क्या गाय का रिश्ता देश से मां-पुत्र का है?
☞ एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 150 मिलियन गायें हैं। भारत में एक गाय साल भर में औसतन 200 लीटर दूध देती है। इसकी वजह यह है कि भारत में गायों का भरण-पोषण सही तरीके से नहीं होता है। वहीं इजरायल में एक गाय साल में औसतन 11 हजार लीटर दूध देती है। हम अगर ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, तो देश में दूध की नदियां बहेंगी ही, साथ ही हम पूरी दुनिया में दूध और उसके उत्पाद निर्यात करने वाले देशों में अव्वल बन जाएंगे। भारत का चर्म उद्योग दो बिलियन यूएस डॉलर का है। देश में 4,000 टेनरियां हैं जो गाय की खाल पर निर्भर हैं।
21 वीं सदी के भारत में यह क्या हो रहा है? दुनिया आगे जा रही है और हम 19वीं सदी की ओर लौट रहे हैं। ये कौन लोग हैं जो गोमांस के नाम पर इंसानों की जान ले रहे हैं? ये कौन लोग हैं जो यह तय करने पर तुले हैं कि कौन क्या खा सकता है और क्या नहीं? ये कौन लोग हैं जो गोरक्षा के नाम पर देश में हिंसा फैलाना चाहते हैं? ये कौन लोग हैं जो गाय को हिंदू-मुस्लिम में बांटकर देश में भय और आतंक का माहौल पैदा कर रहे हैं? दरअसल, गाय को धार्मिक मुद्दा बनाकर हिंदू-मुस्लिम में बांटना एक साजिश है। यह हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने की साजिश है। इसे शैतानी साजिश कहना चाहिए। शैतानी साजिश इसलिए, क्योंकि यह इंसानियत के खिलाफ है, कानून के खिलाफ है, धर्म के खिलाफ है। इस मुद्दे पर कहां गई देश की सरकार, कहां गए राजनीतिक दल और कहां गए सिविल सोसायटी के लोग। सामने आएं और उनके खिलाफ आवाज उठाएं और कड़ी से कड़ी कार्रवाई करें।
यह मेरा खुद का मानना है कि गाय के नाम पर सांप्रदायिकता को हवा दी जा रही है। इसे अविलंब रोकना होगा, वरना देश में घृणा और हिंसा का ऐसा दौर शुरू हो जाएगा, जिसे रोक पाना नामुमकिन ही नहीं मुश्किल हो जाएगा। केंद्र सरकार इस मामले में चुप्पी साधकर या गोलमटोल जवाब देकर अपने दायित्व से पीछे हट रही है। उसे देश में घृणा और हिंसा फैलाने वाले असामाजिक तत्वों से सख्ती से निपटना चाहिए लेकिन यहां खुद सरकार हिंसा और सांप्रदायिकता फैलाने वालों को बढ़ावा दे रही है। समझने वाली बात यह है कि गाय कोई धार्मिक मुद्दा नहीं है, बल्कि उसे धार्मिक मुद्दा बना दिया गया है। क्या गाय का रिश्ता भारत से मां-पुत्र का है? क्या गाय का रिश्ता देश की आर्थिक व्यवस्था से है? उक्त में से गाय का रिश्ता किसी से नहीं है लेकिन ब्राह्मणों ने न केवल इसे देश से जोड़ दिया बल्कि धर्म का जामा भी पहना दिया है। जो एक भयंकर षड्यंत्र है।
गाय का जितना महत्व हिंदुओं के जीवन में है, उतना ही महत्व मुस्लिम एवं दूसरे धर्म के लोगों के जीवन में है। लेकिन, आज भारत में धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली राजनीति उफान पर है। गाय को हिंदू-मुस्लिम के बीच बांट दिया गया। यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि मुसलमान गाय के भक्षक हैं और हिंदू गाय के रक्षक हैं, जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। देश में गायों की तस्करी करने वाले, गायों को मारने वाले, गायों पर अत्याचार करने वाले और गायों के नाम पर घोटाला करने वाले लोग मुसलमान नहीं हैं, बल्कि ज्यादातर यूरेशियन ब्राह्मण हैं। गोमांस निर्यात करने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक भी गैर-मुस्लिम अर्थात ब्राह्मण ही हैं। यह मुद्दा देश के लोगों के भविष्य से जुड़ा है, लेकिन इसे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा बना दिया गया। सरकार और राजनीतिक दलों ने कभी इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार नहीं किया। यही वजह है कि जब भी गाय की बात होती है तो मामला यहां अटक जाता है कि गोमांस की बिक्री पर पाबंदी हो या न हो। मीडिया भी इस विवाद में कदमताल करता है। पूरा मामला यहां आकर रुक जाता है कि क्या प्रजातंत्र में इच्छा के मुताबिक खाने का अधिकार है या नहीं? यही देश का दुर्भाग्य है।
एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 150 मिलियन गायें हैं। भारत में एक गाय साल भर में औसतन 200 लीटर दूध देती है। इसकी वजह यह है कि भारत में गायों का भरण-पोषण सही तरीके से नहीं होता है। वहीं इजरायल में एक गाय साल में औसतन 11 हजार लीटर दूध देती है। हम अगर ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, तो देश में दूध की नदियां बहेंगी ही, साथ ही हम पूरी दुनिया में दूध और उसके उत्पाद निर्यात करने वाले देशों में अव्वल बन जाएंगे। लेकिन, क्या गोरक्षकों ने इस पहलू पर कभी ध्यान दिया? नहीं। क्या उन्होंने कभी इस बात के लिए आंदोलन किया कि देश में नकली दूध और नकली घी क्यों बेचा जाता है? गोरक्षक सेना को यह छोटी-सी बात समझ में नहीं आती कि गायों की रक्षा इंसानों को मारने से नहीं होगी। जिस देश में छोटे-छोटे बच्चों को यूरिया से बना दूध पिलाया जाता हो, वहां गोरक्षा के नाम पर हिंसा करना मूर्खता के अलावा क्या कुछ है? गाय के नाम पर हिंसा भड़काने वालों को गाय की चिंता नहीं है, बल्कि उनकी नजर राजनीतिक फायदे और नुकसान पर है।
गो-वध करने वालों, बीफ बेचने वालों और खाने वालों की पिटाई या हत्या से यह समस्या खत्म नहीं होगी। समझने वाली बात यह भी है कि जो खुद को गोरक्षक-कार्यकर्ता मानने वाले लोग हैं, उनमें से ज्यादातर गाय ही नहीं पालते, गाय के गोबर से परहेज करते हैं और गोमूत्र को दूषित मानते हैं। भारत के गांवों की सच्चाई यह है कि करीब 90 फीसद परिवारों के पास इतनी जमीन नहीं है, जिससे उनका जीवनयापन हो सके। इन गरीब परिवारों में 43 फीसद ऐसे हैं, जो भूमिहीन मजदूर हैं और जीवन यापन के लिए दूसरे के खेतों में मजदूरी करते हैं या फिर शहर पलायन कर जाते हैं। पलायन करने वाले ज्यादातर ग्रामीण कुशल नहीं हैं, इसलिए शहरों में भी मजदूरी करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। वे घर-परिवार से दूर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। जबकि भारत का चर्म उद्योग दो बिलियन यूएस डॉलर का है। देश में 4,000 टेनरियां हैं जो गाय की खाल पर निर्भर हैं। फिलहाल जो स्थितियां हैं उनमें चर्म उद्योग की हालत बद से बदतर होती जा रही है। टेनरियों का आधुनिकीकरण नहीं हो पाया है इसलिए यह उद्योग वातावरण को प्रदूषित करने में अव्वल है। इस उद्योग में निवेश की कमी है इसलिए यह भारत में थम-सा गया है। सरकार अगर गायों की संख्या बढ़ाने के लिए कोई नीति बनाना चाहती है तो देश के तथाकथित गोरक्षकों को भी इसे हिंदू-मुस्लिम चश्मे से बाहर निकल कर देखना चाहिए। लेकिन गो-रक्षकों की जमात गाय से जुड़े मामलों को सांप्रदायिक रंग देने में कामयाब हो गई हो रही है। उसकी शैतानी साजिश के सामने सर्वशक्तिमान सरकार भी घुटने टेक चुकी है। यही वजह है कि गाय से हर जुड़ी हर बात दिशा विहीन-अर्थहीन हो गई है, इससे बड़ी मूर्खतापूर्ण बात भला क्या हो सकती है कि जो मामला जानवार से जुड़ा हुआ है उसे हमने धार्मिक रंग दे दिया। इन तथाकथित गोरक्षकों को जरा भी ज्ञान होता और राजनीतिक दलों ने गाय पर राजनीति न की होती, तो अब तक देश की दिशा और दशा बदल गई होती।
गाय किसी धर्म की बपौती नहीं है, हर धर्म के लोग उसे पालते हैं। सभी जातियों-धर्मों के लोगों को गाय से समान लगाव है, क्योंकि गाय जाति-धर्म के नाम पर किसी के साथ पक्षपात नहीं करती। जब से गाय को को धर्म से जोड़ा गया है तब से गायों की दशा बेहद दयनीय हो चुकी है। धर्म के चक्कर में पड़कर गायों को खेतों एवं जंगलों में चरने के लिए छोड़ दिया जाता है। चारे की उचित व्यवस्था न होने के कारण उनमें दूध देने की क्षमता धीरे-धीरे घट रही है। इसके अलावा वह बच्चे को जन्म देने के बाद छह-सात महीने तक ही दूध देती है। इसका असर यह हुआ कि लोगों ने गाय छोड़कर बकरी पालना शुरू कर दिया। बकरी पालने का फायदा यह है कि लोग उसे आसानी से बाजार में बेच लेते हैं, लेकिन गाय को लेकर देश में इतना भावनात्मक माहौल बना दिया गया है, जिसकी वजह से उसे बेचना मुश्किल हो रहा है। यहीं से गाय की तस्करी का खेल शुरू होता है।
आपको जानकर हैरानी हो जाएगी कि गाय को गांव से बूचड़खाने तक पहुंचाने का काम एक गैर-कानूनी नेटवर्क अंजाम दे रहा है और वह पूरा नेटवर्क यूरेशियन ब्राह्मण ही चला रहे हैं। गाय को गांव से उठाने वालों से लेकर बूचड़खाने चलाने वालों तक केवल यूरेशियन ब्राह्मण हैं।
☞ एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 150 मिलियन गायें हैं। भारत में एक गाय साल भर में औसतन 200 लीटर दूध देती है। इसकी वजह यह है कि भारत में गायों का भरण-पोषण सही तरीके से नहीं होता है। वहीं इजरायल में एक गाय साल में औसतन 11 हजार लीटर दूध देती है। हम अगर ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, तो देश में दूध की नदियां बहेंगी ही, साथ ही हम पूरी दुनिया में दूध और उसके उत्पाद निर्यात करने वाले देशों में अव्वल बन जाएंगे। भारत का चर्म उद्योग दो बिलियन यूएस डॉलर का है। देश में 4,000 टेनरियां हैं जो गाय की खाल पर निर्भर हैं।
21 वीं सदी के भारत में यह क्या हो रहा है? दुनिया आगे जा रही है और हम 19वीं सदी की ओर लौट रहे हैं। ये कौन लोग हैं जो गोमांस के नाम पर इंसानों की जान ले रहे हैं? ये कौन लोग हैं जो यह तय करने पर तुले हैं कि कौन क्या खा सकता है और क्या नहीं? ये कौन लोग हैं जो गोरक्षा के नाम पर देश में हिंसा फैलाना चाहते हैं? ये कौन लोग हैं जो गाय को हिंदू-मुस्लिम में बांटकर देश में भय और आतंक का माहौल पैदा कर रहे हैं? दरअसल, गाय को धार्मिक मुद्दा बनाकर हिंदू-मुस्लिम में बांटना एक साजिश है। यह हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने की साजिश है। इसे शैतानी साजिश कहना चाहिए। शैतानी साजिश इसलिए, क्योंकि यह इंसानियत के खिलाफ है, कानून के खिलाफ है, धर्म के खिलाफ है। इस मुद्दे पर कहां गई देश की सरकार, कहां गए राजनीतिक दल और कहां गए सिविल सोसायटी के लोग। सामने आएं और उनके खिलाफ आवाज उठाएं और कड़ी से कड़ी कार्रवाई करें।
यह मेरा खुद का मानना है कि गाय के नाम पर सांप्रदायिकता को हवा दी जा रही है। इसे अविलंब रोकना होगा, वरना देश में घृणा और हिंसा का ऐसा दौर शुरू हो जाएगा, जिसे रोक पाना नामुमकिन ही नहीं मुश्किल हो जाएगा। केंद्र सरकार इस मामले में चुप्पी साधकर या गोलमटोल जवाब देकर अपने दायित्व से पीछे हट रही है। उसे देश में घृणा और हिंसा फैलाने वाले असामाजिक तत्वों से सख्ती से निपटना चाहिए लेकिन यहां खुद सरकार हिंसा और सांप्रदायिकता फैलाने वालों को बढ़ावा दे रही है। समझने वाली बात यह है कि गाय कोई धार्मिक मुद्दा नहीं है, बल्कि उसे धार्मिक मुद्दा बना दिया गया है। क्या गाय का रिश्ता भारत से मां-पुत्र का है? क्या गाय का रिश्ता देश की आर्थिक व्यवस्था से है? उक्त में से गाय का रिश्ता किसी से नहीं है लेकिन ब्राह्मणों ने न केवल इसे देश से जोड़ दिया बल्कि धर्म का जामा भी पहना दिया है। जो एक भयंकर षड्यंत्र है।
गाय का जितना महत्व हिंदुओं के जीवन में है, उतना ही महत्व मुस्लिम एवं दूसरे धर्म के लोगों के जीवन में है। लेकिन, आज भारत में धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली राजनीति उफान पर है। गाय को हिंदू-मुस्लिम के बीच बांट दिया गया। यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि मुसलमान गाय के भक्षक हैं और हिंदू गाय के रक्षक हैं, जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। देश में गायों की तस्करी करने वाले, गायों को मारने वाले, गायों पर अत्याचार करने वाले और गायों के नाम पर घोटाला करने वाले लोग मुसलमान नहीं हैं, बल्कि ज्यादातर यूरेशियन ब्राह्मण हैं। गोमांस निर्यात करने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक भी गैर-मुस्लिम अर्थात ब्राह्मण ही हैं। यह मुद्दा देश के लोगों के भविष्य से जुड़ा है, लेकिन इसे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा बना दिया गया। सरकार और राजनीतिक दलों ने कभी इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार नहीं किया। यही वजह है कि जब भी गाय की बात होती है तो मामला यहां अटक जाता है कि गोमांस की बिक्री पर पाबंदी हो या न हो। मीडिया भी इस विवाद में कदमताल करता है। पूरा मामला यहां आकर रुक जाता है कि क्या प्रजातंत्र में इच्छा के मुताबिक खाने का अधिकार है या नहीं? यही देश का दुर्भाग्य है।
एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 150 मिलियन गायें हैं। भारत में एक गाय साल भर में औसतन 200 लीटर दूध देती है। इसकी वजह यह है कि भारत में गायों का भरण-पोषण सही तरीके से नहीं होता है। वहीं इजरायल में एक गाय साल में औसतन 11 हजार लीटर दूध देती है। हम अगर ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, तो देश में दूध की नदियां बहेंगी ही, साथ ही हम पूरी दुनिया में दूध और उसके उत्पाद निर्यात करने वाले देशों में अव्वल बन जाएंगे। लेकिन, क्या गोरक्षकों ने इस पहलू पर कभी ध्यान दिया? नहीं। क्या उन्होंने कभी इस बात के लिए आंदोलन किया कि देश में नकली दूध और नकली घी क्यों बेचा जाता है? गोरक्षक सेना को यह छोटी-सी बात समझ में नहीं आती कि गायों की रक्षा इंसानों को मारने से नहीं होगी। जिस देश में छोटे-छोटे बच्चों को यूरिया से बना दूध पिलाया जाता हो, वहां गोरक्षा के नाम पर हिंसा करना मूर्खता के अलावा क्या कुछ है? गाय के नाम पर हिंसा भड़काने वालों को गाय की चिंता नहीं है, बल्कि उनकी नजर राजनीतिक फायदे और नुकसान पर है।
गो-वध करने वालों, बीफ बेचने वालों और खाने वालों की पिटाई या हत्या से यह समस्या खत्म नहीं होगी। समझने वाली बात यह भी है कि जो खुद को गोरक्षक-कार्यकर्ता मानने वाले लोग हैं, उनमें से ज्यादातर गाय ही नहीं पालते, गाय के गोबर से परहेज करते हैं और गोमूत्र को दूषित मानते हैं। भारत के गांवों की सच्चाई यह है कि करीब 90 फीसद परिवारों के पास इतनी जमीन नहीं है, जिससे उनका जीवनयापन हो सके। इन गरीब परिवारों में 43 फीसद ऐसे हैं, जो भूमिहीन मजदूर हैं और जीवन यापन के लिए दूसरे के खेतों में मजदूरी करते हैं या फिर शहर पलायन कर जाते हैं। पलायन करने वाले ज्यादातर ग्रामीण कुशल नहीं हैं, इसलिए शहरों में भी मजदूरी करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। वे घर-परिवार से दूर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। जबकि भारत का चर्म उद्योग दो बिलियन यूएस डॉलर का है। देश में 4,000 टेनरियां हैं जो गाय की खाल पर निर्भर हैं। फिलहाल जो स्थितियां हैं उनमें चर्म उद्योग की हालत बद से बदतर होती जा रही है। टेनरियों का आधुनिकीकरण नहीं हो पाया है इसलिए यह उद्योग वातावरण को प्रदूषित करने में अव्वल है। इस उद्योग में निवेश की कमी है इसलिए यह भारत में थम-सा गया है। सरकार अगर गायों की संख्या बढ़ाने के लिए कोई नीति बनाना चाहती है तो देश के तथाकथित गोरक्षकों को भी इसे हिंदू-मुस्लिम चश्मे से बाहर निकल कर देखना चाहिए। लेकिन गो-रक्षकों की जमात गाय से जुड़े मामलों को सांप्रदायिक रंग देने में कामयाब हो गई हो रही है। उसकी शैतानी साजिश के सामने सर्वशक्तिमान सरकार भी घुटने टेक चुकी है। यही वजह है कि गाय से हर जुड़ी हर बात दिशा विहीन-अर्थहीन हो गई है, इससे बड़ी मूर्खतापूर्ण बात भला क्या हो सकती है कि जो मामला जानवार से जुड़ा हुआ है उसे हमने धार्मिक रंग दे दिया। इन तथाकथित गोरक्षकों को जरा भी ज्ञान होता और राजनीतिक दलों ने गाय पर राजनीति न की होती, तो अब तक देश की दिशा और दशा बदल गई होती।
गाय किसी धर्म की बपौती नहीं है, हर धर्म के लोग उसे पालते हैं। सभी जातियों-धर्मों के लोगों को गाय से समान लगाव है, क्योंकि गाय जाति-धर्म के नाम पर किसी के साथ पक्षपात नहीं करती। जब से गाय को को धर्म से जोड़ा गया है तब से गायों की दशा बेहद दयनीय हो चुकी है। धर्म के चक्कर में पड़कर गायों को खेतों एवं जंगलों में चरने के लिए छोड़ दिया जाता है। चारे की उचित व्यवस्था न होने के कारण उनमें दूध देने की क्षमता धीरे-धीरे घट रही है। इसके अलावा वह बच्चे को जन्म देने के बाद छह-सात महीने तक ही दूध देती है। इसका असर यह हुआ कि लोगों ने गाय छोड़कर बकरी पालना शुरू कर दिया। बकरी पालने का फायदा यह है कि लोग उसे आसानी से बाजार में बेच लेते हैं, लेकिन गाय को लेकर देश में इतना भावनात्मक माहौल बना दिया गया है, जिसकी वजह से उसे बेचना मुश्किल हो रहा है। यहीं से गाय की तस्करी का खेल शुरू होता है।
आपको जानकर हैरानी हो जाएगी कि गाय को गांव से बूचड़खाने तक पहुंचाने का काम एक गैर-कानूनी नेटवर्क अंजाम दे रहा है और वह पूरा नेटवर्क यूरेशियन ब्राह्मण ही चला रहे हैं। गाय को गांव से उठाने वालों से लेकर बूचड़खाने चलाने वालों तक केवल यूरेशियन ब्राह्मण हैं।
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