रविवार, 16 जुलाई 2017

शूद्र और आर्य


ब्राह्मण शास्त्राकारों से यह नहीं पता चलता कि शूद्र कौन थे और चौथा वर्ण कैसे बना। पाश्चात्य विद्वानों ने इसके बारे में कुछ अवश्य कहा है। वैसे तो उनमें भी आपस में कुछ मतभेद है परंतु निम्नलिखित बातों पर वे सहमत हैं

  1. वैदिक साहित्य के रचयिता आर्य थे।
  2. आर्य भारतवर्ष के बाहर से आये और भारत को विजय किया।
  3. उस समय भारतवर्ष के निवासी दास तथा दस्यु थे। वे आर्य जाति से भिन्न जाति के थे।
  4. आर्य गोरे थे और दास तथा दस्यु सांवले थे।
  5. आर्यों ने दासों तथा दस्युओं को जीत लिया।
  6. जब दास दस्यु जीत लिए गये तब वे लोग दास बना लिए गये और शूद्र कहलाये।
  7. आर्य लोग वर्ण (रंग) के पक्षपाती थे अतएव उन्होंने चातुर्वर्ण गोरी जातियों को काली जाति जैसे एक और दस्यु से भिन्न करने को बनाया।

ये सिद्धांत सही हैं या नहीं यह और बात है परंतु पाश्चात्य सभी विद्वान इन पर एकमत हैं। कम से कम ये सिद्धांत न्यायसिद्ध प्रतीत होते हैं।

इन सिद्धांतों की जांच टुकड़े टुकड़े हो सकती है। पहला प्रश्न यह है कि आर्य जाति कौन थी। जाति उस जन समुदाय को कहते हैं जिसमें जन्म परम्परा से कुछ विशेष लक्षण पाये जाते हैं। किसी समय लोगों की यह धारणा थी कि ये लक्षण इस प्रकार हैंᄉ 1. सिर की बनावट 2. बाल और आंख का रोग 3. चर्म का रोग 4. लम्बाई। आधुनिक धारणा केवल सिर की बनावट है। सिर की बनावट से मनुष्य की जाति कैसे जानी जाती है, इसका एक शास्त्रा ही बन गया है, उसका नाम है मनुष्य शरीर रचना शास्त्रा श्।दजीतवचवसवहलश्। प्रोफेसर रिप्ले का, जो इस शास्त्रा के विशेषज्ञ माने जाते हैं, मत है कि यूरोपीय लोग भागों में विभाजित हो सकते हैं।

यूरोपीय नीति 

जाति सिर चेहरा बाल आंख कद नाक
टियुटोनिक लम्बा लम्बा हल्का रंग नीली लम्बा पतली
अल्पाइन गोल चौड़ा भूरा रंग भूरी मध्यम चौड़ी व (केल्टिक) तथा दृढ़ भारी
मेडीट्रेनियन लम्बा लम्बा गहरा भूरा काली मध्यम कुछ चौड़ी या काला पतला

(यूरोप की जातियांᄉ लेखक प्रोफेसर रिप्ले, पृष्ठ-121) इन तीनों में आयोर्ं का कोई स्थान नहीं दिखायी पड़ता। आर्य कौन थे, इस पर दो मत हैं। पहला उनके पक्ष में हैᄉ
''आयोर्ं के लक्षणᄉ लम्बा सिर, पतली खूबसूरत नाक, लम्बा चेहरा, अच्छा गढ़न और कद लम्बा और पतला।''
दूसरा मत प्रोफेसर मैक्समूलर का है। यह मत भाषा के आधार पर है।
''अर तथा आरा शब्द बहुत प्राचीन हैंᄉ इसका मतलब है धरती। अतएव आर्य शब्द का अर्थ गृहस्थ तथा धरती जोतने वाला हो सकता है। वैश्य शब्द ÷विश' से निकला है। ÷विश' का आर्थ ÷गृहस्थ' है। मनु की लड़की ÷इड़ा' का अर्थ है ÷जुती हुई धरती'। सम्भवतः ÷इड़ा' शब्द ÷अरा' से निकला है।'' ;ैबपमदबम वि स्ंदहनंहम टवसण् प्ण्च्ण् 276.277द्ध।
दूसरा अर्थ प्रोफेसर मैक्समूलर ने यह दिया हैᄉ
''आर्य शब्द का अर्थ मालूम होता है धरती जोतने वाला सम्भवतः यह शब्द आयोर्ं ने स्वयं चुना क्योंकि तुरा का अर्थ है शीघ्रगामी इसी से तुरानियों का नाम पड़ा क्योंकि वे घूमते फिरते थे।''
उनका पुनः कहना है किᄉ
''कोई आर्य जाति नहीं थी। आर्य एक भाषा का नाम है।'' ;ठंपहतवचील वि ूवतके चण् 89 ंदक 120.121द्ध
अब देखें वेदों ने इस पर क्या प्रकाश डाला है। ऋग्वेद में ÷अर्य' और ÷आर्य' शब्द दोनों ही पाये जाते हैं। ÷अर्य' शब्द 88 स्थानों में आया है। इसका अर्थ है (1) शत्राु (2) माननीय पुरुष (3) देश का नाम (4) मालिक। ÷आर्य' शब्द 31 स्थानों में आया है परंतु जाति के अर्थ में नहीं। अतएव आर्य शब्द से मानव जाति विशेष का कोई निश्चय नहीं होता।
आर्यों के बारे में यह कहा जाता है कि वे बाहर से भारतवर्ष में आये और भारत की रहने वाली जातियों को जीता। अतएव दूसरा प्रश्न है कि आर्य कहां से आये। इसके बारे में बहुत से मत हैं। आर्य भाषा के आधार पर वेनफ्रे साहब ने उनका आदिस्थान कालासागर के उत्तर में निश्चय किया है परंतु ग्रियर्सन ने केन्द्रीय तथा पश्चिमी जर्मनी निश्चय किया है। आयोर्ं के चेहरे और आकार से कुछ लोग काकेशस को आयोर्ं का असली घर बताते हैं। परंतु प्रोफेसर रिप्ले का मत इसके विरुद्ध है। लोकमान्य तिलक का मत है कि आर्य उत्तरी ध्रुव के पास आर्कटिक देश से आये ;।तबजपब भ्वउम पद जीम अमकंश्े इल ठण्ळण् ज्पसां च्ण् 58.60द्ध यह मत भी कुछ ठीक नहीं जंचता क्योंकि वेदों में तथा आयोर्ं के जीवन में अश्व का विशेष स्थान है। क्या घोड़े उत्तरी ध्रुव के पास पाये जाते थे ?
तीसरा प्रश्न है कि क्या आर्य भारतवर्ष में आये और यहां की स्थानीय जातियों को जीता। ऋग्वेद में तो ऐसा कोई मत नहीं है, जिससे ज्ञात हो कि आर्य बाहर से आये। उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य भारत के रहने वाले थे। वेदों में सात नदियों का वर्णन है। बार बार मेरी गंगा मेरी यमुना तथा मेरी सरस्वती का जिक्र है। यदि आर्य बाहर से आते तो ऐसा न कहते।
अब वही बात स्थानीय जातियों के ऊपर विजय प्राप्ति की। वेदों में दासों तथा दस्युओं और आयोर्ं के बीच में किसी बड़े युद्ध का वर्णन नहीं है। शायद कोई छोटे मोटे झगड़े स्थान स्थान पर हो गये हों। ऋग्वेद मंत्रा 6-33-3, 7-83:1, 8-51-9 तथा 10-102-3 से ज्ञात होता है कि दास तथा दस्यु आयोर्ं के साथ साथ एक होकर सर्व लौकिक शत्राुओं से लड़े। आयोर्ं तथा दास और दस्युओं में कोई झगड़ा था भी तो धर्म का था। ऋग्वेद (10-22-8) में लिखा है कि ÷हम लोग दस्यु जातियों के बीच में रहते हैं वे लोग यज्ञ नहीं करते और किसी में भक्ति नहीं रखते। उनकी रीतियां पृथक हैं वे मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। शत्राु के नाश करने वाले इन लोगों का नाश कीजिये।'
इन मंत्राों से कोई बड़ी लड़ाई का आभास नहीं होता। अभी तक जांच आयोर्ं के दृष्टिकोण से होती रही है, अब दासों तथा दस्युओं के दृष्टिकोण से देखिये। क्या दास या दस्यु नाम की कोई जाति थी ? कुछ लोगों का मत है कि ऐसी कोई जाति थी। इसके दो कारण हैं (1) कि ऋग्वेद में ÷मृध्रावक' तथा ÷अनास' दस्युओं के गुण बताये गये हैं (2) कि ऋग्वेद में दास कृष्ण वर्ण के कहे गये हैं। मृध्रावक शब्द ऋग्वेद में चार बार आया है। इसका अर्थ है ÷वे लोग जो मधुर नहीं बोलते' इससे किसी जाति की भिन्नता का आभास नहीं होता।
÷अनास' शब्द ऋग्वेद के 5-29-10 में आया है। इस शब्द के अर्थ के बारे में दो मत हैं (1) प्रोफेसर मैक्समूलर का और (2) सायणाचार्य का। मैक्समूलर के अनुसार इस शब्द का अर्थ है ÷बिना नाक का या चिपटी नाक का।' सायणाचार्य के अनुसार इसका मतलब हैᄉ ÷बिना मुंह के' ये दो अर्थ पद विच्छेद के कारण हुए यथा अन+आस तथा अ+नास। सायणाचार्य का अर्थ सही विदित होता है। बिना मुंह का अर्थ है कि इनकी भाषा मधुर न थी। ऋग्वेद 6-47-21 में दासों को कृष्ण योनि का बतलाया गया है। ऐसा केवल एक ही स्थान पर कहा गया है फिर यह शब्द अलंकार के तौर पर प्रयुक्त किया गया है। तीसरा कारण यह हो सकता है कि दासों के प्रति घृणा के कारण ऐसा कहा गया हो।
अब निम्नलिखित मंत्राों पर ध्यान दीजियेᄉ
ऋग्वेद 6-22-10 : ÷हे वज्रि तूने दासों को आर्य बनाया है। अपनी शक्ति से बुरे को अच्छा बनाया। हमको वही शक्ति प्रदान कर ताकि हम अपने शत्राुओं पर विजय प्राप्त करें।'
ऋग्वेद 10-49-8 : (इंद्र ने कहा) ÷हमने दस्युओं का आर्य कहलाना बंद कर दिया।'
ऋग्वेद 1-151-8 : ÷हे इंद्र यह मालूम कीजिये कि आर्य कौन है और दस्यु कौन है। इन दोनों को पृथक पृथक कीजिये।'
इन मंत्राों से प्रकट होता है कि आयोर्ं तथा दासों और दस्युओं में जातीय भिन्नता न थी। दास तथा दस्यु आर्य हो सकते थे। आर्य एक जाति है यह एक मनगढ़ंत बात है। इसका आधार डाक्टर बॉप की पुस्तक ब्वउचमतंजपअम ळतंउउंत है। इस पुस्तक में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि सारी योरोपीय भाषाएं एक ही भाषा से निकली हैं। यह भाषा आर्य भाषा है। इससे लोगों ने दो परिणाम निकाले (1) यह कि यह भाषा किसी जाति की भाषा थी और (2) यह कि यह आर्य जाति थी। इससे यह भी अनुमान किया गया कि आर्य जाति का एक ही निवास स्थान है। आर्य जाति और जातियों से ऊंची है इसके लिए यह बात गढ़ी गयी कि आयोर्ं ने भारतवर्ष पर धावा किया और दास दस्यु जाति को जीता। यह बात भी केवल अनुमान मात्रा है कि आर्य गोरे थे। रंग के बारे में प्रोफेसर रिप्ले का कथन है कि यूरोप की पुरानी जातियों का सिर लम्बा था और रंग सांवला। ;त्वबमे म्नतवचम चण् 466द्ध यही बात वेदों में भी सिद्ध है।
ऋग्वेद 1-117-8 में कहा गया है कि आश्विन ने श्याव्या और रूसानी से ब्याह किया। श्याव्या काली और रूसानी गोरी थी।
ऋग्वेद 1-117-9 में आश्विन का रंग सुनहला बताया गया है। ऋग्वेद 2-3-9 में एक आर्य ने स्तुति की है कि हे भगवन्‌ मुझे गेहुंआ रंग का पुत्रा न मिले।
ऋग्वेद 10-31-11 के अनुसार कण्व ऋषि सांवले थे। इन बातों से पता चलता है कि आर्य गोरे, लाल और सांवले रंग के थे अतएव परिणाम यह है किᄉ
(1) यह सिद्ध नहीं है कि आर्य जाति कोई जाति थी या नहीं।
(2) वेदों से यह सिद्ध नहीं होता कि आयोर्ं ने भारतवर्ष पर धावा किया और दासों और दस्युओं पर विजय प्राप्ति की।
(3) इसका कोई प्रमाण नहीं है कि आर्य, दास तथा दस्यु भिन्न भिन्न जाति के थे।
(4) वेदों से यह सिद्ध नहीं है कि आयोर्ं का रंग, दास तथा दस्युओं से भिन्न था।

आयोर्ं के विरुद्ध आर्य 

आयोर्ं के बारे में जो सिद्धांत योरोपीय विद्वानों द्वारा प्रतिपादित किया गया उसे ब्राह्मणों ने सत्य मान लिया परंतु पहले चार अध्यायों में दिखाया गया है कि वह सिद्धांत कितना गलत और बेबुनियाद है। अतएव उसका अधिक अन्वेषण उचित है।
जो लोग इस मत के मानने वाले हैं कि आयोर्ं ने बाहर से आकर भारतवर्ष में दासों तथा दस्युओं पर विजय प्राप्ति की वे ऋग्वेद की उन ऋचाओं को भूल जाते हैं जो इस मत को निर्मूल प्रमाणित करती हैं। वे ऋचाएं नीचे उद्धृत हैंᄉ
(1) ऋग्वेद 6-33-3 : ओ इंद्र! तूने मेरे दोनों शत्राुओं यानी दासों तथा आर्यों को मार डाला। (2) ऋग्वेद 6-60-3 : इंद्र तथा अग्नि धर्म और न्याय के रक्षक हैं। ये उन आयोर्ं तथा दासों को दलित करते हैं जो हमें दुःख देते हैं।
(3) ऋग्वेद 7-81-1 : इंद्र और वरुण ने दासों और आयोर्ं को मार डाला क्योंकि ये लोग शूद्रोर्ं के शत्राु थे। इस प्रकार शूद्रों की रक्षा हुई।
(4) ऋग्वेद 8-24-27 : ओ इंद्र ! तूने हम लोगों की राक्षसों और उन आयोर्ं से रक्षा की, जो सिन्धु नदी के तट पर रहते हैं। अब दासों को भी निःशस्त्रा कर।
(5) ऋग्वेद 10-38-3 : ओ पूज्य इंद्र ! वे दास और आर्य जो अधर्मी हैं और जो मेरे शत्राु हैं उनका दमन करने में अपने आर्शीवाद द्वारा मदद करो, तुम्हारी मदद से हम उन्हें मार डालेंगे।
(6) ऋग्वेद 10-86-19 : ओ मामेयु ! जो तुम्हारी स्तुति करता है उसे तुुम शक्ति देते हो। तुम्हारी सहायता से हम अपने शत्राु आयोर्ं और दस्युओं को पराजित करेंगे।
(2)
इन ऋचाओं से सिद्ध होता है कि दो जातियां थीं जो एक दूसरे से भिन्न थीं और आपस में द्वेष भाव रखती थीं। इस बात का प्रमाण बारम्बार मिलता है। वेदों से ही आरम्भ कीजियेᄉ
तै. सं. 6-5-6-1 में अदिति के पुत्राों का वर्णन है। अदिति के चार आदित्य पैदा हुए। आदित्य वैवस्वत से मनुष्यों की उत्पत्ति हुई।
शतपथ ब्राह्मण 1-8-1-1 में कहा गया है कि मनु को हाथ धोते समय एक मछली मिली। उसने मनु से कहा कि मुझे बचाओ मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी। मछली बड़ी होते होते समुद्र में डाल दी गयी। जब प्रलय हुई और केवल जल ही जल रह गया तो उसने मनु की नाव को बचाया। मनु ने विश्वोत्पत्ति की इच्छा से यज्ञ प्रारम्भ किया और बचे हुए दूध, दधि तथा मक्खन की हवि को पानी में डालते गये, उससे एक कन्या इड़ा नामक उत्पन्न हुई। उसी द्वारा विश्वोत्पत्ति हुई। शतपथ ब्राह्मण 6-1-2-11 में कहा गया है कि विश्व की उत्पत्ति प्रजापति से हुई। उन्होंने ऊपर के वायु से देवताओं और नीचे के वायु से राक्षसों की उत्पत्ति की। फिर श.ब्रा. 7-5-2-6 में कहा है कि प्रजापति ने अपने श्वास से पशुओं को, आत्मा से मनुष्यों को, आंख से घोड़े को, श्वास से बैल को, कान से भेड़ को, शब्द से बकरों को पैदा किया।
(3)
श.ब्रा. 14-4-2-1 में और ही वर्णन है। सृष्टि के प्रारम्भ में केवल आत्मा था उसे पुरुष कहते हैं। उसने कहा ÷सोऽहं' यानी मैं हूं वह। पुरुष की इच्छा हुई कि हम दो हों। अतएव उसने अपने को दो हिस्सों में कर दिया जैसे मटर के दो भाग होते हैं। दूसरा भाग स्त्राी हुई। उससे उसने रमण किया और मानव पैदा हुए। स्त्राी ने सोचा कि मैं इससे पैदा हुई हूं अतएव इससे रमण कैसा?अतएव वह गाय बन गयी और पुरुष बैल। उनसे गाय पैदा हुई। फिर उसने घोड़ी का रूप धारण किया और पुरुष ने घोड़े का। फिर उसने गधी और दूसरे ने गधे का रूप धारण किया। इनसे बिना फटे हुए खुर के पशु पैदा हुए। फिर एक बकरी बनी दूसरा बकरा। एक भेड़, दूसरा दुम्मा। इसी प्रकार सब जोड़े के जीव पैदा होते गये।
तैत्तरेय ब्राह्मण 2-2-9-1 में इस प्रकार वर्णन हैᄉ
''आदि में कुछ नहीं था। न आकाश, न पृथ्वी, न हवा। ब्रह्मा ने इरादा किया कि मैं होऊं। फौरन एक शक्ति पैदा हो गयी। शक्ति से एक धुआं पैदा हुआ। फिर अग्नि, फिर रोशनी, फिर प्रकाश, फिर बादल, फिर समुद्र और फिर प्रजापति पैदा हुए।
''प्रजापति ने सोचा कि मैं क्यों पैदा हुआ। जो आंसू पानी में गिरा उससे पृथ्वी, जो उड़ गया उससे हवा और आकाश बना। प्रजापति ने तपस्या की और अपने उदर से असुरों को पैदा किया। इसके बाद उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दिया तो अंधकार हो गया। फिर उनको सृजन की इच्छा हुई तो मनुष्यों को योनि से पैदा कियाᄉ देवताओं को मुख से पैदा किया।''
(4)
महाभारत के वाण पर्व में सृष्टि मनु द्वारा कही गयी है।
मनु वैवस्वत के पुत्रा प्रजापति के समान तेजवान थे। उन्होंने दस हजार वर्ष तपस्या की। एक दिन चिरिणी नदी के किनारे उनके पास एक छोटी सी मछली आयी और कहने लगी ÷भगवन मुझे बचाइये बड़ी मछली मुझे खा जायेगी।' मनु ने उस मछली को एक घड़े में डाल दिया। वह बढ़ते बढ़ते इतनी बड़ी हुई कि घड़े में न समा सकी। तब मनु ने उसे एक तालाब में, जो दो योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा था, डाल दिया। उसमें भी वह इतनी बड़ी हुई कि समा न सकी। तब मनु ने उसे गंगा में डाल दिया। उसमें भी वह इतनी बड़ी हुई कि समा न सकी। तब मनु ने उसे समुद्र में डाल दिया। जब प्रलय हुई तो उस मछली ने मनु से कहा कि एक बड़ी नौका में आप बैठ जाएं। मनु ने अपनी नौका उसके दांतों से बांध दी। बड़ी तेजी के साथ वह मछली उस नौका को खींच कर ले चली और हिमालय के शिखर पर पहुंची। तब उसने कहा कि आप अपनी नौका इस शिखर पर बांध दें। उस शिखर का नाम नौ बंधन प्रसिद्ध हो गया। तब उस मछली ने कहा मैं प्रजापति ब्रह्मा हूं। मनु द्वारा अब सर्व सृष्टि की उत्पत्ति होगी। मछली अंतर्ध्यान हो गयी और मनु ने सृष्टि का सृजन प्रारम्भ किया।
महाभारत के आदिपर्व में सृष्टि का वर्णन भिन्न हैᄉ
ब्रह्मा के छः मानस पुत्रा थे मरीचि, अत्रिा, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु। कश्यप मरीचि के पुत्रा हुए। कश्यप से सब जीव पैदा हुए।
(5)
रामायण के दूसरे कांड में वर्णन इस प्रकार है कि वशिष्ठ ने राम से कहाᄉ
''आदि में पानी के अतिरिक्त कुछ नहीं था। फिर पृथ्वी बनी। उसके बाद ब्रह्मा स्वयम्‌ मनु हुए। उन्होंने वराह (सुअर) का रूप धर कर पाताल से पृथ्वी को निकाला और अपने लड़कों द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा, जो अमर हैं, आकाश से पैदा हुए। ब्रह्मा से मारीचि और मारीचि से कश्यप पैदा हुए। कश्यप के वैवस्वत और वैवस्वत के मनु हुए। मनु पहले सृष्टि के बनाने वाले प्रजापति थे। मनु के इक्ष्वाकु हुए जो कि अयोध्या के राजा थे।''
एक दूसरी कथा तीसरे कांड में यों है कि जटायु ने राम से कहाᄉ ''प्रजापतिगण सबसे आदि में थे। उनके नाम यह हैं कर्दम, विकृत, शेष, समस्त्राय, महाबली बाहुपुत्रा, स्थान, मरीचि, अत्रिा, क्रतु, पुलस्त्य, अंगिरा, प्रचेता, पुलह और अंत में कश्यप। दक्ष प्रजापति के साठ लड़कियां थीं। आठ लड़कियां कश्यप को ब्याही गयीं। कश्यप की स्त्राी मनु से सब आदमी पैदा हुए। ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिाय वक्षस्थल से, वैश्य जंघा से और शूद्र पैर से पैदा हुए। अनल नाम स्त्राी से वृक्ष और फल पैदा हुए।''
(6)
अब पुराणों की ओर ध्यान दीजिये। विष्णु पुराण में इस प्रकार वर्णन है : आदि में हिरण्यगर्भ ब्रह्म थे। ब्रह्म के दाहिने अंगूठे से प्रजापति दक्ष उत्पन्न हुए। दक्ष की एक लड़की अदिति थी। उससे वैवस्वत पैदा हुए और वैवस्वत से मनु। मनु ने पुत्रा की इच्छा से तपस्या की, परंतु कुछ गलती से इड़ा नामक लड़की पैदा हुई। फिर मित्रा व वरुण की कृपा से एक पुत्रा मनु उत्पन्न हुआ। मनु महादेव के शाप से स्त्राी हो गया। मनु सोम के पुत्रा बुद्ध ऋषि के आश्रम पर गये। बुद्ध मनु पर आसक्त हुए और एक पुत्रा पुरूरवा नामक पैदा हुआ। मनु का पुत्रा प्रिशाध्र अपने गुरु की गाय के वध के पाप से शूद्र हो गया। मनु के पुत्रा करुश से क्षत्रिाय पैदा हुए और नभाग से वैश्य हुए।
विश्र्वोत्पत्ति के इन वर्णनों का मिलान यदि दूसरे अध्याय के वर्णन से किया जाय तो परिणाम यह निकलता है कि 1. एक वर्णन दुनियावी है और दूसरा नैसर्गिक 2. एक का कथन है कि मनु मनुष्य थे, जिनसे सब प्राणी पैदा हुए और दूसरे का कथन है कि ब्रह्मा ने सृष्टि बनायी। 3. एक ऐतिहासिक है और दूसरा दैविक। 4. एक में प्रलय का वर्णन है दूसरे में नहीं। 5. एक में चातुर्वर्ण की व्याख्या है दूसरे में समाज के आदि का वर्णन है। एक का कथन है कि चातुर्वर्ण विभाग दैवी और ईश्र्वरीय है। दूसरे का मत है कि मनु के पुत्राों से चातुर्वर्ण पैदा हुआ। इन बातों से यही परिणाम निकलता है कि आयोर्ं की दो शाखाएं थीं। एक चातुर्वर्ण को मानती थी और दूसरी नहीं मानती थी। सब जानते हैं कि वास्तव में दो ही वेद हैं, एक ऋग्वेद और दूसरा अथर्ववेद। जब तक इन दोनों शाखाओं में वैमनस्य था तब तक अथर्ववेद नहीं माना गया। जब वे आपस में मिल गये तब, अथर्ववेद ऋग्वेद के बराबर माना जाने लगा।

(7)
सबसे माननीय प्रमाण मानव शास्त्राान्वेषण का था। पहला अनुसंधान सर हरवर्ट रिजले ने 1901 ई. किया। उनका कथन है कि भारतीय चार जातियों, यानी आर्य, द्रविड़, मंगोल और सिथियन के मिश्रण हैं। सं. 1936 में डॉ. गुहा ने पुनः अनुसंधान किया। उनके अनुसार भारतीय दो जाति के हैं यानी लम्बे सिर वाले और छोटे सिर वाले। पश्चिम में भी मेडीवरेनियन के लोग लम्बे सिर वाले और अल्पस प्रदेश के लोग छोटे सिर वाले थे। मेडिनियन लोग योरोप में रहते थे और आर्य भाषा बोलते थे। अल्पस एशिया के हिमालय प्रदेश में रहते थे और आर्य भाषा बोलते थे।
(8)
अतएव हर प्रकार से यह सिद्ध है कि आयोर्ं की दो जातियां थीं जैसा कि ऋग्वेद से प्रकट होता है। अतएव पश्चिमी सिद्धांत कि आर्य एक हैं और उन्होंने हिन्दुस्तान में आकर दासों और दस्युओं पर विजय पायी, सही नहीं है।
शूद्र और दास
पिछले अध्यायों में यह बात सिद्ध कर दी गयी है कि आयोर्ं के बारे में पश्चिमी मत कितना गलत है। अब केवल यह जांच करनी है कि शूद्र कौन हैं।
श्री ए. सी. दास ने अपनी पुस्तक त्पहअमकपब ब्नसजनतम पृष्ठ 133 में कहा है किᄉ''दास और दस्यु या तो जंगली जाति के थे या वैदिक आयोर्ं से भिन्न थे। जो लोग लड़ाई में पकड़ लिए गये वे गुलाम बना लिए गये और शूद्र कहलाये।''
श्री काणे, जो कि पश्चिमी मत के मानने वाले हैं, का कहना है किᄉ''दास का अर्थ है गुलाम। इसका मतलब यह है कि ऋग्वेद में दास वे लोग हैं जिनको आयोर्ं ने हराया और गुलाम बना लिया। मनुस्मृति में कहा गया है कि शूद्र ब्राह्मणों की सेवा के लिये बनाये गये हैं। तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण तथा और ब्राह्मणों में शूद्रों की वही स्थिति बतायी गयी है जो वेदों में कही गयी है। इससे यही सिद्ध होता है कि दासों को आयोर्ं ने हराया। वही लोग शूद्र कहलाये। (धर्मशास्त्रा का इतिहास 2 (1) पृष्ठ 33)
इन उक्तियों से निम्नलिखित परिणाम निकलते हैंᄉ
(1) दास तथा दस्यु लोग ही शूद्र हैं (2) शूद्र अनार्य हैं और (3) शूद्र जंगली तथा असभ्य थे। इन सिद्धांतों की जांच उचित है।
पहली बात असल में दो हैं अर्थात्‌ दास और दस्यु एक हैं और वे ही शूद्र हैं। ऋग्वेद में बहुधा दास तथा दस्यु एक साथ कहे गये हैं जिससे यह आभास होता है कि दोनों एक ही हैं। परंतु दास शब्द 54 बार आया है, और दस्यु 78 बार, ऐसा क्यों ? इससे विदित होता है कि ये दोनों भिन्न भिन्न थे।
दूसरी बात यानी दास तथा दस्यु शूद्र हैं यह निर्मूलक प्रतीत होती है। शूद्र शब्द निकला है शुक (दुःख)+द्र (बेधित) अर्थात्‌ जो दुख से बेधित है वह शूद्र है। यह सिद्धांत तो केवल शब्दार्थ पर बना है। शब्दार्थ के बारे में प्रोफेसर मैक्समूलर का इस प्रकार कथन हैᄉ''थोड़े पढ़े लिखे आदमी कोई भी सिद्धांत, जो शब्दार्थ के आधार पर हो, जल्द मान लेते हैं। आरण्यकों में शब्दार्थ पर निर्धारित सिद्धांत बहुत से हैं जो कि सर्वथा निर्मूलक हैं। शब्दों की बाजीगरी असली मतलब को नहीं प्रकट करती।'' ;न्चदपेींके प्दजतवकनबजपवद च्च् स्ग्ग्प्ग्.स्ग्ग्ग्प्द्ध
यह चेतावनी इस बात के लिए पर्याप्त है कि यह सिद्धांत कि शूद्र वे लोग जो दुखी थे, न माना जाय।
इसके विपरीत बहुत से प्रमाण इस बात के मिलते हैं कि शूद्र एक जाति का नाम था नकि दुखी जनों को शूद्र कहते थे। सिकंदर के धावे को इतिहासकारों ने लिखा है कि जब सिकंदर हिन्दुस्तान आया तब हिन्दुस्तान में बहुत से राज्य थे। प्रत्येक राज्य में किसी विशेष जाति का प्रभुत्व था और उसी के नाम से वह राज्य पुकारा जाता था। इनमें एक जाति सोदरियों की थी। यह वह जाति है जो सिकंदर से लड़ी। लैसेन ने कहा है कि यह जाति शूद्र थी। पतंजलि ने महाभाष्य 1-2-3 में आभीरों को शूद्र बताया है। महाभारत सभापर्व में शूद्रों के राज्य का वर्णन है। विष्णुपुराण और ब्रह्मपुराण शूद्र जाति का वर्णन करते हैं जो कि हिन्दुस्तान के विन्ध्यक्षेत्रा के पश्चिम में रहती थी।
(2)
दूसरे सिद्धांत के भी दो अंश हैं (1) क्या दास तथा दस्यु शब्द अनायोर्ं का सांकेतिक है (2) क्या वे हिन्दुस्तान के रहने वाले थे। जब तक ये दोनों बातें सिद्ध न हो जाएं यह नहीं कहा जा सकता कि दास तथा दस्यु अनार्य थे।
दस्यु शब्द के बारे में कोई प्रमाण इस बात का नहीं मिलता कि यह एक अनायोर्ं की जाति थी। विपरीत उसके इस बात के प्रमाण अवश्य हैं कि दस्यु वे लोग थे जो आर्य धर्म नहीं मानते थे। महाभारत शांतिपर्व अध्याय 65 श्लोक 23 इस प्रकार हैᄉ
दृश्यंते मानुषेषु लोक सर्वे वर्णेषु दस्यवः।
लिंगांतरे वर्तमाना आश्रमेषु वतुर्ष्वपि॥
अर्थात्‌ सभी वर्णों में और सभी आश्रमों में दस्यु पाये जाते हैं। अतएव दस्यु शब्द किसी जाति विशेष का नाम नहीं था।
दास शब्द के बारे में जिंदावेस्ट का ÷अजीदाहक' शब्द पर विचार किया जाय। इसका अर्थ है ÷काटने वाला अजगर।' यह राक्षस इसलिए पैदा हुआ था कि दुनिया से धर्म को नष्ट कर दे। इसका युद्ध यिमा नाम राजा से हुआ था। प्रश्न यह है कि क्या जिंदावेस्ट का शब्द दाहक और ऋग्वेद का शूद्र एक ही है। यह बात ठीक मालूम होती है क्योंकि ये कहा गया है कि अजीदाहक के तीन मुंह, तीन सिर और छः आंखें थीं और ऋग्वेद (10-99-6) में दास के तीन सिर और छः आंखें बतायी गयी हैं। अतएव यदि शूद्र व दाहक शब्द एक है तो दास हिन्दुस्तान की किसी जाति का नाम नहीं हो सकता।
(3)
क्या दास और दस्यु जंगली थे। नहीं वे आयोर्ं की तरह सभ्य और उनसे भी अधिक शक्तिशाली थे। इसका प्रमाण आयंगर ने दिया हैᄉ दस्यु शहरों में रहते थे (ऋ. वे. 1-53-8;1-103-3) इनके पास प्रचुर द्रव्य था (ऋ. वे. 8-40-3) गाय, घोड़ा तथा रथ थे। (ऋ. वे. 2-15-4) ये सब सौ फाटक वाले नगर में रखे जाते थे। (ऋ. वे. 10-99-3) इंद्र ने यह सब लेकर अपने भक्त आयोर्ं को दे दिये। (ऋ. वे. 1-176-4) दस्यु धनी थे (ऋ. वे. 1-33-4) उनकी जायदाद मैदान तथा पहाड़ों पर थी। (ऋ. वे. 10-69-6) उनके वस्त्रा सोने तथा रत्नों से सुशोभित थे। (ऋ. वे. 1-33-8) उनके पास बहुत से दुर्ग थे (ऋ. वे. 1-33-13; 8-17-14) दस्यु असुर लोग और आर्य देवगण सब सोने, चांदी तथा लोहे के किलों में रहते थे। (ऋ. वे. 5 128 18; ऋ. वे. 2-20-8) देवदास के बार बार स्तुति करने पर इंद्र ने दस्युओं के सौ पत्थर के दुर्ग को जीत लिया। (ऋ. वे. 4-30-20) आयोर्ं की पूजा से संतुष्ट होकर अग्नि ने दस्युओं के नगरों को भस्म कर दिया (ऋ. वे. 7-5-3) जिन पत्थर के कारागारों में आयोर्ं के पशुओं को लोगों ने बंद कर दिया था, उन कारागारों को बृहस्पति ने तोड़ दिया (ऋ. वे. 4-67-3) दस्यु रथों पर चढ़ कर आयोर्ं की तरह युद्ध में आते थे और आयोर्ं ही की तरह शस्त्रा प्रयोग करते थे। (ऋ. वे. 8-24-27; 3-30-5; 2-15-4) अतएव यह स्पष्ट है कि दास और दस्यु न तो शूद्र थे न जंगली थे। यह बात केवल कुछ विद्वानों द्वारा प्रचलित हो गयी। इस सिद्धांत की स्थिति केवल अनुमान पर है। वास्तविक प्रमाण कोई नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है ऋग्वेद में दास शब्द 54 बार दस्यु शब्द 78 बार प्रयुक्त किया गया है परंतु आश्चर्य की बात तो यह है कि शूद्र शब्द का प्रयोग केवल एक बार हुआ। एक और विचित्रा बात यह है, कि ज्यों ज्यों समय बीतता गया वैदिक साहित्य से दास और दस्यु शब्द लुप्त होते गये और शूद्र शब्द का प्रयोग बढ़ता गया। आर्य वैदिक साहित्य में शूद्र शब्द का मानो नाम ही नहीं है परंतु बाद का साहित्य इस शब्द से भरा पड़ा है। इससे यह बात सिद्ध है कि दास और दस्यु दोनों आयोर्ं में मिल खप गये और वे शूद्र जाति से (जो बाद में उत्पन्न हुई) भिन्न थे।
क्या शूद्र अनार्य थे ?
काणे का कहना है किᄉ''धर्मसूत्राों के काल में शूद्र और भिन्नᄉभिन्न थे। तांड्य ब्राह्मण में शूद्रों और आयोर्ं के दिखावटी युद्ध का वर्णन है। वह इस प्रकार किया जाता था कि आयोर्ं ही की जीत रहे। आपस्तम्ब धर्मसूत्रा (ऋ. वे. 1-3-40-41) में कहा गया है कि ब्रह्मचारी जो कुछ भिक्षा लावे उसे खावे और जो कुछ बच रहे उसे किसी आर्य के सन्निकट रख दे अथवा आपने गुरु के सेवक शूद्र को दे देवे। इसी प्रकार गौतम (10-69) में शूद्र शब्द अनार्य के लिए प्रयुक्त किया गया।'' (काणे रचित धर्मशास्त्रा का इतिहास प्प् (1) पृष्ठ 35)
इस सिद्धांत की पुष्टि निम्नलिखित ऋचाओं से होती है।
(अ. वे. 4-20-4) : ''सहस्त्रा आक्षीदेव इस पौधे को मेरी दाहिनी हथेली पर रख दें। मैं आयोर्ं और शूद्रों को एक तरह देखता हूं।''
कथक संहिता (34-5) : ''शूद्र्र और आर्य धर्म के लिए झगड़ा करते हैं। देव असुरों में सूर्य के लिए झगड़ा हुआ। देवों ने सूर्य को पा लिया। इस झगड़े में भी आयोर्ं की विजय होगी। आर्य वेदी के अंदर और शूद्र वेदी के बाहर होंगे। चर्म श्वेत वर्ण सूर्य के आकार का होगा।''
वाजसनेयी संहिता (23-30-31) : ''जब हिरन खेत को खा जाता है तो खेत वाला हिरन से प्रसन्न नहीं होता। जो आर्य शूद्र स्त्राी से प्रेम करेगा वह समृद्धि लाभ नहीं कर सकता।''
इन ऋचाओं से लोग यह कहने लगते हैं कि शूद्र और आर्य दो हैं परंतु ऐसा कहना केवल उतावलेपन की निशानी है। इस बात का ध्यान रहे कि ऋग्वेद में दो प्रकार के आयोर्ं का वर्णन है अर्थात्‌ जो वेद को मानते हैं और जो वेद को नहीं मानते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि एक आर्य दूसरे प्रकार के आर्य को भिन्न बतलावे। इस स्थिति को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उपरोक्त ऋचाओं में शूद्र अनार्य को कहा गया है। आयोर्ं की कई शाखाएं हैं। यह बात निम्नलिखित से सिद्ध हैᄉ
(1) अ. वे. (19-32-8) : ''हे दुर्व मुझे ब्राह्मणों, राजन्यों, शूद्रों तथा आयोर्ं का प्रिय बना दे।''
(2) अ. वे. (19-62-1) : ''मुझे देवों, राजाओं, शूद्रों तथा आयोर्ं का प्रिय पात्रा बना दे और सब प्राणियों को जो देखते हैं।''
(3) वाजसनेयी संहिता : (18-48) ''हे अग्नि, ब्राह्मणों में मुझे तेज दो, राजाओं में तेज दो, वैश्यों और शूद्र्रों में तेज दो, मुझे तेज पर तेज दो।''
(4) वाजसनयी संहिता : (18-17) ''जो पातक हम दोनों ने (यज्ञ करने वाला तथा उसकी स्त्राी) गांव में, जंगल में, सभा में, अपनी इंद्रियों द्वारा, आयोर्ं तथा शूद्रों के प्रति किया हो उसको नष्ट करो।''
(5) वाजसनेयी संहिता : (18-48) : ''हम लोगों को, ब्राह्मणों को, राजन्यों को, शूद्रों को तथा आयोर्ं को अशीर्वाद देते हैं। शत्राुओं को भी आशीर्वाद देते हैं। हम देवों के और दक्षिणा देने वालों के प्रिय पात्रा बनें और हमारे शत्राु हमारे आधीन रहें।''
उपरोक्त ऋचाओं में ब्राह्मण और आर्य अलग अलग कहे गये हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मण आर्य नहीं हैं? शूद्रों को भी आशीर्वाद दिया गया है। यदि शूद्र अनार्य होते तो क्या ऐसा आशीर्वाद दिया जा सकता था। इन सब ऋचाओं से यह नहीं कहा जा सकता कि शूद्र अनार्य हैं। धर्मसूत्रा तथा वाजसनेयी संहिता के बारे में यह कह देना उचित है कि ये सब उन लोगों कि लिखे हुए हैं जो शूद्रों के शत्राु हैं। अपरंच जो बातें इन पुस्तकों में लिखी हैं वे और पुस्तकों के विरुद्ध हैं।
धर्मशास्त्राों के अनुसार शूद्र को उपनयन का अधिकार नहीं है परंतु संस्कार गणपति के अनुसार शूद्र भी उपनयन का अधिकारी है ;डंगउनससमत पद ।दबपमदज ैंदोतपज स्पजमतंजनतम ;1860द्ध च्ण् 207द्ध
धर्मसूत्राों के अनुसार शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है। परंतु छंदोग्योपनिषद् (4, 1-2) में जनश्रुति की कथा है। जनश्रुति शूद्र था परंतु उसे वेद रैक्व ने पढ़ाया। इससे भी बड़ी बात यह है कि कवशऐलुश शूद्र थे, और ऋषि थे। उन्होंने ऋग्वेद के दसवें भाग में बहुत से मंत्रा रचे। ;डंगउनससमत पद ।दबपमदज ैंदोतपज स्पजमतंजनतम ;1860द्ध च्ण् 58द्ध
धर्मसूत्राों का आदेश है कि शूद्र यज्ञ का अधिकारी नहीं है परंतु जैमिनी रचित पूर्वमीमांसा में बदरी का ऐसा मत है कि शूद्र यज्ञ का अधिकारी है, उद्धृत हैᄉ भारद्वाज श्रौत सूत्रा में (5-28) में कहा गया है कि यह भी मत है कि शूद्र यज्ञ में तीन अग्नि जला सकता है। इसी प्रकार कात्यायन श्रौतसूत्रा में भी टीकाकार ने कहा है कि कुछ वेदमंत्राों के अनुसार शूद्र को भी वैदिक संस्कार का अधिकार है।
धर्मसूत्रा में शूद्रों को सोमपान वर्जित है। परंतु आश्विन की कथा से स्पष्ट है कि शूद्र को भी सोमपान का अधिकार है। सुकन्या नामक युवा स्त्राी का विवाह अतिवृद्ध च्यवन ऋषि से हुआ। एक दिन सुकन्या को नग्न स्नान करते हुए अश्विनी कुमारों ने देख लिया। उस पर मोहित होकर उन लोगों ने सुकन्या से कहाᄉ ''हम दोनों में से किसी को वर चुन ले ! अपनी जवानी बरबाद न कर।'' सुकन्या ने जवाब दिया कि मैं पतिव्रता हूं ऐसा न करूंगी। तब उन लोगों ने कहाᄉ''हम देवताओं के वैद्य हैं यदि तू हम दोनों में से एक को पति स्वीकार कर ले तो हम च्यवन ऋषि को पुनः युवा बना देंगे।'' सुकन्या ने यह बात अपने पति से कही। च्यवन ने कहा जैसी तेरी इच्छा हो तू कर। इस प्रकार च्यवन पुनः युवावस्था को प्राप्त हुए। तत्पश्चात्‌ यह प्रश्न उठा कि सोम देवताओं का पान है तो क्या अश्विनी कुमार, जो शूद्र हैं उसके अधिकारी हैं। च्यवन ऋषि ने इंद्र से सोमपान अश्विनी कुमारों को दिलवाया। ;टण् थ्ंने इवसस प्दकपंद डलजीवसवहल च्च्ण् 128.134द्ध
एक और कारण है जिससे धर्मसूत्राों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए। यह सिद्धांत मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है। मनु (अध्याय 10 श्लोक 64-67) इस प्रकार हैᄉ''यदि ब्राह्मण पिता और शूद्र माता से कन्या उत्पन्न हो और वह उच्च जाति से संतति पैदा करती जाय तो सातवीं पीढ़ी में नीच जाति वाला भी उच्च जाति का हो जाता है।''
शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और ब्राह्मण शूद्र, परंतु यह याद रहे कि वैश्य व क्षत्रिाय की संतति में भी ऐसा ही होता है।
यदि प्रश्न यह हो कि आर्य पिता और अनार्य माता की संतति, और ब्राह्मणी माता और अनार्य पिता की संतति में कौन श्रेष्ठ है तो इसका उत्तर है कि आर्य यदि अनार्य माता से संतति उत्पन्न करे तो संतति अपने कर्म से आर्य हो सकती है परंतु आर्य स्त्राी और अनार्य पुरुष की संतति अनार्य ही रहती है। यदि शूद्र अनार्य होते तो उपरोक्त स्थिति असम्भव थी। कौटिल्य का मत अर्थशास्त्रा के तीसरे भाग अध्याय 13 में इस प्रकार हैᄉ''यदि कोई सम्बंधी किसी शूद्र को बेच दे या गिरवी रख दे जो कि जन्म से गुलाम नहीं है और नाबालिग है आर्थात्‌ जो जन्म से आर्य है तो ऐसे सम्बंधी को 12 पण जुर्माना देना चाहिए।
''यदि कोई मनुष्य अपने को गुलाम के तौर से बेच देवे तो उसकी संतति आर्य होगी। अतएव यह सिद्ध है कि शूद्र आर्य हैं।
अंतिम प्रश्न यह है कि क्या शूद्र गुलाम बना लिए गये ? ऐसा कहना अविद्या के कारण है। दास के बारे में कहा गया है कि वे गुलाम थे, परंतु यह बात सही नहीं है कि दास और शूद्र एक थे। शूद्र लोग राजाओं के राज्याभिषेक में भाग लेते थे। उत्तर वैदिककाल में प्रजा राजा को राजमुकुट देती थी। प्रजा के प्रतिनिधि रत्नी कहलाते थे क्योंकि वे रत्न, जो द्रव तथा राज्य का चिह्न है अभिषेक के समय राजा को देते थे। राजा तभी राजा होता था जब रत्नी लोग रत्न राजा को देते थे। रत्न पाकर राजा रत्नी लोगों के घर जाता था और भेंट देता था। यह बात विशेष ध्यान योग्य है कि कम से कम एक रत्नी शूद्र अवश्य होता था। ;श्रंलेूंंसए भ्पदकन च्वसपजल 1943 च्च्ण् 200.201द्ध नीतिमयूख के रचयिता नीलकंठ ने बाद के समय के राज्याभिषेक का वर्णन किया है। वह इस प्रकार हैᄉ चार मंत्राी अर्थात्‌ ब्राह्मण, क्षत्रिाय, वैश्य तथा शूद्र राज्याभिषेक करते थे। तब प्रत्येक जाति तथा वर्ण के प्रतिनिधि राजा पर पवित्रा जल डालते थे। तत्‌पश्चात्‌ द्विज लोग जय जयकार करते थे। ;भ्पदकन च्वसपजलए श्रंलेूंंस ;1943द्ध च्ण् 223द्ध
युधिष्ठिर के राज्याभिषेक में भी शूद्र बुलाये गये थे। यह बात महाभारत सभापर्व अध्याय 33 श्लोक 41-42 से सिद्ध है। प्रजा की दो मुख्य सभाएं थीं अर्थात्‌ जनपद और पौर। इन दोनों के कुछ सभासद शूद्र होते थे, इन सभासदों का ब्राह्मण भी आदर करते थे। ;श्रंलेूंंसए भ्पदकन च्सवपजल च्ण् 248द्ध मनुस्मृति (4-61) तथा विष्णु स्मृति (21-64) के अनुसार जहां का राजा शूद्र वहां ब्राह्मण न रहे। अतएव शूद्र राजा तक होते थे। महाभारत शांतिपर्व में युधिष्ठिर को राजनीति का उपदेश देते हुए कहा गया है किᄉ
तुम्हारे मंत्राी यों होने चाहिए -
चार ब्राह्मण जो वेद विद हों,
आठ क्षत्रिाय जो बलवान हों,
इक्कीस वैश्य जो धनी हों,
तीन शूद्र जो शुद्धाचरण के हों
और एक सूत जो पुराणों का ज्ञाता हो
इससे सिद्ध होता है कि शूद्र मंत्राी भी होते थे। शूद्र गरीब नहीं थे (मैत्रोयी संहिता 4-2-7-10) पंचविंश ब्राह्मण (6-1-11) ऋग्वेद (7-8-6-7; 8-19-36; 8-56-3) से ज्ञात होता था कि आर्य भी गुलाम होते थे। अतएव पश्चिमी मत शूद्रों के बारे में सर्वथा निर्मूल है।

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