शनिवार, 25 मई 2019

भारतीय मीडिया की चाटुकारिता



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
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♦ एक चैनल ने तो कमाल ही कर दिया, इस चैनल ने पंजाब में भाजपा को उतनी सीटें दे दी हैं, जितनी सीटों पर बीजेपी चुनाव ही नहीं लड़ी है. इससे भी मजेदार बात तो उत्तराखंड में देखने को मिले हैं. जहाँ आम आदमी पार्टी चुनाव ही नहीं लड़ी है वहाँ भी उसको भारी प्रतिशत में वोट दिखाया गया है.

♦ भारतीय मीडिया स्वतंत्र नहीं रह गया है, बल्कि भारतीय मीडिया ‘‘जिसकी लाठी, उसकी भैस’’ वाली कहावत का चरितार्थ कर रहा है. यानी जिसकी केन्द्र में सरकार होती है उसी की चाटुकारिता करने से पीछे नहीं हटते हैं. 

क्या एग्जिट पोल पर तनीक भी भरोसा किया जा सकता है? आईये एक नजर एग्जिट पोल्स पर डालते हैं. एक एग्जिट पोल में पश्चिम बंगाल में भाजपा को 4 से लेकर 22 सीटों तक का आकलन दिया, जिसमें 5 गुने का फर्क है. तमिलनाडु में एनडीए को 2 से 15 सीटें दी गईं, जिसमें सात गुने का फर्क है. एक चैनल ने तो अजीब ही पोल दिखाया है. इस चैनल ने पंजाब में भाजपा को उतनी सीटें दी हैं, जितनी सीटों पर बीजेपी चुनाव ही नहीं लड़ी है. इससे भी मजेदार बात तो यह है कि उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी को भी कुछ प्रतिशत वोट दिया गया है. जबकि, वह वहाँ से चुनाव मैदान में ही नहीं है.

गत रविवार को लोकसभा चुनाव के एग्जिट पोल्स के नतीजे आने के बाद से ही उन्हें लेकर जितने मुंह उतनी ही बातें हो गई हैं. वैसे भी आज के दलाल मीडिया की हालत एक आतंकी से कम नहीं है. ताजुब होता है कि मनोरंजन करने वाले चैनल राजनीति कैसे करने लगे? फिर भी इन्हें गंभीरता से लेने वालों की कमी नहीं है. कोई कह रहा है कि इनके पीछे सट्टा बाजार का ‘खेल’ है तो किसी को इनमें चैनलों पर विपक्ष को ‘टोन डाउन’ करने के लिए डाला गया सरकारी दबाव नजर आ रहा है. लेकिन यह भी सही है कि अपनी एकता व सरकार बनाने की कवायदों को लेकर मीडिया को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया है. यही वजह है कि मीडिया मोदी सरकार को शपथ दिलाने का रास्ता साफ करने में जुटा है. 

दूसरी बात यह है कि इनमें से किसी की कोई बात न मानी जाए तो भी एग्जिट पोल नतीजों की दो बातें कतई समझ में नहीं हा रही है. पहली यह कि ये सारे एग्जिट पोल केवल इसी एक निष्कर्ष पर क्यों एकमत हैं कि भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बहुमत के पार या उसके करीब पहुँच जाएगा? सर्वथा अलग-अलग, यहाँ तक कि परस्परविरोधी राज्यवार नतीजे देने के बावजूद वे अंततः अलग-अलग रास्तों से समुद्र में जा गिरने वाली नदियों की तरह भाजपा के निकट ही क्यों पहुँच जा रहे हैं? इस बात को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मार्फत समझना चाहें तो सपा-बसपा व रालोद गठबंधन को राज्य की अस्सी में से 58 सीटें देने वाले एबीपी-नील्सन ने भी राजग को बहुमत के पास पहुँचा दिया है, जबकि इसके सर्वथा उलट राज्य की 58 सीटों पर भाजपा की जीत की भविष्यवाणी करने वाले टाइम्स नाउ-वीएमआर ने भी आखिरकार राजग की ‘जय हो’ का गान कर डाला है.

भारत जैसे नाना प्रकार की विविधता, बहुलता व ऊंच-नीच वाले देश के चुनावों के ये नतीजे वाकई किसी वैज्ञानिक पड़ताल का नतीजा हैं तो इनमें देश के सबसे बड़े राज्य तक के निष्कर्षों में ऐसा बैर-विरोध क्यों है कि एक को सही मानिए तो दूसरा गलत सिद्ध होने लगता है? क्यों किसी चैनल को भाजपा उत्तर प्रदेश में 58 सीटें जीतती नजर आती है तो किसी को 52, किसी को 46 और किसी को 34? इसी तरह क्यों किसी पोल में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को 56 सीटों पर विजय-पताका फहराता प्रदर्शित किया जाता है तो किसी में 42, किसी में 32 और किसी में 25, किसी में 20. यह इन चैनलों का अपने दर्शकों को सच से वाकिफ कराना है या नये भ्रमों के हवाले करना? कई बार इन एग्जिट पोल्स का बचाव करने वाले कहते हैं कि इनसे सही नतीजों का न सही, सही रुझानों का पता चल जाता है. लेकिन उत्तर प्रदेश के संदर्भ में इनके आकलन इतना-सा संकेत देकर क्यों रह जा रहे हैं कि भाजपा को 2014 के मुकाबले सीटों का नुकसान मुमकिन है.लेकिन कितना? अगर इसके जवाब न सिर्फ अलग-अलग बल्कि परस्परविरोधी हैं तो उनमें से किसी को भी सच के नजदीक कैसे माना जा सकता है? उनके आधार पर बहुमत व अल्पमत का ठीक-ठीक आकलन भी कैसे किया जा सकता है?

बीबीसी की हिन्दी वेबसाइट पर प्रकाशित अपने विश्लेषण में सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता विराग गुप्ता के अनुसार इस बार के आम चुनावों में न्यूजएक्स ने भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 242 सीटें दी हैं तो आज तक ने 352 सीटें. इन दोनों आकलनों में 110 सीटों का फर्क है, जो 45 फीसदी से ज्यादा है. दूसरी ओर, न्यूज-18 ने कांग्रेस के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को 82 सीटें दी हैं. जबकि न्यूज एक्स ने 164 सीटें और इन दोनों के आकलनों में दो गुने का फर्क है. उन्होंने एग्जिट पोल में विसंगतियों की कुछ और बानगियाँ पेश की हैं, जो इस प्रकार हैंः पश्चिम बंगाल में भाजपा को 4 से लेकर 22 सीटों तक का आकलन, जिसमें 5 गुने का फर्क है. तमिलनाडु में एनडीए को 2 से 15 सीटें दी जा रही हैं, जिसमें सात गुने का फर्क है.

उन्होंने पूछा है कि निष्कर्षों में इतने बड़े फर्क को कैसे तर्कसंगत ठहराया जा सकता है? साथ ही इनके रहते कैसे कहा जा सकता है कि ये नतीजे किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया से निकल कर आए हैं? एक चैनल ने तो कमाल ही कर दिया. उसने पंजाब में भारतीय जनता पार्टी को आगे दिखाने के लिए उसे उतनी सीटें दे डालीं, जितनी वह लड़ ही नहीं रही है. इसी तरह उसने उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी को भी कुछ प्रतिशत वोट दिला दिए जो वहाँ चुनाव मैदान में ही नहीं है.

क्या इसके बाद भी इन निष्कर्षों के बारे में कहने को कुछ बचता है? क्या इसके बाद भी इन नतीजों पर पहुँचा जा सकता है कि सारे एग्जिट पोल सही हैं? जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय मीडिया स्वतंत्र नहीं रह गया है, बल्कि भारतीय मीडिया ‘‘जिसकी लाठी, उसकी भैस’’ वाली कहावत का चरितार्थ कर रहा है. यानी जिसकी केन्द्र में सरकार होती है उसी की चाटुकारिता करने से पीछे नहीं हटते हैं. इसलिए चुनाव के लेकर चुनावी परिणाम आने तक मौजूदा सरकार के पक्ष में एग्जिट पोल दिखाते हैं. यही नहीं जनता को भ्रम में डालकर गोदी मीडिया सरकार के पक्ष में माहौल खड़ा करते हैं. इसलिए गोदी मीडिया के एग्जिट पोल पर तनिक भी विश्वास करने लायक नहीं है.

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