गुरुवार, 2 मई 2019

प्रेस की स्वतंत्रता पर पहरा

प्रेस की स्वतंत्रता पर पहरा

राजकुमार (दैनिक ​मूलनिवासी नायक)

एक स्वतंत्र प्रेस एक जीवंत लोकतंत्र की आधारशिला है. हम सभी प्रकारों के प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी को कायम रखने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं. 125 करोड़ भारतीयों की कौशल, ताकत और रचनात्मकता दिखाने के लिए हमारी मीडिया का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाता है. यानी मीडिया का मुख्य कार्य बेजुबानों को जुबान देना है. परन्तु, प्रेस की स्वतंत्रता को भारत में कुचल दिया गया है. इतिहास पर नजर डालें तो देश में प्रेस की स्वतंत्रता को बुरी तरह से कुचलने का काम सबसे पहले नेहरू परिवार ने किया था. ऐसा नहीं है कि यह काम केवल कांग्रेस ने ही ऐसा किया है, आज बीजेपी भी वही काम कर रही है.


16 नवंबर, 2017 को राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिए गये इस संदेश से समझा जा सकता है कि वे प्रेस की स्वतंत्रता को कितनी बड़ी ताकत मानते हैं और इसके प्रति कितने संवेदनशील हैं. हालांकि हमारे सामने ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ वाले शासन की सच्चाई भी है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने 18 मार्च, 2018 को पार्टी के 84वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए प्रेस की स्वतंत्रता की बात की और कहा था कि प्रेस के लोग डरे हुए हैं, सुप्रीम कोर्ट के जजों को न्याय के लिए मीडिया के सामने आना पड़ रहा है.

सबसे पहले हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि राहुल गाँधी की बातों में कितनी सच्चाई है.क्या कांग्रेस जो कह रही है सत्य है? क्या वाकई में कांग्रेस प्रेस की आजादी के लिए चिंतित है या फिर इसे एक ‘चुनावी टूल’ के तौर पर इस्तेमाल कर रही है? इसकी हकीकत जानकर आप भी चौंक जायेंगे. क्योंकि जो हकीकत सामने आये हैं वे बेहद चौंकाने वाले हैं. दरअसल कांग्रेस के शासनकाल में प्रेस की स्वतंत्रता पर कई बार कुठाराघात किए जा चुके हैं. इतिहास इस बात का  गवाह है कि नेहरू-गाँधी परिवार ने प्रेस की स्वतंत्रता का दमन करने के लिए कभी कानून बनाकर तो कभी आपातकाल लगाकर अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाया है. हम एक नजर डालते हैं गाँधी परिवार द्वारा प्रेस की आजादी को खत्म करने के लिए कांग्रेस की कुत्सित कोशिशों पर. कांग्रेस के नेता अक्सर जवाहर लाल नेहरू को अपना रोल मॉडल बताते रहे हैं, लेकिन हकीकत ये है कि लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका निभा रहे खुद नेहरू ने ही सबसे पहले प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने का काम किया है. 

नेहरू ने कई ऐसे कानून लागू किये, जिससे देश में प्रेस की स्वतंत्रता खतरे में पड़ गयी. 23 अक्टूबर 1951 को नेहरु ने ‘‘द प्रेस ऑब्जेक्शनेबल मैटरर्स एक्ट-1951’’ लागू किया. यह कानून अंग्रेजों द्वारा 1908, 1910, 1930 और 1931 में पारित कानूनों के समान प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने वाला था. इस कानून के पारित होने पर देश में जबरदस्त विरोध हुआ. द ऑल इंडिया न्यूज पेपरर्स एडिटरर्स कॉन्फ्रेंस (एआईएनपीएसी), द इंडियान फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (आईएफडब्ल्यूजे), और लंग्वेज न्यूज पेपर एसोशियन (एलएनपीए) ने इस कानून का विरोध किया, लेकिन फिर भी नेहरू नहीं माने और कानून लागू कर दिया. यही नहीं कांग्रेसी कुशासन का सबसे बड़ा उदाहरण इंदिरा गाँधी के समय में भी देखने को मिला है. देश में लगाये गये आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने का जो काम इंदिरा गाँधी ने किया वह अभूतपूर्व है. एक लेटर मिला है जो साबित करने के लिए काफी है कि इंदिरा गाँधी ने भी प्रेस की आजादी का दमन किया है. इंदिरा गाँधी ने आपातकाल के दौरान न केवल लोगों के नागरिक एवं मौलिक अधिकारों का दमन किया, लोकतंत्र की गरिमा पर आघात किया, बल्कि प्रेस की आजादी को भी कुचल डाला.
 
आजादी के बाद पहली बार इंदिरा सरकार ने 26 जून 1975 को केंन्द्रीय सेंसरशिप आदेश (सीसीओ) और प्रेस के लिए दिशानिर्देश (जीएफटीपी) जारी किया. 11 फरवरी 1976 को ‘‘प्रीवेन्सशन ऑॅफ पब्लिकेशन ऑफ ऑब्जेक्शनेबल मैटर एक्ट-1976’’ यानी आपत्तिजनक मामले की रोकथाम लिए अधिनियम-1976 को लागू कर दिया. हालांकि इंदिरा गाँधी ने 1971 में ही प्रेस की स्वतंत्रता को खत्म करने के लिए पहली बार कदम उठाने के लिए सोचा था. इंदिरा गाँधी ने एक ऐसा कानून तैयार करवाया, जिसमें समाचारपत्रों के मालिकों का एकाधिकार खत्म करने के प्रवाधान थे. ऐसे प्रावधान किए गए जिससे सरकार के प्रतिनिधियों को समाचार पत्रों के बोर्ड अधिक शक्ति मिले. हालांकि यह कानून की शक्ल नहीं ले सका. 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान इंदिरा गाँधी ने प्रेस की आजादी को यह कहते हुए खत्म कर दिया कि वह राष्ट्रीय नीति के विरूद्ध कार्य कर रहा है. इस दौरान वे सारी बंदिशें लगा दी गईं जो अंग्रेजों द्वारा प्रेस के ऊपर लगाए जाते थे.

राजीव गाँधी भी प्रेस की स्वतंत्रता को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. राजीव गांधी, प्रेस की आजादी और मुखरता को गलत मानते थे और अपनी सरकार के मुताबिक ही रखना चाहते थे. राजीव गाँधी ने लोकसभा से ‘‘मानहानि विधेयक-1988’’ पारित करवाकर प्रेस की आजादी को कुचलना चाहा, लेकिन पत्रकारों ने राजीव गाँधी की सरकार को मजबूर कर दिया कि वह यह विधेयक राज्यसभा में पेश न कर सके. एक और आँकड़े हैं जो हैरत में डाल देते हैं, वो ये हैं कि प्रेस की आजादी की बात करने वाले राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी ने यूपीए-2 के पाँच वर्षों के शासन काल में महज छह बार ही मीडिया से इंटरैक्शन किया है. उनमें से भी दो ऐसे मौके थे, जिनमें महज दो मिनट के लिए ही मीडिया का सामना किया.

नेहरू-गाँधी परिवार प्रेस की आजादी को कितना तवज्जो देते हैं इसका अंदाजा इस बात से भी लग जाता है कि राहुल गाँधी ने 2004 से राजनीति में आने के 10 साल बाद पहली बार किसी न्यूज चैनल को इंटरव्यू दिया. इसके साथ ही राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी इस बात का भी विशेष ख्याल रखते हैं कि उनके करीबी पत्रकारों से ही वे मिलें, ताकि कोई मुश्किल प्रश्न पेश न आए. यह बात यही खत्म नहीं होती है. वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी बीते 46 महीनों में 29 बार विभिन्न मीडिया संस्थानों, पत्रकारों से इस संदर्भ में बात-चीत कर चुके हैं. यही नहीं भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने भी 20 नवंबर 2012 को कह चुके हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता को ‘निश्चित तौर पर’ ‘कुचल’ दिया जाना चाहिए. यह बात अपने आप प्रमाणित करती है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने मिलकर प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने का काम किया है. जिसका परिणाम आज भी सामने देखने को मिल रहा है. 

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