दरार गहरी करने की राजनीति
नफरत और घृणा से भरा भाजपा का चुनावी अभियान
मेनका गाँधी का भगवा खेमे में होना एक संयोग है. 1989 से पहले जनता दल, फिर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पीलीभीत से और एकबार आंवला से जीतकर संसद पहुँचीं. 2004 में वे भाजपा में शामिल हो गईं. वहीं 2009 में उनके बेटे वरुण गाँधी पीलीभीत से चुनाव लड़े और जीत गये. लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान अल्पसंख्यकों को अपशब्द कहना और उनकी आलोचना करना जैसे भाजपा का मुख्य एजेंडा बन गया है. यही कारण है कि 2009 में 29 वर्ष के वरुण गाँधी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के मुस्लिमों को धमकी दी कि अगर वे हिंदूओं की ओर उंगली भी उठाएंगे, तो वे उनके हाथ काट देंगे. दूसरी तरफ उनकी माँ मेनका गाँधी ने पार्टी के एजेंडे पर चलते हुए अपने निर्वाचन क्षेत्र के मुसलमानों को कहा है कि अगर वे उन्हें वोट नहीं देते तो उन्हें उनसे मदद की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.
खबरों के मुताबिक उन्होंने कहा था, मैं यह चुनाव पहले ही जीत चुकी हूँ, इसलिए फैसला आपको करना है. यही नहीं उन्नाव में मुस्लिमों के उग्र विरोधी साक्षी महाराज, जिनपर अतीत में हत्या और बलात्कार का आरोप लगा है, उन्होंने कहा कि अगर वे उन्हें वोट नहीं देंगे, तो उन्हें इसका पाप लगेगा. चुनाव वह समय होता है, जब उम्मीदवार लोगों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ता और मतदाताओं से हर तरह के वादे करता है.
राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)
चुनावों में खुलेआम सांप्रदायिक भाषण देने वाले नरेंद्र मोदी ने 2014 में अपना स्वर बदलते हुए मुख्य तौर पर भ्रष्टाचार और रोजी-रोटी के मसलों, आर्थिक विकास और रोजगार आदि के बारे बात की थी. उन्हें एक नये विकल्प की तलाश थी. परन्तु इस बार मोदी और उनकी पार्टी के पास आर्थिक विकास के मोर्चे पर दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है और उनकी सरकार क्रोनी-कैपिटलिज्म के आरोपों से घिरी है. इसलिए मोदी और उनकी पार्टी अपने सुर बदलते हुए मतदाताओं को उनका समर्थन करने के लिए धमका और डरा रहे हैं.
मतदाताओं को खासकर हिंदुओं में डर भरने के लिए शत्रुओं, वास्तविक या काल्पनिक, देश के भीतर के या बाहर खड़ा किया जा रहा है. इस बारे में कोई बात नहीं की जा रही है कि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए भाजपा सरकार द्वारा क्या किया जाएगा. इसकी जगह पार्टी खुलेआम यह कह रही है कि पार्टी हर तरह के दुश्मनों तथाकथित बाहरियों से लेकर विरोधियों तक के खिलाफ कठोर नीतियाँ अपनाएगी. राजनाथ सिंह, जो मोदी और अमित शाह जैसे कट्टरपंथियों की तुलना में ज्यादा संतुलित माने जाते हैं. उन्होंने ऐलान किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में वापस आती है, तो वह राजद्रोह कानून को इतना सख्त बनाएगी कि ‘उनकी रूह काँप जाएगी’. यहाँ उनके या वे से मतलब हर तरह के ‘देशद्रोहियों’ से है. इसके भीतर वे सब आ सकते हैं, जो कठिन सवाल पूछते हैं या सरकार के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करते हैं.
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह खुलकर कहा है कि अगर उनकी पार्टी जीतती है, तो ‘बौद्ध, हिंदू और सिख’ के अलावा हर घुसपैठिए को देश से निकाल बाहर किया जाएगा. इसका अर्थ यह निकलता है कि किसी मुस्लिम शरणार्थी को देश में घुसने नहीं दिया जाएगा. लेकिन यह उनके बयान की उदार व्याख्या होगी. इसका असली अर्थ स्पष्ट है कि मुसलमानों और ईसाइयों को यह पता होना चाहिए कि वे तब तक संदेह के घेरे में आएंगे, जब तक वे खुद को इसके विपरीत साबित न कर दें. और अगर उन्हें भारत में रहने की इजाजत दे भी दी जाती है, तो इसके लिए उन्हें काफी कुछ सहना होगा. यह विचार मुसलमानों और ईसाइयों को भारत का मूलनिवासी नहीं मानता और उन्हें किसी बाहरी शक्ति के प्रति वफादार मानता है. यह भाजपा और संघ परिवार का पुराना बुनियादी सिद्धांत रहा है, लेकिन अब इसकी घोषणा खुले तौर पर की जा रही है.
नागरिकता (संशोधन) विधेयक ने उत्तर-पूर्व में तूफान खड़ा कर दिया है, लेकिन इससे तौबा करने की जगह, भले चुनाव के दौरान ऐसा रणनीतिक तौर पर ही किया जाता, भाजपा ने उन सबको चुन-चुनकर देश से बाहर निकालने की अपनी योजना को आगे बढ़ाने का ही काम किया है, जिन्हें वह विदेशी मानती है. यह सोचना कि इससे हिंदू वोटों को लामबंद करने में मदद मिल सकती है, इस आक्रामकता की अधूरी व्याख्या होगी. भाजपा पूरी शिद्दत के साथ इस बात में यकीन करती है कि हिंदू ही भारत के एकमात्र असली वारिस और नागरिक हैं और बाकी किसी न किसी तरह से भारत में अनाधिकार प्रवेश करने वाले हैं. पार्टी के भीतर कुछ लोग यह भी मानते हैं कि मोदी सरकार ने कुछ ज्यादा ही देर कर दी और उन्हें इस विधेयक को शुरू में ही लाना चाहिए था, जब इसे कहीं ज्यादा समर्थन और प्रेम हासिल था. ऐसा होता, तो अब तक यह पारित भी हो चुका होता.
भाजपा ने पिछले दिनों चुनाव के लिए जिन भी रणनीतियों को आजमाया, उनमें से कई लोगों के बीच उम्मीद के मुताबिक लोकप्रिय नहीं हो सके. पुलवामा और बालाकोट के सहारे राष्ट्रवाद का उफान लाने की कोशिश पर तुरंत पानी फिर गया. राज्य स्तरीय गठबंधन भाजपा के सामने असली चुनौती पेश कर रहे हैं. अब भाजपा अपने आजमाए हुए हथकंडों में मुसलमानों को अलग-थलग करके हिंदू ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही है. परन्तु क्या यह संकटों का सामना कर रहे किसानों, मुसीबत झेल रहे छोटे कारोबारियों और बेरोजगार स्नातकों को दिलासा दे पाने के लिए काफी हो पाएगा? यह देखने की बात है. पार्टी द्वारा उठाए जानेवाले मुद्दे अब थके हुए और मुरझाए से लगने लगे हैं और उनमें कुछ भी नयापन नहीं है. लेकिन खुली धमकियां निश्चित तौर पर एक अब तक अनदेखी-अनसुनी थीं. अतीत में राजनेताओं ने कभी भी इतने प्रत्यक्ष तौर पर अपने नागरिकों को चेतावनी नहीं दी थी. काल्पनिक दानव खड़ा करना एक आजमाई हुई राजनीतिक रणनीति है और यह अक्सर कामयाब भी होती है. मगर भाजपा की मौजूदा रणनीति, जो हिटलर द्वारा यहूदियों, स्तंभकारों और जर्मनी की बहुसंख्यकवादी लोकशाही के लिए अन्य आंतरिक चुनौतियों के सतत दमन की याद दिलाती है, हमारे राजनीतिक शब्दकोश में शामिल हुई एक डरावनी चीज है.
इससे समाज का एक बड़ा तबका अलग-थलग होगा और इसकी आखिरी नतीजा चाहे जो कुछ भी हो, यह देश के नागरिकों के बीच धर्म के आधार पर एक गहरी दरार पैदा कर दिया है. जो मुसलमानों और अन्यों को संदेह की निगाहों से भारत में बाहरी के तौर पर और देश के प्रति शत्रुता भाव रखने वाले के तौर पर देखा जाएगा. यह संदेह कई रूपों में खुद को प्रकट करेगा, कभी हिंसक तरीके से तो कभी निगरानी के तौर पर.भाजपा ने भारतीय नागरिकों के प्रति जिस नफरत को भड़काया है, वह जल्दी समाप्त नहीं होगी. इस चुनाव को जीतने के लिए भाजपा ने एक ऐसा दानव छोड़ दिया है, जो हमारे बीच लंबे समय तक रहने वाला है. ऐसे में बीजेपी को हटाना जनता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बन गयी है.
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