मतदाताओं की चुप्पी
लोकसभा चुनाव 2019 का चौथा चरण भी बीत गया शेष तीन चरण बाकी रह गया है. यानी आधा से ज्यादा चुनाव बीत चुका है. इस बार का चुनावी माहौल पिछले कई लोकसभा चुनाव से कुछ अलग दिखाई दे रहा है. इस चुनावी माहौल को देखते हुए मतदाता भी चुप्पी साध लिए हैं. रोचक बात यह है कि मतदाताओं की चुप्पी ही इस चुनाव की असली गुत्थी हैं. पर्चा दाखिला करने के बाद पार्टी प्रत्याशी ग्रामीण इलाकों में जोर-शोर से जनसंपर्क और जनसभाएं कर रहे हैं. एक एक दिन में दो या तीन जगह जनसभाएं की जा रही हैं.
कांग्रेस के प्रत्याशी पाँच साल में किए गए विकास कार्य गिना रहे हैं, वहीं सपा प्रत्याशी यूपी सरकार की उपलब्धियाँ गिनाने में लगे हैं. भाजपा प्रत्याशी गुजरात मॉडल के आधार पर जनपद के लोगो को लुभा रहे हैं. उधर, बसपा प्रत्याशी माया सरकार के विकास की बात कर रहे हैं. छोटे दल के प्रत्याशी इस बार जिताने के बाद कार्य देखने की बात कह रहे हैं. उनका कहना है कि कार्य देख कर ही अगली बार हमें वोट कीजिएगा, लेकिन ग्रामीणांचल के मतदाता कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं. जो भी प्रत्याशी उनके क्षेत्र में जाता है उसकी जय शुरू कर देते हैं.
राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)
ऐसी परिस्थितियों में उम्मीदवार भी परेशान हैं कि इस बार जनता का मन क्या है? यही हाल शहरी क्षेत्रों का भी बना हुआ है. शहरी मतदाता को लेकर भी उम्मीदवारों के माथे पर चिंता की लकीरें कम नहीं हैं. हालात चाहे जो भी हों, लेकिन कोई भी प्रत्याशी अपने को एक दूसरे से कम नहीं आंक रहा है. ग्रामीण क्षेत्र में कुछ जगह प्रत्याशियों का विरोध भी देखने को मिल रहा है. कहीं प्रत्याशियों को काले झंडे दिखाए जा रहे हैं तो कहीं उनपर हमले भी किये जा रहे हैं. परिणाम चाहे जो भी हो, लेकिन जनता इस बार कुछ अच्छा करने की सोच रही है. अब देखना यह होगा कि जनता विकास करने के लिए किसे चुनती है और किसे बाहर का रास्ता दिखाती है.
बता दें कि जब लोगों से यह पूछा जाता है कि वोट किसे देंगे? तो हर दूसरे वोटर का जवाब होता है, अभी तय नहीं किया है और जब पूछा जाता है कि हवा किसकी है? तो जवाब होता है, इस बार वैसी तो कोई हवा दिख नहीं रही है! इस बार के चुनाव में और पिछली बार के चुनाव में भी यह सवाल आम रहा कि विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है? जवाब किसी के पास नहीं है. इसलिए नहीं कि यहाँ अमेरिका की तरह दो पार्टियों का मुकाबला नहीं है. यहाँ भी है, मगर यहाँ की राजनीति इतनी गंदी हो चुकी है, जिसका अनुमान लगाना मुश्किल है. भलाई चुप रहने में ही है, मुँह खोलकर कौन जाये गाली सुनने. वोट भी दो और बत्तमीज नेताओं की गाली भी सुने? इस चुनावी दौर में नेताओं की बत्तमीजी इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि जनता को भी गाली देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
एक तरफ अपने आप को चौकीदार कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनडीए की कमान संभाली है तो दूसरी ओर यूपीए का परचम फैलाने की जिम्मेदारी राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी ने अपने कंधे पर उठाई है. वही, महागठंबंधन को मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों के बड़े चेहरे जैसे अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल ने भी अपने-अपने स्तर से चुनावी समीकरण बना रखी हैं. भारत की 17वीं लोकसभा का गठन सात चरणों में होना है, जिसमें से चार चरण बीत चुके हैं. भारत की कुल आबादी में से 90 करोड़ लोगों को आगामी केंद्र सरकार को तय करना है. इनमें से लगभग डेढ़ करोड़ लोग पहली बार मतदान कर रहे हैं, जिनमे से अधिकतर मतदाता युवा हैं. ऐसे में भारत की युवा पीढ़ी को भी सरकार से कुछ उपेक्षाएँ होंगी, कुछ आशाएँ होंगी, परन्तु अधिकतर समय यह आशाएं सिर्फ चुनावी वादें बनकर मैनिफेस्टो पर ही छपकर रह जाती हैं.
कुल मिलाकर असलियत यही है कि मतदाताओं की चुप्पी ही इस चुनाव की असली गुत्थी हैं. जब लोगों से यह पूछा जाता है कि किसे वोट देंगे तो हर दूसरे वोटर का जवाब होता है, अभी तय नहीं किया है और जब पूछा जाता है कि हवा किसकी है तो जवाब होता है, इस बार वैसी तो कोई हवा दिख नहीं रही. यही सवाल अगर भाजपा समर्थक से पूछा जाए तो जवाब 300 तो छोड़िए 400 सीट के पार भी पहुँच जाता है और हवा तो छोड़िए लहर और सुनामी चलने लगती है! अब पता नहीं जमीनी सच्चाई क्या है, लेकिन, इतना जरूर है कि इस बार मतदाता सोच समझकर ही वोट करना चाहते हैं. मतदाताओं की चुप्पी इस बात का पुख्ता सबूत है. 23 मई को यह भी साफ हो जायेगा कि सेहरा किसके सिर पर बंधेगा.
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