रविवार, 26 मई 2019

विनाशकारी जीत

क्या भाजपा की जीत को ‘भारत की जीत’ कहा जा सकता है?

राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)
नरेंद्र मोदी की जीत का भारत के लिए क्या अर्थ निकलता है? एक हद तक यह उन्हें और भाजपा को दावा करने का मौका देता है कि पिछले पाँच सालों में उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसके प्रति जनता ने अपना विश्वास जताया है, पर क्या यह सच है? सच तो यही है कि भाजपा की यही जीत देश के लिए विनाशकारी साबित होने वाला है. इस बात का खुलासा विदेशी मीडिया ‘द गार्डियन और न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने भी अपने संपादकीय और लेख में कर दिया है. अकूत धनबल के सहारे चलाए गए उनके चुनाव अभियान में बहुत होशियारी से पाँच साल पहले 2014 में उनके किए गए विकास के वादों का कोई जिक्र नहीं किया गया. इसकी जगह उनका भरोसा हिंदुओं के दिमाग में मुसलमानों को लेकर भय पैदा करने और खुद को आतंकवाद को हराने में सक्षम एकमात्र भारतीय नेता के तौर पर पेश करने पर ज्यादा था.


इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि ‘‘ईवीएम मेहराबान तो गधा भी पहलवान’’ वाली कहावत को चरितार्थ किया गया है. शायद ईवीएम नहीं होता तो यह घमण्ड चकनाचूर हो गया होता. लेकिन, इस बात को छुपान के लिए मोदी ने खुले तौर पर पुलवामा आत्मघाती हमले में शहीद हुए अर्धसैनिक बलों के जवानों का इस्तेमाल एक चुनावी हथियार के तौर पर किया और मर्यादाओं को तार-तार करते हुए उनके नाम पर वोट मांगने से भी नहीं चूके. उन्हें इस बात से भी मदद मिली कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी बीजेपी को अंदर से हर संभव मदद करती रही. 

ध्रुवीकरण करने वाले ये बयान टेलीविजन पर लाइव दिखाए गए और पूरे देश में भाजपा के प्रोपगैंडा तंत्र द्वारा इन्हें फैलाया गया, जिसने यह सुनिश्चित किया कि यह जहर दूर-दूर तक चारों तरफ फैल जाए. असम और पश्चिम बंगाल में इसने बांग्लादेश से आने वाले अप्रवासियों के लिए धर्म आधारित नागरिकता भाजपा के प्रस्ताव को खाद-पानी देने का काम किया. जब चुनाव आयोग ने यह जता दिया कि वह आदर्श आचार संहिता के इतने खुलेआम उल्लंघनों के लिए मोदी पर किसी तरह की कोई कार्रवाई या उन्हें चेतावनी तक देने तक के लिए तैयार नहीं है, तब मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर खड़ा कर दिया. उनकी उम्मीदवारी न सिर्फ हिंदू कट्टरता, बल्कि आतंकवाद, हिंसा और मुस्लिमों के खिलाफ आतंक को बढ़ावा देने का प्रतीक था. उम्मीदवार बनाए जाने के बाद प्रज्ञा ठाकुर का पहला बयान 2008 में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की (पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा) हत्या के समर्थन का था, क्योंकि उन्होंने उनपर (प्रज्ञा ठाकुर पर) मुस्लिमों को मारने के लिए बम रखने का आरोपी बनाया था. लेकिन मोदी ने काफी सचेत तरीके से उस राजनीति की कोई आलोचना नहीं की.अगर मोदी नियमों के दायरे में रहते हुए, पूरी तरह से अपनी ‘उपलब्धियों’ और उनको लेकर जनता की धारणा और विपक्ष के नेताओं पर जनता के विश्वास के न होने पर पर भरोसा करते हुए यह चुनाव जीतते तो बात अलग होती. लेकिन यहाँ तो ईवीएम घोटाले से चुनाव जीता गया है. 

भाजपा का बचाव करने वाले अब यह अनुमान लगा रहे हैं कि मोदी अब चुनाव के आखिरी चरण से पहले की गई अपनी कोशिश से भी ज्यादा शिद्दत से प्रज्ञा ठाकुर से दूरी बनाएंगे. लेकिन एक आतंकवादी को न केवल टिकट दिया गया, बल्कि उसको संसद में पहुँचाया जा चुका है. यह इस बात का संकते है कि मोदी का उद्देश्य इस देश की रगों में एक वायरस घोलने का है. मोदी की अचंभित कर देने वाली जीत के तीन और पहलू हैं, जिनसे हमें चिंतित होना चाहिए. पहला, ईवीएम में घोटाला. दूसरा धनबल का इस्तेमाल, जिसमें उनकी मदद उनके ही द्वारा बनाए गए कानून ने की, जो जनता को प्रधानमंत्री के धनवान और शक्तिशाली दोस्तों की पहचान जानने से रोकता है. इन कॉरपोरेट मित्रों ने ही भाजपा के बेहद खर्चीले चुनाव अभियान और विज्ञापन बजट का खर्चा उठाया. इस विज्ञापन बजट में एक 24 घंटे का प्रोपगंडा चैनल भी था जो रहस्यमय तरीके से टीवी के पर्दे पर आया और गायब हो गया और चुनाव आयोग हाथ पर हाथ रखकर नियमों की धज्जियाँ उड़ते देखता रहा. 

दूसरी बात, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा निजी टीवी चैनलों द्वारा मोदी और शाह की रैलियों को बाकियों की तुलना में बहुत ज्यादा समय दिया गया. इसके अलावा, पिछले पाँच सालों में मीडिया के बड़े वर्ग ने भाजपा के बांटने और भटकाने वाले एजेंडा को आगे बढ़ाने, सार्वजनिक क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने और सरकार की असफल नीतियों के आलोचनात्मक मूल्यांकन को भोथरा करने में सक्रिय तरीके से मदद की है. पिछले कुछ वर्षों में मीडिया के इस धड़े ने संघ परिवार के सांप्रदायिक संदेश ‘लव जिहाद’ से लेकर अयोध्या तक और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भाजपा के बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले दावों को आगे बढ़ाने के रास्ते के तौर पर काम किया है. मंत्रियों द्वारा बोले जाने वाले सफेद झूठों में जैसे निर्मला सीतारमण का यह दावा कि मोदी के कार्यकाल में कोई आतंकी हमला नहीं हुआ! पर किसी ने कोई सवाल उठाना मुनासिब नहीं समझा.

मीडिया के जिस धड़े ने मोदी सरकार के एजेंडा को आगे बढ़ाने का इंजन बनने से इनकार कर दिया, उसे मानहानि के मुकदमों, सीबीआई या टैक्स पड़ताल या ऐसी ही किसी कार्रवाई का सामना करना पड़ा. सोशल मीडिया पर जो आलोचना का एक स्रोत है, पर एक डर का माहौल बनाने के लिए और उस पर पहरेदारी बैठाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं और दंडवत पुलिसकर्मियों द्वारा देश के साइबर कानूनों का नियमित तौर पर और गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया. तीसरा, हाल के इतिहास में इस बार चुनाव आयोग का कामकाज सबसे ज्यादा पक्षपातपूर्ण रहा. चुनाव आयोग न सिर्फ मोदी और भाजपा द्वारा जन-प्रतिनिधि कानून और आदर्श आचार संहिता के खुलेआम उल्लंघनों पर कार्रवाई करने में नाकाम रहा, बल्कि इसने कई ऐसे फैसले भी लिए, जो सीधे तौर पर पार्टी को फायदा पहुँचाने वाले थे.

ऐसे में यह देश के ज्यादा सांप्रदायीकरण, निर्णय लेने के ज्यादा केंद्रीकरण, ज्यादा मनमानेपन से भरे नीति-निर्माण, कॉरपोरेटों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए ज्यादा गुंजाइश, आजाद मीडिया के प्रति ज्यादा दुश्मनी भरा भाव और निश्चित तौर पर विरोध के प्रति ज्यादा असहिष्णुता के लिए मंच तैयार करने वाला है. उच्च न्यायपालिका और केंद्र-राज्य संबंध अब ये दोनों मोदी सरकार के निशाने पर होंगे. अर्थशास्त्री नितिन देसाई के मुताबिक जहाँ तक न्यायपालिका का सवाल है, यह तय है कि भाजपा नियुक्तियों पर प्रभाव डालकर इस पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश करेगी. इस विनाशकारी एजेंडा के खिलाफ विपक्ष का अनमने ढंग से चलाया जाना अभियान कारगर नहीं होगा, होगा क्योंकि विपक्षी पार्टी भी उसी का एक अंग है. इसलिए बीजेपी की जीत ईमानदारी की जीत नहीं है, बल्कि ईवीएम की विनाशकारी जीत है.

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