बुधवार, 1 मई 2019

भय, भूख और भ्रष्टाचार से त्रस्त झारखंड

भय, भूख और भ्रष्टाचार से त्रस्त झारखंड

अंदर-अंदर ही सुलग रहा मोदी सरकार के खिलाफ गुस्सा

राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)

एक जिंदा इंसान के लिए ‘‘रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा’’ की जरूरत होती है. अगर इन मौलिक आवश्यकताओं को खत्म कर दिए जाय तो एक इंसान के जीवन में कुछ नहीं रह जायेगा. कांग्रेस और बीजेपी इन्हीं मौलिक आवश्यकताओं को विगत कई सालों से खत्म करती जा रही हैं. इसका विभत्स नजारा झारखंड में देखने को मिला है. जहाँ भय, भूख और भ्रष्टाचार से त्राही-त्राही मची हुई है. इसी बीच एक और बात सुनने को मिली है कि वहाँ की जनता में डर है कि अगर वे बीजेपी के खिलाफ बोलेंगे तो उनपर हमला हो सकता है, किसी झूठे मुकदमे में फंसाए जा सकते हैं. परन्तु, अंदर ही अंदर मोदी के खिलाफ नफरत की आग सुलग रही है.

गौरतलब है कि झारखंड की हालत इतनी भयंकर बन चुकी है कि भूख, भय और भ्रष्टाचार के अलावा कोई मुख्य मुद्दा ही नहीं है. शहरों में लोगों के पास नौकरी हो सकती है, लेकिन गाँवों में महिला-पुरुष दोनों की कोई आमदनी है ही नहीं. वे काम की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं. कई जिलों में खेती भी ठप्प पड़ी है. तमाम दावों और वादों के बावजूद सरकार सिंचाई नेटवर्क बनाने में नाकाम रही है. अब काम नहीं होगा, खेती नहीं होगी, तो गरीब क्या करेगा? बच्चों को कैसे पालेगा? सरकारी राशन भी बहुत लोगों को नहीं मिलता. बहुत लोगों के पास आधार नहीं है, जिनके पास है तो बायोमेट्रिक काम नहीं करता है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि पानी की जबरदस्त कमी से पूरा राज्य जूझ रहा है. यहाँ तक कि शहरों में भी कभी-कभार ही पानी मिल रहा है. इसके बाद भी पानी जमा करने की कोई व्यवस्था है नहीं. सरकार ने जल भंडारण की कुछ इकाइयाँ बनाई थी, लेकिन उनका निर्माण इतना घटिया था कि वे भरभराकर गिर चुकी हैं. झारखंड में शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत इतनी ज्यादा खस्ता हो चुकी है कि लोग लंबे समय से अपनी मांगों के लिए आंदोलन कर रहे हैं. 

गौरतलब है कि झारखंड के सभी 24 जिले किसी न किसी तरह नक्सल समस्या से भी ग्रस्त हैं. एक और चुनाव विश्लेषक बताते हैं कि, अगर गाँव वाले नक्सलियों की मदद नहीं करेंगे तो गांव में रह नहीं पाएंगे, और अगर उनकी मदद करें तो पुलिस परेशान करती है. वे बताते हैं कि हाल ही में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ऐलान किया कि 2023 तक झारखंड से नक्सल समस्या को खत्म कर दिया जाएगा, लेकिन इसका उलटा असर हुआ है और राज्य में नक्सलियों की तादाद बढ़ रही है।

शहरों का चुनावी माहौल कुछ अलग ही अंदाज में है. जैसे ही आप शहर से बाहर निकलते हैं, तस्वीर बदल जाती है. झारखंड में मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार के खिलाफ एक अंदरूनी लहर सी है. दरअसल जनता और सरकारी कर्मचारियों में सरकार को लेकर जबरदस्त गुस्सा है. ये सब मोदी समर्थक हुआ करते थे, लेकिन बीएसएनल की हालत के बाद इन्हें भी चिंता सताने लगी है. बैंक कर्मचारी, सेल के कर्मचारी, सबके मन में आशंका है कि कहीं उनकी हालत भी बीएसएनएल जैसी न हो जाए. इसके अलावा झारखंड के आदिवासियों, कुम्हार, कहार, बढ़ई, लोहार, धनुक आदि ओबीसी के छोटे तबकों में भी गुस्सा है. सत्ता दल के खिलाफ मुस्लिमों और ईसाइयों की नाराजगी तो जगजाहिर है. झारखंड में बीते सालों में कम से कम 17 मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुई है, जिनमें 11 लोगों की जान गई. इनमें से 9 मुसलमान थे और दो आदिवासी. ऐसे में यह सारे समुदाय बीजेपी के खिलाफ लामबंद हो गये हैं.
 
अब यदि संविधान की अनुसूची 5-6 की बात करें तो आदिवासी बहुल राज्यों में आदिवासी की स्वायत्त शासन होना चाहिए. यानी इन राज्यों में गैरआदिवासी मुख्यमंत्री नहीं बन सकता है. दूसरी बात यह है आदिवासी बहुल राज्यों में कोई गौरआदिवासी उनकी जमीनें भी नहीं खरीद सकता है. परन्तु सरकारों की गलत नीतियों के कारण गैरआदिवासी बड़े-बड़े उद्योगपति उनके जमीनों पर जबरदस्ती कब्जा कर रहे हैं और उनको आदिवासियों को जल, जंगल और जमीनों से भगा रहे हैं.  यही मुख्य कारण है कि मध्यम प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में संविधान की 5-6वीं अनुसूची लागू नहीं है. जिसका दुष्परिणाम है कि आज आदिवासियों को नक्सलावाद के नाम पर मारा जा रहा है. जो आदिवासी अपने अधिकारों के लिए आंदोलन कर रहे हैं उन आदिवासियों को नक्सलवाद के नाम पर चुन-चुनकर मारा जा रहा है. आज जिस तरह से आदिवासियों को नक्सलावाद के नाम पर मारा जा रहा है उस तरह से लग रहा है कि आने वाला समय आदिवासियों को लिए और ज्यादा भयानक होने वाला है. इसलिए समय रहते हुए आदिवासियों को अपने अधिकार के लिए राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद् के साथ मिलकर संघर्ष करने की जरूरत है. पूरे देश में मात्र राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद् ही एक ऐसा संगठन है जो आदिवासियों के हक एवं अधिकार के लिए संघर्ष कर रहा है.

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