बुधवार, 1 मई 2019

रोजी-रोटी का सवाल

रोजी-रोटी का सवाल 


राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)

चुनावी मौसम का रंग पूरी तरह से चढ़ गया है. सारी पार्टियाँ जनता से लोकलुभावन वायदे और घोषणाएं कर रही हैं. चुनावी समर वायदों और नारों से पटा पड़ा है. पुलवामा और राष्ट्रवाद के बीच रोजीरोटी का सवाल भी चुनावी बहसों के केंद्र में आ गया है. भाजपा के राष्ट्रवाद के सामने कांग्रेस ने न्याय (न्यूनतम आय योजना) का दांव खेला है. इस योजना के तहत साल में कम से कम 72,000 रुपये की न्यूनतम आय 20 प्रतिशत गरीब परिवारों के लिए सुनिश्चित करने की घोषणा की है.


वहीं कम्युनिस्ट ने भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में न्यूनतम आय 18,000 रुपये प्रतिमाह तक करने की घोषणा की है, लेकिन सवाल ये है कि जिस बंगाल पर कम्युनिस्टों का 40 साल एकछत्र राज रहा है वहाँ अब भी न्यूनतम आय मात्र 245 रुपये क्यों है? केरल में कम्युनिस्टों की हुकूमत है वहाँ न्यूनतम मजदूरी से आधी दरों पर मनरेगा में मजदूरी क्यों दी जाती है? यही सवाल कांग्रेस पर भी वाजिब है आखिर उसने अपने हुकूमत में गरीबों के साथ न्याय क्यों नहीं किया? न्यूनतम आय को सुनिश्चत क्यों नहीं किया? जो उसे अब न्याय करने की जरूरत पड़ रही है.

भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में किसानों की आय वर्ष 2022 तक दोगुनी करने का संकल्प लिया है और हर एक को पक्का घर देने का वायदा भी किया है. गौरतलब ये है कि जो सरकार न्यूनतम मजदूरी नहीं दे पाई क्या वह पक्का घर दे सकती है? घोषणा पत्र में आगे दर्ज है कि हर भारतीय का बैंक में एकाउंट होगा, लेकिन बेरोजगार नौजवान और बदहाल मजदूर इस एकाउंट का करेंगे क्या? भाजपा के वायदे और जमीनी हकीकत के बीच में बहुत चौड़ी खाई है. फिलहाल पार्टी चुनावी अभियान में राष्ट्रवाद के एजेंडे पर ही फोकस कर रही है. बहुजन मुक्ति पार्टी के अलावा किसी भी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में मजदूर को उचित मजदूरी का वायदा नहीं किया है. मजदूर इस चुनावी विमर्श से गायब है.

मजदूर जो खेत-खलियानों, कारखानों, घरों में काम करता है वह अब भी चुनावी मुद्दों में हाशिये पर ही दिख रहा है. मजदूरों की दुर्दशा चुनाव की गरमागर्म बहसों में नदारद हैं. जैसे मजदूरों को लेकर सरकार का कोई सरोकार ही नहीं है. सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक मनरेगा में मजदूरी और मजदूरों की आर्थिक स्थिति पर राजनीतिक गलियारों में कोई विमर्श नहीं हो रहा है. कांग्रेस ने न्याय योजना के साथ मनरेगा में 100 दिन की जगह 150 दिन तक रोजगार देने का वायदा अपने घोषणा पत्र में जरूर किया है, लेकिन यथार्थ के धरातल पर ये घोषणाएं टिक पाएंगी? ये बड़ा सवाल है. जबकि जमीनी सच्चाई कुछ और ही हकीकत बयां करती हैं. बीते एक अप्रैल को मनरेगा को पूरे देश में लागू किए हुए 11 साल गुजर चुके हैं, लेकिन मनरेगा में काम करने वाले मजदूर आज भी बदहाल हैं. इस तरह से न्यूनतम आय उनके लिए सुनहरे सपने जैसे हैं.

आज भी 33 राज्यों और केंद्र शाषित प्रदेशों में मनरेगा में मजदूरी ग्रामीण न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम है. कई राज्यों में ये आधा से थोड़ा ज्यादा है. अभी हाल ही में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मनरेगा में प्रतिदिन मजदूरी को बढ़ाने के लिए एक अधिसूचना भी जारी की है. जिसे चुनाव आयोग की भी मंज़ूरी मिल गयी है, लेकिन इसकी दरें एक से दो फीसदी बढ़कर ही सिमट कर रह गई हैं. बिहार में पहले मनरेगा मजदूरी 168 रुपये प्रतिदिन थी, वह बढ़कर मात्र 171 रुपये ही प्रतिदिन हो पाई है. जहाँ महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, वहीं मजदूरों की कमाई सिर्फ 2 से 3 रुपये एक साल में बढ़ती है, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है.

बिहार में आज न्यूनतम मजदूरी 268 रुपये है और मनरेगा की बढ़ी हुई मजदूरी न्यूनतम मजदूरी से अब भी 97 रुपये कम है. यानी मनरेगा मजदूरी न्यूनतम मजदूरी का केवल 63 प्रतिशत ही है.ये वही बिहार है जो समाजवाद की पहली प्रयोगशाला बना, जिसका सिद्वांत था कि वेतन में अधिक असमानता नहीं होनी चाहिए, लेकिन बिहार ने मजदूरों को कभी उसका सही मेहनाताना नहीं दिया गया. मज़दूरों के श्रम का शोषण सबसे अधिक किया गया और ये बादस्तूर जारी है. आज भी मनरेगा में सबसे कम मजदूरी बिहार और झारखंड में ही दी जाती है. मजदूरों को उनका हक दिए बिना ही सामाजिक न्याय का दावा किया जा रहा है.

मनरेगा में देश में औसत मजदूरी केवल 210 रुपये ही है जो आज की महंगाई के हिसाब से मुनासिब नहीं है. नगालैंड एकमात्र राज्य है जहाँ मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी न्यूनतम मजदूरी से अधिक है. सबसे अधिक मजदूरी हरियाणा में 284 रुपये है, लेकिन ये भी न्यूनतम मजदूरी से 55 रुपये कम है. वहीं केरल में न्यूनतम मजदूरी 600 रुपये है, लेकिन मनरेगा में केवल 271 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी है जो कि न्यूनतम मजदूरी का आधा भी नहीं है. देश के सबसे विकसित कहे जाने वाले गुजरात में भी मनरेगा की मजदूरी केवल 199 रुपये है, जो कि ग्राम पंचायत में अधिकृत न्यूनतम मजदूरी 312 रुपये से बहुत कम है. दिलचस्प बात ये है कि ये राज्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कर्मभूमि भी है. सरकार गुजरात में मजदूर को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दे रही है. फिर भी ये राज्य देश में विकास का मॉडल है. जहाँ मजदूरों के शोषण की अधिकारिक पुष्टि ख़ुद सरकारी आंकड़े कर रहें हैं. आख़रि मजदूर न्यूनतम मजदूरी से वंचित क्यों हैं? सरकार ख़ुद अपने बनाए हुए कानून को नहीं लागू कर रही है. ऐसे में जो मजदूर असंगठित या निजी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं उनका शोषण तो स्वाभाविक है. 

गौरतलब है कि भारत में अलग-अलग तरह की आय निर्धारित की गई है न्यूनतम आय, मामूली आय और उचित आय. न्यूनतम आय में ऐसी आय को परिभाषित किया गया है, जो किसी भी व्यक्ति को जीवित रखने के लिए दी जाने वाली सबसे कम आय है. कई मजदूर नेताओं ने न्यूनतम आय के मानकों को ही सही नहीं माना है और इसमें कई खामियों को गिनाया गया है. न्यूनतम मजदूरी के अलावा मनरेगा में मजदूरी समय पर नहीं मिलना, रोज़गार मिलने के दिनों में लगातार कमी होना, जैसी चुनौतियाँ भी हैं, जिससे आम मजदूर जूझ रहा है. कई अध्ययनों की रिपोर्ट बताती है कि मनरेगा में साल में औसतन 50 दिन का भी रोजगार नहीं मिल पाता है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में ये आंकड़े और भी कम है.

देश में मज़दूरों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. पिछले कुछ दशकों में गरीब और अमीर के बीच की खाई और गहरी हुई है. भारत में संसाधन कुछ हाथों तक सीमित होता जा रहा है और बड़ी आबादी रोजमर्रा की बुनियादी चीजों से भी महरूम है. हाल के वर्षों में आए कृषि संकट ने इसे और ज्यादा भयावह बना दिया है. मज़दूर आज ख़ुद भूखे हैं. उसके शोषण की अधिकारिक पुष्टि ख़ुद सरकार कर रही है. जहाँ तय की गई न्यूनतम मजदूरी को सरकार ख़ुद नहीं मान रही है. किसी भी राष्ट्र के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा जहाँ करोड़ों मजदूरों की दुर्दशा राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें