बुधवार, 1 मई 2019

श्रमिक अधिकारों के रक्षक डॉ.आंबेडकर

श्रमिक अधिकारों के रक्षक डॉ.आंबेडकर 

राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)

ब्राह्मणों की इस व्यवस्था में कभी-कभी कम उपलब्धियों वाले लोग इतिहास के नायक बना दिए जाते हैं और महानायकों को उनकी वास्तविक जगह मिलने में सदियाँ लग जाती हैं. ऐसे ही महानायकों में नारायण मेघाजी लोखण्डे और डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर भी शामिल हैं. भारत में 21वीं सदी अंबेडकर की सदी के रूप में अपनी पहचान धीरे-धीरे कायम कर रही हैं. उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के नए-नए आयाम सामने आ रहे हैं. उनके व्यक्तित्व का एक बड़ा आयाम मजदूर एवं किसान नेता का है.
बहुत कम लोग इस तथ्य से परिचित हैं कि उन्होंने ‘‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’’ की स्थापना की थी, उसके टिकट पर वे निर्वाचित हुए थे और 7 नवंबर 1938 को एक लाख से ज्यादा मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व भी डॉ. आंबेडकर ने किया था. इस हड़ताल के बाद सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने मजदूरों का आह्वान किया कि मजदूर मौजूदा लेजिस्लेटिव काउंसिल में अपने प्रतिनिधियों को चुनकर सत्ता अपने हाथों में ले लें.


इस हड़ताल का आह्वान उनके द्वारा स्थापित इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने किया था, जिसकी स्थापना 15 अगस्त 1936 को डॉ. आंबेडकर ने की थी. 7 नवंबर की हड़ताल से पहले 6 नवंबर, 1938 को लेबर पार्टी द्वारा बुलाई गई मीटिंग में बड़ी संख्या में मजदूरों ने हिस्सा लिया. अंबेडकर स्वयं खुली कार से श्रमिक क्षेत्रों का भ्रमण कर हड़ताल सफल बनाने की अपील कर रहे थे. जुलूस के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें दो लोग घायल हुए. मुंबई में हड़ताल पूरी तरह सफल रही. इसके साथ अहमदाबाद, अमंलनेर, चालीस गाँव, पूना, धुलिया में हड़ताल आंशिक तौर पर सफल रही. यह हड़ताल डॉ.अंबेडकर ने मजदूरों के हड़ताल करने के मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए बुलाई थी. सितंबर 1938 में बम्बई विधानमंडल में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने औद्योगिक विवाद विधेयक प्रस्तुत किया था. इस विधेयक के तहत कांग्रेसी सरकार ने हड़ताल को आपराधिक कार्रवाई की श्रेणी में डालने का प्रस्ताव किया था. अंबेडकर ने विधानमंडल में इस विधेयक का विरोध करते हुए कहा कि ‘हड़ताल करना सिविल अपराध है, फौजदारी गुनाह नहीं. किसी भी आदमी से उसकी इच्छा के विरूद्ध काम लेना किसी भी दृष्टि से उसे दास बनाने से कम नहीं माना जा सकता है, श्रमिक को हड़ताल के लिए दंड देना उसे गुलाम बनाने जैसा है.

उन्होंने कहा कि यह (हड़ताल) एक मौलिक स्वतंत्रता है, जिस पर वह किसी भी सूरत में अंकुश नहीं लगने देंगे. उन्होंने कांग्रेसी सरकार से कहा कि यदि स्वतंत्रता कांग्रेसी नेताओं का अधिकार है, तो हड़ताल भी श्रमिकों का पवित्र अधिकार है. अंबेडकर के विरोध के बावजूद कांग्रेस ने बहुमत का फायदा उठाकर इस बिल को पास करा लिया. इसे ‘काले विधेयक’ के नाम से पुकारा गया. इसी विधेयक के विरोध में अंबेडकर के नेतृत्व में लेबर पार्टी ने 7 नवंबर 1938 की हड़ताल बुलाई थी. इसके पहले 12 जनवरी 1938 को इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के बैनर तले ही अंबेडकर ने किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया. इस दिन ठाणे, कोलाबा, रत्नागीरि, सातारा और नासिक जिलों के 20,000 किसान प्रदर्शन के लिए बम्बई में जमा हुए थे. जुलूस का नेतृत्व अंबेडकर ने खुद संभाला. किसानों के इस जुलूस की मुख्य मांग वतन प्रथा और खोटी प्रथाओं का खात्मा था. 17 सितम्बर, 1937 को उन्होंने महारों को अधीनता की स्थिति में रखने के लिए चली आ रही ‘वतन प्रथा’ खत्म करने के लिए एक विधेयक पेश किया था. वतन प्रथा के तहत थोड़ी सी जमीन के बदले महारों को पूरे गाँव के लिए श्रम करना पड़ता था और अन्य सेवा देनी पड़ती थी. एक तरह से वे पूरे गाँव के बंधुआ मजदूर होते थे.

इस विधेयक में यह भी प्रावधान था कि महारों को उस जमीन से बेदखल न किया जाए, जो गाँव की सेवा के बदले में भुगतान के तौर पर उन्हें मिली हुई थी. शाहूजी महराज ने अपने कोल्हापुर राज्य में 1918 में ही कानून बनाकर ‘वतनदारी’ प्रथा का अंत कर दिया था तथा भूमि सुधार लागू कर महारों को भू-स्वामी बनने का हक दिलाया. इस आदेश से महारों की आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई.
डॉ.अंबेडकर ने खोटी व्यवस्था खत्म करने के लिए भी एक विधेयक प्रस्तुत किया था. इस व्यवस्था के तहत एक बिचौलिया अधिकारी लगान वसूल करता था. इसी बिचौलिए को खोट कहा जाता था. ये खोट स्थानीय राजा की तरह व्यवहार करने लगे थे. राजस्व का एक बड़ा हिस्सा ये अपने पास रख लेते थे. ये खोट अक्सर सवर्ण जातियों ब्राह्मणों के ही होते थे.
बाम्बे प्रेसीडेंसी के लेजिस्लेटिव काउंसिल में कांग्रेस पार्टी के पास भारी बहुमत था. उसने डॉ.अंबेडकर की वतन व्यवस्था और खोट व्यवस्था के खात्मे के विधेयकों को पास नहीं होने दिया. इसका कारण यह था कि कांग्रेस के नेतृत्व पर पूरी तरह उन ब्राह्मणों या मराठों का नेतृत्व था, जिन्हें वतन प्रथा और खोट व्यवस्था का सबसे अधिका फायदा मिलता था. वे किसी भी तरह से अपने इस वर्चस्व और शोषण-उत्पीड़न के अधिकार को छोड़ने को तैयार नहीं थे. किसानों के इस संघर्ष में अस्पृश्यों के साथ मराठी कुनबी समुदाय भी शामिल था.

मजदूरों और किसानों के इस संघर्ष का नेतृत्व करते हुए डॉ.अंबेडकर ने सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों का भी सहयोग लिया. लेकिन, यह सहयोग ज्यादा दिन नहीं चल पाया. क्योंकि, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पूँजीवाद को तो दुश्मन मानते थे. लेकिन, वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष करने को बिल्कुल ही तैयार नहीं थे. जबकि डॉ.अंबेडकर ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद दोनों को भारत के मेहनतकशों का दुश्मन मानते थे. 12-23 फरवरी 1938 को मनमाड़ में अस्पृश्य रेलवे कामगार परिषद् की अध्यक्षता करते हुए डॉ.अंबेडकर ने कहा कि भारतीय मजदूर वर्ग ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद दोनों का शिकार है और इन दोनों व्यवस्थाओं पर एक ही सामाजिक समूह का वर्चस्व है. उन्होंने सभा में उपस्थित अस्पृश्य कामगारों से कहा कि कांग्रेस, सोशलिस्ट और वामपंथी तीनों अस्पृश्य कामगारों के विशेष दुश्मन ब्राह्मणवाद से संघर्ष करने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने अस्पृश्यों के कामगार यूनियन से अपनी पार्टी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का समर्थन करने का आह्वान किया.

ब्रिटिश संसद द्वारा अगस्त 1935 में पारित भारत सरकार अधिनियम के तहत विभिन्न प्रांतों और केंद्र में भारतीयों के स्वायत्त शासन का प्रावधान किया गया था. इसी अधिनिय के तहत 1937 में चुनाव हुए. इन्हीं चुनावों में भाग लेने के लिए डॉ.अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया था. बाम्बे प्रेसीडेंसी में इस पार्टी ने 17 उम्मीदवार मैदान उतारे, जिसमें 13 उम्मीदवार अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीटों पर खड़े किए गए थे, जिनमें 11 सीटों पर उन्हें विजय मिली, जिसमें खुद डॉ.अंबेडकर भी शामिल थे. बाकी चार उम्मीदवार अनारक्षित सामान्य सीट पर खड़े किए गए थे, जिसमें तीन पर विजयी मिली. मध्य प्रांत और बिहार में पार्टी को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 20 सीटों में से तीन पर विजय मिली. इस चुनाव मे बाम्बे प्रेसीडेंसी में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था. मुस्लिम लीग के बाद बाम्बे प्रेसीडेंसी में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी. 
भारत के इतिहास में अगर सबसे पहले श्रमिकों को हक देने का किसी ने कार्य किया है तो बाबसाहब डॉ.भीमराव अंबेडकर ने किया है. इसके पहले श्रमिकों पर अंतहीन अत्याचार होता था. 12 घंटे, 15 घंटे, 18 घंटे तक उनसे काम लिया जाता था, मगर बाबासाहब ने संविधान में एक प्रावधान किया कि उनके लिए नियम बनाए और उनके हक के लिए बाबासाहब ने संविधान के जरिये जो कार्य किया जिससे पूरा देश ही नहीं बल्कि, पूरा विश्व बाबासाहब के सामने नतमस्तक है.

डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर के इस पहलू को हमारे भारतीय इतिहासकार और मजदूरों के समर्थक लोग न जाने क्यों दरकिनार करते आये हैं. जबकी मजदूर वर्ग के लिए की गई उनकी कई पहलकदमियाँ भारत के मजदूर आंदोलन के लिए बेमिसाल है. विदेश से अपनी पढ़ाई पूरी करके आने के बाद उन्होंने अपने काम की शुरुआत मजदूरों के लिए काम करने से की. अम्बेडकर ने 1936 में ‘इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी’ की स्थापना की. इस पार्टी का उदघोषणा पत्र मजदूरों, किसानों, अनुसूचित जातियों और निम्न मध्य वर्ग के अधिकारों की हिमायत करने वाला घोषणा-पत्र था.
डॉ.अम्बेडकर का मानना था कि भारत में मजदूर वर्ग में अनुसूचित जाति एक बड़ी तादात में शामिल हैं. इस वजह से मजदूरों के बीच भेद-भाव की खाई मौजूद है. मजदूर वर्ग के संघर्ष और जाति के खात्मे के संबंध में जाति आधारित भारतीय समाज की संरचना के बारे में उन्होंने कहा था कि वर्ण व्यवस्था केवल श्रम का ही विभाजन नहीं है, यह श्रमिकों का भी विभाजन है. उनका मानना था कि अनुसूचित जातियों को भी मजदूर वर्ग के रूप में एकत्रित होना चाहिए. मगर, ये एकता मजदूरों के बीच मौजूद जाति की खाई को मिटा कर ही संभव हो सकती है. जाति और वर्ग के सामंजस्य के सम्बन्ध में बाबासाहब की यह सोच बेहद क्रांतिकारी है, क्योंकि यह भारतीय समाज की सामाजिक संरचना की सही और वास्तविक समझ की ओर ले जाने वाली कोशिश है.

डॉ.अम्बेडकर का मानना था कि भारत में मजदूरों के दो बड़े दुशमन हैं-पहला ब्राह्मणवाद और दूसरा पूँजीवाद. ब्रह्मणवाद से उनका तात्पर्य स्वतंत्रता, समता और भाईचारे की भावना को नकारने वाली विचारधारा से है. बाबासाहब ट्रेड यूनियन के घनघोर समर्थक थे. उनकी राय में भारत में ट्रेड यूनियन की सबसे ज्यादा जरूरत है, मगर वे मानते थे कि भारत का ट्रेड यूनियन अपना मुख्य उद्देश्य खो चुका है. उनका मानना था की जब तक ट्रेड यूनियनवाद सरकार पर कब्जा करने को अपना लक्ष्य नहीं बनाता तब तक ट्रेड यूनियन बहुत ही कम मजदूरों का भला कर पाएंगी और ट्रेड यूनियन नेताओं की लगातार झगड़ेबाजी का अड्डा बनी रहेंगी.
डॉ.अम्बेडकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मजदूरों के हड़ताल करने के अधिकार को स्वतंत्रता का अधिकार माना और कहा कि मजदूरों को हड़ताल का अधिकार न देने का अर्थ है मजदूरों से उनकी इच्छा के विरुद्ध काम लेना और उन्हें गुलाम बना देना. 1938 में जब बम्बई प्रांत की सरकार मजदूरों के हड़ताल के अधिकार के विरूद्ध ट्रेड डिस्प्यूट बिल पास करना चाह रही थी तब बाबासाहब ने खुलकर इसका विरोध किया. 1942 में तत्कालीन वायसराय ने अम्बेडकर को अपनी कार्यकारिणी के लिए नियुक्त किया और उन्हें श्रम विभाग का कार्य सौंपा दिया.

बाबासाहब डॉ.अम्बेडकर ने 1946 में श्रम सदस्य की हैसियत से केंन्द्रीय असेम्बली में न्यूनतम मजदूरी निर्धारण सम्बन्धी एक बिल पेश किया, जो 1948 में जाकर ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ बना. उन्होंने ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट में सशोधन करके सभी यूनियनों को मान्यता देने की आवश्यक्ता पर जोर दिया और उन्होंने 1946 में लेबर ब्यूरो की स्थापना भी की.
हैरान करने वाली बात तो यह है कि बहुत ही कम लोग इस बात को जानते हैं कि डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर भारत में सफाई कामगारों के संगठित आंदोलन के जनक हैं. उन्होंने बम्बई और दिल्ली में सफाई कर्मचारियों के कई संगठन स्थापित किए. बम्बई म्युनिसिपल कामगार यूनियन की स्थापना बाबासाहब ने ही की थी. डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर नए भारत के निर्माण में मजदूरों की महती भूमिका को स्वीकार करते थे. उनका मानना था कि भारत को स्वराज्य मिल जाना ही काफी नहीं है, बल्कि यह स्वराज्य शोषितों, मजदूरों और पिछड़ों को मिलना चाहिए. इसके लिए मजदूरों को अपनी भूमिका निभानी होगी. बता दें कि आज भी यदि आप 12-14 घण्ट के बजाए 8 घण्टे काम करते हैं और बड़ी आसानी से छुट्टी भी ले लेते हैं तो यह सिफ व सिफ डॉ.बाबसाहब अम्बेडकर की देन है.

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