सोमवार, 27 मई 2019

बहुजनों की बुलंद आवाज-दैनिक मूलनिवासी नायक

बहुजनों की बुलंद आवाज-दैनिक मूलनिवासी नायक



राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)

दैनिक मूलनिवासी नायक, 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन के संत, महापुरूषों की आंदोलन का वह साथी है जहाँ समय से कोई नहीं पहुँचपाता है वहाँ दैनिक मूलनिवासी नायक पहुँचकर विचारधारा का प्रचार-प्रसार शुरू कर देता है. दैनिक मूलनिवासी नायक आंदोलन के लिए समर्पित अखबार है. यह अखबार ही नहीं, बल्कि मूलनिवासी बहुजन समाज की बुलंद आवाज है. यह हिन्दी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, कन्नड, मलयालम सहित कई भाषा में दैनिक अखबार प्रकाशित होता है. इसके अलावा अंग्रेजी मासिक पत्रिका ‘मूलनिवासी बहुजन भारत’,  हिन्दी साप्ताहिक प्रत्रिका ‘बहुजनों का बहुजन भारत’ भी प्रकाशित करता है. 

इंटरनेट के इस दुनिया में "दैनिक मूलनिवासी" नायक का हर समाचार Website पर देख-पढ़ सकते हैं. इसके अलावा हिन्दी और मराठी में दैनिक मूलनिवासी नायक न्यूज चैनल (MN TV Channel) हर रोज ब्रेकिंग न्यूज से लेकर देश-विदेश की अन्य खबरों को लाइव और प्रसारण करता है. यह न्यूज चैनल Youtube , Facebook Page पर देख सकते हैं. इस न्यूज चैनल पर बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम का हर भाषण लाइव देख सकते हैं. Youtube पर जाकर वामन मेश्राम का हर भाषण देख सकते हैं. इसके साथ ही Voice Radio पर इसका सीधा प्रसारण किया जाता है. हमारे इस चैनल को सबस्क्राइब करने के बाद घंटी का आइकॉन जरूर दबाए, ताकि देश-विदेश से जुडी महत्वपूर्ण खबरे आपको मिल सके-जय मूलनिवासी 

रविवार, 26 मई 2019

विनाशकारी जीत

क्या भाजपा की जीत को ‘भारत की जीत’ कहा जा सकता है?

राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)
नरेंद्र मोदी की जीत का भारत के लिए क्या अर्थ निकलता है? एक हद तक यह उन्हें और भाजपा को दावा करने का मौका देता है कि पिछले पाँच सालों में उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसके प्रति जनता ने अपना विश्वास जताया है, पर क्या यह सच है? सच तो यही है कि भाजपा की यही जीत देश के लिए विनाशकारी साबित होने वाला है. इस बात का खुलासा विदेशी मीडिया ‘द गार्डियन और न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने भी अपने संपादकीय और लेख में कर दिया है. अकूत धनबल के सहारे चलाए गए उनके चुनाव अभियान में बहुत होशियारी से पाँच साल पहले 2014 में उनके किए गए विकास के वादों का कोई जिक्र नहीं किया गया. इसकी जगह उनका भरोसा हिंदुओं के दिमाग में मुसलमानों को लेकर भय पैदा करने और खुद को आतंकवाद को हराने में सक्षम एकमात्र भारतीय नेता के तौर पर पेश करने पर ज्यादा था.


इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि ‘‘ईवीएम मेहराबान तो गधा भी पहलवान’’ वाली कहावत को चरितार्थ किया गया है. शायद ईवीएम नहीं होता तो यह घमण्ड चकनाचूर हो गया होता. लेकिन, इस बात को छुपान के लिए मोदी ने खुले तौर पर पुलवामा आत्मघाती हमले में शहीद हुए अर्धसैनिक बलों के जवानों का इस्तेमाल एक चुनावी हथियार के तौर पर किया और मर्यादाओं को तार-तार करते हुए उनके नाम पर वोट मांगने से भी नहीं चूके. उन्हें इस बात से भी मदद मिली कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी बीजेपी को अंदर से हर संभव मदद करती रही. 

ध्रुवीकरण करने वाले ये बयान टेलीविजन पर लाइव दिखाए गए और पूरे देश में भाजपा के प्रोपगैंडा तंत्र द्वारा इन्हें फैलाया गया, जिसने यह सुनिश्चित किया कि यह जहर दूर-दूर तक चारों तरफ फैल जाए. असम और पश्चिम बंगाल में इसने बांग्लादेश से आने वाले अप्रवासियों के लिए धर्म आधारित नागरिकता भाजपा के प्रस्ताव को खाद-पानी देने का काम किया. जब चुनाव आयोग ने यह जता दिया कि वह आदर्श आचार संहिता के इतने खुलेआम उल्लंघनों के लिए मोदी पर किसी तरह की कोई कार्रवाई या उन्हें चेतावनी तक देने तक के लिए तैयार नहीं है, तब मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर खड़ा कर दिया. उनकी उम्मीदवारी न सिर्फ हिंदू कट्टरता, बल्कि आतंकवाद, हिंसा और मुस्लिमों के खिलाफ आतंक को बढ़ावा देने का प्रतीक था. उम्मीदवार बनाए जाने के बाद प्रज्ञा ठाकुर का पहला बयान 2008 में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की (पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा) हत्या के समर्थन का था, क्योंकि उन्होंने उनपर (प्रज्ञा ठाकुर पर) मुस्लिमों को मारने के लिए बम रखने का आरोपी बनाया था. लेकिन मोदी ने काफी सचेत तरीके से उस राजनीति की कोई आलोचना नहीं की.अगर मोदी नियमों के दायरे में रहते हुए, पूरी तरह से अपनी ‘उपलब्धियों’ और उनको लेकर जनता की धारणा और विपक्ष के नेताओं पर जनता के विश्वास के न होने पर पर भरोसा करते हुए यह चुनाव जीतते तो बात अलग होती. लेकिन यहाँ तो ईवीएम घोटाले से चुनाव जीता गया है. 

भाजपा का बचाव करने वाले अब यह अनुमान लगा रहे हैं कि मोदी अब चुनाव के आखिरी चरण से पहले की गई अपनी कोशिश से भी ज्यादा शिद्दत से प्रज्ञा ठाकुर से दूरी बनाएंगे. लेकिन एक आतंकवादी को न केवल टिकट दिया गया, बल्कि उसको संसद में पहुँचाया जा चुका है. यह इस बात का संकते है कि मोदी का उद्देश्य इस देश की रगों में एक वायरस घोलने का है. मोदी की अचंभित कर देने वाली जीत के तीन और पहलू हैं, जिनसे हमें चिंतित होना चाहिए. पहला, ईवीएम में घोटाला. दूसरा धनबल का इस्तेमाल, जिसमें उनकी मदद उनके ही द्वारा बनाए गए कानून ने की, जो जनता को प्रधानमंत्री के धनवान और शक्तिशाली दोस्तों की पहचान जानने से रोकता है. इन कॉरपोरेट मित्रों ने ही भाजपा के बेहद खर्चीले चुनाव अभियान और विज्ञापन बजट का खर्चा उठाया. इस विज्ञापन बजट में एक 24 घंटे का प्रोपगंडा चैनल भी था जो रहस्यमय तरीके से टीवी के पर्दे पर आया और गायब हो गया और चुनाव आयोग हाथ पर हाथ रखकर नियमों की धज्जियाँ उड़ते देखता रहा. 

दूसरी बात, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा निजी टीवी चैनलों द्वारा मोदी और शाह की रैलियों को बाकियों की तुलना में बहुत ज्यादा समय दिया गया. इसके अलावा, पिछले पाँच सालों में मीडिया के बड़े वर्ग ने भाजपा के बांटने और भटकाने वाले एजेंडा को आगे बढ़ाने, सार्वजनिक क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने और सरकार की असफल नीतियों के आलोचनात्मक मूल्यांकन को भोथरा करने में सक्रिय तरीके से मदद की है. पिछले कुछ वर्षों में मीडिया के इस धड़े ने संघ परिवार के सांप्रदायिक संदेश ‘लव जिहाद’ से लेकर अयोध्या तक और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भाजपा के बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले दावों को आगे बढ़ाने के रास्ते के तौर पर काम किया है. मंत्रियों द्वारा बोले जाने वाले सफेद झूठों में जैसे निर्मला सीतारमण का यह दावा कि मोदी के कार्यकाल में कोई आतंकी हमला नहीं हुआ! पर किसी ने कोई सवाल उठाना मुनासिब नहीं समझा.

मीडिया के जिस धड़े ने मोदी सरकार के एजेंडा को आगे बढ़ाने का इंजन बनने से इनकार कर दिया, उसे मानहानि के मुकदमों, सीबीआई या टैक्स पड़ताल या ऐसी ही किसी कार्रवाई का सामना करना पड़ा. सोशल मीडिया पर जो आलोचना का एक स्रोत है, पर एक डर का माहौल बनाने के लिए और उस पर पहरेदारी बैठाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं और दंडवत पुलिसकर्मियों द्वारा देश के साइबर कानूनों का नियमित तौर पर और गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया. तीसरा, हाल के इतिहास में इस बार चुनाव आयोग का कामकाज सबसे ज्यादा पक्षपातपूर्ण रहा. चुनाव आयोग न सिर्फ मोदी और भाजपा द्वारा जन-प्रतिनिधि कानून और आदर्श आचार संहिता के खुलेआम उल्लंघनों पर कार्रवाई करने में नाकाम रहा, बल्कि इसने कई ऐसे फैसले भी लिए, जो सीधे तौर पर पार्टी को फायदा पहुँचाने वाले थे.

ऐसे में यह देश के ज्यादा सांप्रदायीकरण, निर्णय लेने के ज्यादा केंद्रीकरण, ज्यादा मनमानेपन से भरे नीति-निर्माण, कॉरपोरेटों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए ज्यादा गुंजाइश, आजाद मीडिया के प्रति ज्यादा दुश्मनी भरा भाव और निश्चित तौर पर विरोध के प्रति ज्यादा असहिष्णुता के लिए मंच तैयार करने वाला है. उच्च न्यायपालिका और केंद्र-राज्य संबंध अब ये दोनों मोदी सरकार के निशाने पर होंगे. अर्थशास्त्री नितिन देसाई के मुताबिक जहाँ तक न्यायपालिका का सवाल है, यह तय है कि भाजपा नियुक्तियों पर प्रभाव डालकर इस पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश करेगी. इस विनाशकारी एजेंडा के खिलाफ विपक्ष का अनमने ढंग से चलाया जाना अभियान कारगर नहीं होगा, होगा क्योंकि विपक्षी पार्टी भी उसी का एक अंग है. इसलिए बीजेपी की जीत ईमानदारी की जीत नहीं है, बल्कि ईवीएम की विनाशकारी जीत है.

अपराधियों के हाथों में देश.... जुर्म के बादशाहों का देश पर कब्जा

राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)

44 प्रतिशत से ज्यादा अपराधी नेताओं की बढ़ोत्तरी : रिपोर्ट
‘‘पूरी दुनिया में मात्र भारत ही एक ऐसा इकलौता देश है जहाँ हत्यारे, बलात्कारी, नक्सलवादी और आतंकवादी देश को चला रहे हैं. यह कितनी हैरान करने वाली बात है कि जुर्म के बादशाहों का देश पर कब्जा हो गया है और देश का उज्ज्वल भविष्य अब अपराधी तय करेंगे’’


मौजूदा नेता भारतीय राजनीति में किस तरह से हावी हैं. इसका अंदाजा इस रिपोर्ट से लगाया जा सकता है कि पिछले तीन लोकसभा चुनाव में निर्वाचित होकर आने वाले सांसदों में 44 प्रतिशत अपराधी  हैं. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म रिपीट रिफार्म (एडीआर) द्वारा लोकसभा चुनाव परिणाम की शनिवार को जारी अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हत्या, बलात्कार, नक्सलवाद, आतंकवाद और भ्रष्टाचार (आपराधिक) मामलों में फंसे सांसदों की संख्या दस साल में 44 प्रतिशत बढ़ गयी है. वहीं करोड़पति सांसदों की संख्या 2009 में 58 प्रतिशत थी जो 2019 में 88 प्रतिशत हो गयी है.

एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुन कर आये 542 सांसदों में 233 (43 प्रतिशत) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित है. इनमें से 159 (29 प्रतिशत) के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं. इतना ही नहीं राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय 25 राजनीतिक दलों में छह दलों (लगभग एक चौथाई) के शत प्रतिशत सदस्यों ने उनके खिलाफ आपराधिक मामलों की जानकारी दी है.

रिपोर्ट में नवनिर्वाचित सांसदों के आपराधिक रिकॉर्ड के राज्यवार विश्लेषण से पता चलता है कि आपराधिक मामलों में फंसे सर्वाधिक सांसद केरल और बिहार से चुन कर आये हैं. केरल से निर्वाचित 90 फीसदी और बिहार के 82 फीसदी सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. इस मामले में पश्चिम बंगाल से 55 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश से 56 और महाराष्ट्र से 58 प्रतिशत नवनिर्वाचित सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित है. वहीं सबसे कम नौ प्रतिशत सांसद छत्तीसगढ़ के और 15 प्रतिशत गुजरात के हैं.

रिपोर्ट के अनुसार पिछली तीन लोकसभा में आपराधिक मुकदमों से घिरे सांसदों की संख्या में 44 प्रतिशत इजाफा दर्ज किया गया है. इसके मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक मुकदमे वाले 162 सांसद (30 प्रतिशत) चुनकर आये थे, जबकि 2014 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 185 (34 प्रतिशत) थी. यानी इस बार अपराधी सांसदों की संख्या में बेतहासा बढ़ोत्तरी हुई है. एडीआर ने नवनिर्वाचित 542 सांसदों में 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर बताया कि इनमें से 159 सांसदों (29 प्रतिशत) के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं. पिछली लोकसभा में गंभीर आपराधिक मामलों के मुकदमों में घिरे सदस्यों की संख्या 112 (21 प्रतिशत) थी, वहीं 2009 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 76 (14 प्रतिशत) थी. स्पष्ट है कि पिछले तीन चुनाव में गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है.

रिपोर्ट में भाजपा के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण में पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 सांसदों (39 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. वहीं, कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद (57 प्रतिशत) आपराधिक मामलों में घिरे हैं. इनके अलावा बसपा के 10 में से पाँच, जदयू के 16 में से 13 (81 प्रतिशत), तृणमूल कांग्रेस के 22 में से नौ (41 प्रतिशत) और माकपा के तीन में से दो सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. 



लोकतंत्र की अर्थी

राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)

‘‘अब भी ईवीएम मशीन के खिलाफ सड़कों पर आकर आंदोलन नहीं किया तो याद रखना भारत से लोकतंत्र की अर्थी उठेगी’’ 

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू किया गया. संविधान लागू होने का मतलब देश में लोकतंत्र लागू होना. सारे दुनियाँ में जो लोकतंत्र होता है, वह चार स्तम्भ पर खड़ा है. एक विधायिका, दूसरा कार्यपालिका तीसरा न्यायपालिका और चौथा मीडिया है. एक है विधायिका, जिसका काम कानून बनाने का है. दूसरा है कार्यपालिका, जिसकी जिम्मेदारी अमल करने की है, जिसमें आईएएस, आईपीएस और आईआरएस है. तीसरा है न्यायपालिका जो संविधान रक्षा और व्याख्या करने का काम करता है और चौथा है मीडिया जो जनमत बनाने का काम करता है. यह लोकतंत्र इन्हीं चार पिलरों पर खड़ा है.

2009 के लोकसभा चुनाव में विधायिका पर 375 सीटें लाने वाले तथा गैर-बराबरी को मानने वाले पार्टी के लोगों का कब्जा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में 411 सीटों पर गैर-बराबरी को मानने वाले लोगों का कब्जा हो गया. इसी तरह से 2019 के लोकसभा में भी 352 सीटों पर कब्जा कर लिया है. अब है कार्यपालिका, जिसमें 79.2 प्रतिशत प्रथम श्रेणी के आईएएस, आईपीएस, आईआरएस पदों पर ब्राह्मण और तत्सम ऊँचे जाति के लोगों का कब्जा है. न्यायपालिका में 98 प्रतिशत कब्जा ब्राह्मणों और तत्सम ऊँचे जाति के लोगों का कब्जा है और कुछ एससी, एसटी और ओबीसी के नुमाईदें वहां पर दिखाने के लिए रखे जाते हैं जैसे-हम खाना खाने के दौरान चाटने के लिए आचार रखते हैं. उसी तरह से दिखाने के लिए कुछ लोगों को रखा जाता है कि हाँ भाई तुम्हारे भी कुछ लोग हैं. न्यायपालिका में भी उनका कब्जा है. चौथा है मीडिया, मीडिया चार प्रकार के हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, ट्रेडिशनल मीडिया और व्होकल मीडिया. इन चारों मीडिया पर भी उनका ही कब्जा है.

आज के तारीख में जिसको हम जनतंत्र, लोकतंत्र और डेमोक्रेसी कहते हैं. भारत में इस डेमोक्रेसी पर ब्राह्मणों का कब्जा हो गया है. ब्राह्मणों का इस देश पर कब्जा हो चुका है. 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने ईवीएम में घोटाला करके चुनाव जीता. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने ईवीएम में घोटाला करके चुनाव जीता. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी को चुनाव जीतने के लिए ईवीएम मशीन में घोटाला करने में मदद की. 08 अक्टूबर, 2013  को सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम मशीन के विरोध में फैसला दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चुनाव आयोग और उस समय की कांग्रेस सरकार ने अमल नहीं किया. वामन मेश्राम ने सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग के विरोध में कॉन्टेम्प्ट ऑफ कोर्ट का केस दाखिल किया. जब करॅन्टेम्प्ट ऑफ कोर्ट का केस चंडीगढ़ हाई कोर्ट में दाखिल की थी तो उन्होंने कहा कि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट का है. मगर हाँ यह चुनाव आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना है. चूँकि यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना है, इसलिए इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट ही करेगी. मगर हम बात को मानते हैं कि यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना है, ऐसा चंडीगढ़ हाई कोर्ट ने कहा था.

मैं आपको बताना चाहता हूँ कि इस देश में कितनी भयंकर परिस्थिति है. लोग जैसे-जैसे जागृत हो रहे हैं, वैसे-वैसे चुनाव जीतने के लिए गलत तरीके का इस्तेमाल कर रहे है. 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के लिए बीजेपी ने ईवीएम में घोटाले करने का अवसर होने के बावजूद भी इण्डियन एक्सप्रेस ने लिखा कि बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में तीस हजार करोड़ रूपये खर्च किया. तेरह हजार करोड़ रूपये कांग्रेस ने खर्चा किया. 16 मई को रिजल्ट आया और 17 मई को इण्डियन एक्सप्रेस का रिपोर्ट है. 2004 और 2009 में कांग्रेस ने ईवीएम में घोटाला करके चुनाव जीता, इसके सबूत सुब्रह्ममण्यम स्वामी, बीजेपी और आरएसएस के पास थे. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया था. कांग्रेस ने अपना बचाव करने के लिए बीजेपी और आरएसएस के साथ समझौता किया और इस समझौते के तहत 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी को चुनाव जीतने में मदद की.

यह दूसरी परिस्थति बहुत ही भयंकर है. यह बताया जाना बहुत ही जरूरी है. एक तो केन्द्र में बीजेपी जाएगी तो कांग्रेस आएगी और कांग्रेस जाएगी तो बीजेपी आएगी. कोशिश ये हो रही है कि केन्द्र में भी उनका कब्जा हो और राज्यों में भी उनका ही कब्जा बना रहे. ये योजना बनाकर कोशिश हो रही है और इतने भयंकर तरीके से कोशिश हो रही है. ऐसे परिस्थिति में हमें फैसले लेने हैं. इन परिस्थिति को ध्यान में रखकर फैसले लेने होंगे. इन परिस्थितियों को ध्यान में रखे बगैर आप और हम फैसला लेंगे, तो जो परिवर्तन हम लाना चाहते हैं, वह नहीं होगा. हम लोगों को भ्रम का शिकार होने का खतरा हो सकता है. अगर ‘‘अब भी ईवीएम मशीन के खिलाफ सड़कों पर आकर आंदोलन नहीं किया तो याद रखना भारत से लोकतंत्र की अर्थी उठेगी’’ 

लोकतंत्र का चीरहरण : ‘‘खतरनाक दौर से गुजर रहा भारतीय लोकतंत्र’’

‘‘खतरनाक दौर से गुजर रहा भारतीय लोकतंत्र’’

 राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)

भारतीय जनता पार्टी का दोबारा सत्ता में आना, लोकतंत्र का चीरहरण ही है. भारत, तथाकथित  आजादी के बाद से सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है. यह कोई नाटकीय वक्तव्य नहीं है. भारत की जो कल्पना आजादी के आंदोलन के दौरान प्रस्तावित की गई थी और जिसे भारतीय संविधान ने मूर्त करने का प्रयास किया, वह पिछले लोकसभा और लोकसभा 2019 में क्षत-विक्षत कर दी गई है. अब लोकतंत्र का चीरहरण करके सत्ता पर कब्जा किए जा रहे हैं जो वर्तमान में बीजेपी ने किया है. इसके बाद भी यह बात लोगों को समझ में नहीं आ रही है.

अभी भी यह बात समझ में नहीं आ रही है कि जुर्म के बादशाह हत्यारे, बलात्कारी, नक्सलवादी और आतंकवादियों का देश पर कब्जा हो गया है. जिन लोगां ने देश को बर्बाद और तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिन लोगों ने लोकतंत्र का बलात्कार किया, जिन लोगों ने देश को गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी और अशिक्षा की खाई में धकेल दिया, आज वहीं लोग देश का उज्ज्वल भविष्य बनाने जा रहे हैं. इस बात का अंदाजा इस रिपोर्ट से लगाया जा सकता है कि पिछले तीन लोकसभा चुनाव में चुनकर आने वाले सांसदों में 44 प्रतिशत से ज्यादा सांसद अपराधी हैं. इसमे विधायकों के अपराधों के आंकड़े शामिल नहीं है. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म रिपीट रिफार्म (एडीआर) द्वारा लोकसभा चुनाव परिणाम की शनिवार को जारी अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हत्या, बलात्कार, नक्सलवाद, आतंकवाद और भ्रष्टाचार (आपराधिक) मामलों में फंसे सांसदों की संख्या दस साल में 44 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ गयी है. 

इसके अलावा भारत सत्ता उनके हाथ में चली गयी है जो पिछले सात दशकों से भारत की इस धारणा के खिलाफ जनता को तैयार कर रहे थे. इसके बाद भी आश्चर्य की बात है कि बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला..! हालांकि पहले 2014 में भी भारत की सत्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही पास थी और अब फिर से उसी के हाथों में आ गयी है. 

मोदी सरकार के पाँच साल में क्या देश तरक्की कर पाया? सवाल तो बहुत सारे हैं, लेकिन मोदी सरकार ने पाँच साल में क्या है? इस पर विश्लेषण करने की जरूरत है. सबसे पहले तो यह कि जिस तरह से बीजेपी दोबारा सत्ता पर कब्जा किया है उस तरह से यही कहा जा सकता है कि यह भारतीय लोकतंत्र का चीरहरण है. क्योंकि यह बात पूरे दावे के साथ कह रहा हूँ कि मोदी के नाम पर भारतीय जनता पार्टी को न तो किसानों ने वोट दिया है, न तो महिलाओं ने वोट दिया है, न तो युवाओं ने वोट दिया है, न तो शहीद जवानों के परिवारों ने वोट दिया है, न तो मजदूरों ने वोट दिया है और न ही एससी, एसटी, ओबीसी और मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध और जैन को मानने वालो ने ही वोट दिया है. इसके बाद भी बीजेपी प्रचंड बहुमत से कैसे जीत गयी? यह सबसे गंभीर सवाल है. 

दूसरा, यदि विकास की बात करें तो विकास के नाम पर देश की आर्थिक व्यवस्था चौपट हो गयी है, सरकारी नौकरियाँ लगभग खत्म हो गयी हैं, जो कुछ रोजगार बचे थे उसे नोटबंदी ने खत्म कर दिया. देश में बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गयी है, सकल घरेलू उत्पाद नीचले स्तर पर पहुँच गया है, देश में महंगाई ने आम जनता की कमर तोड़ दी है. किसान बड़े पैमाने पर आत्महत्या कर रहे हैं, महिलाओं के साथ आये दिन बलात्कार और सामुहिक बलात्कार हो रहे हैं. यदि आंकड़ों की बात करें तो  हर 15 मिनट में एक महिला का बलात्कार, हर 22 मिनट में एक महिला का सामुहिक बलात्कार, हर 35 मिनट पर एक बच्ची को हवस का शिकार बनाया जा रहा है. यानी भारतीय महिलाओं के लिए भारत ही असुरक्षित देश बन गया है. 

चारों तरफ गुंडों का तांडव मचा है. देश के जवानों को मौत के मुँह में धकेला जा रहा है, सैनिकों को मौत के घाट उतारा जा रहा है. जाति-भेदभाव के नाम पर एससटी, एसटी को मौत के घाट उतारा जा रहा है, नक्सलवाद के नाम पर आदिवासियों का सामुहिक नरसंहार किया जा रहा है. आतंकवाद और गोकसी-गोमांस के नाम पर मुस्लिमों की दिनदहाड़े हत्या की जा रही है. ब्राह्मणवाद, अंधविश्वास, कर्मकांड और पाखंडवाद के विरोध में लिखने पर पत्रकारों को गोलियों से छलनी किया जा रहा है. धर्म के नाम पर हिंसा, दंगा-फसाद आये दिन हो रहे हैं और मॉबलिंचिंग के नाम पर भीड़ द्वारा कत्लेआम किए जा रहे हैं. 

यह मामला यही नहीं खत्म हो जाता है. सेन गुप्ता की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 85 करोड़ में से 83 करोड़ मूलनिवासी बहुजन समाज गरीबी और भुखमरी के कगार पर पहुँचा दिए गये हैं. शिक्षा का यह हाल है कि उच्च डिग्री लेने के बाद भी 62 प्रतिशत युवा छात्र नौकरी के लायक नहीं हैं, 10 लाख से ज्यादा स्कूलों में एक भी शिक्षक नहीं है, 10 लाख से ज्यादा स्कूल केवल एक-एक शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं. स्वास्थ्य की बात करें तो लाखों गाँव ऐसे हैं जहाँ अस्पताल ही नहीं हैं, अगर हैं भी तो 5 से 10 किलोमीटर दूर हैं. यही नहीं उन अस्पतालों में कोई सुविधा नहीं है, न तो एम्बुलेंस है और न ही अन्य सुविधाएं हैं. महंगी इलाज के कारण गरीब तबका इलाज के अभाव में मर रहे हैं. आखिर देश में बचा क्या है? क्या इसी नाम पर देश की जनता ने मोदी को वोट दिया है? क्या जनता ने मोदी को इसलिए वोट दिया है कि दोबारा मोदी सरकार यही रवैया अपनाए? 

असल में जनता ने मोदी को वोट नहीं दिया है. भाजपा ने ईवीएम में घोटाला करके एक तरह से जनता का वोट जबरदस्ती छीन लिया है. बीजेपी ईवीएम में घोटाला करके लोकतंत्र का न केवल चीरहरण किया है, बल्कि लोकतंत्र का बलात्कार भी किया है. इस बात को सबसे पहले दैनिक मूलनिवासी नायक ने आगाह करते हुए कहा था कि मोदी सरकार दूसरी बार देश के लिए हानिकारक साबित हुई है. मोदी सरकार देश के खतरा बन चुकी है. अब यही बात विदेशी मीडिया ‘‘द गार्डियन और न्यूयॉक टाइम्स’’ भी कह रहा है. यही नहीं नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी कहा है कि मोदी ने अपनी उपलब्धियों के सहारे नहीं, बल्कि डर के बलबूते सरकार बनायी है. यह इस बात का सबूत है कि बीजेपी ईवीएम के माध्यम से लोकतंत्र का चीरहरण करके केन्द्र पर अनियंत्रित कब्जा किया है.

शनिवार, 25 मई 2019

सपा-बसपा कांग्रेस के चक्कर में समाज का सत्यानाश कर रहे हैं...

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
कांग्रेस ने यूपी में गठबंधन को दिया धोखा
बीजेपी को जीताने के लिए कांग्रेस कर रही थी काम

यूपी में सपा-बसपा गठबंधन के साथ बीजेपी ने तो धोखा किया ही, कांग्रेस भी धोखा करने से बाज नहीं आयी. इस बात का अंदाजा इस चुनाव में सभी को लग गया होगा. सपा-बसपा ने कांग्रेस पर भरोसा करके अमेठी और रायबरेली में यह सोचकर अपना उम्मीदवार नहीं उतारा कि यूपी में कांग्रेस, बीजेपी को हराने के लिए गठबंधन का मदद करेगी. लेकिन, वही कांग्रेस गठबंधन को हराने के लिए मुख्य भूमिका निभाई और बीजेपी को जीताने के लिए जानबूझकर अमेठी की सीट हार गयी. अगर लोग ऐसा सोचते हैं कि अमेठी की सीट हारने से कांग्रेस का नुकसान हुआ तो यह केवल भ्रम है। इससे कांग्रेस को रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा है.

गारैतलब है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक दर्जन से अधिक सीटों पर गठबंधन की हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हालांकि इसके पीछे बताया जा रहा है कि यदि कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल होती तो ये चारों पार्टियाँ मिलकर 32 सीटें जीत सकती थीं. लेकिन, यह केवल कहने के लिए है. असल में पूर्व प्लानिंग के अनुसार बीजेपी को जीताने के लिए खुद कांग्रेस उत्तर प्रदेश सहित दिल्ली, उत्तराखंड, बिहार, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में चुनाव हारना चाहती थी. 

अगर केवल उत्तर प्रदेश की बात करें तो सुल्तानपुर में मेनका गांधी ने 44.85 प्रतिशत वोट पाकर बसपा के सोनू सिंह को 1.34 प्रतिशत वोटों के अंतर से हरा दिया. जबकि, कांग्रेस के संजय सिंह को 4.16 प्रतिशत वोट मिले जो भाजपा के जीत के अंतर से ज्यादा हैं. इसी तरह धौरहरा में कांग्रेस के जितिन प्रसाद को 1.61 लाख वोट मिले. वे तीसरे स्थान पर रहे, लेकिन उनके वोटों ने बसपा के अरशद सिद्दीकी की 1.5 लाख वोटों से हार तय कर दी. यहाँ से भाजपा की रेखा वर्मा 5.09 लाख वोट पाकर जीत गयी. ठीक यही कहानी बदायूं, बलिया, बांदा, बाराबंकी, बस्ती, भदोही, चंदौली, संत कबीरनगर, प्रतापगढ, मेरठ और कौशांबी जैसी सीटों पर हुआ है. 

यही नहीं अमेठी और रायबरेली की बात करें तो प्लान के अनुसार राहुल के लिए अमेठी हारना जरूरी था, इसलिए राहुल गाँधी स्मृति ईरानी को जीताने के लिए जानबूझकर अमेठी की सीट हार गये. राहुल गाँधी को इस बात की बिल्कुल ही चिंता नहीं थी कि अमेठी उनके लिए महत्वपूर्ण है. क्योंकि राहुल वायनाड से जीत रहे थे, यह बात उनको को पहले से ही पता था. वहीं कांग्रेस रायबरेली की सीट क्यों नहीं हारी? क्योंकि वहाँ सोनिया गाँधी को बीजेपी जीताना चाहती थी, इसलिए सोनिया को जीताने के लिए बीजेपी ने लल्लूपंजू उम्मीदवार उतारी थी. कुल मिलाकर सच्चाई यही है कि कांग्रेस यूपी में सपा-बसपा को कमजोर और बीजेपी को मजबूत करने के लिए पहले से ही काम रही थी. यह भी चौंकाने वाली बात है कि कांगेस, बीजेपी को जीताने के लिए ही दिल्ली उत्तराखंड, बिहार, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में कांग्रेस न तो बड़ी रैलियाँ की, और नहीं बीजेपी के खिलाफ दमदार उम्मीदवार ही उतारी थी, अगर उम्मीदवार उतारी भी थी तो लल्लूपंजू. यही कारण है कि कांग्रेस, प्रियंका गाँधी को मोदी के खिलाफ बनारस में उम्मीदवार नहीं बनाया था. 

अंत में मैं यही कहना चाहता हूं कि सपा-बसपा सहित मूलनिवासी बहुजन समाज के तमाम पाटियां और संगठनों को वामन मेश्राम का पूरजोर समर्थन करना चाहिए और उनके द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में पूरे शक्ति के साथ शामिल होकर न केवल बीजेपी, बल्कि कांग्रेस को भी सत्ता से उखाड़ फेंके और ब्राह्मणवाद को भी मिट्टी में मिला दें.....
वक्त की यही पुकार है.....।

दलाल मीडिया में जीत का जश्न


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

देश की मीडिया मौजूदा सरकार की दलाली करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. दलाली की भी एक हद होती है, मगर मीडिया ने दलाली की सभी हदों को पार कर चुका है. ईवीएम घोटाले से बीजेपी की पुनः सत्ता वापसी पर बीजेपी समर्थकों में जश्न मनाने से पहले ही दलाल मीडिया में जश्न मनाया जा रहा है, इसका उदाहरण यह तस्वीर दे रहा है. जरा गौर से इस तस्वीर को देखें कि एनडीए की जीत पर कैसे दलाल मीडिया में मिठाईयाँ बांटी जा रही है और एक दूसरे का मुँह मीठा किया जा रहा है. इनकी खुशियों को देखकर ऐसा लग रहा है जैसे सरकार, भाजपा की नहीं, इन दलाल मीडिया वालों की बनी है. 


बता दें कि बीजेपी की दलाली करने में पत्रकार भूल चुके हैं कि वह लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं. पत्रकारों का रवैया भी ऐसा हो चुका है जैसे वे पत्रकारिता नहीं, राजनीति कर रहे हैं. वे बीजेपी के पक्ष में आपस में ही सवाल पूछ रहे हैं और खुद आपस में जवाब भी दे रहे हैं. दूसरों से बातचीत के दौरान जैसे ही बात ईवीएम घोटाला, लोकतंत्र, संविधान की हत्या की शुरू होती है वैसे ही दलाल पत्रकार उस बात को काटते हुए दूसरी तस्वीर पेश कर दे रहे हैं. 

इसके अलावा दलाल पत्रकार जनता पर तंज कसते हुए बात कर रहे हैं, जैसे लगता है कि बीजेपी के विरोध का वे बदला ले रहे हैं. यही नहीं बीजेपी के पक्ष में ऐसे बात कर रहे हैं. दलाली की हद तो तब और ज्यादा हो गयी जब दलाल पत्रकार बीजपी समर्थकों को सलाह दे रहे हैं कि वे ढोल-नगारों के साथ जश्न मनाएं. यदि देखा जाए तो ईवीएम घोटाले में दलाल मीडिया भी पूरी तरह से शामिल है. इसलिए भारतीय मीडिया पत्रकारिता करने के बजाए सरकार की दलाली कर रहा है और एनडीए के जीत का जश्न मना रहा है. 

ईवीएम के साथ चुनाव आयोग हैक

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि ‘‘नाजायज लोग न केवल देश की सत्ता पर कब्जा कर रहे हैं, बल्कि नाजायज फैसले भी ले रहे हैं’’ इसका जिम्मेदार केवल ईवीएम और चुनाव आयोग है. इसका मतलब साफ है कि ईवीएम के साथ-साथ चुनाव आयोग भी हैक हो गया है. यह फर्जी सरकार और फर्जी चुनाव आयोग होने का सबसे बड़ा सबूत है. इसमें भारत की मीडिया भी पूरी तरह से शामिल है.

गौरतलब है कि चुनाव आयोग के सामने जनता के जबरन वोट छीने जा रहे हैं, चोरी किए जा रहे हैं इसके बाद भी आयोग चिड़ीचुप है. आयोग की चुप्पी साबित करता है कि ईवीएम घोटाले में आयोग पूरी तरह से शामिल है. आयोग का रवैया बता रहा है एनडीए सरकार, चुनाव आयोग को 10 साल के लिए रिर्जव कर लिया है.

बता दें कि संविधान ने चुनाव आयोग को मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने के लिए स्वतंत्र रूप से जिम्मेदारी दी है. लेकिन, चुनाव आयोग मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने का काम रत्तीभर भी नहीं कर रहा है. बल्कि, चुनाव आयोग चुनाव परिणाम जल्दी लाने के लिए काम कर रहा है. दूसरी बात यह है कि ईवीएम के बजाए बैलेट पेपर और वीवीपीएटी से निकलने वाली कागजी मतपत्रों की गिनती पर आयोग ने कहा था कि इससे चुनाव परिणाम में देरी होगी. यही नहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा ईवीएम और वीवीपीएटी के पाँच विधानसभा में मिलान पर भी कहा था कि इससे भी चुनाव परिणाम में देरी होगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सवाल यह नहीं है, सवाल यह है कि मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराना जरूरी है या रिजल्ट जल्दी लाना जरूरी है? 

इसके अलावा हर बार चुनाव आयोग पर ईवीएम में घोटाला करने और सरकार के दबाव में काम करने का आरोप लगते आ रहे हैं. लेकिन, चुनाव आयोग बार-बार एक ही बात दोहारा रहा है कि ईवीएम हैक प्रूफ है. क्या ऐसा नहीं लगता है कि चुनाव आयोग बिक चुका है? बात एकदम साफ है कि चुनाव आयोग न केवल बिक चुका है, बल्कि मीडिया की तरह आयोग भी दलाली कर रहा है.

अबकी बार फिर घोटाले की सरकार-वामन मेश्राम



चुनावी परिणाम आने के दौरान वामन मेश्राम ईवीएम घोटाले को लेकर चुनाव आयोग सहित भाजपा पर करारा हमला बोला है. पूरे दावे के साथ वामन मेश्राम ने कहा है कि ईवीएम में घोटाला करके फिर से भाजपा केन्द्र की सत्ता पर अनियंत्रित कब्जा किया है. उनका दावा है कि बगैर ईवीएम में घोटाला किए बीजेपी कभी भी चुनाव नहीं जीत सकती है. उन्होंने चुनावी घोषणा के बाद ही 11 अप्रैल को ऐलान कर दिया था कि भाजपा ईवीएम में घोटाला करके फिर से सरकार बना रही है. इसलिए हम चरबद्ध राष्ट्रव्यापी जेलभरो आंदोलन करेंगे और 23 मई को अनिश्चित काल के लिए भारत बंद करेंगे. यही नहीं वामन मेश्राम ने 30 अप्रैल को जेलभरो आंदोलन के दौरान ही पूना के जेल में आयोग द्वारा बनाए गये रूल 56-डी, 56-सी और 49-एम को जलाया था और 15 मई को यही रूल देशभर में जलाने के लिए कार्यकर्ताओं को आदेश जारी किया था, जो बड़ी सफलता के साथ जलाया गया था.

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
उन्होंने चुनाव आयोग पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि ईवीएम घोटाले में चुनाव आयोग पूरी ते सक्रिय होकर घोटाला करवा रहा है. उनका आरोप है कि चुनाव आयोग सरकार के हाथों बिक गया है जो देश और जनता के साथ-साथ संविधान व लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बन गया है. चुनाव आयोग को आड़े हाथों लेते हुए वामन मेश्राम ने कहा कि चुनाव आयोग खुद चोर है और चोरों का सरदार है. क्योंकि चुनाव आयोग जनता और संविधान के साथ धोखेबाजी किया है. 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में आदेश दिया था कि ईवीएम में बगैर वीवीपीएटी लगाये मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव नहीं हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को यह भी आदेश दिया था कि विवाद की स्थिति में वीवीपीएटी से निकलने वाली पर्ची की 100 प्रतिशत गिनती करनी होगी, मगर आयोग, कांग्रेस और बीजेपी ने मिलकर 56-डी, 56-सी और 49-एम नाम का एक रूल बना दिया ताकि कोई भी विपक्षी पार्टियाँ कागजी मतपत्रों की गिनती की मांग न कर सकें. मेश्राम ने कहा कि यह रूल संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ है जो मौलिक अधिकारों को खत्म कर दिया है. वामन मेश्राम ने यह भी कहा था कि कांग्रेस, बीजेपी को जिताने के लिए उसकी मदद कर रही है. इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और गुजरात में कांग्रेस जीरों पर जा सकती है. 

देश के लिए बीजेपी हानिकारक है... खतरे में देश का भविष्य : ईवीएम घोटाले से फिर केन्द्र पर बीजेपी का कब्जा

‘‘यह बात मैं किसी अनुमान के आधार पर नहीं कह रहा हूँ, बल्कि पूख्ता सबूत के आधार पर कहा रह हूँ कि ईवीएम में घोटाला करके ही बीजेपी सरकार बना रही है-वामन मेश्राम’’

देश के लिए बीजेपी हानिकारक है...यह बात आज दूसरी बार भी सच साबित हुआ है. इसी के साथ यह भी साबित हो चुका है कि देश का भविष्य फिर से खतरे में पड़ गया है. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में घोटाला करके एक बार फिर से भारतीय जनता पार्टी केन्द्र की सत्ता पर कब्जा करने में कामायाब हो गयी है. 23 मई, भारतीय राजनीति के लिए काली रात से कम नहीं है. क्योंकि ईवीएम के आगे पूरा विपक्ष चारों खाने चित हो गया है. 

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
बीजेपी के इस षड्यंत्र के बाद बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम की वो हर बात सच साबित होती गयी है जो ईवीएम में बड़े पैमाने पर घोटाले की बात लगातार 2014 से कहते आ रहे हैं. यही नहीं लोकसभा चुनाव और मतदान होने से पहले भी उन्होंने दावा किया था कि ईवीएम में घोटाला करके ही बीजेपी सरकार में आ सकती है. उन्होंने दावा किया था कि यह बात मैं किसी अनुमान के आधार पर नहीं, बल्कि पूख्ता सबूत के आधार पर कहा रह हूँ कि ईवीएम में घोटाला करके ही बीजेपी सरकार बना रही है. उनका घोषणा किया था कि 23 मई को मतगणना होगी और हम उसी दिन अनिश्चित काल के लिए भारत बंद करेंगे. हालांकि यह दावा उन्होंने जेलभरो आंदोलन के पहले ही कर दिया था. चौंकाने वाली बात यह है कि जिस तरह से बीजेपी की जीत सुनिश्चित हुई है इस जीत ने वामन मेश्राम की बात को सच साबित कर दिया है.

बता दें कि पूरा देश और जनता मोदी और भाजपा के खिलाफ हो चुकी थी. इसी के साथ यूपी सहित अन्य राज्यों में गठबंधन भी एक हो गया था. मोदी के खिलाफ गठबंधन और मोदी के प्रति जनता का रवैया साफ बता रहा था कि मोदी को जनता एक भी वोट नहीं दिया है. खासकर यूपी में गठबंधन की वजह से अहिर, चमार तो बीजेपी को विल्कुल ही नहीं वोट दिया है. इसके बाद भी बीजेपी को भारी जीत मिली है. जबकि जमीनी हकीकत यह है कि यूपी में सपा-बसपा अकेले दम पर 20-22 सीटें आसानी से निकाल लेते थे. इसके अलावा इस बार दोनों पार्टियाँ एक हो गयीं थीं. दोनां का वोट इकट्ठा होने बाद भी गठबंधन को करारी हार का मुँह देखना पड़ा. यह इस बात का पुख्ता सबूत है कि यूपी में बड़े पैमाने पर ईवीएम में घोटाला हुआ है. ईवीएम में अदलाबदली हुई है और ईवीएम के माध्यम से जनता की आँखों के सामने उनके वोटों को एक तरह से जबरदस्ती छीन लिया गया है. यदि बीजेपी के पाँच साल के कार्यकाल पर नजर डाली जाय तो स्पष्ट होता है कि इस चुनाव में बीजेपी को 169-177 से ज्यादा सीटें नहीं है, लेकिन ईवीएम घोटाले ने बहुमत दिला दिया है.

हालांकि अब तो बीजेपी दूसरी बार सत्ता पर कब्जा करने जा रही है. मगर, यह भी सच है कि मोदी सरकार के आने बाद एक बार फिर से देश का भविष्य खतरे में पड़ गया है. क्योंकि मोदी सरकार के आने के बाद देश में न केवल बेरोजगारी, महंगाई, हत्या, बलात्कार, भुखमरी, गरीबी, दंगा-फसाद, धार्मिक उन्माद, अन्याय, अत्याचार, और आतंकी हमले बढ़ जायेंगे, बलिक देश की इकोनॉमी और विकास भी पूरी से चौपट हो जायेगा. चूंकि पाँच साल में मोदी सरकार ने इसके अलावा कुछ भी नहीं किया है और अब फिर यही करने के लिए आ रही है.

दूसरी बात यह है कि जो चुनाव के दौरान यह कयास लगाये जा रहे थे कि यह ‘देश का अंतिम चुनाव होगा’ मोदी सरकार की वापसी के बाद यह सच हो सकता है. क्योकि, मोदी के दोबारा सत्ता में आने के बाद ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ पर बहुत जल्द ही मुहर लग सकती है. अगर ऐसा हुआ तो यह निश्चित तौर पर देश को सत्यानाश की दहलीज पर खड़ा करने जैसा होगा. क्योंकि अभी भी 36 राज्यों में 18 राज्यों में बीजेपी की सरकार है. 

चुनाव आयोग और भाजपा का गठबंधन



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
आज एक तरफ जहाँ बीजेपी को हाराने के लिए देश में गठबंधन बन रहा है तो वहीं दूसरी ओर बीजेपी और चुनाव आयोग भी आपसी गठबंधन मजबूत कर चुके हैं. चुनाव आयोग और भाजपा के गठबंधन का ही नतीजा है कि बीजेपी 2019 में दूसरी बात केन्द्र की सत्ता पर कब्जा करने जा रही है. भले ही भारतीय जनता पार्टी जीत का जश्न मना रही हो, लेकिन चुनाव के नतीजों को लेकर जनता गुस्सा ही दिख रहा है. क्योंकि, जिस तरह से देश की जनता में बीजेपी के खिलाफ आक्रोश था और बीजेपी के खिलाफ देश में महागठबंधन बना है उस हिसाब से चुनाव के परिणाम बिलकुल उसके उलट आए हैं. हर चरण में घोटालों की शिकायतें, ईवीएम का बड़े पैमाने पर खराब होना और मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से गायब होना यह इस बात का संकेत है कि चुनाव आयोग, भारतीय जनता पार्टी ने ईवीएम घोटाले को लेकर नया कारनामा करने वाले हैं. हालांकि यह कारनामा उस वक्त उजागर हो ही गया जब बीजेपी ने ईवीएम बदलने की कोशिश की. 

बता दें कि हर शातिर चोर एक न एक सुराग ऐसा छोड़ ही जाता है जिससे उसकी चोरी के बारे में क्लू मिल जाता है और इस चुनाव में बड़े पैमाने पर ईवीएम मशीन में अदलाबदली भारी गड़बड़ी को दिखाता है, लेकिन इसके बाद भी चुनाव आयोग चुप्पी साधे रहा. आयोग का रवैया इस बात की गवाही दे रहा है कि चुनाव आयोग ही निष्पक्ष नहीं है. अगर इसी तरीके से चलता रहा तो बहुत जल्द ही देश में मनुस्मृति लागू हो जायेगा. आखिर चुनाव करवाने का स्वांग कब तक रचा जाता रहेगा? जबकि नतीजे ऐसे फिक्स ही होने हैं? इसलिए चुनाव आयोग को या तो ईवीएम मशीन का प्रयोग बंद करा देना चाहिए या फिर चुनाव ही कराना बंद कर देना चाहिए, क्योकि जब ऐसे ही सब होना है तो चुनाव आयोग को बिना चुनाव के ही परिणाम दे देना चाहिए.

यदि ईवीएम पर बात करें तो 1982 में इंदिरा गाँधी ने ईवीएम मशीन लाने का निर्णय यह सोचकर किया कि हम ब्राह्मण लोग 3.5 प्रतिशत हैं. ईमानदारी से हम ब्राह्मण लोग चुनाव नहीं जीत सकते है.भविष्य में तो यह खतरा और पैदा हो जायेगा. अगर भविष्य मे चुनाव जीतना है तो जिस मशीन पर यूरोप ने पांबदी लगाई है, वह मशीन हम ब्राह्मणों के लिए सबसे ज्यादा उपयोगी साबित होगी. यह सोचकर इंदिरा गाँधी ने ईवीएम मशीन को भारत मे लाने का का फैसला किया. सन् 2004 और सन् 2009 में कांग्रेस ने सारे देश भर में लोकसभा चुनाव में ईवीएम मशीन का उपयोग किया और कांग्रेस ने ईवीएम मशीन के माध्यम से घोटाला किया. यह घोटला कैसे करना है यह केवल कांग्रेस को ही मालूम था. 2003 में अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री थे. मगर, अटल बिहारी बाजपेयी को ईवीएम मशीन में घोटाले के बारे में मालूम नहीं था. ईवीएम मशीन को भारत में लाने का काम इन्दिरा गाँधी ने किया था. इसलिए ईवीएम मशीन में घोटाले के बारे में इन्दिरा गाँधी को ही मालूम था. 

 2004 में कांग्रेस ने ईवीएम मशीन में घोटाला करके चुनाव जीता. 2009 में भी कांग्रेस ने ईवीएम मशीन में घोटाला करके चुनाव जीता. 2004 और 2009 में कांग्रेस द्वारा ईवीएम मशीन में घोटाला करके लोकसभा चुनाव जीतने के बाद डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने इसके दस्तावेजी सबूत इकट्ठा किए. डा.सुब्रमण्यम स्वामी ने इसके दस्तावेजी सबूत इकट्ठा करके इसे सुप्रीम कोर्ट में लेकर गया. ईवीएम मशीन में घोटाला कैसे करना है, कांग्रेस को सब मालूम है. वैसे बीजेपी को ईवीएम मशीन में घोटाले के बारे में मालमू नहीं था, मगर 2004 और 2009 में कांग्रेस के द्वारा ईवीएम मशीन में घोटाला करके लोकसभा चुनाव जीतने का सबूत डा.सुब्रमण्यम स्वामी ने आरएसएस को दे दिया, जिसके कारण आरएसएस और बीजेपी को भी मालूम हो गया कि ईवीएम मशीन में घोटाला करके चुनाव जीता गया है. इसके बाद कांग्रेस ने आरएसएस के साथ सम्पर्क किया और आरएसएस के साथ गुप्त समझौता किया. 

कांग्रेस ने आरएसएस से सम्पर्क किया और आरएसएस को कहा कि डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने सारे दस्तावेजी सबूत दिए हैं कि हमने कैसे 2004 और 2009 में ईवीएम मशीन में घोटाला करके लोकसभा चुनाव जीता और आप लोगों ने वो सारे के सारे दस्तावेज देख लिए है, इसलिए अब आपसे क्या छुपाना है, अब तो आपको सब कुछ मालूम ही हो गया है. जब तक हम सोच रहे थे कि छुपा है तो छुपा है, ठीक है, मगर अब आपको सब मालूम ही हो गया है और बन्द मुट्ठी खुल गई है, इसलिए अब आपको हम बताते हैं कि हमने 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में ईवीएम मशीन में घोटाला किया था और चुनाव जीता था. मगर राष्ट्रहित में यह है कि आडवानी को रोका जाए, क्योंकि जो ब्राह्मणहित में होता है, उसे वो राष्ट्रहित में बताते हैं. जो ब्राह्मणों के हित में होता है, वे कहते हैं कि नहीं-नहीं यह देशहित और राष्ट्रहित में है.

कांग्रेस ने कहा कि ठीक है, हम ही बताते हैं. कांग्रेस ने आरएसएस को कहा कि 2014 के चुनाव में आप घोटाला कर लेना. केन्द्र में हमारी सरकार है, चीफ इलेक्शन कमिश्नर हमने बनाया है. उसने पिछले बार इस षड्यंत्र में हिस्सा लिया था और जब पिछली षड्यंत्र में हिस्सा लिया था, तो अब भी षड्यंत्र में हिस्सा लेगा और दूसरी बात यह है कि जो भारतीय प्रशासनिक सेवा है, उसमें 80 प्रतिशत ब्राह्मण और तत्सम ऊँचे जाति के लोग हैं. केन्द्र में हमारी सरकार है, इसलिए प्रशासनिक अधिकारियों से हम यह काम करवाऐंगे. जूडिशियरी को हमने बोल दिया है, मीडिया वालों को भी बोल दिया है कि इसकी कोई खबर न छापी जाए. इसलिए हम आपको सारे देश भर में मदद करने के लिए तैयार हैं, इसलिए 2014 का चुनाव घोटाला करके जीतो हम भी आपको हर संभव मदद करेंगे. लेकिन हम जनता को दिखाने के लिए आपका विरोध करेंगे. 

इस तरह से आरएसएस ने कांग्रेस को कहा कि आपने ऐसा कहा कि 2004 और 2009 का लोकसभा चुनाव में घोटाला करके दो बार चुनाव जीता और आप हमें एक ही बार घोटाला करने के लिए बोल रहे हो, इसलिए यह बात सही नहीं है. कांग्रेस ने आरएसएस से पूछा कि आपका क्या कहना है? आरएसएस के लोग बहुत घाघ हैं, उन्होंने कांग्रेस को कहा कि आप भली भांति जानते हैं कि हम क्या कहना चाहते हैं? कांग्रेस ने कहा कि अच्छा आपका यह कहना है कि हमने दो बार घोटाला किया है तो आपको भी दो बार घोटाला करने का अवसर दिया जाए? आरएसएस ने कहा कि हम तो पहले ही कह रहे हैं कि आप समझदार लोग हैं, आप हमसे सीनियर लोग हैं. 1885 में कांग्रेस बनी और 1925 में आरएसएस बनी, तो आप तो हमसे सीनियर हैं, आप ज्यादा होशियार लोग हैं. अगर आपने दो बार घोटाला किया है, तो हमें भी दो बार घोटाला करने दिया जाए. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में दो बार घोटाला करने दिया जाए. इस बात पर कांग्रेस और आरएसएस के साथ सौदेबाजी हुई और सौदेबाजी होने के बाद यह निर्णय हुआ. इस सौदेबाजी का ही दुष्परिणाम है कि 2014 में बीजेपी सत्ता में आयी और अब 2019 के सत्ता में आ रही है.

ईवीएम पर पहरेदारी



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

ईवीएम पर खामोश रहने वाले ही ईवीएम की पहरेदारी कर रहे थे. आज वर्तमान में ईवीएम पर पहरेदारी करना एक व्यगांत्मक बात के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता है. ईवीएम पर पहरा देने वाले लोगों की इस करतूत पर हंसी आती है, यह सोचकर कि कभी यही लोग ईवीएम के खिलाफ आवाज उठाए होते, बामसेफ, भारत मुक्ति मोर्चा द्वारा ईवीएम के खिलाफ चलाए जा रहे आन्दोलनों में साथ दिए होते तो शायद आज यह नौबत नहीं आयी होती. 


भले ही यह बात ईवीएम पर पहरा देने वाले लोगों को नगवार लगे, परन्तु सच्चाई यही है कि आज तक ईवीएम में घोटाला करके भारतीय जनता पार्टी केन्द्र में दोबारा सरकार बनाने जा रही है तब इन लोगों की आँख खुली है. पता नहीं यह आँखें फिर बंद हो जायेगी या खुली रहेगी, यह तो आगे ही पता चलेगा. लेकिन इतने दिन इन लोगों के आँखों पर सत्ता की न केवल पट्टी बंधी थी, बल्कि इनके दिलों दिमाग पर झूठी सरकार बनाने की सनक भी सवार थी. सत्ता के नशे में चूर इन नेताओं की हालत आज उन शराबियों जैसी हो गयी है जिनकी नशा एक ही झटके में तब टूट जाती है जब उनके  घर में आग लग जाती है. आज यही दशा इन नेताओं की हो गयी है. इतने दिन तक ईवीएम पर खामोश रहे, जब ईवीएम में घोटाला करके बीजेपी सरकार बनाने जा रही है तब ईवीएम की पहरेदारी कर रहे हैं. सवाल यह है कि इतने दिनों तक किस बिल में दुबके बैठे थे? क्या पहरेदारी से ईवीएम में घोटाला बंद हो जायेगा? क्या पहरेदारी से बीजेपी सत्ता से बेदखल हो गयी? क्या इसका रत्तीभर भी चुनाव आयोग पर असर पड़ा? अगर ऐसी सोच है तो कम से कम इस सोच को तो भूल ही जायें. यह मात्र एक वहम है. क्योंकि, जो काम बीजेपी और कांग्रेस को करना था वो कर दिया है. अब पहरेदारी करने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है और न ही हुआ.

एक और बात, यह बात इसके भी ज्यादा कड़वी है. शायद यह बात गठबंधन के लोगों को तीर के समान लगे, लगना भी जरूरी है. क्योंकि, यह बात तीर जैसा लगने के लिए ही कह रहा हूँ, शायद अब भी दिलों दिमाग से सत्ता का नशा टूट जाए. वह बात यह है कांग्रेस, बीजेपी को केन्द्र की सत्ता पर दोबारा पहुँचाने के लिए लगातार मदद कर रही है और सपा-बसपा उसी कांग्रेस को अमेठी और रायबरेली में यह सोचकर समर्थन दे रहे हैं कि कांग्रेस, बीजेपी को हराने में मदद करेगी. जो कांग्रेस, बीजेपी को जितवाना चाहती है उसी कांग्रेस से उम्मीद लगाना कहाँ तक तर्कसंगत है यह तो वहीं लोग बता सकते हैं. अरे! भाड़ में जाय कांग्रेस और गठबंधन. यह बात गठबंधन को नहीं समझ में आ रही है? मैं राजनीति करने वाला नहीं हूँ, मुझे राजनीति का कुछ भी पता नहीं है, मैं राजनीति शास्त्र का छात्र भी नहीं हूँ. इसके बाद भी यह बात मुझे समझ में आ रही है, मगर राजनीति करने का दावा ठोंकने वाले इन नेताओं को यह बात क्यों नहीं समझ में आ रही है? सवाल यह है कि जब कांग्रेस की इतनी सी बात गठबंधन को समझ में नहीं आ रही है तो मुझे नहीं लगता है कांग्रेस, बीजेपी को क्यों सत्ता में लाना चाहती है, यह बात कैसे समझ में आयेगी.

ऐसे नासमझ लोगों को एक नसीहत देना चाहता हूँ कि बीजेपी ही नहीं कांग्रेस से भी दूर रहने में ही भलाई है. बाबासाहब कहते थे कांग्रेस जलता हुआ घर है शायद आज बाबासाहब होते तो कांग्रेस के साथ-साथ बीजेपी को भी जलता हुआ घर कहते. वहीं राष्ट्रपिता जोतिराव फुले साहब कांग्रेस को कहते थे ‘‘तुम लोग ऊँट पर बैठकर बकरियाँ चराने वाले लोग हो’’ और कांग्रेस से उम्मीद करने वाले ऐसे लोगों को कहते थे ‘‘जो कांग्रेस में जायेगा, वह दो बाप की औलाद होगा’’ अरे! कम से कम अपने महापुरूषों की कहीं बातों को तो मान लो? अगर अपने महापुरूषों की बातों को दरकिनार कर कांग्रेस से उम्मीद करते हैं तो इससे ज्यादा निंदनीय बात और क्या हो सकती है? खैर, न समझ लोगों को एक बार समझाने का प्रयास करना चाहिए.

पहली बात तो यह है कि ऐसे लोगों को कांग्रेस, आरएसएस और बीजेपी का इतिहास जानने की ज्यादा जरूरत है. लोकसभा चुनाव 2019 की बात करे तो कांग्रेस भले ही बीजेपी का कड़ा विरोध कर रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कांग्रेस खुद बीजेपी को केन्द्र में लाना चाहती है. यही कारण है कि कांग्रेस ने बनारस से प्रियंका गाँधी को चुनाव मैदान में नहीं उतारा. यदि चुनावी नतीजों को देखें तो महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस जीरो पर आ रही है. इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि कांग्रेस द्वारा ईवीएम में घोटाला करके 2004 और 2009 में लगातार सत्ता में रहने के बाद बीजेपी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि कांग्रेस ईवीएम में घोटाला करके सरकार बना रही है. तब आरएसएस और कांग्रेस के बीच समझौता हुआ और समझौता में यही हुआ कि जैसे कांग्रेस ईवीएम में घोटाला करके 2004 और 2009 में केन्द्र में सरकार बनायी है, उसी प्रकार से बीजेपी भी ईवीएम में घोटाला करके 2014 और 2019 में सरकार बनायेगी. इसके बाद ईवीएम में हो रहे घोटाले पर बीजेपी ने मौन धारण कर लिया. इसका नतीजा यह निकला कि बीजेपी 2014 में सरकार बनायी और अब 2019 में दूसरी बार सरकार बनाने जा रही है. वादे के मुताबिक ही लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस, बीजेपी को सत्ता में लाने के लिए मदद कर रही है. 

दूसरी बात, जब से देश में ईवीएम से चुनाव शुरू हुआ है तब से धोखेबाजी का सिलसिला और तेज हो गया है. ईवीएम के माध्यम से कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी ही पूर्ण बहुमत में सरकारें बनाती आ रही हैं. क्योंकि, ईवीएम से निष्पक्ष, पारदर्शी और मुक्त चुनाव नहीं हो सकता है, बल्कि घोटाला होता है. इस बात को सुप्रीम कोर्ट भी मान चुका है और इस पर 8 अक्टूबर 2013 को फैसला भी सुना चुका है कि ईवीएम से निष्पक्ष, पारदर्शी और मुक्त चुनाव नहीं हो सकता है. अंत में यही कहना चाहता हूँ कि कांग्रेस ही आरएसएस की माँ है. यही कारण है कि आरएसएस, कांग्रेस और बीजेपी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं. अब भी वक्त है कि सपा, बसपा सहित देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज बामसेफ, भारत मुक्ति मोर्चा का साथ समर्थन करें और कांग्रेस, बीजेपी सहित ब्राह्मणवाद को भारत से उखाड़ फेंके.

एग्जिट पोल के नतीजों पर गहमागहमी


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
https://www.mulnivasinayak.com/hindi/
‘‘असल में बीजेपी को कुल 169-177 सीट से ज्यादा एक भी सीट नहीं मिलने वाली है. परन्तु, दलाल और मोदी मीडिया देश की जनता को भ्रम में इसलिए रखना चाहती है. क्योंकि इसी भ्रम की आड़ में बीजेपी आसानी से ईवीएम को बदलकर सीटों की संख्या को बढ़ा सके और एग्जिट पोल्स की बातों को सच साबित कर सके ’’

एग्जिट पोल के चौंकाने वाले नतीजों के पीछे कहीं ईवीएम का ‘खेल’ तो नहीं है? दरअसल एग्जिट पोल के नतीजों ने शक को तब जन्म दे दिया, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों से ईवीएम बदलने की खबरें आने लगी. बीएमपी, एसपी-बीएसपी गठबंधन के उम्मीदवारों ने अपने-अपने जिलों में ईवीएम बदलने की आशंका जताते हुए धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया. अब इन घटनाओं में कितनी सच्चाई है, ये तो जाँच के बाद पता चलेगा, लेकिन सवाल उठता है कि क्या एग्जिट पोल के नतीजों का कनेक्शन ईवीएम से जुड़ी घटनाओं से तो नहीं है?

बताते चलें कि चंदौली, गाजीपुर और मिर्जापुर में ईवीएम को लेकर जिस तरह की खबरें सामने आई हैं, वो बेहद चौंकाने वाली हैं. चंदौली और अन्य दूसरे जिलों में चुनाव खत्म होने के 24 घंटे बाद ईवीएम से भरी गाड़ियों का पाया जाना कोई सोची-समझी कोशिश या फिर लापरवाही, क्या समझा जाए? जिला प्रशासन सफाई दे रहा है कि गाड़ियों से जो ईवीएम मिले, वो खाली थे. चुनाव अधिकारियों को रिजर्व के तौर पर इसे दिया गया था. लेकिन, सवाल इस बात का है कि चुनाव बीतने के तत्काल बाद इन्हें स्ट्रॉन्ग रूम तक क्यों नहीं पहुँचाया गया? जबकि 19 मई को मतदान हुआ और रिर्जव मशीनों को 20 मई की रात में स्ट्रांग रूम तक पहुँचाया गया. ईवीएम रिजर्व थे या भरे, ये तो चुनाव अधिकारी जाने, लेकिन इस घटना ने एक नई बहस और शक को जन्म तो जरूर दे दिया है.

दूसरी बात कि जिला प्रशासन इस घटना को भले ही लापरवाही बताकर अपनी गर्दन बचाना चाहता है. लेकिन, बीजेपी के विरोधियों को अब चुनाव आयोग पर एतबार नहीं है. बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम पहले से ही कहते आ रहे हैं कि ‘‘चुनाव आयोग चोर है और चोरों का सरदार भी है’’ यही नहीं वामन मेश्राम तो चुनाव आयोग को इतना तक कह दिया है कि चुनाव आयोग सरकार के नेतृत्व में ईवीएम में घोटाला करवा रहा है. अगर चुनाव आयोग ईवीएम मशीन में वीवीपीएटी मशीन लगाने के लिए मजबूर हुआ है तो इसका पूरा श्रेय वामन मेश्राम को ही जाता है. क्योंकि वामन मेश्राम लोकसभा 2014 के बाद से लगातार सुप्रीम कोर्ट में ईवीएम और चुनाव आयोग के खिलाफ लड़ते आ रहे हैं. वामन मेश्राम कई सालों से लगातार कहते आ रहे हैं कि ईवीएम में घोटाला हो रहा है और ईवीएम में घोटाला करके ही 2004-2009 में कांग्रेस और 2014-2019 में बीजेपी केन्द्र की सरकार बनी है. उनका यह भी दावा है कि इस घोटाले में चुनाव आयोग शामिल है. 

अभी हाल ही में वामन मेश्राम ईवीएम के खिलाफ कई बार राष्ट्रव्यापी जेल भरो आंदोलन और भारत बंद कर चुके हैं और 23 मई को फिर से अनिश्चितकाल के लिए भारत बंद करने का ऐलान किया है. इसके अलावा चुनाव आयोग द्वारा रूल 56-डी, 56-सी और 49-एम को जेलभरो आंदोलन के दौरान ही जेल में जलाया था और पूरे देश में 15 मई को आयोग के रूल को जलाने का आदेश दिया और बड़े पैमाने पर देशभर में जलाया गया था. बता दें कि वामन मेश्राम चुनाव आयोग और ईवीएम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में लगातार केस लड़ रहे हैं. वामन मेश्राम का कहना है कि ईवीएम से कभी भी मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव नहीं हो सकता है. अगर ईवीएम में वीवीपीएटी मशीन लगा भी दिया जाय तो भी मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव नहीं हो सकता है. 

उनका यह मानना है कि एक शर्त पर मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव हो सकता है जब वीवीपीएटी से निकलने वाली कागजी मतपत्रों की 100 प्रतिशत गिनती होगी. लेकिन, चुनाव आयोग ऐसा नहीं चाहता है. चुनाव आयोग चाहता है कि वीवीपीएटी से निकलने वाली कागजी मतपत्रों की 100 प्रतिशत गिनती होनी चाहिए, इसकी कोई मांग भी न करे. इसलिए ही कांग्रेस, बीजेपी और चुनाव आयोग मिलकर जनप्रतिनिधी कानून में संशोधन किया और रूल 56-डी, 56-सी और 49-एम बनाया कि वीवीपीएटी से निकलने वाली कागजी मतपत्रों की 100 प्रतिशत गिनती करने की मांग वही पार्टियाँ कर सकती हैं जो दूसरे नंबर पर होंगी. इस तरह से चुनाव आयोग, सरकार और विपक्ष का दावा करने वाली कांग्रेस षड्यंत्र करके न केवल देश की जनता के वोट के अधिकार को खत्म कर रहे हैं, बल्कि संविधान के विरोध में जाकर लोकतंत्र की हत्या भी कर रहे हैं.

इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मौजूदा सरकार की शह पर जिला प्रशासन ईवीएम बदलना चाहता है. वैसे यह बात उक्त वाकयों के बाद सच ही साबित होता है. चुनाव जीतने के लिए बीजेपी हर स्तर पर उतर चुकी है. पहले चंदौली में ईवीएम से भरी दो संदिग्ध गाड़ियाँ मिलीं और अब गाजीपुर में ये कोशिश की जा रही है. चुनाव में संभावित हार देख बीजेपी अब ईवीएम बदलने की फिराक में है. लेकिन, हम उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देंगे. 

मजेदार बात यह है कि चुनाव आयोग नियम बनाया है कि वोटिंग मशीन पूरी सुरक्षा के साथ स्ट्रॉन्ग रूम तक पहुँचाई जाए. मतगणना तक चौबीस घंटे ईवीएम की निगरानी होनी चाहिए. स्ट्रॉन्ग रूम की सीलिंग के वक्त राज्य और केंद्र की मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के नुमाइंदे मौजूद रहेंगे. स्ट्रॉन्ग रूम डबल लॉक सिस्टम वाला होना चाहिए, जिसका सिर्फ एक एंट्री प्वाइंट हो. स्ट्रॉन्ग रूम में सीसीटीवी कैमरा और बिजली की व्यवस्था होनी चाहिए. इसके बाद भी चुनाव आयोग गंदी हरकत करने से बाज नहीं आया और मतदान खत्म होने के दूसरे दिन वो भी रात में अनयूज्ड रिर्जव ईवीएम मशीन को स्ट्रॉन्ग रूम में पहुँचाया जा रहा है. क्या खुद चुनाव आयोग अपने ही कानून का सही तरीके से पालन कर रहा है? इससे तो यही साबित होता है कि सरकार के दबाव में आकर ईवीएम को बदलने की ही कोशिश की जा रही है. क्योंकि रविवार की शाम एग्जिट पोल के नतीजे आएं और इसके बाद अगले दिन ईवीएम से जुड़ी घटनाएं एक के बाद एक सामने आने लगीं. यह इस बात का साक्ष्य है कि मतगणना के पहले ईवीएम बदलकर आंकड़ों में हेरफेर करके बीजेपी को जीताया जा सके.

 लोकसभा चुनाव को करीब से देखने वाले बता रहे हैं कि पहले और दूसरे चरण के चुनाव के बाद राष्ट्रवाद का तथाकथित रंग फीका पड़ने लगा. दूसरे शब्दों में कहे तो राजनीतिक बिसात पर बीजेपी का राष्ट्रवाद ज्यादा देर तक नहीं टिक पाया. इस बीच बीजेपी की ओर से यूपी में मोदी लहर बनाने की भरपूर कोशिश हुई, लेकिन नाकामी हाथ लगी. जनता के बीच मोदी सबसे विश्वसनीय चेहरा जरूर बने थे, लेकिन उन्हें लेकर लोगों का क्रेज 2014 जैसा नहीं रहा. बीजेपी की रैलियों से भी इसकी झलक देखने को मिलती रही. ऐसे में एग्जिट पोल के नतीजे किसी के गले नहीं उतर रहे हैं. लोगों को विश्वास नहीं हो रहा है कि जिस गठबंधन ने बीजेपी की नींद उड़ा दी, उसे एग्जिट पोल रिपोर्ट में वोटरों ने कैसे खारिज कर दिया? यदि सभी एग्जिट पोल्स पर गौर करें तो मीडिया में केवल बीजेपी की हवा बनायी जा रही है. असल में बीजेपी को कुल 169-177 सीट से ज्यादा एक भी सीट नहीं मिलने वाली है. परन्तु, दलाल और मोदी मीडिया देश की जनता को भ्रम में इसलिए रखना चाहती है. क्योंकि इसी भ्रम की आड़ में बीजेपी आसानी से ईवीएम को बदलकर सीटों की संख्या को बढ़ा सके और एग्जिट पोल्स की बातों को सच साबित कर सके.

भारतीय मीडिया की चाटुकारिता



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
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♦ एक चैनल ने तो कमाल ही कर दिया, इस चैनल ने पंजाब में भाजपा को उतनी सीटें दे दी हैं, जितनी सीटों पर बीजेपी चुनाव ही नहीं लड़ी है. इससे भी मजेदार बात तो उत्तराखंड में देखने को मिले हैं. जहाँ आम आदमी पार्टी चुनाव ही नहीं लड़ी है वहाँ भी उसको भारी प्रतिशत में वोट दिखाया गया है.

♦ भारतीय मीडिया स्वतंत्र नहीं रह गया है, बल्कि भारतीय मीडिया ‘‘जिसकी लाठी, उसकी भैस’’ वाली कहावत का चरितार्थ कर रहा है. यानी जिसकी केन्द्र में सरकार होती है उसी की चाटुकारिता करने से पीछे नहीं हटते हैं. 

क्या एग्जिट पोल पर तनीक भी भरोसा किया जा सकता है? आईये एक नजर एग्जिट पोल्स पर डालते हैं. एक एग्जिट पोल में पश्चिम बंगाल में भाजपा को 4 से लेकर 22 सीटों तक का आकलन दिया, जिसमें 5 गुने का फर्क है. तमिलनाडु में एनडीए को 2 से 15 सीटें दी गईं, जिसमें सात गुने का फर्क है. एक चैनल ने तो अजीब ही पोल दिखाया है. इस चैनल ने पंजाब में भाजपा को उतनी सीटें दी हैं, जितनी सीटों पर बीजेपी चुनाव ही नहीं लड़ी है. इससे भी मजेदार बात तो यह है कि उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी को भी कुछ प्रतिशत वोट दिया गया है. जबकि, वह वहाँ से चुनाव मैदान में ही नहीं है.

गत रविवार को लोकसभा चुनाव के एग्जिट पोल्स के नतीजे आने के बाद से ही उन्हें लेकर जितने मुंह उतनी ही बातें हो गई हैं. वैसे भी आज के दलाल मीडिया की हालत एक आतंकी से कम नहीं है. ताजुब होता है कि मनोरंजन करने वाले चैनल राजनीति कैसे करने लगे? फिर भी इन्हें गंभीरता से लेने वालों की कमी नहीं है. कोई कह रहा है कि इनके पीछे सट्टा बाजार का ‘खेल’ है तो किसी को इनमें चैनलों पर विपक्ष को ‘टोन डाउन’ करने के लिए डाला गया सरकारी दबाव नजर आ रहा है. लेकिन यह भी सही है कि अपनी एकता व सरकार बनाने की कवायदों को लेकर मीडिया को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया है. यही वजह है कि मीडिया मोदी सरकार को शपथ दिलाने का रास्ता साफ करने में जुटा है. 

दूसरी बात यह है कि इनमें से किसी की कोई बात न मानी जाए तो भी एग्जिट पोल नतीजों की दो बातें कतई समझ में नहीं हा रही है. पहली यह कि ये सारे एग्जिट पोल केवल इसी एक निष्कर्ष पर क्यों एकमत हैं कि भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बहुमत के पार या उसके करीब पहुँच जाएगा? सर्वथा अलग-अलग, यहाँ तक कि परस्परविरोधी राज्यवार नतीजे देने के बावजूद वे अंततः अलग-अलग रास्तों से समुद्र में जा गिरने वाली नदियों की तरह भाजपा के निकट ही क्यों पहुँच जा रहे हैं? इस बात को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मार्फत समझना चाहें तो सपा-बसपा व रालोद गठबंधन को राज्य की अस्सी में से 58 सीटें देने वाले एबीपी-नील्सन ने भी राजग को बहुमत के पास पहुँचा दिया है, जबकि इसके सर्वथा उलट राज्य की 58 सीटों पर भाजपा की जीत की भविष्यवाणी करने वाले टाइम्स नाउ-वीएमआर ने भी आखिरकार राजग की ‘जय हो’ का गान कर डाला है.

भारत जैसे नाना प्रकार की विविधता, बहुलता व ऊंच-नीच वाले देश के चुनावों के ये नतीजे वाकई किसी वैज्ञानिक पड़ताल का नतीजा हैं तो इनमें देश के सबसे बड़े राज्य तक के निष्कर्षों में ऐसा बैर-विरोध क्यों है कि एक को सही मानिए तो दूसरा गलत सिद्ध होने लगता है? क्यों किसी चैनल को भाजपा उत्तर प्रदेश में 58 सीटें जीतती नजर आती है तो किसी को 52, किसी को 46 और किसी को 34? इसी तरह क्यों किसी पोल में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को 56 सीटों पर विजय-पताका फहराता प्रदर्शित किया जाता है तो किसी में 42, किसी में 32 और किसी में 25, किसी में 20. यह इन चैनलों का अपने दर्शकों को सच से वाकिफ कराना है या नये भ्रमों के हवाले करना? कई बार इन एग्जिट पोल्स का बचाव करने वाले कहते हैं कि इनसे सही नतीजों का न सही, सही रुझानों का पता चल जाता है. लेकिन उत्तर प्रदेश के संदर्भ में इनके आकलन इतना-सा संकेत देकर क्यों रह जा रहे हैं कि भाजपा को 2014 के मुकाबले सीटों का नुकसान मुमकिन है.लेकिन कितना? अगर इसके जवाब न सिर्फ अलग-अलग बल्कि परस्परविरोधी हैं तो उनमें से किसी को भी सच के नजदीक कैसे माना जा सकता है? उनके आधार पर बहुमत व अल्पमत का ठीक-ठीक आकलन भी कैसे किया जा सकता है?

बीबीसी की हिन्दी वेबसाइट पर प्रकाशित अपने विश्लेषण में सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता विराग गुप्ता के अनुसार इस बार के आम चुनावों में न्यूजएक्स ने भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 242 सीटें दी हैं तो आज तक ने 352 सीटें. इन दोनों आकलनों में 110 सीटों का फर्क है, जो 45 फीसदी से ज्यादा है. दूसरी ओर, न्यूज-18 ने कांग्रेस के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को 82 सीटें दी हैं. जबकि न्यूज एक्स ने 164 सीटें और इन दोनों के आकलनों में दो गुने का फर्क है. उन्होंने एग्जिट पोल में विसंगतियों की कुछ और बानगियाँ पेश की हैं, जो इस प्रकार हैंः पश्चिम बंगाल में भाजपा को 4 से लेकर 22 सीटों तक का आकलन, जिसमें 5 गुने का फर्क है. तमिलनाडु में एनडीए को 2 से 15 सीटें दी जा रही हैं, जिसमें सात गुने का फर्क है.

उन्होंने पूछा है कि निष्कर्षों में इतने बड़े फर्क को कैसे तर्कसंगत ठहराया जा सकता है? साथ ही इनके रहते कैसे कहा जा सकता है कि ये नतीजे किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया से निकल कर आए हैं? एक चैनल ने तो कमाल ही कर दिया. उसने पंजाब में भारतीय जनता पार्टी को आगे दिखाने के लिए उसे उतनी सीटें दे डालीं, जितनी वह लड़ ही नहीं रही है. इसी तरह उसने उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी को भी कुछ प्रतिशत वोट दिला दिए जो वहाँ चुनाव मैदान में ही नहीं है.

क्या इसके बाद भी इन निष्कर्षों के बारे में कहने को कुछ बचता है? क्या इसके बाद भी इन नतीजों पर पहुँचा जा सकता है कि सारे एग्जिट पोल सही हैं? जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय मीडिया स्वतंत्र नहीं रह गया है, बल्कि भारतीय मीडिया ‘‘जिसकी लाठी, उसकी भैस’’ वाली कहावत का चरितार्थ कर रहा है. यानी जिसकी केन्द्र में सरकार होती है उसी की चाटुकारिता करने से पीछे नहीं हटते हैं. इसलिए चुनाव के लेकर चुनावी परिणाम आने तक मौजूदा सरकार के पक्ष में एग्जिट पोल दिखाते हैं. यही नहीं जनता को भ्रम में डालकर गोदी मीडिया सरकार के पक्ष में माहौल खड़ा करते हैं. इसलिए गोदी मीडिया के एग्जिट पोल पर तनिक भी विश्वास करने लायक नहीं है.

धोखेबाजी से बहुमत

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
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♦  कांग्रेस भले ही बीजेपी का कड़ा विरोध कर रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कांग्रेस खुद बीजेपी को केन्द्र में लाना चाहती है. यही कारण है कि कांग्रेस ने बनारस से प्रियंका गाँधी को चुनाव मैदान में नहीं उतारा. यही नहीं महाराष्ट्र, गुजरात सहित कई प्रदेशों में जहाँ-जहाँ बीजेपी के उम्मीदवार मैदान में थे, वहाँ-वहाँ कांग्रेस अपना उम्मीदवार नहीं उतारा है. 

 
धोखेबाजी से बहुमत अगर किसी देश में बनायी जाती है तो वह वर्तमान भारत है. देश में 1952 से आम चुनाव हो रहे हैं. मगर, 60 तक कांग्रेस और बीजेपी को छोड़कर अन्य पार्टियाँ बहुमत में रही हों, इसका इतिहास ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता है. देश में तकरीबन 60 साल तक लगातार कांग्रेस बहुमत में रही और अब बीजेपी आ गयी है. सवाल यह है कि बहुमत में केवल कांग्रेस और बीजेपी ही क्यों रहती हैं? अन्य पार्टियाँ भी तो हैं, वे बहुमत में क्यों नहीं आती हैं? चौंकाने वाली बात तो यह है कि चुनाव परिणाम 23 मई को आयेंगे और इससे पहले मीडिया वाले दावा करने लगे हैं कि बीजेपी सत्ता में वापसी कर रही है. इससे तो यही साबित होता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में भी बीजेपी और कांग्रेस ने धोखेबाजी करने से बाज नहीं आयी हैं. कांग्रेस और बीजेपी के धोखेबाजी में गोदी मीडिया भी शामिल है. गोदी मीडिया भी कांग्रेस और बीजेपी के लिए ही काम कर रहा है. 

इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सातवें और आखिरी चरण में 19 मई को आठ राज्यों की 59 सीटों पर मतदान सम्पन्न हुआ. सातवें और आखिरी चरण की वोटिंग खत्म होते ही तमाम एजेंसियों ने एग्जिट पोल के नतीजे जारी कर दिए हैं. देश की सभी 543 लोकसभा सीटों के लिए अधिकतर एग्जिट पोल में एनडीए को बहुमत मिलने का दावा किया जा रहा है. जबकि, कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए की सीटों में भले ही बढ़ोतरी हो रही हो लेकिन वह एनडीए से बहुत पीछे दिख रही है. वहीं एग्जिट पोल में क्षेत्रीय दलों की भमिका बढ़ती हुई दिखाई दे रही है.

एक नजर गोदी मीडिया पर डालते हैं. इंडिया टीवी के एग्जिट पोल के मुताबिक एनडीए को 300 सीटें मिल सकती हैं. जबकि, यूपीए को 120, सपा-बसपा गठबंधन को 28 और अन्य को 94 सीट मिल सकती है. एनडीटीवी के पोल ऑफ पोल्स के मुताबिक एनडीए को 305, यूपीए को 125 और अन्य को 112 सीटें मिलने की संभावना है. वहीं टाइम्स नाऊ के मुताबिक एनडीए को 306, यूपीए को 132 और अन्य को 104 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है. रिपब्लिक-सी वोटर के एग्जिट पोल में एनडीए को 287, यूपीए को 128 और अन्य को 127 सीटें मिलने की बात कही गई है. इंडिया न्यूज के एग्जिट पोल में एनडीए को 298, यूपीए को 118 और अन्य को 126 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है. सुदर्शन न्यूज ने सर्वे में एनडीए को 313, यूपीए को 121 और अन्य को 108 सीटें मिलने का दावा किया है.

न्यूज नेशन के सर्वे में एनडीए को 282 से 290 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है, जबकि यूपीए के खाते में 118 से 126 और अन्य के खाते में 130 से 138 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है. रिपब्लिक भारत-जन की बात के सर्वे में एनडीए को 305, यूपीए को 124 और अन्य को 113 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है. साक्षी टीवी के सर्वे के मुताबिक एनडीए को 305, यूपीए को 124 और अन्य को 87 सीटें मिल सकती हैं. श्रवण न्यूज के मुताबिक एनडीए की झोली में 333, यूपीए को 115 और अन्य को 94 सीटें मिल सकती हैं. उधर, एबीपी न्यूज के एग्जिट पोल में बीजेपी को बड़ा फायदा होता हुआ बताया गया है. इसके अलावा इंडिया न्यूज के एग्जिट पोल में एनडीए को 298, यूपीए को 118 और अन्य को 126 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है. यानी सभी गोदी मीडिया का दावा है कि बीजेपी सत्ता में वापस आ रही है. 

जबकि 542 सीटों पर उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में कैद है और उसके फाइनल नतीजे 23 मई को आएंगे. लेकिन, उससे पहले ही तमाम टीवी चैनलों और सर्वे एजेसियों के एग्जिट पोल बीजेपी की सत्ता वापसी का दावा कर रहे हैं. आखिर क्या कारण है कि चुनाव रिजल्ट आने से पहले मीडिया जान जाता है कि किसकी सरकार बनेगी, किसकी नहीं? यदि मीडिया के उक्त दावे का विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि ईवीएम में कितना घोटाला हो रहा है इसकी जानकारी पार्टियों की तरफ से पहले ही दे दी जाती है. यही कारण है कि गोदी मीडिया को यह बात पहले ही पता चल जाती है और इस आधार पर परिणाम आने से पहले दावे करने लगते हैं. कुल मिलाकर बहुमत में आने के लिए कांग्रेस और बीजेपी देश की जनता के साथ धोखेबाजी करती हैं और धोखेबाजी करके ही पूर्ण बहुमत में सरकारें बनाती हैं. 

अगर लोकसभा चुनाव 2019 की बात करे तो कांग्रेस भले ही बीजेपी का कड़ा विरोध कर रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कांग्रेस खुद बीजेपी को केन्द्र में लाना चाहती है. यही कारण है कि कांग्रेस ने बनारस से प्रियंका गाँधी को चुनाव मैदान में नहीं उतारा. यही नहीं महाराष्ट्र, गुजरात सहित कई प्रदेशों में जहाँ-जहाँ बीजेपी के उम्मीदवार मैदान में थे, वहाँ-वहाँ कांग्रेस अपना उम्मीदवार नहीं उतारा है. इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि कांग्रेस द्वारा ईवीएम में घोटाला करके 2004 और 2009 में लगातार सत्ता में रहने के बाद बीजेपी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि कांग्रेस ईवीएम में घोटाला करके सरकार बना रही है. तब आरएसएस और कांग्रेस के बीच समझौता हुआ और समझौता में यही हुआ कि जैसे कांग्रेस ईवीएम में घोटाला करके 2004 और 2009 में केन्द्र में सरकार बनायी है, उसी प्रकार से बीजेपी भी ईवीएम में घोटाला करके 2014 और 2019 में सरकार बनायेगी. इसके बाद ईवीएम में हो रहे घोटाले को दबाने के लिए बीजेपी ने मौन धारण कर लिया. इसका नतीजा यह निकला कि बीजेपी 2014 में सरकार बनायी और अब 2019 में दूसरी बार सरकार बनाने जा रही है. वादे के मुताबिक ही लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस, बीजेपी को सत्ता में लाने के लिए मदद कर रही है. यही मुख्य कारण है कि बीजेपी के खिलाफ न तो प्रियंका को मैदान में उतारा गया और न ही गुजरात, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में.

दूसरी बात, जब से देश में ईवीएम से चुनाव शुरू हुआ है तब से धोखेबाजी का सिलसिला और तेज हो गया है. ईवीएम के माध्यम से कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी ही पूर्ण बहुमत में सरकारें बनाती आ रही हैं. क्योंकि, ईवीएम से निष्पक्ष, पारदर्शी और मुक्त चुनाव नहीं हो सकता है, बल्कि घोटाला होता है. इस बात को सुप्रीम कोर्ट भी मान चुका है और इस पर 8 अक्टूबर 2013 को फैसला भी सुना चुका है कि ईवीएम से निष्पक्ष, पारदर्शी और मुक्त चुनाव नहीं हो सकता है. इसलिए ईवीएम में अलग से वीवीपीएटी मशीन लगाने का चुनाव आयोग को आदेश दिया. यही नहीं सुप्रीम कोर्ट अपने आदेश के पैरा नंबर 28-29 में यह भी कहा है कि विवाद की स्थिति में वीवीपीएटी मशीन से निकले वाली कागजी मतपत्र की निष्पक्ष, पारदर्शी और मुक्त चुनाव के लिए 100 प्रतिशत गिनती होनी चाहिए. परन्तु, चुनाव आयोग निष्पक्ष, पारदर्शी और मुक्त चुनाव कराने के बजाए चुनावी परिणाम जल्दी लाने के लिए काम कर रहा है. इसके अलावा चुनाव आयोग पर लगातार आरोप लगते आ रहे हैं कि चुनाव आयोग बिक चुका है, चुनाव आयोग सरकार के नियंत्रण में काम कर रहा है, इसके बाद भी चुनाव आयोग को कोई फर्क नहीं पड़ा है.

बनारस में बुनकरों का बुरा हाल : जुमला साबित हुआ मोदी का वादा


बनारस में बुनकरों का बुरा हाल
जुमला साबित हुआ मोदी का वादा




राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
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क्या बनारस में बुनकरों के लिए प्रधानमंत्री मोदी का अच्छे दिन लाने का वादा जुमला साबित हुआ? नरेंद्र मोदी ने बनारस में बुनकरों से जुड़े कई वादे किए थे. लेकिन, पाँच साल बाद स्थानीय बुनकर अच्छे दिनों के नारे और वादे के बीच ख़ुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. दुनिया भर में बनारसी साड़ी के लिए मशहूर वाराणसी आज अपनी पहचान बचाने में लगी हुई है, लेकिन कहीं से भी कामयाबी मिलती नजर नहीं आ रही है. सरकारें आती हैं, वादे करती हैं और चली जाती हैं, लेकिन बुनकरों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. हालांकि मोदी सरकार का दावा है कि बुनकरों के लिए बहुत कुछ किया गया है. 2017 सितंबर में वाराणसी के दूसरे छोर पर बसे बड़ा लालपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 200 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुए ट्रेड फैसिलिटेशन सेंटर (पंडित दीनदयाल उपाध्याय ट्रेड सेंटर) का उद्घाटन किया था. जिस समय यह सेंटर बनकर तैयार हुआ था, लोगों को लगा कि अब बुनकरों के अच्छे दिन आ जाएंगे. पीएम मोदी ने अपने संबोधन में कहा था, ये संकुल मात्र इमारत नहीं है यह भारत के सामर्थ्य का परिचय कराने वाली इमारत है. ये काशी के शिल्पाकारों और बुनकरों के लिए है जो भविष्य के दरवाजे खोलने का ताकत रखती है.


आज दो साल के बाद स्थिति बिलकुल उल्टी है. ट्रेड फैसिलिटेशन सेंटर में बहुत-सी दुकानें खाली हैं. यहाँ पर जितनी जनता नहीं है उससे ज्यादा यहाँ इमारत में विभिन्न तरह के काम करने वाले लोग हैं. यहाँ काम करने वाले एक कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, जब से ये सेंटर खुला है तब से शायद ही आज तक कोई ऐसा कार्यक्रम हुआ हो, जिसमें बुनकर आए हों. बुनकरों के लिए कार्यक्रम तो होता है लेकिन उसमें बुनकर नहीं होते, सब व्यापारी होते हैं. वे आगे बताते हैं, यहांँ मोहन भागवत जी आते हैं, संघ का कार्यक्रम भी हो चुका है. अमित शाह जब आते हैं तो अक्सर वो अपने कार्यकर्ताओं से यहीं पर मिलते हैं. और भी कई कार्यक्रम होते हैं, लेकिन जिस काम के लिए इसे बनाया गया है वो कार्यक्रम तो नहीं दिखता है. 

बता दें कि बनारस के बुनकरां का कहना है कि मोदी ने बनारस के बुनकारों के साथ बड़ा धोखा किया है. ट्रेड सेंटर में दुकान लगाने वाले 30 साल के गुलजार अहमद बताते हैं, यहा पर सेंटर तो खुल गया है, लेकिन इसका कोई प्रचार नहीं हो रहा है. ये बनारस में ही खुला है लेकिन इसे बनारस के बुनकर ही नहीं जानते हैं. मैं पिछले पाँच महीने से यहाँ हूँ और इतने दिन में केवल चार साड़ियाँ ही बेच पाया हूँ. इस दुकान का करीब सात हजार रुपये महीना किराया दे रहा हूँ और केवल घाटा ही घाटा हो रहा है. वे आगे बताते हैं, बीते जनवरी में यहाँ पर प्रवासी सम्मेलन हुआ था, लेकिन उसका कुछ भी फायदा नहीं हुआ. साड़ी खरीदना तो दूर किसी ने एक खिलौना भी नहीं खरीदा. कुछ भी बिक्री नहीं हुई है. भले ही यहाँ पर सेंटर बन गया है, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है. सरकार ने ये सेंटर तो बना दिया है, लेकिन इसका प्रचार-प्रसार नहीं होने से पूरी तरह से ये बर्बाद है.

बड़ा लालपुर सेंटर के बारे में बात करते हुए अहमद अंसारी कहते हैं, वाराणसी में ये सेंटर ऐसी जगह पर बना है जहाँ पर आम बुनकर का पहुँचना ही मुश्किल है. बनारस के 90 प्रतिशत बुनकर तो उस जगह और सेंटर के बारे जानते ही नहीं है. सेंटर के बारे में नुरुलहोदा कहते हैं, ये जो हमारे मुल्क का बादशाह है वो बड़ा झूठा है. वो बस अपनी वाहवाही के लिए सब कुछ करता है. उनके लिए सब काम केवल दिखावा है. बुनकर केंद्र बना है तो उसका फायदा कैसे होगा, ये भी बताएं. लेकिन इनके लिए सब काम खाली हवाहवाई रहता है. बुनकर बिरादिराना तंजीम के अध्यक्ष और गंगा महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हाजी मुख्तार अहमद महतो का कहना है कि कि बुनकरों के हालात पहले से ही खराब रहे हैं, भाजपा और मोदी सरकार के आने के बाद हालत और खराब हो गए हैं. वे कहते हैं, साड़ी के काम में कई लोग लगे होते हैं, कुछ धागा बुनाई करते हैं, कुछ साड़ी कटिंग करते हैं, कुछ लोग तानी (बुनाई में ताना-बाना) रंगाई का काम करते हैं. एक साइकिल (चक्र) में काम होता है. जब नोटबंदी हुई तो बड़े व्यापारियों ने अपना पैसा खींच लिया, इस वजह से नोटबंदी के बाद बुनकरों की कमर टूट गई. बची हुई कसर जीएसटी ने निकाल दी. बुनकर उतना पढ़े-लिखे नहीं हैं कि उन्हें जीएसटी समझ में आ जाए. जितना वो कमा रहे हैं उससे ज्यादा दिमाग उनको जीएसटी जमा करने में खर्च लग जाता है, वो परेशान हो जाते हैं.

वे आगे बताते हैं, बुनकरों को आज जहाँ होना चाहिए वहाँ नहीं हैं. कुछ वजह तालीम की कमी है, कुछ बुनकर के हालात खराब हैं. पहले हथकरघा था, फिर पावरलूम आया और अब रेपियर आया है. हथकरघा तो धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. पावरलूम और रेपियर से जितनी साड़ी बन रही है, उनकी मार्केटिंग नहीं है, कोई खरीदने वाला नहीं है. अगर कोई खरीद भी रहा है तो उसके दाम कम मिल रहे हैं. उनका कहना है कि बुनकरों के साथ लगातार नाइंसाफ़ी हुई हैं, लेकिन पिछले पाँच साल में ज्यादा हुई है. वे कहते हैं, कमाई नाम की कोई चीज नहीं है. मोदी सरकार के आने के बाद महंगाई लगातार बढ़ती गई है, साड़ी की बिक्री कम होने लगी, दाम गिरने लगा और जब दाम गिरा तो उसका सीधा असर मजदूर की मजदूरी पर पड़ता है. आज एक बुनकर परिवार (हथकरघा) मिलकर मुश्किल से महीने में चार से पाँच हजार की कमाई कर पा रहा है.

हाजी मुख़्तार का यह भी कहना है कि अफसरशाही और नेताशाही इतनी ज्यादा है कि बुनकरों को कोई सुविधा नहीं मिल रही है. वे कहते हैं, पाँच साल पहले बुनकर और व्यापारी (साड़ी खरीदने वाले) के बीच में जो बातचीत थी, जो समझ थी, इस सरकार के आने के बाद से वो माहौल नहीं रह गया है. उन लोगों को और भी काम मिल रहे हैं. अब तक मोदी जी करीब बीस बार बनारस आ चुके हैं, लेकिन कभी किसी मुसलमान को करीब किए? और जब बुलाया भी तो केवल दिखाने के लिए? बुनकरों के नाम से बहुत से लोगों की दुकान चल रही है, बहुत सारे लोग लूट रहे हैं. हाल ही में नामांकन दाखिल करने वाराणसी पहुँचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो में हाजी मुख्तार ने उन्हें शॉल देकर उनका स्वागत किया था, जिसे मीडिया द्वारा मोदी के मुसलमानों की सौगात स्वीकार करने के रूप में दिखाया गया. 

इस बारे में हाजी मुख्तार कहते हैं, वो हमारे प्रधानमंत्री हैं, जब हमारे सामने बड़े लोग आते हैं तो हम उनका इस्तकबाल करते हैं. वैसे भी मुस्लिम और भाजपा के बीच थोड़ी दूरी है अगर हम अपनी तरफ से पहल नहीं करेंगे तो जो थोड़ी दूरी है वो और बढ़ जाएगी. वे हमारे मुल्क के वजीर-ए-आजम हैं, हमने मुल्क के बादशाह की इज्जत की है. मोदी की इज्जत नहीं की है, न ही भाजपा के किसी नेता-मंत्री की इज्जत की है. ये हमारा फर्ज है कि कोई बड़ा हमारे घर के पास गुजरे तो हम उसकी इज्जत करें. हालांकि हाजी मुख्तार कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी से खासे नाराज नजर आते हैं. वे कहते हैं, तीन साल पहले स्मृति ईरानी बनारस आई थीं. यहाँ एक कपड़े की कंपनी में कार्यकम था जहाँ उन्होंने मुझे बुलाया था. मैं उनसे मिलने के लिए गया. वहाँ कुछ दूर पैदल चलना था, वहाँ वे कदम से कदम मिलाकर मेरे साथ चल रही थीं.

इस दौरान लगातार फोटोग्राफी हो रही थी. फिर जब वहाँ जाकर बैठे तो मेरी कुर्सी उनके पीछे थी पर उन्होंने कहकर मुझे अपने साथ बैठाया. वे  इधर-उधर की ही बात कर रही थीं, हालचाल ले रही थीं और कोई बात नहीं हुई. मीडिया वाले फोटोग्राफी में लगे हुए थे और लोगों को लग रहा है कि बड़ी खास बात हो रही है, लेकिन बात कुछ भी नहीं हुई, बुनकर से जुड़ी तो कोई बात ही नहीं हुई. वे आगे कहते हैं, इसके बाद उन्होंने कार्यक्रम में लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि बुनकरों की जो शिकायत है हम सुनना चाहते हैं. लेकि, सभी के दर तक तो हम पहुँच नहीं पाते, हर आदमी से मिल नहीं सकते. इसलिए जिसको जो भी शिकायत है वो लिखित में महतो साहब के यहाँ पहुँचा दे, हम दो या तीन दिन में उस मसले को हल करेंगे. उनके इस ऐलान के बाद मेरे घर पर सैकड़ों लोगों की शिकायतें आ गईं. मैंने स्मृति ईरानी को कई बार फोन किया पर फोन ही नहीं उठा. फिर मुझे कहा गया कि मैं चौक जाकर एक व्यक्ति से मिलूं. मैं उनसे मिलने गया तो उसने किसी और से मिलने की बात की, फिर मैं आगे किसी से नहीं मिला. वे झल्लाते हुए कहते हैं, ये कौन सा तरीका है कि मेरे नाम से घोषणा करके, मेरा नाम लगाकर, मुझे फंसाकर भाग गईं, उसके बाद से आई ही नहीं. ये तो नेता लोगों का काम है कि केवल इनको-उनको फंसाना है. ये लोग बहुत झूठे होते हैं. ये नेता हैं ये झूठे वादे कर सकते हैं, लेकिन हम लोग किसी से झूठा वादा नहीं करते. इससे तो साफ है कि बनारस के बुनकारों की हालत खराब है और इसका जिम्मेदार देश का वजीर-ए-आजम अर्थात नरेन्द्र मोदी है.