभी नहीं हो सकता और यह भी कभी अच्छा नहीं हो सकता कि किसी नीच जाति के व्यक्ति में इस बात का अनुभव हो कि मेरे उ+पर उ+ंची जाति का व्यक्ति है। मैंने अपने भाषण में जाति और वर्ण पर आधारित समाज पर विवाद उठाया है कि यह ऐसा समाज है, जिसका आधार अशुद्ध सम्बंध है। मुझे आशा थी कि महात्मा जी मेरी उक्ति काट देंगे, लेकिन उन्होंने बजाय उसे काटने के चार वर्णों की व्यवस्था में अपने विश्वास को कई बार दोहराया है। परंतु उनका यह विश्वास किन कारणों पर आधारित है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया।
6
क्या महात्मा जी जिस बात का प्रचार करते हैं, स्वयं भी उस पर चलते हैं? जिस चीज का उपयोग सब जगह होता हो, उसका व्यक्तिगत रूप से वर्णन करना मनुष्य पसंद नहीं करता। लेकिन जब कोई मनुष्य किसी एक सिद्धांत का प्रचार करता है, और उसे एक सिद्धांत मानता है, तो यह जानने की इच्छा होती है कि वह व्यक्ति स्वयं उस बात पर कहां तक व्यवहार करता है, जिसका वह स्वयं प्रचार करता है। यह सम्भव है कि उन सिद्धांतों के अनुसार चलने में उसे सफलता न मिली हो, क्योंकि या तो उसके सिद्धांत इतने उ+ंचे हैं कि उन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता, अथवा उनके अनुसार व्यवहार करने में असफलता का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि यह केवल उस व्यक्ति का स्वाभाविक घमंड है। कुछ भी हो, वह अपने व्यवहार को हमारे सामने जांच के लिए छोड़ देता है।
मुझे कुछ दोष नहीं देना चाहिए अगर मैं महात्मा जी से यह पूछूं कि उन्होंने अपने सिद्धांत को प्रमाणित करने के लिए अपनी ही व्यवस्था में कितना प्रयत्न किया है। जन्म से महात्मा जी बनिया हैं। उनके पुरखे वाणिज्य त्याग कर रजवाड़ा के दीवान बन गये, जो ब्राह्मणों का पेशा है। महात्मा जी को अपने महात्मा बनने से पहले जीवन में जब पेशा अपनाने का समय आया, तो उन्होंने तौल में बैरिस्टरी को उचित समझा। फिर कानून का पेशा त्याग करके वह आधे राजनीतिज्ञ हो गये, और आधे संत। वाणिज्य जो उनके पूर्वजों का पेशा है, उन्होंने उसे कभी छुआ तक नहीं। मैं उनके छोटे पुत्रा को लेता हूं। वह जन्म से बनिया और पिता का सच्चा अनुयायी है। उसने एक समाचारपत्रा के मालिक के यहां नौकरी कर रखी है, और अपना विवाह एक ब्राह्मण लड़की के साथ किया है। मुझे नहीं मालूम कि महात्मा जी ने अपना पैतृक पेशा न करने के लिए कभी उसे बुरा कहा हो। किसी भी आदर्श की जांच करने के लिए उसके केवल निकृष्टतम उदाहरणों को लेना गलत एवं कठोर हो सकता है। निश्चय ही महात्मा जी से अच्छा दूसरा कोई और उदाहरण नहीं हो सकता। अगर वे स्वयं अपने आदशोर्ं को सिद्ध करने में सफल नहीं होते हैं तो उनका वह सिद्धांत निश्चय ही असम्भव है और व्यक्ति के व्यावहारिक ज्ञान के बिल्कुल विपरीत है।
जिन लोगों ने कारलायल की पुस्तकों का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि वह सोचने के पहले ही किसी विषय पर बोल दिया करता था। मालूम नहीं, जाति भेद के सम्बंध में कहीं महात्मा जी की दशा भी वैसी ही तो नहीं है। नहीं तो कई प्रश्न जो मेरे ध्यान में आते हैं, ऐसे हैं जिनसे वह बच कर नहीं निकल सकते। किसी व्यक्ति के लिए किस समय किसी कार्य को अनिवार्य ठहराने के लिए कोई कार्य पैतृक माना जा सकता है? क्या किसी पैतृक पेशे को चाहे वह उसकी क्षमता के अनुरूप न हो और उससे कोई लाभ भी न होता हो, उसे करना किसी व्यक्ति के लिए अनिवार्य है? क्या किसी ऐसे पैतृक व्यवसाय से, चाहे किसी व्यक्ति को पापयुक्त ही क्यों न मालूम पड़ता हो, पेट पालन करना चाहिए अगर हर मनुष्य के लिए यह अनिवार्य हो कि वह अपने बाप दादे का ही पेशा करे, तो कुटने के बेटे को कुटना ही बनना चाहिए, क्योंकि उसका दादा कुटना था और उसकी स्त्राी को वेश्या ही बनना चाहिए क्योंकि उसकी दादी वेश्या थी। क्या महात्मा जी अपने बाद के तर्कयुक्त परिणाम को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? मेरे विचार में उनके आदर्श में व्यक्ति को वही व्यवसाय करना चाहिए जो उसके बाप दादों का हो। यह केवल असम्भव या अव्यावहारिक ही नहीं अपितु नैतिक दृष्टि से भी अमाननीय है।
मुझे कुछ दोष नहीं देना चाहिए अगर मैं महात्मा जी से यह पूछूं कि उन्होंने अपने सिद्धांत को प्रमाणित करने के लिए अपनी ही व्यवस्था में कितना प्रयत्न किया है। जन्म से महात्मा जी बनिया हैं। उनके पुरखे वाणिज्य त्याग कर रजवाड़ा के दीवान बन गये, जो ब्राह्मणों का पेशा है। महात्मा जी को अपने महात्मा बनने से पहले जीवन में जब पेशा अपनाने का समय आया, तो उन्होंने तौल में बैरिस्टरी को उचित समझा। फिर कानून का पेशा त्याग करके वह आधे राजनीतिज्ञ हो गये, और आधे संत। वाणिज्य जो उनके पूर्वजों का पेशा है, उन्होंने उसे कभी छुआ तक नहीं। मैं उनके छोटे पुत्रा को लेता हूं। वह जन्म से बनिया और पिता का सच्चा अनुयायी है। उसने एक समाचारपत्रा के मालिक के यहां नौकरी कर रखी है, और अपना विवाह एक ब्राह्मण लड़की के साथ किया है। मुझे नहीं मालूम कि महात्मा जी ने अपना पैतृक पेशा न करने के लिए कभी उसे बुरा कहा हो। किसी भी आदर्श की जांच करने के लिए उसके केवल निकृष्टतम उदाहरणों को लेना गलत एवं कठोर हो सकता है। निश्चय ही महात्मा जी से अच्छा दूसरा कोई और उदाहरण नहीं हो सकता। अगर वे स्वयं अपने आदशोर्ं को सिद्ध करने में सफल नहीं होते हैं तो उनका वह सिद्धांत निश्चय ही असम्भव है और व्यक्ति के व्यावहारिक ज्ञान के बिल्कुल विपरीत है।
जिन लोगों ने कारलायल की पुस्तकों का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि वह सोचने के पहले ही किसी विषय पर बोल दिया करता था। मालूम नहीं, जाति भेद के सम्बंध में कहीं महात्मा जी की दशा भी वैसी ही तो नहीं है। नहीं तो कई प्रश्न जो मेरे ध्यान में आते हैं, ऐसे हैं जिनसे वह बच कर नहीं निकल सकते। किसी व्यक्ति के लिए किस समय किसी कार्य को अनिवार्य ठहराने के लिए कोई कार्य पैतृक माना जा सकता है? क्या किसी पैतृक पेशे को चाहे वह उसकी क्षमता के अनुरूप न हो और उससे कोई लाभ भी न होता हो, उसे करना किसी व्यक्ति के लिए अनिवार्य है? क्या किसी ऐसे पैतृक व्यवसाय से, चाहे किसी व्यक्ति को पापयुक्त ही क्यों न मालूम पड़ता हो, पेट पालन करना चाहिए अगर हर मनुष्य के लिए यह अनिवार्य हो कि वह अपने बाप दादे का ही पेशा करे, तो कुटने के बेटे को कुटना ही बनना चाहिए, क्योंकि उसका दादा कुटना था और उसकी स्त्राी को वेश्या ही बनना चाहिए क्योंकि उसकी दादी वेश्या थी। क्या महात्मा जी अपने बाद के तर्कयुक्त परिणाम को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? मेरे विचार में उनके आदर्श में व्यक्ति को वही व्यवसाय करना चाहिए जो उसके बाप दादों का हो। यह केवल असम्भव या अव्यावहारिक ही नहीं अपितु नैतिक दृष्टि से भी अमाननीय है।
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एक ब्राह्मण का जीवन भर ब्राह्मण बना रहना गांधी जी बहुत अच्छी बात समझते हैं। यह सच है कि कुछ ब्राह्मण ऐसे हैं जो अपने पैतृक पेशा पुरोहिताई से चिपके हुए हैं। हम उनके बारे में क्या कहंें। परंतु कुछ ऐसे ब्राह्मण भी हैं, जो आजीवन ब्राह्मण बने रहना चाहते हैं। जो पैतृक पुरोहिताई के व्यवसाय से चिपके हुए हैं, क्या वे ऐसा इस सिद्धांत को पवित्रा मान कर करते हैं अथवा धन के लोभ वश करते हैं? मालूम पड़ता है, महात्मा जी को इन बातों को जानने से कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो इस बात से संतुष्ट हैं कि ÷वे सच्चे ब्राह्मण हैं, जो इच्छा से दी गयी भिक्षा पर ही गुजारा करते हुए अपनी आध्यात्मिक निधि से लोगों को खुले हाथ दान करते हैं।' महात्मा जी ब्राह्मण पुरोहित के परम्परा से चले आ रहे इस स्वरूप को आध्यात्मिक निधियों का वाहक समझते हैं, लेकिन इन परम्परागत ब्राह्मणों का दूसरा रूप भी चित्रिात किया जा सकता है।
ब्राह्मण पुरोहित प्रेम व शांति के देव विष्णु का पुजारी हो सकता है, प्रलय के देव शंकर का भी पुजारी हो सकता है, करुणा के महान् सिद्धांत के उपदेशक मानव जाति के सबसे बड़े गुरु भगवान बुद्ध का पुजारी बन कर वह बौद्ध गया में उनकी पूजा कर सकता है, रक्त की प्यास को शांत करने के लिए प्रतिदिन पशुओं की बलि जिसके लिए आवश्यक है, उस काली देवी का भी वह पुजारी हो सकता है। क्षत्रिाय अवतार राम के मंदिर का भी वह पुजारी हो सकता है और क्षत्रिायों के विनाश के लिए हुए परशुराम के मंदिर का भी पुजारी हो सकता है। वह विश्व रचयिता ब्रह्मा का पुजारी हो सकता है। वह ऐसे पीर, जिसका ईश्वर अल्लाह जगत पर अपने आध्यात्मिक प्रभुत्व में इस दावे को नहीं मानता है कि ब्रह्मा भी उसका भागीदार है, वह उस पीर का भी पुजारी हो सकता है। कौन कह सकता है कि यह चित्रा सच्चा नहीं है?
अगर यह चित्रा सच्चा नहीं है, तो आपस में इतने विपरीत गुण रखने वाले देव देवियों का पुजारी बनने की योग्यता रखने वाले को यह नहीं कहा जा सकता है कि वह मनुष्य निष्कपट पुजारी है। हिन्दू लोग इस गम्भीर घटना को समझते हैं कि यह उनके धर्म का सबसे बड़ा गुण अर्थात् दृष्टि की दयालुता और उसका भ्रातृत्व भाव है, किन्तु वास्तविकता यह है कि इस मत की दयालुता और भ्रातृत्व भाव के विरोध में यह कहा जा सकता है कि यह केवल लचीला विश्वास या उदासीनता से अधिक प्रशंसनीय नहीं है। इन दो विचारों को बाह्य दृष्टि से देखने पर परखना कठिन मालूम देता है लेकिन वास्तव में गुणों की दृष्टि से वे निश्चय ही एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि यदि कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक उन पर मनन करे, तो वह निश्चय ही उन्हें समझने में कोई गलती नहीं कर सकता है। प्रमाणस्वरूप किसी व्यक्ति को उनके देव देवियों की आराधना के लिए तत्पर रहने का सहिष्णुता के भाव के रूप में पेश किया जा सकता है, लेकिन क्या यह स्वार्थ की इच्छा से पैदा हुए घमंड का भी प्रमाण नहीं हो सकता? मैं विश्वास करता हूं कि यह सहिष्णुता दम्भ मात्रा है। अगर इस सिद्धांत की नींव मजबूत है, तो पूछना चाहिए कि जो व्यक्ति ऐसे देवी देवताओं की आराधना करता है, जिनसे उसकी स्वार्थ पूर्ति होती है, तो उसके पास आध्यात्मिक निधि क्या होगी? ऐसे व्यक्ति को केवल सभी आध्यामिक निधियों से हीन ही नहीं समझना चाहिए, अपितु पैतृक होने के कारण पिता से स्वाभाविक रूप से मिले पुरोहित के धर्म काᄉ सेवा मात्रा जैसे उच्च पेशे का बिना श्रद्धा और विश्वास से करना किसी सद्गुण की रक्षा करना नहीं उसका दुरुपयोग है।
ब्राह्मण पुरोहित प्रेम व शांति के देव विष्णु का पुजारी हो सकता है, प्रलय के देव शंकर का भी पुजारी हो सकता है, करुणा के महान् सिद्धांत के उपदेशक मानव जाति के सबसे बड़े गुरु भगवान बुद्ध का पुजारी बन कर वह बौद्ध गया में उनकी पूजा कर सकता है, रक्त की प्यास को शांत करने के लिए प्रतिदिन पशुओं की बलि जिसके लिए आवश्यक है, उस काली देवी का भी वह पुजारी हो सकता है। क्षत्रिाय अवतार राम के मंदिर का भी वह पुजारी हो सकता है और क्षत्रिायों के विनाश के लिए हुए परशुराम के मंदिर का भी पुजारी हो सकता है। वह विश्व रचयिता ब्रह्मा का पुजारी हो सकता है। वह ऐसे पीर, जिसका ईश्वर अल्लाह जगत पर अपने आध्यात्मिक प्रभुत्व में इस दावे को नहीं मानता है कि ब्रह्मा भी उसका भागीदार है, वह उस पीर का भी पुजारी हो सकता है। कौन कह सकता है कि यह चित्रा सच्चा नहीं है?
अगर यह चित्रा सच्चा नहीं है, तो आपस में इतने विपरीत गुण रखने वाले देव देवियों का पुजारी बनने की योग्यता रखने वाले को यह नहीं कहा जा सकता है कि वह मनुष्य निष्कपट पुजारी है। हिन्दू लोग इस गम्भीर घटना को समझते हैं कि यह उनके धर्म का सबसे बड़ा गुण अर्थात् दृष्टि की दयालुता और उसका भ्रातृत्व भाव है, किन्तु वास्तविकता यह है कि इस मत की दयालुता और भ्रातृत्व भाव के विरोध में यह कहा जा सकता है कि यह केवल लचीला विश्वास या उदासीनता से अधिक प्रशंसनीय नहीं है। इन दो विचारों को बाह्य दृष्टि से देखने पर परखना कठिन मालूम देता है लेकिन वास्तव में गुणों की दृष्टि से वे निश्चय ही एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि यदि कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक उन पर मनन करे, तो वह निश्चय ही उन्हें समझने में कोई गलती नहीं कर सकता है। प्रमाणस्वरूप किसी व्यक्ति को उनके देव देवियों की आराधना के लिए तत्पर रहने का सहिष्णुता के भाव के रूप में पेश किया जा सकता है, लेकिन क्या यह स्वार्थ की इच्छा से पैदा हुए घमंड का भी प्रमाण नहीं हो सकता? मैं विश्वास करता हूं कि यह सहिष्णुता दम्भ मात्रा है। अगर इस सिद्धांत की नींव मजबूत है, तो पूछना चाहिए कि जो व्यक्ति ऐसे देवी देवताओं की आराधना करता है, जिनसे उसकी स्वार्थ पूर्ति होती है, तो उसके पास आध्यात्मिक निधि क्या होगी? ऐसे व्यक्ति को केवल सभी आध्यामिक निधियों से हीन ही नहीं समझना चाहिए, अपितु पैतृक होने के कारण पिता से स्वाभाविक रूप से मिले पुरोहित के धर्म काᄉ सेवा मात्रा जैसे उच्च पेशे का बिना श्रद्धा और विश्वास से करना किसी सद्गुण की रक्षा करना नहीं उसका दुरुपयोग है।
8
महात्मा जी ने इसका कारण कभी नहीं बताया कि वह इस नियम से हर स्त्राी पुरुष को अपने पूर्वजों के व्यवसाय को ही करना चाहिएᄉ क्यों चिपटे हुए हैं? यद्यपि इसको स्पष्ट बतलाने की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की, किन्तु इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। कुछ साल पहले उन्होंने अपने यंग इंडिया में जाति भेद बनाम वर्ग भेद शीर्षक में विवाद उठाया था और यह लिखा था कि वर्ग भेद से जाति भेद उत्तम है और उसका हेतु यह बतलाया था कि जाति भेद समाज के स्थायित्व का सबसे श्रेष्ठ सम्भव व्यवसाय है। अगर महात्मा जी के, ÷हर स्त्राी पुरुष को अपने पूर्वजों के व्यवसाय को ही करना चाहिए, सिद्धांत के साथ चिपके रहने का यही कारण है, तब तो कहना होगा कि वह गलत सामाजिक जीवन के सिद्धांत से चिपके हैं। हर व्यक्ति सामाजिक स्थिरता चाहता है और स्थिरता के लिए व्यक्तियों तथा श्रेणियों के सम्बंध में कुछ व्यवस्था होनी चाहिए। किन्तु मुझे विश्वास है कि दो बातें कोई नहीं चाहता। जिसे कोई नहीं चाह सकता, वह पहली बात है, अचल सम्बंध अर्थात् किसी वस्तु का सब समयों में स्थायी रहना। ऐसी वस्तु में जिसमें परिवर्तन न किया जा सके, स्थिरता जरूरी है। किन्तु जब परिवर्तन अति जरूरी हो, तो उसकी हानि करके नहीं। जिसे कोई नहीं चाह सकता, दूसरी बात है, वह केवल व्यवस्था करना। व्यवस्था करना जरूरी है, परंतु सामाजिक न्याय का हनन करके नहीं। कौन कह सकता है कि जाति भेद के उस आधार पर कि हर व्यक्ति को अपनी परम्परा के व्यवसाय को ही करना चाहिए, सामाजिक सम्बंध की व्यवस्था इन दो बुराइयों से बचा सकती है? विश्वास करता हूं, नहीं बचा सकती। मुझे इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। इसका सबसे उत्तम सम्भव व्यवस्था का होना तो दूर की बात रही, यह निकृष्ट व्यवस्था है। क्योंकि सामाजिक व्यवस्था की सरलता और न्यायशीलता दोनों ही नियम इस व्यवस्था में टूट जाते हैं।
9
सम्भवतः कुछ लोग यह समझते होंगे कि महात्मा गांधी जाति भेद को नहीं, केवल वर्ण व्यवस्था को ही मानते हैं, अतः उन्होंने बहुत तरक्की कर ली है। यह सच है कि महात्मा जी एक समय कट्टर सनातनी हिन्दू थे और वे वेद, उपनिषद और पुराण आदि सभी को मानते थे, जो हिन्दुओं के धर्म ग्रंथ हैं। इसी कारण अवतारवाद और पुनर्जन्म में भी उनकी आस्था थी। वह एक कट्टर सनातनी की तरह जाति भेद को मानते थे और पूरी शक्ति से उसका समर्थन करते थे। वे सहभोज, सहपान और अंतरजातीय विवाह की बुराई करते थे। वे तर्क देते थे कि सहभोज पर प्रतिबंध इच्छाशक्ति की वृद्धि और प्रमुख सामाजिक सद्गुण के शोषण में बड़ी सहायता देता है। यह अच्छा ही है कि उन्होंने मान लिया कि जाति भेद, राष्ट्रीय उन्नति और आध्यात्मिक विकास दोनों ही के लिए अहितकर है, अतः उन्होंने दम्भपूर्ण तथा असंगत विचार का त्याग कर दिया। सम्भव है, उनका यह विचार परिवर्तन ही उनके लड़के के अंतर जातीय विवाह का कारण बना हो। परंतु क्या महात्मा जी ने वास्तव में कुछ प्रगति की है? महात्मा जी जिस वर्ण का समर्थन करते हैं, उसका क्या रूप है? साधारणतः जैसा समझा जाता है और स्वामी दयानंद सरस्वती तथा उनके अनुयायी आर्यसमाजी लोग जैसा प्रचार करते हैं, क्या वेदों की यही मान्यता है?
मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार पेशों का योग होना वेदों में वर्ण की कल्पना का मूल है। स्वाभाविक क्षमता का कोई भी विचार न करते हुए पैतृक व्यवसाय करते रहना महात्मा गांधी की वर्ण की कल्पना का मूल है। महात्मा जी के माने हुए वर्ण भेद और जाति भेद में क्या अंतर है, मुझे कुछ नहीं दिखायी देता। महात्मा जी ने वर्ण की जो विशेषता बतायी है उससे तो वह जाति का ही दूसरा नाम हो जाता है। क्योंकि पैतृक धंधा करना इसका भी मूल है। महात्मा जी बजाय आगे बढ़ने के पीछे हटे हैं। उन्होंने वेदों में वर्ण की कल्पना का जो अर्थ किया है, उसने वास्तव में एक उ+ंची चीज को उपहास के योग्य बना दिया है। यद्यपि मैंने जो कारण अपने भाषण में दिये हैं, उनके आधार पर मैं वैदिक वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता हूं, फिर भी निवेदन करता हूं कि स्वामी दयानंद और दूसरे लोगों ने वर्ण के वैदिक सिद्धांत का जो अर्थ किया है, वह एक तर्कसंगत और दोष रहित चीज है। वह केवल व्यक्ति के गुणों को मानता है, वह उसके पद का निश्चय जन्म के आधार पर नहीं करता। वर्ण विषयक महात्मा जी का सिद्धांत वैदिक वर्ण व्यवस्था को न केवल असंगत विचार बना देता है, अपितु एक घृणा के योग्य वस्तु बना देता है। वर्ण और जाति भेद दो भिन्न चीजें हैं। हर मनुष्य अपने गुण के अनुसार वर्ण का जो मूलभूत सिद्धांत है उसे नहीं मानता, उसके विपरीत हर मनुष्य अपने जन्म के अनुसार जाति भेद को मूलभूत सिद्धांत मानता है। एक दूसरे से दोनों इतने अलग हैं जितना कि पवीर से चाक की मिट्टी। वास्तव मे दोनों एक दूसरे के प्रतिपक्षी हैं। अगर जैसी कि उनकी धारणा है, महात्मा जी मानते हैं कि हर स्त्राी पुरुष को अपने पूर्वजों का ही पेशा करना चाहिए, तो निश्चय रूप से वह जाति भेद का ही समर्थन करते हैं और जब उसे वर्ण व्यवस्था कहते हैं, तो वह केवल परिभाषा सम्बंधी अशुद्धि ही नहीं करते, अपितु गड़बड़ी को अधिक बढ़ा देते हैं।
मैं विश्वास करता हूं कि महात्मा जी की न तो वर्ण और न जाति के भेद के अंतर की कोई स्पष्ट और निश्चित कल्पना है और न हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए इन दोनों की जरूरत है। यही इस गड़बड़ का कारण है। वह स्वयं एक आशापूर्ण बात कह भी चुके हैं कि ''मेरी यह धारणा है कि जाति भेद हिन्दू धर्म का कोई तत्व नहीं है।'' तब क्या उनका विचार है कि वर्ण भेद हिन्दू धर्म का तत्व है? स्पष्ट उत्तर नहीं दे सकता कि उनकी मान्यता क्या है। उनके ÷आम्बेडकर का अभियोग' शीर्षक लेख को पढ़ने वाले इसका ÷नही' में उत्तर देंगे। अपने इस लेख में वे वर्ण के सिद्धांत को हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग नहीं मानते। वर्ण को हिन्दू धर्म का अंग मानना तो दूर रहा, वे कहते हैं कि ''केवल एक ही ईश्वर को ही ÷सत्य' मानना और ÷अहिंसा' को ही मानव परिवार का विधान मानना ही हिन्दू धर्म का मूल है।'' लेकिन जिन लोगों ने उनके श्री संतराम के लेख के उत्तर में लिखे गये लेख का अध्ययन किया है, वे ÷हां' कह देंगे। उस लेख में उन्होंने कहा हैᄉ ''मनुष्य कुरान को न मान कर मुसलमान और बायबिल को न मान कर ईसाई कैसे रह सकता है? अगर वर्ण और जाति भेद दोनों एक ही वस्तु हैं और यदि शास्त्रा यह बतलाते हैं कि हिन्दू धर्म क्या है, यदि वर्ण उन्हीं शास्त्राों का अभिन्न अंग है, तो मैं यही जानता हूं कि जो जाति व्यवस्था अर्थात् वर्ण को नहीं मानता, वह व्यक्ति अपने को हिन्दू कैसे कह सकता है?''
महात्मा जी का यह टालमटूल और वाणी का छल कैसा? वह अपने बचने का अपने आस पास बांध क्यों बांध रहे हैं? वे किन्हें खुश करना चाहते हैं? क्या वे एक महात्मा की भांति यथार्थ का ज्ञान नहीं कर सके या साधु के मार्ग में उनका राजनीतिक रूप अवरोधक बन रहा है? शायद महात्मा जी को इस गड़बड़ी में पड़ जाने के दो कारण हो सकते हैं : पहला कारण है महात्मा जी का स्वभाव। वह बहुधा हर बात में बच्चे की भांति सरल दिखायी देते हैं और उनमें बच्चों जैसी आत्मवंचना भी है। जिस चीज में उन्हें विश्वास है, उसमें वे बच्चे की तरह विश्वास कर लेते हैं। इसलिए हमें उस अवसर तक प्रतीक्षा अवश्य करना चाहिए जब तक वे अपने बाल विश्वास को खुद ही न त्याग दें। जैसे जाति भेद को मानना उन्होंने स्वयं अपनी इच्छा से त्याग दिया है, इसी तरह वर्ण में आस्था भी अपनी इच्छा से छोड़ दें।
दूसरा कारण इस गड़बड़ी का यह है कि महात्मा जी साधु और राजनीतिज्ञ दोनों एक साथ बनना चाहते हैं। यह निश्चय है कि वे साधु की दृष्टि से राजनीति को आध्यात्मिक रंग में भले ही रंग रहे हों और उसमें वे सफल हुए हों या नहीं परंतु राजनीति को उनकी इस हालत से अनुचित लाभ अवश्य मिला है। राजनीतिज्ञ को यह ज्ञान होना चाहिए कि समाज पूर्ण सत्य को लेकर नहीं चल सकता और पूर्ण सत्य यदि उसकी राजनीति के लिए अहितकर हो, तो उसे पूर्ण सत्य नहीं समझना चाहिए। महात्मा जी के वर्ण भेद और जाति भेद का सदा समर्थन करने का कारण यह है कि उनको भय है कि अगर मैंने उसका विरोध किया, तो राजनीति में मेरा कोई स्थान नहीं रहेगा।
इस गड़बड़ी का कारण कुछ भी हो, परंतु वर्ण को जाति नाम देकर उसका प्रचार करने से उन्हें यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि वे अपने को ही नहीं, जनता को भी धोखा दे रहे हैं। वर्ण और जाति दोनों एक नहीं हैं। चार हजार जातियों को चार वर्णों में ढालने का ख्याल एक दिमागी जुनून के सिवा और कुछ नहीं है।
मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार पेशों का योग होना वेदों में वर्ण की कल्पना का मूल है। स्वाभाविक क्षमता का कोई भी विचार न करते हुए पैतृक व्यवसाय करते रहना महात्मा गांधी की वर्ण की कल्पना का मूल है। महात्मा जी के माने हुए वर्ण भेद और जाति भेद में क्या अंतर है, मुझे कुछ नहीं दिखायी देता। महात्मा जी ने वर्ण की जो विशेषता बतायी है उससे तो वह जाति का ही दूसरा नाम हो जाता है। क्योंकि पैतृक धंधा करना इसका भी मूल है। महात्मा जी बजाय आगे बढ़ने के पीछे हटे हैं। उन्होंने वेदों में वर्ण की कल्पना का जो अर्थ किया है, उसने वास्तव में एक उ+ंची चीज को उपहास के योग्य बना दिया है। यद्यपि मैंने जो कारण अपने भाषण में दिये हैं, उनके आधार पर मैं वैदिक वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता हूं, फिर भी निवेदन करता हूं कि स्वामी दयानंद और दूसरे लोगों ने वर्ण के वैदिक सिद्धांत का जो अर्थ किया है, वह एक तर्कसंगत और दोष रहित चीज है। वह केवल व्यक्ति के गुणों को मानता है, वह उसके पद का निश्चय जन्म के आधार पर नहीं करता। वर्ण विषयक महात्मा जी का सिद्धांत वैदिक वर्ण व्यवस्था को न केवल असंगत विचार बना देता है, अपितु एक घृणा के योग्य वस्तु बना देता है। वर्ण और जाति भेद दो भिन्न चीजें हैं। हर मनुष्य अपने गुण के अनुसार वर्ण का जो मूलभूत सिद्धांत है उसे नहीं मानता, उसके विपरीत हर मनुष्य अपने जन्म के अनुसार जाति भेद को मूलभूत सिद्धांत मानता है। एक दूसरे से दोनों इतने अलग हैं जितना कि पवीर से चाक की मिट्टी। वास्तव मे दोनों एक दूसरे के प्रतिपक्षी हैं। अगर जैसी कि उनकी धारणा है, महात्मा जी मानते हैं कि हर स्त्राी पुरुष को अपने पूर्वजों का ही पेशा करना चाहिए, तो निश्चय रूप से वह जाति भेद का ही समर्थन करते हैं और जब उसे वर्ण व्यवस्था कहते हैं, तो वह केवल परिभाषा सम्बंधी अशुद्धि ही नहीं करते, अपितु गड़बड़ी को अधिक बढ़ा देते हैं।
मैं विश्वास करता हूं कि महात्मा जी की न तो वर्ण और न जाति के भेद के अंतर की कोई स्पष्ट और निश्चित कल्पना है और न हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए इन दोनों की जरूरत है। यही इस गड़बड़ का कारण है। वह स्वयं एक आशापूर्ण बात कह भी चुके हैं कि ''मेरी यह धारणा है कि जाति भेद हिन्दू धर्म का कोई तत्व नहीं है।'' तब क्या उनका विचार है कि वर्ण भेद हिन्दू धर्म का तत्व है? स्पष्ट उत्तर नहीं दे सकता कि उनकी मान्यता क्या है। उनके ÷आम्बेडकर का अभियोग' शीर्षक लेख को पढ़ने वाले इसका ÷नही' में उत्तर देंगे। अपने इस लेख में वे वर्ण के सिद्धांत को हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग नहीं मानते। वर्ण को हिन्दू धर्म का अंग मानना तो दूर रहा, वे कहते हैं कि ''केवल एक ही ईश्वर को ही ÷सत्य' मानना और ÷अहिंसा' को ही मानव परिवार का विधान मानना ही हिन्दू धर्म का मूल है।'' लेकिन जिन लोगों ने उनके श्री संतराम के लेख के उत्तर में लिखे गये लेख का अध्ययन किया है, वे ÷हां' कह देंगे। उस लेख में उन्होंने कहा हैᄉ ''मनुष्य कुरान को न मान कर मुसलमान और बायबिल को न मान कर ईसाई कैसे रह सकता है? अगर वर्ण और जाति भेद दोनों एक ही वस्तु हैं और यदि शास्त्रा यह बतलाते हैं कि हिन्दू धर्म क्या है, यदि वर्ण उन्हीं शास्त्राों का अभिन्न अंग है, तो मैं यही जानता हूं कि जो जाति व्यवस्था अर्थात् वर्ण को नहीं मानता, वह व्यक्ति अपने को हिन्दू कैसे कह सकता है?''
महात्मा जी का यह टालमटूल और वाणी का छल कैसा? वह अपने बचने का अपने आस पास बांध क्यों बांध रहे हैं? वे किन्हें खुश करना चाहते हैं? क्या वे एक महात्मा की भांति यथार्थ का ज्ञान नहीं कर सके या साधु के मार्ग में उनका राजनीतिक रूप अवरोधक बन रहा है? शायद महात्मा जी को इस गड़बड़ी में पड़ जाने के दो कारण हो सकते हैं : पहला कारण है महात्मा जी का स्वभाव। वह बहुधा हर बात में बच्चे की भांति सरल दिखायी देते हैं और उनमें बच्चों जैसी आत्मवंचना भी है। जिस चीज में उन्हें विश्वास है, उसमें वे बच्चे की तरह विश्वास कर लेते हैं। इसलिए हमें उस अवसर तक प्रतीक्षा अवश्य करना चाहिए जब तक वे अपने बाल विश्वास को खुद ही न त्याग दें। जैसे जाति भेद को मानना उन्होंने स्वयं अपनी इच्छा से त्याग दिया है, इसी तरह वर्ण में आस्था भी अपनी इच्छा से छोड़ दें।
दूसरा कारण इस गड़बड़ी का यह है कि महात्मा जी साधु और राजनीतिज्ञ दोनों एक साथ बनना चाहते हैं। यह निश्चय है कि वे साधु की दृष्टि से राजनीति को आध्यात्मिक रंग में भले ही रंग रहे हों और उसमें वे सफल हुए हों या नहीं परंतु राजनीति को उनकी इस हालत से अनुचित लाभ अवश्य मिला है। राजनीतिज्ञ को यह ज्ञान होना चाहिए कि समाज पूर्ण सत्य को लेकर नहीं चल सकता और पूर्ण सत्य यदि उसकी राजनीति के लिए अहितकर हो, तो उसे पूर्ण सत्य नहीं समझना चाहिए। महात्मा जी के वर्ण भेद और जाति भेद का सदा समर्थन करने का कारण यह है कि उनको भय है कि अगर मैंने उसका विरोध किया, तो राजनीति में मेरा कोई स्थान नहीं रहेगा।
इस गड़बड़ी का कारण कुछ भी हो, परंतु वर्ण को जाति नाम देकर उसका प्रचार करने से उन्हें यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि वे अपने को ही नहीं, जनता को भी धोखा दे रहे हैं। वर्ण और जाति दोनों एक नहीं हैं। चार हजार जातियों को चार वर्णों में ढालने का ख्याल एक दिमागी जुनून के सिवा और कुछ नहीं है।
10
महात्मा जी का कहना है कि मैंने हिन्दू और हिन्दू धर्म की परीक्षा के लिए जो कसौटियां रखी हैं, वे बहुत कठिन हैं और इन कसौटियों पर कसने से हमें जिसका ज्ञान है वह हर जीवित धर्म शायद फेल हो जायगा। यह शिकायत सच हो सकती है कि मेरी जो कसौटियां हैं, वे बहुत कठिन हैं। पर उनके सरल या कठिन होने का प्रश्न नहीं है, प्रश्न तो इस बात का है कि क्या वे कसौटियां परीक्षण के लिए उचित हैं? सामाजिक व्यवहार नीति पर आधारित सामाजिक कसौटियों से किसी जनता अथवा उसके धर्म का परीक्षण करना आवश्यक है। अगर जनता के कल्याण के लिए धर्म को अनिवार्य भलाई के रूप में माना जाता है, तो किसी दूसरी कसौटी का कोई अर्थ नहीं होगा।
मैं अब मजबूती के साथ कहता हूं कि हिन्दुओं और हिन्दू धर्म की परीक्षा के लिए जो कसौटियां मैं उपयोग में लाया हूं, वे पूर्णतया उचित हैं, उनसे अच्छी और कोई कसौटी मुझे मालूम नहीं। यह परिणाम सच हो सकता है कि मेरी जो कसौटियां हैं, उन पर परीक्षण करने से प्रत्येक जाना हुआ धर्म फेल हो जायगा। किन्तु इससे हिन्दुओं तथा हिन्दू धर्म के पोषक के रूप में महात्मा जी को उससे अधिक संतोष नहीं मिल सकता जितना एक पागल को दूसरे पागल और एक अभियुक्त को दूसरे अभियुक्त से मिलता है। मैं महात्मा जी को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि उन्होंने मुझ पर हिन्दुओं और हिन्दू धर्म के प्रति जिस घृणा और तिरस्कार भाव का आरोप लगाया है, वह मुझमें केवल उनकी असफलता ने ही पैदा नहीं किया है।
मैं इस संसार को बहुत ही अपूर्ण महसूस करता हूं और जो व्यक्ति यहां रहना चाहता है, उसको इसकी अपूर्णता को सहन करना पड़ेगा।
जिस समाज में रहने से मेरे भाग्य में जो उद्योग करना बदा है, उसकी कमियों और खामियों को सहने के लिए मैं तैयार हूं, लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि ऐसे समाज में, जिसे गलत और मिथ्या सिद्धांत प्रिय हैं अथवा जिसमें शुद्ध सिद्धांत होते हुए भी जो अपने सामाजिक जीवन को उन सिद्धांतों के अनुरूप ढालने को सहमत नहीं, रहने को मैं राजी नहीं हो सकता हूं। अगर मैं हिन्दुओं और हिन्दू धर्म से उकता गया हूं, तो इसका कारण यह है कि मुझे यह विश्वास हो गया है कि हिन्दू अशुद्ध सिद्धांतों को प्रिय समझते हैं तथा अशुद्ध सामाजिक जीवन व्यतीत करते हैं। हिन्दू और हिन्दू धर्म के साथ मेरे झगड़े का कारण उनके सामाजिक व्यवहार की कमियां नहीं, इससे कहीं अधिक इसका मूल कारण उनके आदर्श हैं।
मैं अब मजबूती के साथ कहता हूं कि हिन्दुओं और हिन्दू धर्म की परीक्षा के लिए जो कसौटियां मैं उपयोग में लाया हूं, वे पूर्णतया उचित हैं, उनसे अच्छी और कोई कसौटी मुझे मालूम नहीं। यह परिणाम सच हो सकता है कि मेरी जो कसौटियां हैं, उन पर परीक्षण करने से प्रत्येक जाना हुआ धर्म फेल हो जायगा। किन्तु इससे हिन्दुओं तथा हिन्दू धर्म के पोषक के रूप में महात्मा जी को उससे अधिक संतोष नहीं मिल सकता जितना एक पागल को दूसरे पागल और एक अभियुक्त को दूसरे अभियुक्त से मिलता है। मैं महात्मा जी को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि उन्होंने मुझ पर हिन्दुओं और हिन्दू धर्म के प्रति जिस घृणा और तिरस्कार भाव का आरोप लगाया है, वह मुझमें केवल उनकी असफलता ने ही पैदा नहीं किया है।
मैं इस संसार को बहुत ही अपूर्ण महसूस करता हूं और जो व्यक्ति यहां रहना चाहता है, उसको इसकी अपूर्णता को सहन करना पड़ेगा।
जिस समाज में रहने से मेरे भाग्य में जो उद्योग करना बदा है, उसकी कमियों और खामियों को सहने के लिए मैं तैयार हूं, लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि ऐसे समाज में, जिसे गलत और मिथ्या सिद्धांत प्रिय हैं अथवा जिसमें शुद्ध सिद्धांत होते हुए भी जो अपने सामाजिक जीवन को उन सिद्धांतों के अनुरूप ढालने को सहमत नहीं, रहने को मैं राजी नहीं हो सकता हूं। अगर मैं हिन्दुओं और हिन्दू धर्म से उकता गया हूं, तो इसका कारण यह है कि मुझे यह विश्वास हो गया है कि हिन्दू अशुद्ध सिद्धांतों को प्रिय समझते हैं तथा अशुद्ध सामाजिक जीवन व्यतीत करते हैं। हिन्दू और हिन्दू धर्म के साथ मेरे झगड़े का कारण उनके सामाजिक व्यवहार की कमियां नहीं, इससे कहीं अधिक इसका मूल कारण उनके आदर्श हैं।
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हिन्दू समाज को ऐसे पुनर्जन्म की जरूरत है जो नैतिक हो। उस पुनर्जीवन को रोकना भयानक है। प्रश्न यह है कि उस पुनर्जन्म का, जो नैतिक होगा, निर्णय और उस पर नियंत्राण कौन कर सकता है? इस प्रश्न का स्पष्ट और प्रत्यक्ष उत्तर यह है कि वे ही व्यक्ति जिनकी बुद्धि का पुनर्विकास हो गया है तथा जो इतने ईमानदार हों कि बुद्धि के विकास से पैदा हुए विश्वासों को कायम रखने की सामर्थ्य रखते हों। मेरी राय में कोई भी हिन्दू, जिसकी गणना महान् नेताओं में होती है, इस कसौटी पर रखने से इस कार्य के लिए बिल्कुल अयोग्य होगा। क्योंकि यह कहना सम्भव है कि उनकी आरम्भिक बुद्धि का विकास हो गया है। यदि ऐसा होता, तो जैसा कि हम देखते हैं न तो वे अपढ़ जनसमूह को साधारण तरीके से धोखा देते और न दूसरों की मौलिक अज्ञानता से अनुचित लाभ उठाते। यद्यपि हिन्दू समाज छिन्न भिन्न हो रहा है, फिर भी ये हिन्दू नेता प्राचीन आदशोर्ं की वकालत करते हुए किसी प्रकार शर्म का अनुभव नहीं करते। ये आदर्श अपने आरम्भ के समय में चाहे कितने ही उपयोगी क्यों न रहे हों, अब वर्तमान से इनका काई सम्बंध नहीं है। आज वे मार्गदर्शन के स्थान पर व्यर्थ शब्दाडम्बर के उपदेश मात्रा बन गये हैं। अभी तक जिन पुराने रीति रिवाजों के प्रति आदर की भावना है, वे सब रीति रिवाज उन्हें समाज के आधार की पड़ताल करने के इच्छावान् नहीं, अपितु विरोधी बनाते हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि साधारण हिन्दू लोग अपनी धारणा बनाने में आश्चर्यपूर्ण तरीके से असावधान हैं ही, परंतु हिन्दू नेताओं की भी यही हालत है, और इससे भी बुरी बात यह है कि जब कोई हिन्दू नेताओं की इस मिथ्या धारणा से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहता है, तो उनमें उन धारणाओं के प्रति अनुचित ममता और भी बढ़ जाती है। महात्मा जी भी इससे बचे नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा जी को स्वयं सोचने में विश्वास नहीं है। वे साधु संतों का अनुकरण करना अधिक उचित मानते हैं। परिवर्तन विरोधी तथा जमे हुए विश्वासों में पूजा की भावना रखने वाले प्राणी की तरह उन्हें भय है कि यदि एक बार भी यह विचार आरम्भ कर दिया, तो वे अनेक सिद्धांत तथा संस्थाएं समाप्त हो जायेंगी, जिनसे वह अब तक चिपके हैं।
महात्मा जी मेरी सहानुभूति के पात्रा हैं। इसका कारण यह है कि हर स्वतंत्रा चिन्तन का काम बाह्य रूप से स्थायी दिखायी देने वाले संसार के किसी भाग को संकट में डाल देता है किन्तु सामान्य तरीके से यह बात सच है कि साधु संतों के सहारे रहने से हम सत्य को कभी नहीं जान सकते। आखिर साधु संत भी तो मनुष्य रूपी प्राणी हैं जैसा कि लार्ड बलफोर कहा करते थे कि ''मनुष्य का मन उतना अधिक सत्य का जानने वाली मशीन नहीं जितनी कि सुअर की थूथनी होता है।'' मैं ऐसा समझता हूं जहां तक उनका विचार है कि हिन्दुओं की प्राचीन समाज संरचना के समर्थन में हेतुओं की खोज करते हुए वे अपनी बुद्धि के साथ अनाचार करते हैं। वे जाति भेद के सबसे अधिक प्रभावशाली पक्षपाती हैं और इस प्रकार वह हिन्दुओं के सबसे बुरे दुश्मन हैं।
बहुत से हिन्दू नेता, जो महात्मा गांधी से विपरीत हैं, उन्हें केवल विश्वास रखने और अनुकरण करने में ही संतोष नहीं है। वे विचारने और अपने चिन्तन से निकाले निष्कर्ष के अनुकूल चलने का भी साहस करते हैं। किन्तु दुर्भाग्यवश जब जन साधारण के उचित मार्ग दर्शन का प्रश्न आता है, या तो वे अलग हो जाते हैं या निष्क्रिय। बहुधा हर ब्राह्मण जाति भेद के नियम को भंग कर चुका है। जो ब्राह्मण पुरोहिताई करते हैं, उनकी संख्या से अधिक संख्या उन ब्राह्मणों की है जा जूते बेचते हैं। ब्राह्मण न केवल अपने पैतृक पेशे पुरोहिताई को त्याग कर व्यापार कर रहे हैं, अपितु शास्त्राों में उनके लिए जो वर्जित है, वे व्यवसाय कर रहे हैं। परंतु हर राज्य में जाति भेद को तोड़ने वाले ब्राह्मणों में कितने हैं जो जाति भेद और शास्त्राों के खिलाफ प्रचार करने के लिए तैयार हैं? साधारण व्यावहारिक ज्ञान और नैतिक चेतना के कारण जो जाति भेद और शास्त्राों में विश्वास नहीं रखता, अगर एक ऐसा कपट रहित ब्राह्मण मिलेगा जो जाति भेद और शास्त्राों के विरुद्ध प्रचार करता है, तो सैकड़ों ब्राह्मण ऐसे मिलेंगे जो जाति भेद को भंग करते और शास्त्राों को रौंदते हैं लेकिन जाति भेद के नियम और शास्त्राों की पवित्राता के सर्वाधिक कट्टर समर्थक हैं। क्या यह छद्म नहीं है? क्योंकि वे सोचते हैं कि अगर जाति भेद की गुलामी से जन साधारण छूट गये, तो वर्ग के रूप में ब्राह्मण की शक्ति और उसके प्रभाव के लिए एक संकट बन जायेंगे। अपने चिन्तन के परिणाम से जन साधारण को अनभिज्ञ रखने की चाह इस बौद्धिक वर्ग की कपटता का एक महान् लज्जा योग्य घटना है।
मेथ्यू आर्नोल्ड के शब्दों में ''हिन्दू दो लोकों के बीच भटक रहे हैं। उनमें एक मृत्युलोक है और दूसरा जिसमें जन्म लेने की शक्ति नहीं है।'' उन्हें क्या करना चाहिए? वे जिस महात्मा के मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते हैं, वह सोचने में विश्वास नहीं करता और इस कारण वह ऐसी कोई शिक्षा नहीं दे सकता जिसके विषय में यह कहा जा सके कि वह अनुभव की कसौटी पर खरा उतरता है। मार्गदर्शन के लिए सर्व साधारण जिन बौद्धिक वगोर्ं के मुंह की तरफ देखते हैं या तो वे इतने कपटी हैं या इतने उदासीन, जो उन्हें शुद्ध शिक्षा नहीं दे सकते। वास्तव में हम एक नाटक देख रहे हैं, जिसका अंत दुःखांत है और उस दुःखांत नाटक के होते हुए मनुष्य इससे और ज्यादा कुछ नहीं करता, सिवाय इसके कि वह रोता हुआ कहे, ''हे हिन्दुओ, हे तुम्हारे नेता !
इसमें संदेह नहीं है कि साधारण हिन्दू लोग अपनी धारणा बनाने में आश्चर्यपूर्ण तरीके से असावधान हैं ही, परंतु हिन्दू नेताओं की भी यही हालत है, और इससे भी बुरी बात यह है कि जब कोई हिन्दू नेताओं की इस मिथ्या धारणा से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहता है, तो उनमें उन धारणाओं के प्रति अनुचित ममता और भी बढ़ जाती है। महात्मा जी भी इससे बचे नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा जी को स्वयं सोचने में विश्वास नहीं है। वे साधु संतों का अनुकरण करना अधिक उचित मानते हैं। परिवर्तन विरोधी तथा जमे हुए विश्वासों में पूजा की भावना रखने वाले प्राणी की तरह उन्हें भय है कि यदि एक बार भी यह विचार आरम्भ कर दिया, तो वे अनेक सिद्धांत तथा संस्थाएं समाप्त हो जायेंगी, जिनसे वह अब तक चिपके हैं।
महात्मा जी मेरी सहानुभूति के पात्रा हैं। इसका कारण यह है कि हर स्वतंत्रा चिन्तन का काम बाह्य रूप से स्थायी दिखायी देने वाले संसार के किसी भाग को संकट में डाल देता है किन्तु सामान्य तरीके से यह बात सच है कि साधु संतों के सहारे रहने से हम सत्य को कभी नहीं जान सकते। आखिर साधु संत भी तो मनुष्य रूपी प्राणी हैं जैसा कि लार्ड बलफोर कहा करते थे कि ''मनुष्य का मन उतना अधिक सत्य का जानने वाली मशीन नहीं जितनी कि सुअर की थूथनी होता है।'' मैं ऐसा समझता हूं जहां तक उनका विचार है कि हिन्दुओं की प्राचीन समाज संरचना के समर्थन में हेतुओं की खोज करते हुए वे अपनी बुद्धि के साथ अनाचार करते हैं। वे जाति भेद के सबसे अधिक प्रभावशाली पक्षपाती हैं और इस प्रकार वह हिन्दुओं के सबसे बुरे दुश्मन हैं।
बहुत से हिन्दू नेता, जो महात्मा गांधी से विपरीत हैं, उन्हें केवल विश्वास रखने और अनुकरण करने में ही संतोष नहीं है। वे विचारने और अपने चिन्तन से निकाले निष्कर्ष के अनुकूल चलने का भी साहस करते हैं। किन्तु दुर्भाग्यवश जब जन साधारण के उचित मार्ग दर्शन का प्रश्न आता है, या तो वे अलग हो जाते हैं या निष्क्रिय। बहुधा हर ब्राह्मण जाति भेद के नियम को भंग कर चुका है। जो ब्राह्मण पुरोहिताई करते हैं, उनकी संख्या से अधिक संख्या उन ब्राह्मणों की है जा जूते बेचते हैं। ब्राह्मण न केवल अपने पैतृक पेशे पुरोहिताई को त्याग कर व्यापार कर रहे हैं, अपितु शास्त्राों में उनके लिए जो वर्जित है, वे व्यवसाय कर रहे हैं। परंतु हर राज्य में जाति भेद को तोड़ने वाले ब्राह्मणों में कितने हैं जो जाति भेद और शास्त्राों के खिलाफ प्रचार करने के लिए तैयार हैं? साधारण व्यावहारिक ज्ञान और नैतिक चेतना के कारण जो जाति भेद और शास्त्राों में विश्वास नहीं रखता, अगर एक ऐसा कपट रहित ब्राह्मण मिलेगा जो जाति भेद और शास्त्राों के विरुद्ध प्रचार करता है, तो सैकड़ों ब्राह्मण ऐसे मिलेंगे जो जाति भेद को भंग करते और शास्त्राों को रौंदते हैं लेकिन जाति भेद के नियम और शास्त्राों की पवित्राता के सर्वाधिक कट्टर समर्थक हैं। क्या यह छद्म नहीं है? क्योंकि वे सोचते हैं कि अगर जाति भेद की गुलामी से जन साधारण छूट गये, तो वर्ग के रूप में ब्राह्मण की शक्ति और उसके प्रभाव के लिए एक संकट बन जायेंगे। अपने चिन्तन के परिणाम से जन साधारण को अनभिज्ञ रखने की चाह इस बौद्धिक वर्ग की कपटता का एक महान् लज्जा योग्य घटना है।
मेथ्यू आर्नोल्ड के शब्दों में ''हिन्दू दो लोकों के बीच भटक रहे हैं। उनमें एक मृत्युलोक है और दूसरा जिसमें जन्म लेने की शक्ति नहीं है।'' उन्हें क्या करना चाहिए? वे जिस महात्मा के मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते हैं, वह सोचने में विश्वास नहीं करता और इस कारण वह ऐसी कोई शिक्षा नहीं दे सकता जिसके विषय में यह कहा जा सके कि वह अनुभव की कसौटी पर खरा उतरता है। मार्गदर्शन के लिए सर्व साधारण जिन बौद्धिक वगोर्ं के मुंह की तरफ देखते हैं या तो वे इतने कपटी हैं या इतने उदासीन, जो उन्हें शुद्ध शिक्षा नहीं दे सकते। वास्तव में हम एक नाटक देख रहे हैं, जिसका अंत दुःखांत है और उस दुःखांत नाटक के होते हुए मनुष्य इससे और ज्यादा कुछ नहीं करता, सिवाय इसके कि वह रोता हुआ कहे, ''हे हिन्दुओ, हे तुम्हारे नेता !
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