प्राथमिकता से दूर राजस्थान के आदिवासी
राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)
खाट पर पड़े ढेरों फटे कपड़े, कुछ बर्तन, बुझा चूल्हा, पीपे में थोड़े से सूखे आटे के साथ रखी कुछ रोटी और लोहे के संदूक के अलावा इस खपरैल ओढे ‘घर’ में भूखमरी, गरीबी, बीमारी के अलावा कुछ भी नहीं है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था के शिकार इन भील आदिवासियों को अपने अस्तित्व की लड़ाई ख़ुद ही लड़नी पड़ रही है.
राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर और प्रतापगढ़ जनजाति बहुल जिले हैं. जबकि, चित्तौड़गढ़, पाली, सिरोही और राजसमंद जिलों की कुछ तहसीलें जनजाति क्षेत्र में आती हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, इन आठ जिलों में 5696 गाँव हैं और इन गाँवों में रहने वाली जनसंख्या की 70.42 प्रतिशत आबादी आदिवासी या जनजाति हैं. वहीं पूरे राजस्थान की आबादी की 13.48 प्रतिशत जनसंख्या जनजाति समुदायों से आती है. लोकसभा चुनावों के मद्देनजर राजस्थान के चित्तौड़गढ़ की भदेसर तहसील के कई गाँव में आदिवासी भीलों की सामाजिक, आर्थिक और सरकारी योजनाओं तक उनकी पहुँच के बारे में पता लगाने से जो बात सामने आयी वो सरकारों की ओर से किए जा रहे विकास के तमाम दावों के उलट और हैरान करने वाली है.
यहाँ भील समुदाय के लोग भयंकर मुफलिसी के शिकार हैं. ऊँची जाति (ब्राह्मण एवं तत्सम जाति) के लोग भीलों से सिर्फ शराब या बहुत कम पैसों में खेती का काम कराते हैं. गरीबी की वजह से बीमारी इतनी है कि भदेसर में पाए जाने वाले टीबी के मरीजों में 90 प्रतिशत से ज्यादा भील समुदाय से आते हैं. उज्ज्वला जैसी सरकारी योजना इन गाँवों में पहुँची तो हैं लेकिन, ये लोग एक साल से भी ज्यादा वक्त से सिलेंडर रिफिल नहीं करा पाए हैं क्योंकि, इनके पास सिलेंडर भराने के लिए पैसे नहीं हैं.
भदेसर तहसील में करीब 162 गाँव आते हैं और इनमें से 77 गाँव भील जनजाति बहुल हैं. 2011 जनगणना के अनुसार, भदेसर तहसील की जनसंख्या 1.24 लाख है. इसमें से 62 हजार से ज्यादा की आबादी अनपढ़ है और 53 हजार लोग नॉन वर्कर हैं. भारत सरकार ने राजस्थान को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया है लेकिन, भदेसर तहसील की सुखवाड़ा ग्राम पंचायत के गणपतखेड़ा गाँव के लोग आज भी खुले में शौच के लिए जाते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि सरपंच ने हमसे यह कहकर शौचालय बनवा लिए कि बाद में सबको शौचालय का पैसा दे दिया जाएगा. गरीब ग्रामीणों ने जैसे-तैसे शौचालय बनाए लेकिन, आज तक किसी को एक रुपया भी नहीं मिला.
भदेसर तहसील में कुल 162 गाँव हैं और इनमें से करीब 77 गाँव में भील बहुतायत में रहते हैं. जिन गाँव में भील ज्यादा संख्या में नहीं हैं वहाँ ये लोग गाँव से बाहर किसी ढाणी में रहते हैं. गरीबी, नशाखोरी और पोषित खाना नहीं मिलने के कारण यहाँ टीबी की बीमारी सबसे आम है. आँकड़ों के अनुसार 2017 में भदेसर में 237, 2018 में 168 और 10 मार्च 2019 तक 38 मरीज टीबी के आ चुके हैं. 10 मार्च तक के आँकड़ों के मुताबिक ही निक्षय योजना के तहत टीबी के इलाज के लिए मिलने वाले 500 रुपये प्रति महीने की राशि अब तक 173 मरीजों को दी गई है और 143 मरीज अभी पेंडिंग हैं.
बता दें कि टीबी का इलाज लगातार छह महीने तक चलता है लेकिन अशिक्षा, अंधविश्वास के कारण भील जनजाति के कई लोग यह इलाज पूरा नहीं लेते और मौत के मुँह में समा जाते हैं. इस क्षेत्र के आसपास जिला मुख्यालय चित्तौड़गढ़ में ही सरकारी कॉलेज हैं जो कि हट्टीपुरा से करीब 30 किमी दूर है. गरीब आदिवासियों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे चित्तौड़गढ़ रहकर या रोजाना वहाँ जाकर तालीम हासिल कर सकें.
आदिवासियों के इन हालातों पर एक नजर दौड़ाएं तो पता चलेगा कि बीजेपी की उज्ज्वला, स्वच्छ भारत योजनाएं सिर्फ दिखाने के लिए हैं. इन योजनाओं की धरातल पर बुरी हालत है. पिछली सरकार ने जो कुछ काम आदिवासी और घूमंतु समुदाय के लिए शुरू भी की थीं तो बीजेपी सरकार ने बंद कर दी है. अब इन लोगों की समस्याओं पर ध्यान देना बंद कर दिया गया है. इन इलाकों में टीबी की समस्या सहित अन्य मामलों में आदिवासियों की सबसे ज्यादा बुरी हालत हो गयी है. देश में एक बार फिर से चुनाव हैं बल्कि, राजस्थान करीब चार महीने में ही दूसरा बड़ा चुनाव देख रहा है. लेकिन, चित्तौड़गढ़ के आदिवासी भील आज भी समाज की मुख्यधारा से सैकड़ों साल दूर हैं.
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