गुरुवार, 2 मई 2019

देश विनाशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

देश विनाशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
क्या भारत के मुसलमान गुजरात दंगे को भूल चुके हैं?
राजकुमार (दैनिक ​मूलनिवासी नायक)

देश विनाशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस अंदाज और शैली में चुनावी रैलियों को संबोधित कर रहे हैं, उससे साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद दिसंबर, 2002 में हुए गुजरात विधानसभा के चुनाव याद आ रहे हैं. उस चुनाव के दौरान मोदी के भाषण और चुनावी रैलियों की भी याद आ रही है. साल 2002 के बाद हर चुनाव के समय में संवाददाता, पत्रकार और रिसर्चर ये सवाल पूछते आए हैं कि क्या गुजरात के मुसलमान 2002 के दंगों से उबर पाए हैं? मेरे खयाल से यह सवाल न केवल गुजरात के मुसलमानों के लिए बल्कि देश भर के मुसलमानों के लिए है. बीते पाँच साल के दौरान, भारत के मुसलमानों ने भी इस सवाल की आँच को महसूस किया है. ये सवाल फिर से साल 2002 में ले जाता है और यह सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए. क्योंकि इस हादसे को भूल जाना और फिर बीजेपी को माफ कर देना खुद को धोखा देने के समान है. ठीक उसी तरह, जिस तरह गुजराती मुसलमान 1969, 1985 और 1992 के दंगों को भुला चुके हैं और संभवतः कांग्रेस को माफ कर चुके हैं. 
28 फरवरी, 2002 की दोपहर करीब 12 बजे ऐसा लग रहा था जैसे चारों तरफ खून की होली खेली जा रही है. नंगी तलवारें और भगवा गमछा लपेटे लोग अहमदाबाद सिटी के दानिलिम्बदा में स्थित सोसायटी की ओर दौड़कर आते हैं. सोसायटी के सामने खुले मैदान के उस पार कुछ अनुसूचित और पिछड़ी जातियों की सोसायटी मौजूद थी. देखते-देखते सामने युद्ध का मैदान बन चुका था. ये साफ दिख रहा था कि नजदीक की झोपड़ियों के मुस्लिम युवा दंगा करने वालों से बचाने की कोशिश कर रहे हैं. बचाने की कोशिश करने वालों में घरों में काम करने वाली अनुसूचित जाति की महिलाएं भी शामिल थीं. वास्तव में यह घटना दिल दहला देने वाला था. सुरक्षा के लिए भागकर मुसलमानों के एक इलाके में शरण लेनी पड़ी.

राज्य में स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी. हर दिन बलात्कार, लूट और हत्या की खबरें आ रही थीं. पड़ोस के दस लोग, इलाके से निकलने के दौरान मारे गए थे. दो लोगों को जिंदा जला दिया गया. हालांकि अपने-अपने इलाकों से बाहर निकलना बेहद डराने वाला था. बीते सालों में गुजरात के मुसलमानों को काफी कुछ सहना पड़ा है. क्या मुसलमान तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका को भूल जाएं? कांग्रेस का अतीत भी बीजेपी जितना ही दागदार है. लेकिन, मोदी ने जिस तरह से गाँव, कस्बों और शहरों में जा जाकर लोगों के बीच नफरत फैलाने के लिए, ‘हम पाँच, हमारे पच्चीस’ और ‘मियां मुशर्रफ’ जैसे नारों का इस्तेमाल किया है, उसे मुसलमान कभी नहीं भूल पाएंगे.

राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें लोगों के बीच अमन, भाईचारा और एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए थी. लेकिन, उन्होंने लोगों के बीच नफरत फैलाकर समाज को बांटने का काम किया. उनकी पहचान उनकी नफरत की राजनीति बन गयी थी.यही वजह है कि उस दंगों के असर को भूल जाना मुसलमानों के लिए मुमकिन नहीं है. सांप्रदायिक आधार पर राज्य और देश को बांटने के लिए मोदी और बीजेपी को शायद कोई नहीं माफ कर सकता है. दूसरी सबसे अहम बात यह है कि जिस तरह से मोदी को 2002 के दंगों के लिए जिम्मेदार है तो उसी प्रकार से कांग्रेस को भी 1969, 1985, 1989 और 1992 के अहमदाबाद दंगों के लिए जिम्मेदार है. कांग्रेस ने भी इन दंगों के आधार पर लोगों के बीच नफरत फैलाने को अपनी राजनीति का हिस्सा बना लिया था. 
इन दंगों से गुजरात के मुसलमान आर्थिक तौर पर प्रभावित तो हुए ही थे, उनकी सामाजिक जिंदगी पर भी बड़ा असर पड़ा था. दंगों के बाद मुसलमानों के अपने कमतर होने और देश के दोयम दर्जे के नागरिक होने का एहसास होने लगा था. इन मनोभावों से उबरने में मुसलमानों को कई साल लगे. मुसलमानों को ये भी महसूस हुआ कि ना तो कांग्रेस और ना ही बीजेपी, उन्हें फिर से खड़ा होने में मदद करेगी. उन्हें ये भी लगा कि कांग्रेस ऐसा वातावरण बना रही है जिस पर मुसलमान केवल उनपर निर्भर हो जाएं. मुसलमानों को कहा गया उन्हें सबकुछ मिलेगा, लेकिन अपना हक मांगने का अवसर नहीं मिलेगा. मुस्लिम विद्वानों, धार्मिक नेताओं और मुस्लिम नेताओं को इफ्तार और ईद के जलसे में जरूर बुलाया जाता रहा, लेकिन समुदाय का उत्साह बढ़ाने, उन्हें प्रेरित करने और उनकी मदद करने के नाम पर कुछ नहीं हुआ.

2011 की जनगणना के मुताबिक गुजरात की कुल आबादी में मुसलमान 7.1 प्रतिशत हैं. यह समुदाय आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्यगत ढांचा और राजनीतिक प्रतिनिधित्व जैसे तमाम मसलों पर न केवल पिछड़ा है, बल्कि गैर-मुस्लिम समुदायों पर निर्भर है. 90 के दशक से ही 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा में महज एक-दो मुस्लिम विधायक रहे हैं. मुस्लिम इलाकों में आज भी गिनती के स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल और सामुदायिक भवन हैं. 2002 के दंगों के बाद पूरा समुदाय इस तरह से लाचार हुआ कि वह ना तो अपने बच्चों को शिक्षित बना पाया ना ही उन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं मिलीं और ना ही जीवन यापन के लिए जरूरी पैसा कमा पाए. यह आज भी जाहिर होता है. इतना ही नहीं, इस समुदाय को सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ा. लोग मुसलमानों से मिलने-जुलने और बात करने तक से कतराते थे. मुसलमानों को अपना राजनीतिक नेतृत्व तैयार करना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस ने लंबे समय तक मुस्लिम मतदाताओं को अहमियत नहीं दी. कांग्रेस की नरम हिंदुत्व की राजनीति में मुसलमानों के लिए जगह नहीं है. ना ही कांग्रेस के पास मुसलमानों के लिए कोई विजन है जिससे मुस्लिम समाज की शैक्षणिक, आर्थिक और स्वास्थ्यगत हालात में सुधार आए. यही हाल बीजेपी का है.

मुसलमानों के लिए जैसे कांग्रेस खतरनाक है वैसे ही बीजेपी भी मुसलमानों के लिए खतरानाक है. मुसलमानों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि मुसलमानों में नेतृत्व नहीं है. मुसलमानों में नेतृत्व निर्माण करने के लिए बामसेफ ने राष्ट्रीय मुस्लिम मोर्चा नामक संगठन बनाकर बड़े पैमाने पर मुहिम चला रहा है. राष्ट्रीय मुस्लिम मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हजरत मौलाना अब्दुल हमीद अजरी पूरे देश के मुसलमानों से आवाहन कर रहे हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के तांडव से अगर बचना है तो मुसलमानों को एससी, एसटी और ओबीसी को साथ लेकर जालिमों के साथ संघर्ष करना होगा. जिस दिन मूलनिवासी बहुजन समाज एक मंच पर आ गये उसी दिन से कांग्रेस और बीजेपी की उलटी गिनती शुरू हो जायेगी और देश से ब्राह्मणवाद भी खत्म हो जायेगा. 

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