खामोश चुनाव आयोग
"इस बाबत सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टीस फैजल ने भारतीय चुनाव आयोग के अधिकार संबंधित एक फैसला दिया है और यह फैसला आम सहमति से दिया गया है. फैसले में कहा गया है कि ‘‘चुनाव आयोग को अनियंत्रित अधिकार नहीं दिये जाने चाहिए. मगर, ऐसा किया गया है. अनियंत्रित अधिकार मिलने की वजह से चुनाव आयोग गबन का काम कर रहा है"
राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)
सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग ने खुद को शक्तिहीन और लाचार बताकर यह साबित करने की कोशिश की है कि पार्टियों और नेताओं के आगे आयोग बेबस हो गया है. परन्तु, इतना भर कहकर चुनाव आयोग छुटकारा नहीं पा सकता है. क्या यह बात वाकयी सत्य है कि चुनाव आयोग शक्तिहीन है? क्या यह बात सही नहीं मानी जा सकती है? हकीकत में चुनाव आयोग को उसकी शक्ति से ज्यादा अधिकार मिला हुआ है, यह बात पूरे दावे के साथ कहा जा सकता है. इस बाबत सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टीस फैजल ने भारतीय चुनाव आयोग के अधिकार संबंधित एक फैसला दिया है और यह फैसला आम सहमति से दिया गया है. फैसले में कहा गया है कि ‘‘चुनाव आयोग को अनियंत्रित अधिकार नहीं दिये जाने चाहिए. मगर, ऐसा किया गया है. अनियंत्रित अधिकार मिलने की वजह से चुनाव आयोग गबन का काम कर रहा है’’
बताते चलें कि नेताओं की हेड स्पीच के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने कहा कि, आयोग शक्तिविहीन है. आयोग के अनुसार, उन्हें नोटिस भेजने और जवाब मांगने का सीमित अधिकार है. आयोग के ही अनुसार नेताओं के खिलाफ सिर्फ केस ही दर्ज कराया जा सकता है. वे ना तो किसी नेता को अयोग्य करार दे सकता है और ना ही पार्टी की मान्यता रद्द कर सकता है. चुनाव आयोग ने मेनका गाँधी, योगी आदित्यनाथ, आजम खान सहित कई नेताओं के खिलाफ आचार-संहिता के उल्लंघन के तहत कार्रवाई की गई है. इसके बाद भी नेताओं द्वारा अनुपालन नहीं किया जा रहा है. इससे तो यही साबित होता है कि चुनाव आयोग के पास केवल पोजिशन है, पॉवर नेताओं के पास है. जबकि, ऐसा नहीं है. चुनाव आयोग के पास वो पॉवर संविधान में मिला हुआ है जो पॉवर किसी को नहीं है. कुल मिलाकर चुनाव आयोग जानबूझकर अपने आपको बेबस साबित करने की कोशिश कर रहा है.
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग दोनों को भारत के संविधान से शक्तियाँ मिली हैं. पिछली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि वह चुनाव आयोग के लिए थानेदार की भूमिका नहीं निभा सकता. बाम्बे हाईकोर्ट में सोशल मीडिया कम्पनियों के खिलाफ सुनवाई हो रही है, जिसमें चुनाव आयोग भी पार्टी है. हाईकोर्ट ने इस बारे में 29 मार्च को एक आदेश पारित किया, जिसके पैरा-14 में चुनाव आयोग की शक्तियों का उल्लेख है. सुप्रीम कोर्ट ने एडीआर मामले में चुनाव आयोग की शक्तियों का विश्लेषण करते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत चुनाव आयोग को असीमित शक्तियाँ मिली हुई हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करता है तो फिर चुनाव आयोग अनुच्छेद-324 के तहत अपनी शक्तियों और अधिकार क्षेत्र के बारे में क्यो भ्रमित है? अगर चुनाव आयोग चाहे तो संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल चुनाव को निष्पक्ष, पारदर्शी बनाने के लिए कर सकता है. अगर, स्वतंत्र अधिकार मिलने के बाद भी चुनाव आयोग अपनी शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर रहा है तो इससे साफ जाहिर होता है कि चुनाव आयोग लाचार और बेबस नहीं है, सरकार के दबाव में है.
इसके कई उदाहरण सामने है. पहला ही उदाहरण यह है कि चुनावों की घोषणा के बाद चुनाव आयोग ने सरकारी वेबसाइटों से मंत्रियों की फोटो हटाने का आदेश जारी किया था. इसके बावजूद राज्य और केन्द्र के मंत्रियों के सरकारी सोशल मीडिया एकाउंट जैसे फेसबुक और ट्वीटर पर कोई रोक नहीं लगाई गई. 2009 के चुनावों के बाद सोशल मीडिया का भारत में इस्तेमाल बढ़ा है. हमारे प्रतिवेदन पर चुनाव आयोग ने अक्टूबर 2013 में सोशल मीडिया के लिए आचार संहिता जारी तो किया लेकिन, 2014 के आम चुनावों में उन नियमों को पूरी तरह से लागू नहीं किया गया. दूसरा उदाहरण, 2019 का आम चुनाव सभी पार्टियों द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से लड़ा जा रहा है. कांग्रेस, भाजपा जैसी सभी पार्टियों ने आईटी सेल और वार रुम बनाये हैं. तकनीकी के नये दौर में चुनाव आयोग पार्टियों के आईटी सेल और वार रूम पर अंकुश लगाने की बजाए, लाचारी दिखाते हुए सोशल मीडिया कम्पनियों के लिए ऐच्छिक कोड बना दिया गया. जिन नेताओं पर बंदिश लगी है, उन्हें टीवी और सोशल मीडिया के माध्यम से ज्यादा प्रचार करने का मौका मिल रहा है.
इसके अलावा नेताओं द्वारा पार्टी के प्रतिनिधि के तौर पर चुनाव प्रचार किया जाता है तो फिर उनके बयानों के लिए आयोग पार्टी और उम्मीदवारों की जवाबदेही क्यों नहीं तय कर ही है? छुटपुट अपराधों के लिए आम जनता को गिरफ्तार कर लिया जाता है तो फिर लोकतन्त्र को संकट में डालने वाले नेताओं के खिलाफ एफआईआर की औपचारिकता मात्र क्यों की जाती है? जबकि चुनाव आयोग द्वारा ही राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन किया जाता है. तो क्या ऐसे नेताओं की नफरत और हेट स्पीच से लोकतन्त्र को बचाने के लिए आयोग दलों की मान्यता रद्द नहीं कर सकता है? कर सकता है. मगर, आयोग खुद ही एक राजनीतिक पार्टी का रोल निभा रहा है.
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